tag:blogger.com,1999:blog-37403125069651121522024-02-19T06:51:32.000-08:00जसम लखनऊजन संस्कृति मंच, लखनऊ की पत्रिकाकौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.comBlogger49125tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-26422643746398621342011-06-03T07:26:00.000-07:002011-06-03T07:31:17.133-07:00शमशेर, केदार व नागार्जुन जन्मशती समारोह "काल से होड़ लेती कविता "<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPw6C_hHgRsAB7neQXJcG0ioWskehCYT4dtdQ80gXr3KytgJE01GgHYORC3nN6YAgWFtw82QfCzN9etXkbzvk6r0sTFgfHfbb2r9hwOLtfiReuSQGxCdiiGAf2oqnONWHrOPp3lZMO8fM/s1600/014+%25281%2529.JPG" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPw6C_hHgRsAB7neQXJcG0ioWskehCYT4dtdQ80gXr3KytgJE01GgHYORC3nN6YAgWFtw82QfCzN9etXkbzvk6r0sTFgfHfbb2r9hwOLtfiReuSQGxCdiiGAf2oqnONWHrOPp3lZMO8fM/s320/014+%25281%2529.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5614000459834182834" /></a><br /><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" ><b>कौशल किशोर</b></span></div><div><br /></div><div>शमशेर, केदार और नागार्जुन न सिर्फ प्रगतिशील आंदोलन की उपज हैं बल्कि ये हिन्दी की प्रगतिशील काव्यधारा के निर्माता भी हैं। इनका एक ही साथ जन्मशताब्दी का होना महज संयोग हो सकता है लेकिन अपने समय व समाज में काल से होड़ लेने की इनकी प्रवृति कोई संयोग नहीं है। शमशेर तो ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ जैसी कविता तक रच डालते हैं: ‘काल तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू - तुझमें अपराजित मैं वास करूँ‘‘। अपराजित का यह भाव काल से गुत्थम गुत्था होने या एक कठिन संघर्ष में शामिल होने से ही पैदा होता है </div><div>और यह भाव इन तीनों कवियों में समान रूप से मौजूद है। यही बात है जो अपनी काव्यगत विशिष्टता के बावजूद ये प्रगतिशील कविता की त्रयी निर्मित करते हैं। इसीलिए इनके जन्मशताब्दी वर्ष पर इन्हें याद करना मात्र स्मरण करने की औपचारिकता का निर्वाह नहीं हो सकता बल्कि इसके द्वारा प्रगतिशील और संघर्षशील कविता की जड़ों को समझना है। </div><div><br /></div><div>इसी समझ के साथ लखनऊ में 29 मई 2011 को जन संस्कृति मंच की ओर से ‘काल से होड़ लेती कविता’ शीर्षक से शमशेर, केदार व नागार्जुन जन्मशती समारोह का आयोजन स्थानीय जयशंकर प्रसाद सभागार में किया गया जिसके मुख्य वक्ता थे प्रसिद्ध आलोचक व जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष डॉ मैनेजर पाण्डेय तथा आयोजन की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने की। कार्यक्रम तीन हिस्सों में बँटा था जिसका पहला हिस्सा इन कवियों के कविता पाठ, चन्द्रेश्वर के कविता संग्रह ‘अब भी’ के लोकार्पण तथा उनके कविता पाठ का था। कार्यक्रम के दूसरे भाग में ‘हमारे वक्त में शमशेर, केदार व नागार्जुन का महत्व व प्रासंगिकता’ पर व्याख्यान था तथा अन्तिम भाग में ‘हमारे सम्मुख शमशेर’ से शमशेर के कविता पाठ की वीडियो फिल्म का प्रदर्शन था।</div><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" ><b><i>कविता पाठ व ‘अब भी’ का लोकार्पण </i></b></span></div><div><br /></div><div>कार्यक्रम का आरम्भ भगवान स्वरूप कटियार द्वारा शमशेर की कविता ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ के पाठ से हुआ। उन्होंने शमशेर की कविता ‘बात बोलेगी’ तथा ‘ निराला के प्रति’ का भी पाठ किया। ‘जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है/तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है/जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है/जो रवि के रथ का घोड़ा है/वह जन मारे नहीं मरेगा/नहीं मरेगा’ केदार की इस प्रसिद्ध कविता का पाठ किया ब्रहमनारायण गौड़ ने। उन्होंने केदार की कविता ‘मजदूर का जन्म’ व ‘वीरांगना’ भी सुनाईं। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने नागार्जुन की दो कविताओं ‘अकाल और उसके बाद’ तथा ‘लजवन्ती’ का पाठ किया। </div><div><br /></div><div>जन्मशती समारोह में मैनेजर पाण्डेय ने चन्द्रेश्वर के कविता संग्रह ‘अब भी’’ का लोकार्पण किया तथा चन्द्रेश्वर ने अपने इस संग्रह से ‘यकीन के साथ’, ‘उस औरत की फाइल में’, ‘हाफ स्वेटर’, ‘उनकी कविताएँ’, ‘कितना यकीन’ और ‘यह कैसा समय’ शीर्षक से कई कविताएँ सुनाईं और अपनी कविता के विविध रंगों से उपस्थित लोगों का परिचय कराया। उनकी कविता की ये पंक्तियाँ बहुत अन्दर तक संवेदित करती रहीं: ‘क्या आप यकीन के साथ कह सकते हैं/कि यह आप की ही कलम है/कि यह आपका चश्मा/आप का ही है/कि आपके ही हैं/ये जू</div><div>ते..... कितना अजीब है/ यह समय/कितना घालमेल/चीजों का/आप यह भी नहीं कह सकते/कि यही है... हाँ/यही है मेरा देश’।</div><div><br /></div><div>‘अब भी’ का लोकार्पण करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि चन्द्रेश्वर की कविताएँ उस पेड़ की डाली हैं जिसकी जड़ें हैं नागार्जुन, केदार, शमशेर, त्रिलोचन और मुक्तिबोध। ये कविताएँ आज के समय के सवालों से टकराती हैं। यह ऐसा समय है जब सामाजिक संवेदनशीलता धीरे.धीरे नष्ट हो रही है। किसी को दूसरे के सुख.दुख से मतलब नहीं है। मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है। चन्द्रेश्वर की कविताएँ इस क्षरण को दर्ज करने वाली कविताएँ हैं। ये व्यवस्था विरोध की कविताएँ हैं और चन्द्रभूषण तिवारी जैसे इंकलाब चाहने वाले वामपंथी बुद्धिजीवी से प्रेरणा लेती है। चन्द्रेश्वर अपनी कविताओं से शमशेर, केदार व नागार्जुन की प्रगतिशील काव्यधारा की परम्परा</div><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjc36TUQHdKXey5iOa84CluUZN9fZ0rYQRVWYsQ_MNX8S4E0knhnaXjFG_ClI3K56Utc74V4LOgurVvG4jjD8LM531yRjwt7iconSCTK4bpEc8lcCQRyZ0G6tyIvvzjQfVX0Yf2BmG_XEg/s320/020+%25281%2529.JPG" style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5614000647466053634" /><div> को आज के समय में आगे बढ़ाते हैं।</div><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" ><b><i>हमारे वक्त शमशेर, केदार व नागार्जुन</i></b></span></div><div><br /></div><div>जन्मशती आयोजन में चर्चा का मुख्य विषय ‘शमशेर, केदार व नागार्जुन का महत्व व प्रासंगिकता’ था जिसके मुख्य वक्ता मैनेजर पाण्डेय थे। उन्होंने अपने व्याख्यान को मुख्यतौर से नागार्जुन व शमशेर की कविताओं पर केन्द्रित किया। उन्होंने चर्चा की शुरुआत आज के दौर से की और कहा कि यह स्मृतिहीनता का समय है। आज का सच यह है कि राजनीतिक दल अपने ही निर्माताओं को भूलने में लगे हैं। राजनीतिक नेता स्वाधीनता आन्दोलन के मूल्यों को भूला चुके हैं। उन्हें याद करें तो अपने अन्दर अपराध बोध होगा। मनमोहन सिंह यदि नेहरू को याद करें तो उन्हें नींद नहीं आयेगी। इन्दिरा गाँधी ने संविधान में संशोधन कर ‘समाजवाद’ शब्द शामिल किया था लेकिन यह सरकार जिस पूँजीवाद पर अमल कर रही है, वह लूट और झूठ की व्यवस्था है जहाँ ‘सत्यम’ सबसे बड़ा ‘झूठम’ साबित हुआ। संविधान का शपथ लेकर सरकार बनती है लेकिन आज वह अपने ही संविधान के विरुद्ध काम करती है। आज लोकतंत्र के ‘लोक’ का सरकारीकरण हो चुका है और वह ‘लोक सेवा आयोग’ और ‘लोक निर्माण विभाग’ में सिमट कर रह गया है। ऐसे में हमारे लिएं लोक और लोकतंत्र की जगह जन और जनतंत्र का इस्तेमाल करना ज्यादा बेहतर है।</div><div><br /></div><div>नागार्जुन की कविताओं पर चर्चा करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि कविता वही जनतांत्रिक होती है जो जनता के लिए, जनता के बारे में, जनता की भाषा में लिखी जाय। इस अर्थ में नागार्जुन जनतंत्र के सबसे बड़े कवि हैं, संरचना, कथ्य और भाषा तीनों स्तरों पर। जब नागार्जुन कहते हैं कि ‘जन कवि हूँ/ साफ कहूँगा/ क्यों हकलाऊँ’’, तो उनके सामने उनकी दिशा स्पष्ट है। कवि जिसके लिए लिखता है, कथ्य व भाषा का चुनाव वह उसी के अनुरूप करता है। यह खासियत नागार्जुन की कविताओं में है। पर आज कुछ कवियों की कविताओं में हकलाहट है। आखिर यह हकलाहट कब आती है ? जब कविता से सुविधा पाने की चाह होती है तो मन में दुविधा आती है और जब मन में दुविधा होती है तो कंठ में हकलाहट का पैदा होना स्वाभाविक है।</div><div><br /></div><div>नागार्जुन के काव्यलोक पर बोलते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि भारत जितना व्यापक और विविधताओं से भरा है, नागार्जुन का काव्यलोक भी उतना ही व्यापक और विविधतापूर्ण है। उन्होंने कश्मीर, केरल, मिजोरम और गुजरात पर कविताएँ लिखीं। उŸार से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम तक सारे भारत का भूगोल नागार्जुन की कविताओं में समाहित हैं। भाषा के स्तर पर भी नागार्जुन कई भाषाओं के कवि हैं। मूल रूप से मैथिली के कवि और हिन्दी के महाकवि नागार्जुन ने संस्कृत और बांग्ला में भी कविताएँ लिखी हैं। </div><div><br /></div><div>मैनेजर पाण्डेय का कहना था कि आमतौर पर नागार्जुन को राजनीतिक कविताओं का कवि माना जाता है। इसकी वजह यह है कि उन्होंने नेहरू, इन्दिरा, मोरारजी, चरण सिंह से लेकर राजीव गाँधी तक अपने समय के दर्जनों राजनेताओं पर कविताएँ लिखीं और उन्हें अपनी कविता का निशाना बनाया। उन्होंने नागभूषण पटनायक जैसे क्रान्तिकारियों पर भी कविताएँ लिखीं। पर राजनीति ही उनकी कविता का विषय नहीं रहा है। बाबा नागार्जुन ने भारतीय सामाजिक जीवन पर भी ढ़ेर सारी कविताएँ लिखी हैं। यहाँ मनुष्य का दुख ही नहीं है बल्कि उसका सम्पूर्ण परिवेश है जहाँ कानी कुतिया, छिपकली, कौआ आदि सब मौजूद हैं जिनसे मनुष्य का रिश्ता है। कोई पूँजीवाद धरती का विस्तार नहीं कर सकता लेकिन वह जीवन, प्रकृति और संस्कृति का दोहन व लूटने तथा नष्ट करने में लगा है। बाबा की कविताएँ पूँजीवाद के प्रतिरोध की कविताएँ हैं। उनके हर संग्रह में प्रकृति सम्बन्धी कविताएँ मिल जायेंगी।</div><div><br /></div><div>नागार्जुन की काव्यभाषा की चर्चा करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि आमतौर पर तीन तरह के कवि होते हैं। पहली श्रेणी में ऐसे कवि हैं जिनकी कविता की उठान तो बड़ी अच्छी होती है पर तीन कदम चलने के बाद ही भाषा लड़खड़ाने लगती है। दूसरी श्रेणी में हिन्दी के अधिकांश कवि हैं जिनकी कविता की भाषा शुरू से अन्त तक साफ, सुथरी व संतुलित है। पर बड़े कवि वे हैं जहाँ काव्य भाषा के जितने स्तर व रूप हैं, वे वहाँ है, सरलतम से लेकर सघनतम तक। तुलसीदास में जहाँ सरल चौपाइयाँ हैं, वहीं कवितावली व विनय पत्रिका की भाषा अलग है। निराला में ‘भिक्षुक’ कविता है तो ‘राम की शक्तिपूजा’ में काव्यभाषा का स्तर व रूप बिल्कुल भिन्न है। यही विशेषता नागार्जुन में मिलती है जो उन्हें महाकवि बनाती है।</div><div><br /></div><div>शमशेर बहादुर सिंह की कविता के सम्बन्ध में मैनेजर पाण्डेय ने अपने वक्तव्य की शुरुआत इस प्रश्न से की कि शमशेर की कविता को कैसे न पढ़े और कैसे पढ़ें ? उनका कहना था कि आलोचकों ने शमशेर को मौन का कवि कहा है। दरअसल मौन वहाँ होता है जहाँ एक साधक अपने इष्ट से या एक भक्त अपने ईश्वर से साक्षात्कार करता है या फिर दुख में व्यक्ति मौन की स्थिति में होता है। यह विचार शमशेर जैसे कवि के बारे में कही जा रही है जिसके शब्द खुद बोलते हैं ‘बात बोलेगी/भेद खोलेगी/बात ही’ और कवि स्वयं काल से होड़ लेता है। यह रहस्यवादी आलोचना है जिसका काम सारी प्रगतिशील कविता को इसके जरिये ठिकाने लगाने की कोशिश है। इसके बरक्स भैतिकवादी आलोचना है जो मानती है कि भाषा मनुष्य को जीवन.जगत और एक.दूसरे से जोड़ती है। इसीलिए शमशेर की कविता को समझने के लिए जिन्दगी को समझना जरूरी है, हिन्दी.उर्दू की परम्परा को भी समझना जरूरी है।</div><div><br /></div><div>शमशेर के काव्य के सम्बन्ध में मैनेजर पाण्डेय का कहना था कि बड़ी कविता वह है जो संकट के समय व्यक्ति के काम आये। शमशेर प्रकृति, संस्कृति और जिन्दगी के कवि हैं। गोस्वामी तुलसीदास की एक चौपाई है ‘पीपल पात सरिस मन डोला....’ । इन पंक्तियों का अर्थ वही समझ सकता है जिसने पीपल के पŸो का स्वभाव देखा है। शमशेर के काव्य को समझने के लिए उस अनुभव से गुजरना जरूरी है जिस अनुभव से ये कविताएँ सृजित हुई हैं। जिसने माउंट आबू की झील में डूबते सूर्य को नहीं देखा, वह उनकी इस प्राकृतिक क्रिया पर लिखी कविता के भाव को कैसे समझ सकता है।</div><div><br /></div><div>मैनेजर पाण्डेय का कहना था कि यह रहस्यवादी आलोचना या आलोचना की खण्डित व एकांगी दृष्टि है जिसकी वजह से शमशेर कभी मौन के कवि नजर आते हैं तो कभी प्रेम व सौंदर्य के और कभी ऐन्द्रिकता के। शमशेर तो ‘सत्य का क्या रंग, पूछो एक संग’ के कवि हैं। उनकी नजर में तो सारी कलाएँ एक.दूसरे से जुड़ी हैं। शमशेर के यहाँ हिन्दी.उर्दू की एकता है और वे अपनी रचनाओं में काल से होड़ लेते हुए अपने समय के साथ उपस्थित होते हैं। वे ‘धर्मों के जो अखाड़े हैं, उन्हें लड़वा दिया जाय/क्या जरूरत हिन्दोस्ताँ पर हमला किया जाय।’ जैसा व्यंग्य करते हैं। अपने निहित स्वार्थ के लिए धर्म के इस्तेमाल पर चोट करते हैं, तो ‘अमन का राग’ के द्वारा शान्ति का राग छेड़ते हैं। शमशेर जटिल भी है और सरल भी। इसीलिए शमशेर पोपुलर नहीं, एक जरूरी कवि हैं।</div><div><br /></div><div>केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं पर युवा आलोचक सुधीर सुमन ने अपना वक्तव्य रखा। उनका कहना था कि केदार देशज आधुनिकता के कवि हैं जिनकी कविताएँ अपनी परम्परा और इतिहास से गहरे तौर पर जुड़ी हुई है। उनके जीवन और कविता में जनता के स्वाभिमान, संघर्ष चेतना और जिन्दगी के प्रति एक गहरी आस्था मौजूद है। पूँजीवाद जिन मानवीय मूल्यों और सौंदर्य को नष्ट कर रहा है, उस पूँजीवादी संस्कृति और राजनीति के प्रतिवाद में केदार ने अपनी कविताएँ रचीं। उनकी कविताओं में जो गहरी उम्मीद है, किसान मेहनतकश जनता की जीत के प्रति , वह आज भी हमें ऊर्जावान बनाने में सक्षम है।</div><div><br /></div><div>कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि आजकल कविता के प्रति अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ है। यह सुखद है कि आज इस कार्यक्रम में कविता पर बात.विचार के लिए अच्छी तादाद में लोग यहाँ एकत्र हुए हैं। उन्होंने शंकर शैलेन्द्र का उदाहरण देते हुए बताया कि उनका लिखा गीत ‘हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ लाखों संघर्षशील जनता की जबान पर है। मानस की चौपाइयाँ लोगों को याद है। पर आज कवि को अपनी ही कविता याद नहीं रहती। उन्हें कविता पढ़ने के लिए अपनी डायरी का सहारा लेना पड़ता है। इस स्मृतिहीनता के कारण क्या कहीं कविता के भीतर तो मौजूद नही है ?</div><div><br /></div><div>नरेश सक्सेना का कहना था कि शमशेर की कविताएँ खास तरह की हैं। शब्द सरल हैं, पर व्यंजना कठिन है। शमशेर व नागार्जुन ने अपनी कविता में सभी कलाओं का इस्तेमाल किया है। ‘बहुत दिना चूल्हा रोया, चक्की रही उदास’ कहरवा में है तो ‘प्रात नम था.......’ धमाल है। हम कविता के पास उसमें छिपे सौंदर्य व आनन्द की प्राप्ति के लिए जाते हैं। कविता यह काम करती है तभी वह मौन और सन्नाटे को तोड़ती सकती है।</div><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" ><b><i>हमारे सम्मुख शमशेर</i></b></span> </div><div><br /></div><div>कार्यक्रम के अन्तिम सत्र में शमशेर के कविता पाठ की वीडियो फिल्म दिखाई गई। इस फिल्म के माध्यम से शमशेर सामने थे। लोगों ने उन्हें अपनी कविता पढ़ते हुए देखा। इस फिल्म में उनके सभी संग्रहों - ‘कुछ कविताएँ’, ‘कुछ और कविताएँ’, ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ और ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ से कविताएँ थी। कविता प्रेमियों के लिए यह नया अनुभव था। शमशेर के मुख से लोगों ने उनकी गजलें भी सुनीं।</div><div><br /></div><div>इस जन्मशती आयोजन में लखनऊ और अन्य जिलों से आये लेखकों, साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों की अच्छी.खासी उपस्थिति थी जिनमें रमेश दीक्षित, शोभा सिंह, शकील सिद्दीकी, वीरेन्द्र यादव, सुभाष राय, वंदना मिश्र, दयाशंकर राय, प्रभा दीक्षित व कमल किशोर श्रमिक ;कानपुरद्ध, राजेश कुमार, ताहिरा हसन, दिनेश प्रियमन ;उन्नावद्ध, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, शैलेन्द्र सागर, राकेश, अशोक चौधरी व मनोज सिंह ;गोरखपुरद्ध, चितरंजन सिंह ;इलाहाबादद्ध, सुशीला पुरी, अनीता श्रीवास्तव, विमला किशोर, मंजु प्रसाद, श्याम अंकुरम आदि प्रमुख थे। कार्यक्रम के अन्त ंमें मार्क्सवादी आलोचक चन्द्रबली सिंह के निधन पर दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई।</div><div><br /></div><div>एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017</div><div>मो - 08400208031, 09807519227</div><div><br /></div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-74471856773452831192011-05-25T06:31:00.000-07:002011-05-25T06:34:50.771-07:00कामरेड चन्द्रबली सिंह को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि<span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; "><div><div id=":16v" class="ii gt" style="margin-top: 5px; margin-right: 15px; margin-bottom: 5px; margin-left: 15px; padding-bottom: 20px; position: relative; z-index: 2; "><div id=":16u"><span class="Apple-style-span" > २५ मई, दिल्ली. </span><br /><span class="Apple-style-span" >हिन्दी के सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक , संगठनकर्ता और विश्व कविता के श्रेष्टतम अनुवादकों में शुमार कामरेड चन्द्रबली सिंह का विगत २३ मई को ८७ वर्ष की आयु में बनारस में निधन हो गया. चन्द्रबली जी का जाना एक ऐसे कर्मठ वाम बुद्धिजीवी का जाना है जो मार्क्सवादी सांस्कृतिक आन्दोलन के हर हिस्से में बराबर समादृत और प्रेरणा का स्रोत रहा. </span><br /><span class="Apple-style-span" > चन्द्रबली जी रामविलास शर्मा , त्रिलोचन शास्त्री की पीढी से लेकर प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों की युवतम पीढी के साथ चलने की कुव्वत रखते थे. वे जनवादी लेखक संघ के संस्थापक महासचिव और बाद में अध्यक्ष रहे. उससे पहले तक वे प्रगतिशील लेखक संघ के महत्वपुर्ण स्तम्भ थे. जन संस्कृति मंच के साथ उनके आत्मीय सम्बन्ध ताजिन्दगी रहे. बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद राष्ट्रीय एकता अभियान के तहत सांस्कृतिक संगठनों के साझा अभियान की कमान बनारस में उन्ही के हाथ थी और इस दौर में उनके और हमारे संगठन के बीच जो आत्मीय रिश्ता कायम हुआ , वह सदैव ही चलता रहा. उनके साक्षात्कार भी समकालीन जनमत में प्रकाशित हुए. चन्द्रबली जी वाम सांस्कृतिक आन्दोलन के समन्वय के प्रखर समर्थक रहे. </span><br /><span class="Apple-style-span" > चन्द्रबली जी ने मार्क्सवादी सांस्कृतिक आन्दोलन के भीतर की बहसों के उन्नत रूप और स्तर के लिए हरदम ही संघर्ष किया. 'नयी चेतना' १९५१ में उनका लेखा छपा था, 'साहित्य में संयुक्त मोर्चा'. ( बाद में वह 'आलोचना का जनपक्ष' पुस्तक में संकलित भी हुआ). चन्द्रबली जी ने इस लेख में लिखा, "सबसे अधिक निर्लिप्त और उद्देश्यपूर्ण आलोचना- आत्मालोचना कम्यूनिस्ट लेखकों और आलोचकों की और से आनी चाहिए. उन्हें अपने भटकावों को स्वीकार करने में किसी प्रकार की झेंप या भीरुता नहीं दिखलानी चाहिए, क्योंकि जागरूक क्रांतिकारी की यह सबसे बड़ी पहचान है कि वह आम जनता को अपने साथ लेकर चलता है और वह यह जानता है कि दूसरों की आलोचना के साथ साथ जबतक वह अपनी भी आलोचना नहीं करता तब तक वह न सिर्फ जनता को ही साथ न ले सकेगा, वरन स्वयं भी वह अपने लिए सही मार्ग का निर्धारण नहीं करा पाएगा दूसरों की आलोचना में भी चापलूसी करने की आवश्यकता नहीं , क्योंकि चापलूसी उन्हें कुछ समय तक धोखा दे सकती है, किन्तु उन्हें सुधार नहीं सकती. मैत्रीपूर्ण आलोचना का यह अर्थ नहीं कि हम दूसरों की गलतियों को जानते हुए भी छिपा करा रखें. मार्क्सवादी आलोचना-आत्मालोचना के स्तर और रूप की यही विशेषता होनी चाहिए कि हम उसके सहारे आगे बढ़ सकें. " आज से ६० साल पहले लिखे गए इस लेख में आपस में और मित्रों के साथ पालेमिक्स के रूप, स्तर और उद्देश्य की जो प्रस्तावना है वह आज और भी ज़्यादा प्रासंगिक है. उन्होंने अपने परम मित्र और साथी रामविलास शर्मा के साथ अपने लेखों में जो बहसें की हैं वे स्वयं उनके बनाए निकष का प्रमाण हैं. </span><br /><span class="Apple-style-span" >उनकी आलोचना की दोनों ही पुस्तकें 'आलोचना का जनपक्ष' तथा 'लोकदृष्टि और हिंदी साहित्य' दस्तावेजी महत्त्व की हैं. इनमें हिंदी साहित्य और संस्कृति के प्रगतिशील अध्याय के तमाम उतार- चढ़ाव, बहसों और उपलब्धियों की झांकी ही नहीं मिलती , बल्कि आज के संस्कृतिकर्मी और अध्येता के लिए इनमें तमाम अंतर्दृष्टिपूर्ण सूत्र बिखरे पड़े हैं. </span><br /><span class="Apple-style-span" > </span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; ">पाब्लो</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; ">नेरूदा</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "> ,</span><span class="Apple-style-span" ><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; ">नाजिम</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; ">हिकमत</span><span class="Apple-style-span" ><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span></span><i style="font-size: 13px; "><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span></i><span class="Apple-style-span" ><span style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span></span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; ">,</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; ">वाल्ट</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; ">व्हिटमैन</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; ">और</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; ">एमिली</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; ">डिकिन्सन</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "> </span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; ">की</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "> </span><span class="Apple-style-span" ><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18px; "></span></span><span class="Apple-style-span" >कविताओं के उनके अनुवाद उच्च कोटि की काव्यात्मक संवेदना, चयन दृष्टि और सांस्कृतिक अनुवाद के प्रमाण हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि ब्रेख्त, मायकोवस्की और तमाम अन्य कवियों के उनके अप्रकाशित अनुवाद और दूसरी सामग्रियां जल्द ही प्रकाशित होंगी. </span><br /><span class="Apple-style-span" >जन संस्कृति मंच वाम सांस्कृतिक आन्दोलन की अनूठी शख्सियत साथी चन्द्रबली सिंह को लाल सलाम पेश करता है और शोकसंतप्त परिजन, मित्रों, साथियों के प्रति हार्दिक संवेदना प्रकट करता है. </span></div><div id=":16u"><span class="Apple-style-span" ></span><span class="Apple-style-span" ><b> प्रणय कृष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी </b></span><span class="Apple-style-span" > . </span></div></div><div id=":184" class="hq gt" style="font-size: 13px; margin-top: 5px; margin-right: 15px; margin-bottom: 15px; margin-left: 15px; clear: both; "></div><div class="hi" style="font-size: medium; background-image: initial; background-attachment: initial; background-origin: initial; background-clip: initial; background-color: rgb(242, 242, 242); padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; width: auto; border-bottom-left-radius: 6px 6px; border-bottom-right-radius: 6px 6px; "></div><div class="gA gt" style="font-size: 13px; background-image: initial; background-attachment: initial; background-origin: initial; background-clip: initial; background-color: rgb(242, 242, 242); padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; width: auto; border-bottom-left-radius: 6px 6px; border-bottom-right-radius: 6px 6px; "></div></div><div style="font-size: 13px; "><br /></div><div><span class="Apple-style-span" ><b>चन्द्रबली सिंह सच्चे कम्युनिस्ट आदर्शों</b></span></div><div><span class="Apple-style-span" ><b>और सिद्धान्तों पर चलने वाले लेखक व आलोचक थे।</b></span></div><div style="font-size: 13px; "><br /></div><div style="font-size: 13px; ">लखनऊ, 23 मई। हिन्दी के प्रसिद्ध समालोचक चन्द्रबली सिंह नहीं रहे। आज सुबह साढ़े आठ बजे बनारस में उनका निधन हो गया। वे करीब 86 साल के थे। यह हमारे लिए अत्यन्त दुखद है। जन संस्कृति मंच उनके निधन पर अपना गहरा शोक प्रकट करता है। अपनी शोक संवेदना प्रकट करते हुए जसम लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने कहा कि चन्द्रबली सिंह सच्चे कम्युनिस्ट आदर्शों और सिद्धान्तों पर चलने वाले लेखक व आलोचक थे। विचारधारा और सिद्धान्त से इतर उनके अन्दर कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी, सारी जिन्दगी उन्होंने इसी पर अमल किया और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता का जीवन जिया। उनकी मशहूर आलोचनात्मक कृति ‘आलोचना का जनपक्ष’ उनकी वैचारिक प्रखरता का उदाहरण है। उन्होंने नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरुदा आदि की रचनाओं का अनुवाद भी किया। </div><div style="font-size: 13px; "><br /></div><div style="font-size: 13px; ">आज चन्द्रबली सिंह के निधन पर चन्द्रेश्वर, राजेश कुमार, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, भगवान स्वरूप कटियार, शोभा सिंह, रवीन्द्र कुमार सिन्हा, बी एन गौड़, श्याम अंकुरम आदि रचनाकारों ने भी शोक प्रकट किया। इनका कहना था कि पार्टी और विचार के प्रति कट्टरता के स्तर की दृढ़ता के बावजूद चन्द्रबली जी के व्यवहार में कोई संकीर्णता नहीं थी और हमेशा साझे सांस्कृतिक आंदोलन पर जोर दिया तथा बनारस में तो उन्होंने जलेस, प्रलेस और जसम के संयुक्त सांस्कृतिक आंदोलन का नेतृत्व किया। चन्द्रबली जी हमारे मूल्यवान साथी थे और आज ऐसे साथी दुर्लभ होते जा रहे हैं और ऐसे दौर में जब प्रतिक्रियावादी ताकतें वामपंथी आंदोलन पर हमलावर बनी है, चन्द्रबली जी हमारे लिए प्रेरक रहे। उनका जाना वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन के लिए बड़ी क्षति है। </div><div style="font-size: 13px; "><br /></div><div style="font-size: 13px; ">कौशल किशोर</div><div style="font-size: 13px; ">संयोजक</div><div style="font-size: 13px; ">जन संस्कृति मंच, लखनऊ</div><div style="font-size: 13px; "><div>एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017</div><div>मो - 08400208031, 09807519227</div></div><div style="font-size: 13px; "><br /></div><span ></span></span><span ></span>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-33279818491618069602011-05-14T22:32:00.000-07:002011-05-14T22:33:01.175-07:00जन चेतना का चितेरा : अशोक भौमिक<span class="Apple-style-span" style="color: rgb(51, 51, 51); font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21px; "><h2 class="title" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 5px; padding-right: 0px; padding-bottom: 5px; padding-left: 0px; font: normal normal normal 2.2em/normal Georgia; font-weight: bold; letter-spacing: -0.05em; border-bottom-width: 1px; border-bottom-style: solid; border-bottom-color: rgb(234, 233, 228); border-top-width: 0px; border-top-style: solid; border-top-color: rgb(234, 233, 228); "><span class="Apple-style-span" style="font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21px; font-weight: normal; letter-spacing: normal; "><a href="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2011/05/Chittaprosad.jpg" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; color: rgb(34, 119, 221); text-decoration: none; "><img class="size-medium wp-image-2042 " title="Chittaprosad" src="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2011/05/Chittaprosad-220x300.jpg" alt="" width="220" height="300" style="margin-top: 0px; margin-right: 10px; margin-bottom: 5px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; border-top-width: 0px; border-right-width: 0px; border-bottom-width: 0px; border-left-width: 0px; border-style: initial; border-color: initial; border-style: initial; border-color: initial; border-style: initial; border-color: initial; " /></a></span></h2><div class="entry clearfloat" style="margin-top: 10px; margin-right: 0px; margin-bottom: 10px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; display: block; border-bottom-width: 1px; border-bottom-style: dotted; border-bottom-color: rgb(51, 51, 51); "><div id="attachment_2042" class="wp-caption alignleft" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; width: 230px; "><p class="wp-caption-text" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">जनवादी चित्रकार देवब्रत मुखोपाध्याय का बनाया हुआ चित्तप्रसाद का पोर्ट्रेट</p></div><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; "><em style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; ">जनवादी चित्रकार चित्तप्रसाद के जन्मदिवस पर उनकी कला की विशेषताओं को रेखांकित करता वरिष्ठ चित्रकार अशोक भौमिक का आलेख-</em></p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; "><strong style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; ">चित्तप्रसाद एक </strong>प्रगतिशील चित्रकार ही नहीं थे, वह सक्रिय राजनीतिक कर्मियों की पहली कतार पर तैनात एक सजग सिपाही भी थे। भारतीय चित्रकला के इतिहास में उनके जैसा दूसरा उदाहरण नहीं है। 15 मई, 1917 में बंगाल के दक्षिण 24 परगना के नैहाटी शहर में उनका जन्म हुआ। उनका परिवार अत्यंत शिक्षित परिवार था। उनकी मां ने आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों की कई तरह से मदद की थी। बीए की परीक्षा पास करने के बाद चित्तप्रसाद सक्रिय रूप से चित्रकला, संगीत, नाटक आदि कलाओं की ओर झुके। यहां उल्लेखनीय यह है कि उन्होंने चित्रकला में कोई शिक्षा नहीं ली। वह 1942 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने थे।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">वर्ष 1942-43 में बंगाल के मिदनापुर और चिटगांव इलाके में उन्होंने महाअकाल के विकराल रूप को बेहद करीब से देखा और इस इलाके में घूम-घूम कर स्केचेस बनायें और रिपोर्ताज लिखे जो ‘पीपुल्स वार’ में नियमित प्रकाशित होते रहे। इन प्रकाशनों के जरिये चित्तप्रसाद ने पत्रकारिता के एक सर्वथा नये आयाम से पाठकों को परिचित कराया।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">1944 (20-27 दिसंबर) में पार्टी द्वारा मुंबई के खेवाड़ी स्थित ‘रेड फ्लैग हॉल’ में आयोजित ‘ भूखा बंगाल’ चित्र प्रदर्शनी में चित्तप्रसाद के चित्र दिखे, साथ ही पी.पी.एच. ने चित्तप्रसाद द्वारा लिखी पुस्तक ‘हंगरी बंगाल’ प्रकाशित की। इसके प्रकाशन के तुरंत बाद सरकार ने इसे प्रतिबंधित घोषित कर इसकी सारी प्रतियाँ जला दीं।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">मुंबई प्रवास के दौरान वह फिल्म से जुडे़ लोगों, कवियों, चित्रकारों, गायकों के बहुत चेहते थे। नेमीचंद जैन, रेखा जैन, शमशेर बहादुर सिंह आदि रचनाकारों के साथ-साथ बलराज साहनी, सलील चौधरी जैसे लोगों और पंजाबी के प्रसिद्ध लेखक सुखबीर जी से भी इनका अच्छा परिचय था। हिन्दी फिल्म के इतिहास में विमल राय की महत्वपूर्ण फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ का वुडकट के माध्यम से बनाया गया पोस्टर निश्चित रूप से ऐतिहासिक महत्व रखता है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: center; "><a href="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2011/05/Chittaprosad.-Naval-Mutiny.jpg" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; color: rgb(34, 119, 221); text-decoration: none; "><img class="aligncenter size-full wp-image-2051" title="Chittaprosad. Naval Mutiny" src="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2011/05/Chittaprosad.-Naval-Mutiny.jpg" alt="" width="600" height="146" style="margin-top: 0px; margin-right: 10px; margin-bottom: 5px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; border-top-width: 0px; border-right-width: 0px; border-bottom-width: 0px; border-left-width: 0px; border-style: initial; border-color: initial; border-style: initial; border-color: initial; border-style: initial; border-color: initial; " /></a></p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">1946 के नौसेना विद्रोह में हम चित्तप्रसाद को नौसैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिलाये न केवल सड़कों पर देख पाते हैं, साथ ही इस विद्रोह के समर्थन में उनके द्वारा बने गये यादगार चित्रों और पोस्टरों में हम चित्रकला के एक ऐसे जुझारू स्वरूप को देख पाते हैं जिसे केवल जन आंदोलन को देख कर नहीं, बल्कि उसमे सशरीर शरीक होकर ही रचा जा सकता है। इसी चित्रकार को हम एक ओर जहाँ बंगाल के तेभागा किसान आन्दोलन के करीब जाकर चित्र रचते पाते हैं , वहीँ 1946 के जून महीने में आंध्र प्रदेश के तेलंगाना सशस्त्र किसान आन्दोलन के केंद्र तक पहुँच कर एक अभूतपूर्व चित्र श्रृंखला बनाते पाते हैं। इस चित्रकार को हम महाराष्ट्र के कोल्हापुर में आये सूखे के दौरान किसानों के करीब पाते हैं, विजयवाडा़ अखिल भारतीय किसान सम्मलेन (1944) में श्रोताओं के बीच बैठ कर चित्र बनाते पाते हैं, मुंबई की बस्तियों में रह रहे गरीब बाल श्रमिकों की व्यथा कथा को कैनवास पर उतारते पाते हैं।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">इसके साथ ही उन्होंने जन आंदोलनों के एक सजग इतिहासकार के रूप में अपने चित्रों में कश्मीर-आन्दोलन, भगत सिंह की शहादत, डाक कर्मचारियों और रेल कर्मचारियों के आंदोलनों को अमर भी किया है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">हमारे देश में सभी चित्रकारों के साथ कोई-न-कोई प्रान्त जुड़ा हुआ है। राजा रवि वर्मा, यामिनी राय, नन्दलाल बोस से लेकर प्रायः सभी समकालीन चित्रकारों पर इस पहचान को सहज ही देखा जा सकता है, पर एक आधुनिक चित्रकार अपने राजनीतिक-सामजिक सरोकारों के चलते प्रान्तों और प्रदेशों की सीमा के पार जाकर एक जनपक्षधर चित्रकार बन सकता है, इसकी मिसाल हम केवल चित्तप्रसाद में ही पाते हैं। सही मायने में भारतीय चित्रकार कहलाने के हकदार शायद चित्तप्रसाद ही हैं।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">देश के विभिन्न जन आंदोलनों पर बनाये गये चित्तप्रसाद के कुछ यादगार चित्रों से मौजूदा बाजारवाद की गिरफ्त में कैद जनता से पूरी तरह से कट कर अराजक पूंजी के सहारे पनपती समकालीन कला को बेहतर पहचानने मे मदद मिेलती है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; "><a href="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2011/05/Chittaprosad.Hotel-wala-bachcha.jpg" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; color: rgb(34, 119, 221); text-decoration: none; "><img class="alignright size-full wp-image-2055" title="Chittaprosad.Hotel wala bachcha" src="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2011/05/Chittaprosad.Hotel-wala-bachcha.jpg" alt="" width="247" height="181" style="margin-top: 0px; margin-right: 10px; margin-bottom: 5px; margin-left: 0px; padding-top: 4px; padding-right: 4px; padding-bottom: 4px; padding-left: 4px; border-top-width: 0px; border-right-width: 0px; border-bottom-width: 0px; border-left-width: 0px; border-style: initial; border-color: initial; border-style: initial; border-color: initial; display: inline; border-style: initial; border-color: initial; " /></a></p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">चित्तप्रसाद ने जन आंदोलनों के साथ रह कर असंख्य चित्र बनाये थे, यह हम सब जानते हैं, पर गरीब बच्चों पर, खासकर उनकी जिन्दगी की बदहाली पर उनके चित्र बेहद महत्वपूर्ण हैं। विश्व कला के इतिहास में बच्चों के चित्र बहुत कम हैं। भारतीय कला में देवताओं के बाल रूप और शिशु राजकुमारों के चित्रण के अलावा बच्चों को हम बहुत ही हम उपस्थित पाते हैं। पाश्चात्य कला में भी फरिश्ते के रूप में डैनों वाले नंगे बच्चे दिख जाते हैं, पर वे चित्रों के मूल विषय नहीं बनते हैं। चित्तप्रसाद ने अपनी चित्र श्रृंखला ‘Angels without Fairytales ‘ के केंद्र में बच्चों को रखकर उन्हें नायक का अपूर्व दर्ज़ा दिया है। अनाथ बच्चों के एकाकीपन के लिये जहाँ चित्तप्रसाद एक दीया और एक खेले जाने के लिये इंतज़ार करती गुड़िया को कमरे में संयोजित कर चित्र को इतना मार्मिक बनाते हैं, वहीं होटलवाला बच्चा देर रात होटल के बंद हो जाने के बाद अकेला बर्तनों के ढेर से जूझ रहा है। साथ में एक रतजगा कुत्ता है, एक तिरछी लौ वाली ढिबरी है और फर्श पर रेंगते बहुत सारे तिलचट्टे हैं, पर इन सब के बावजूद कितना अकेलापन है यहाँ !<br />गहरी रात को फुटपाथ पर कथरी ओढ़े बच्चों के बीच गुजरता कुत्ता क्या इन बच्चों के मुकाबले अपनी जिन्दगी के बेहतर होने का ऐलान नहीं कर रहा है ? इन यादगार चित्रों में बच्चों के प्रति चित्तप्रसाद का गहरा प्रेम तो दिखता ही है, साथ ही ये भी साफ़ नज़र आता है कि इन चित्रों को चित्तप्रसाद ने बच्चों के लिये नहीं बनाया, बल्कि इन बच्चों के ऐसे हालात के लिये जिम्मेदार समाज को धिक्कारा है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">चित्तप्रसाद के चित्रों में महिलाओं का एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। इन चित्रों में वे मेहनतकश पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर जीवन संघर्ष के समान हिस्सेदार के रूप में दिखती है। कोल्हापुर के सूखे में भी वे पुरुषों के पास हैं तो गारो पहाड़ में जंगली सूअर का शिकार करते हुए भी पुरुषों के साथ है। बांध बनाते हुए वे समान रूप से मेहनत करती है तो बाढ़ जैसी विपदा में समान रूप से पीडि़त है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; "><a href="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2011/05/Chittaprosad.-IPTA-Logo.jpg" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; color: rgb(34, 119, 221); text-decoration: none; "><img class="alignleft size-full wp-image-2059" title="Chittaprosad. IPTA Logo" src="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2011/05/Chittaprosad.-IPTA-Logo.jpg" alt="" width="170" height="198" style="margin-top: 0px; margin-right: 10px; margin-bottom: 5px; margin-left: 0px; padding-top: 4px; padding-right: 4px; padding-bottom: 4px; padding-left: 4px; border-top-width: 0px; border-right-width: 0px; border-bottom-width: 0px; border-left-width: 0px; border-style: initial; border-color: initial; border-style: initial; border-color: initial; display: inline; float: left; border-style: initial; border-color: initial; " /></a></p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">इप्टा के गठन के बाद एक नाट्य प्रस्तुति के ठीक पहले कामरेड शांति बर्धन नगारा बजा कर नाट्य प्रस्तुति का एलान कर रहे थे। चित्तप्रसाद ने उस मुहूर्त को अपने स्केच बुक मे कैद किया। बाद मे इसको आधार बना कर चित्तप्रसाद ने इप्टा का लोगो बनाया। भारत मे प्रगतिशील सांस्कृतिक कर्मियों के सपनों का प्रतीक यह चिन्ह हम सबको चित्तप्रसाद की याद भी दिलाता है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">चित्तप्रसाद के चित्रों को देखते हुए हम जनोन्मुख और अजिट-प्राप (agit-prop) कला के एक ऐसे रूप से परिचित होते है, जो चित्र होकर भी महज नारा या पोस्टर नहीं हैं। यहाँ शोषित-पीड़ितों के पास जाने का साहस है जो दरअसल कला के सामंती मानकों को चुनौती देने का साहस भी है। युगों से शास्त्रीय कला सामंतों और धनी कला व्यापारियों के बनाये हुए मानदंडों पर पनपती रही है, पर इसके समानांतर लोक कला अपने सहज सरल स्वरूप- गरीब किसान के आंगन में रंगोली-अल्पना बन या किसी लोक उत्सव के प्रांगण सज्जा के रूप तक ही सीमित रही। यह कला उत्सवधर्मी होकर भी जीवन से कटी हुई नहीं थी (इसका सबसे अच्छा उदाहरण वारली की लोक कला है )। इस कला मे मेहनत करते, शोषित होते लोगों का जिक्र तो है, पर राजनीतिक विचारों के अभाव के कारण इसमें प्रतिरोध का आह्वान नहीं है। चित्तप्रसाद इन दोनों कलाओं की गहरी जाँच-पड़ताल के बाद इनके विकल्प के रूप में एक तीसरी कला का अनुसरण करते हैं (इस सन्दर्भ में आधुनिक कला पर सामंती प्रभाव और गुफा चित्रों पर चित्तप्रसाद के दो महत्वपूर्ण लेखों को हम देख सकते हैं ) । चित्तप्रसाद की कला में मेहनतकश वर्ग का जहाँ शोषण का चित्रण है, वहीँ उनके प्रतिरोध की गाथा भी मौजूद है। वह वास्तव में संघर्षशील आम जनता के इतिहासकार होने के साथ-साथ संघर्ष की कथाओं के हरकारा भी हैं, जो बंगाल की कथा को महाराष्ट्र तक पहुचते हैं तो तेलंगाना जाकर भगत सिंह की चर्चा करते हैं।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; "><a href="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2011/05/Chittaprosad.Draught-in-Kolhapur.jpg" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; color: rgb(34, 119, 221); text-decoration: none; "><img class="alignright size-full wp-image-2062" title="Chittaprosad.Draught in Kolhapur" src="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2011/05/Chittaprosad.Draught-in-Kolhapur.jpg" alt="" width="418" height="252" style="margin-top: 0px; margin-right: 10px; margin-bottom: 5px; margin-left: 0px; padding-top: 4px; padding-right: 4px; padding-bottom: 4px; padding-left: 4px; border-top-width: 0px; border-right-width: 0px; border-bottom-width: 0px; border-left-width: 0px; border-style: initial; border-color: initial; border-style: initial; border-color: initial; display: inline; border-style: initial; border-color: initial; " /></a></p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">उनके अनेक चित्रों में बार-बार मजदूर-किसान वर्ग के लिये एक विशिष्ट राजनीतिक एकता की पुकार दिखती है। जन आंदोलनों में वह कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग के झंडे एकसाथ फहराते हैं, वहीं विभिन्न मोर्चों पर संघर्ष करते लोगों के बीच संकीर्ण साम्प्रदायिकता को गैर हाजिर पाते हैं और हर चित्र में स्त्री-पुरुष को हर संघर्ष में समान साझेदार बनाते हैं। मेहनतकशों की एकता हर स्तर पर हर कीमत पर चित्तप्रसाद के लिये सबसे जरूरी था जिसे उन्होंने अपने चित्रों में बार-बार रेखंकित किया।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">उनके रंगीन चित्रों में कई पाश्चात्य चित्रकारों का प्रभाव देखा जा सकता है। इनमें मातिस और ब्रॉक प्रमुख हैं। यहां गौरतलब यह भी है कि रंगीन चित्रों में चित्तप्रसाद ने आनंद और सुख का उत्सव दिखाया है, वहीं उनके काले-सफेद चित्रों (या प्रिंट) में हमारे जीवन के कठोर यथार्थ को व्यक्त किया है।</p></div></span>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-20730101080974401292011-04-09T06:34:00.000-07:002011-04-09T06:35:34.450-07:00अन्ना हजारे के समर्थन में लेखक व संस्कृतिकर्मी भी उतरे<div>लखनऊ, 8 अप्रैल। जन संस्कृति मंच (जसम) के आहवान पर अन्ना हजारे के आंदोलन के समर्थन में आज जसम के संयोजक व कवि कौशल किशोर, कवि भगवान स्वरूप कटियार, बी एन गौड़, प्रतिभा कटियार, कवि वीरेन्द्र सारंग, एपवा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ताहिरा हसन व विमला किशोर, अलग दुनिया के कृष्णकांत वत्स, नाटककार राजेश कुमार, लेनिन पुस्तक केन्द्र के प्रबन्धक गंगा प्रसाद, आर के सिन्हा आदि लखनऊ के लेखक व संस्कृतिकर्मी झूलेलाल पार्क पहुँचे । इन्होंने धरना देकर भ्रष्टाचार के खिलाफ और न्याय के इस आंदोलन के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त की। </div><div><br /></div><div>इस अवसर पर हुई सभा को संबोधित करते हुए वक्ताओं ने कहा कि अन्ना हजारे के आंदोलन ने साबित किया है कि हम जिन्दा हैं। अन्याय व लूट से इस देश को बचाने और सŸाा के विरुद्ध प्रतिरोध की हमारी क्षमता खत्म नहीं हुई है। देश की जनता को एक ईमारदार व न्यायपूर्ण व्यवस्था चाहिए। सरकारी लोकपाल नहीं बल्कि जनलोकपाल चाहिए। जनता को ऐसा राजनीतिक तंत्र चाहिए जो उसके प्रति जवाबदेह हो। पर यह तो ऐसा तंत्र है जो लूट व भ्रष्टाचार की संस्कृति पर टिका है।</div><div><br /></div><div>वक्ताओं ने नागार्जुन की कविता का हवाला देते हुए कहा कि जेपी आंदोलन के समय इंदिरा गाँधी को निशाना बनाते हुए बाबा ने कहा था कि ‘हे देवि, तुम तो काले धन की वैशाखी पर टिकी हुई हो’ और ‘लूटपाट के काले धन की करती है रखवाली, पता नहीं दिल्ली की रानी गोरी है या काली’, पर मनमोहन सिंह की सरकार तो घोटालों के पहाड़ पर बैठी है और कालेधन की संरक्षक बन गई है। देश के बड़े हिस्से से इसने सामान्य लोकतंत्र का भी अपहरण कर लिया है। अन्ना के आंदोलन से ये सारे सवाल बहस के केन्द्र में आ गये हैं।</div><div><br /></div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-79527950755435659162011-04-08T23:43:00.000-07:002011-04-08T23:44:29.391-07:00जनविरोधी अर्थनीति और भ्रष्ट राजनीति के खिलाफ आंदोलन जारी रहेगा : जन संस्कृति मंच<span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><div style="text-align: center; "><span >जन संस्कृति मंच<br /></span></div><br /><br /><span >जन लोकपाल विधेयक बनने से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को बल मिलेगा: प्रो. मैनेजर पांडेय<br /><br />दिल्ली, उत्तर प्रदेश और पटना में आज जसम से जुड़े लेखक-संस्कृतिकर्मी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शामिल हुए<br /><br /></span><br />प्रकाशनार्थ/ प्रसारणार्थ<br />नई दिल्ली: 8 अप्रैल<br />जन लोकपाल विधेयक लागू करने के सवाल पर आज जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय के नेतृत्व में लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का समूह जंतर-मंतर पहंुचा और पिछले तीन दिन से जारी श्री अन्ना हजारे के आंदोलन के प्रति अपना समर्थन जताया। जन संस्कृति मंच से जुड़े कलाकारों ने इसी तरह उत्तर प्रदेश के लखनऊ और गोरखपुर समेत कई दूसरे शहरों और बिहार की राजधानी पटना में इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में आज शामिल हुए। जंतर मंतर पर इस आंदोलन में शिरकत करने वालों में जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय, राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कवि मंगलेश डबराल, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कवयित्री शोभा सिंह, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कवि मदन कश्यप, कवि-पत्रकार अजय सिंह, कहानीकार अल्पना मिश्र, कवि रंजीत वर्मा, द गु्रप संस्था के संयोजक फिल्मकार संजय जोशी, संगवारी नाट्य संस्था के संयोजक कपिल शर्मा, युवा चित्रकार अनुपम राय, रंगकर्मी सुनील सरीन, संस्कृतिकर्मी सुधीर सुमन, श्याम सुशील, मीडिया प्रोफेशनल रोहित कौशिक, संतोष प्रसाद और रामनिवास आदि प्रमुख थे। लेखक-संस्कृतिकर्मियों ने जंतर मंतर पर उपस्थित जनसमूह के बीच पर्चे भी बांटे।<br />इस मौके पर जसम अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि इस देश में जिस पैमाने पर बड़े-बड़े घोटाले सामने आए हैं और भ्रष्टाचार जिस कदर बढ़ा है, उससे आम जनता के भीतर भारी क्षोभ है। यह गुस्सा इसलिए भी है कि कांग्रेस-भाजपा समेत शासकवर्ग की जितनी भी राजनीतिक पार्टियां हैं, वे इस भ्रष्टाचार को संरक्षण और बढ़ावा दे रही हैं। अगर यूपीए सरकार श्री अन्ना हजारे की मांगों को मान भी लेती है, तो भी भ्रष्टाचार के खिलाफ छिड़ी इस मुहिम को और भी आगे ले जाने की जरूरत बनी रहेगी।<br />उन्होंने कहा कि मौजूदा दौर में होने वाले घोटाले पहले के घोटालों की तुलना में बहुत बड़े हैं, क्योंकि निजीकरण की नीतियों ने कारपोरेट घरानों के लिए संसाधनों की बेतहाशा लूट का दरवाजा खोल दिया है. देश के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों- जमीन, खनिज, पानी- ही नहीं लोगों की जीविका के साधनों की भी लूट का सिलसिला बेरोक-टोक जारी है। राडिया टेपों और विकीलीक्स के खुलासों ने साफ कर दिया है कि साम्राज्यवादी ताकतें कारपोरेट हितों और नीतियों के अनुरूप काम करने वाले मंत्रियों की सीधे नियुक्ति करवाती हैं। सभी तरह के सवालों से परे रखी गयी सेना के उच्चाधिकारी न सिर्फ जमीन घोटालों में लिप्त पाये गये हैं, बल्कि रक्षा सौदों में भी बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होने का नियमित खुलासा हो रहा है। न्यायपालिका के शीर्ष पर विराजमान न्यायधीशों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की खबरें प्रामाणिक तौर पर उजागर हो चुकी हैं। कांग्रेस के कई नेता भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद अपने पदों पर जमे हुए हैं। केंद्र ही नहीं राज्य सरकारों में भी भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। कर्नाटक में भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री भूमि घोटाले में संलिप्त हैं और पूरे प्रदेश की अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से जितनी अपनी अवैध अर्थव्यवस्था चलाने वाले रेड्डी बंधु सरकार के सम्मानित और प्रभावशाली मंत्री हैं। इन स्थितियों में कारपोरेट लूट और भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं को लाठी-गोली का सामना करना पड़ रहा है, उन्हें देशद्रोही बताकर जेलों में बंद किया जा रहा है, जबकि भ्रष्टाचारी खुलेआम घूम रहे हैं।<br />प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि ऐसे कठिन हालात में प्रभावी लोकपाल कानून बनाने के लिए शुरू हुई भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को और भी ऊंचाई पर ले जाने की जरूरत है, ताकि जनता की भावनाओं के अनुरूप भ्रष्टाचार से मुक्त देश बनाया जा सके।<br />जन संस्कृति मंच की मांग है कि 1. सरकार द्वारा तैयार किये गये नख-दंत विहीन लोकपाल कानून के मसविदे को रद्द किया जाये और भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्षरत कार्यकर्ताओं की भागीदारी से एक प्रभावशाली लोकपाल कानून बनाया जाये।<br />2. टाटा, रिलायंस, वेदांत और दाउ जैसे भ्रष्टाचार और कानून के उल्लंघन में संलिप्त कारपोरेट घरानों को काली सूची में डाला जाये।<br />3. स्विटजरलैंड के बैंकों में अपनी काली कमायी जमा किये लोगों के नाम सार्वजनिक किये जायें, काले धन की एक-एक पाई को देश में वापस लाया जाये और इसका इस्तेमाल समाज कल्याण के कामों में किया जाये। हम यह भी मांग करते हैं कि तमाम अंतरराश्ट्रीय कानूनों की आड़ में काले धन को विदेश ले जाने के सभी दरवाजे निर्णायक तौर पर बंद किये जायें।<br />4. आदर्श घोटाले व अन्य रक्षा घोटालों में लिप्त सैन्य अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाया जाये और उन्हें कड़ी सजा दी जाये.<br />5. कारपोरेट लूट और भ्रष्टाचार के लिए उर्वर जमीन मुहैया कराने वाली निजीकरण और व्यावसायीकरण की नीतियों को उलट दिया जाये।<br />6. कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए उनके दबाव में लिये गये सभी सरकारी निर्णयों की समीक्षा की जाये और उन्हें उलट दिया जाये।<br />जन संस्कृति मंच<br />राष्ट्रीय कार्यकारिणी की ओर से<br />सुधीर सुमन द्वारा जारी<br /></span>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-44331743752600115182011-03-25T07:59:00.000-07:002011-03-25T08:08:15.351-07:00प्रलेस के महासचिव प्रो. कमला प्रसाद को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि<span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><b><br /></b> </span><img src="https://lh5.googleusercontent.com/-10-wh6rhgeY/TYiecw1lVVI/AAAAAAAAHCo/-Z5lBy7hhOo/s1600/Pro-Kamla-Prasad.jpg" border="0" style="border-style: initial; border-color: initial; border-top-style: none; border-right-style: none; border-bottom-style: none; border-left-style: none; border-width: initial; border-color: initial; border-width: initial; border-color: initial; border-width: initial; border-color: initial; " /><div><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "> आज सुबह ही हम सब प्रो. कमला प्रसाद के असामयिक निधन का समाचार सुन अवसन्न रह गए. रक्त कैंसर यों तो भयानक मर्ज़ है, लेकिन फिर भी आज की तारीख में वह लाइलाज नहीं रह गया है. ऐसे में यह उम्मीद तो बिलकुल ही नहीं थी कि कमला जी को इतनी जल्दी खो देंगे. उन्हें चाहने वाले, मित्र, परिजन और सबसे बढ़कर प्रगतिशील, जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन की यह भारी क्षति है. इतने लम्बे समय तक उस प्रगतिशील आंदोलन का बतौर महासचिव नेतृत्व करना जिसकी नींव सज्जाद ज़हीर, प्रेमचंद, मुल्कराज आनंद , फैज़ सरीखे अदीबों ने डाली थी, अपन आप में उनकी प्रतिबद्धता और संगठन क्षमता के बारे में बहुत कुछ बयान करता है.<br /> १४ फरवरी,१९३८ को सतना में जन्में कमला प्रसाद ने ७० के दशक में ज्ञानरंजन के साथ मिलकर 'पहल' का सम्पादन किया, फिर ९० के दशक से वे 'प्रगतिशील वसुधा' के मृत्युपर्यंत सम्पादक रहे. दोनों ही पत्रिकाओं के कई अनमोल अंकों का श्रेय उन्हें जाता है. कमला प्रसाद जी ने पिछली सदी के उस अंतिम दशक में भी प्रलेस का सजग नेतृत्व किया जब सोवियत विघटन हो चुका था और समाजवाद को पूरी दुनिया में अप्रासंगिक करार देने की मुहिम चली हुई थी. उन दिनों दुनिया भर में कई तपे तपाए अदीब भी मार्क्सवाद का खेमा छोड़ अपनी राह ले रहे थे. ऐसे कठिन समय में प्रगतिशील आन्दोलन की मशाल थामें रहनेवाले कमला प्रसाद को आज अपने बीच न पाकर एक शून्य महसूस हो रहा है. कमला जी की अपनी मुख्य कार्यस्थली मध्य प्रदेश थी. मध्य प्रदेष कभी भी वाम आन्दोलन का मुख्य केंद्र नहीं रहा. ऐसी जगह नीचे से एक प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठन को खडा करना कोइ मामूली बात न थी. ये कमला जी की सलाहियत थी कि ये काम भी अंजाम पा सका. निस्संदेह हरिशंकर परसाई जैसे अग्रजों का प्रोत्साहन और मुक्तिबोध जैसों की विरासत ने उनका रास्ता प्रशस्त किया, लेकिन यह आसान फिर भी न रहा होगा.<br /> कमला जी को सबसे काम लेना आता था, अनावश्यक आरोपों का जवाब देते उन्हें शायद ही कभी देखा गया हो. जन संस्कृति मंच के पिछले दो सम्मेलनों में उनके विस्तृत सन्देश पढ़े गए और दोनों बार प्रलेस के प्रतिनिधियों को हमारे आग्रह पर सम्मेलन संबोधित करने के लिए उन्होनें भेजा. वे प्रगतिशील लेखक संघ , जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के बीच साझा कार्रवाइयों की संभावना तलाशने के प्रति सदैव खुलापन प्रदर्शित करते रहे और अनेक बार इस सिलसिले में हमारी उनसे बातें हुईं. इस वर्ष कई कार्यक्रमों के बारे में मोटी रूपरेखा पर भी उनसे विचार विमर्ष हुआ था जो उनके अचानक बीमार पड़ने से बाधित हुआ. संगठनकर्ता के सम्मुख उन्होंने अपनी आलोचकीय और वैदुषिक क्षमता, अकादमिक प्रशासन में अपनी दक्षता को उतनी तरजीह नहीं दी. लेकिन इन रूपों में भी उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. मध्यप्रदेश कला परिषद् और केन्द्रीय हिंदी संस्थान जैसे शासकीय निकायों में काम करते हुए भी वे लगातार प्रलेस के अपने सांगठनिक दायित्व को ही प्राथमिकता में रखते रहे. उनका स्नेहिल स्वभाव, सहज व्यवहार सभी को आकर्षित करता था. उनका जाना सिर्फा प्रलेस , उनके परिजनों और मित्रों के लिए ही नहीं , बल्कि समूचे वाम- लोकतांत्रिक सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए भारी झटका है. जन संस्कृति मंच .प्रो. कमला प्रसाद को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है . हम चाहेंगे कि वाम आन्दोलन की सर्वोत्तम परम्पराओं को विकसित करनेवाले संस्कृतिकर्मी इस शोक को शक्ति में बदलेंगे और उन तमाम कामों को मंजिल तक पहुचाएँगे जिनके लिए कमला जी ने जीवन पर्यंत कर्मठतापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह किया.<br /><br /> <wbr> <wbr> <wbr> - प्रणय कृष्ण , महासचिव , जन संस्कृति मंच </span><div><span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; "><span class="Apple-style-span" style="border-collapse: separate; "><div class="separator" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; clear: both; text-align: center; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 12px; color: rgb(68, 68, 68); line-height: 16px; "><br /></div><div class="MsoNormal" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; "><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; "><span style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; "><div style="text-align: left;"><span class="Apple-style-span" ><span>जाने मने आलोचक डॉ. कमला प्रसाद का जाना</span><span> </span></span></div><div style="text-align: left;"><span ><br /></span></div><div style="text-align: left;"><span ><span style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; "></span>जनवादी और प्रगतिशील आन्दोलन का नुकसान है</span></div><div style="text-align: left;"><span ><br /></span></div><div style="text-align: left;"><span > ---- जन संस्कृति मंच </span></div><div style="text-align: left;font-size: 12px; "><br /></div><div><span class="Apple-style-span"><span>लखनऊ , २५ मार्च . जन संस्कृति मंच ने हिन्दी के जाने माने आलोचक , प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय </span>महासचिव और "वसुधा" के संपादक डा० कमला प्रसाद के निधन पर गहरा शोक प्रकट किया है. आज जारी बयान में जसम लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने कहा कि कमला प्रसाद जी का जाना <span>जनवादी और प्रगतिशील आन्दोलन का भारी नुकसान है. </span>अपनी वैचारिक प्रतिबधता और साहित्य ओ समाज में अपने योगदान के लिए हमेशा याद किये जायेंगे . अयोध्या के सम्बन्ध में हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ साझा सांस्कृतिक पहल उन्होंने ली थी तथा संयुक्त सांस्कृतिक आंदोलनों में उनकी विशिष्ट भूमिका थी. </span></div></span><div style="color: rgb(0, 0, 0); font-family: arial, sans-serif; line-height: normal; "><span style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; "><span class="Apple-style-span"><br /></span></span></div><div style="color: rgb(0, 0, 0); font-family: arial, sans-serif; line-height: normal; "><span class="Apple-style-span"><span style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; "><span style="font-family: arial; line-height: 25px; color: rgb(0, 0, 0); "><span style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; "></span></span>हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक कमला प्रसाद का आज शुक्रवार 25 मई की सुबह नई दिल्ली के </span><span class="Apple-style-span" style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; ">एक अस्पताल में निधन हो गया । कैंसर से पीड़ित प्रसाद का लम्बे समय से इलाज चल रहा था. वह </span><span class="Apple-style-span" style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; ">मध्यप्रदेश से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका वसुधा के सम्पादक और प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय </span><span class="Apple-style-span" style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; ">महासचिव थे । मध्य प्रदेश के सतना जिले के गांव धौरहरा में 1938 में जन्मे प्रसाद की प्रमुख कृतियां </span><span class="Apple-style-span" style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; ">साहित्य शास्त्र, आधुनिक हिन्दी कविता और आलोचना की द्वन्द्वात्मकता, रचना की कर्मशाला, नवजागरण </span><span class="Apple-style-span" style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; ">के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं । हिन्दी की महत्वपूर्ण पत्रिका "पहल" के संपादन में भी वे लम्बे समय तक </span><span class="Apple-style-span" style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; ">ज्ञानरंजन के साथ रहे . </span></span></div><div><div style="color: rgb(0, 0, 0); font-family: arial, sans-serif; line-height: normal; "><span style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 16px; "><span class="Apple-style-span"><br /></span></span></div><div style="color: rgb(0, 0, 0); font-family: arial, sans-serif; line-height: normal; "><div style="text-align: center; "><span><span style="line-height: 16px; ">कौशल किशोर </span></span></div><div style="text-align: center; "><span><span style="line-height: 16px; ">संयोजक </span></span></div><div style="text-align: center; "><span><span style="line-height: 16px; ">जन संस्कृति मंच लखनऊ </span></span></div><div><div style="text-align: center; "><span style="color: rgb(68, 68, 68); font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 16px; "><br /></span></div><div style="font-size: 13px; "><span><span style="font-size: 12px; line-height: 16px; "><br /></span></span></div></div></div></div></span></span></div></span></span></div></div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-86221736203298502392011-03-10T08:01:00.000-08:002011-03-10T08:17:39.817-08:00अनिल सिन्हा की याद ने सबको रूला दिया<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXCc4miZQi3EJQ9MnVle2TuhNGrYNMoMMReg4r3vPs94Pha-4wYiGQakoAtbYkWqm7i6PWON8ype5t2EyeDsIL7-jxxHzyGJu7RsVs3b_7lrdxH6aYwsXZjRRGYs9bjw1G79HyonsKEdA/s1600/8ykikjkgkugu.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 302px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXCc4miZQi3EJQ9MnVle2TuhNGrYNMoMMReg4r3vPs94Pha-4wYiGQakoAtbYkWqm7i6PWON8ype5t2EyeDsIL7-jxxHzyGJu7RsVs3b_7lrdxH6aYwsXZjRRGYs9bjw1G79HyonsKEdA/s320/8ykikjkgkugu.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5582485510727309506" /></a><br /><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div>शब्दों की दुनिया के लोग - लेखक, पत्रकार, संस्कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी ...... सब थे। ऐसा बहुत कम मौका आया होगा जब उन्हें शब्दों के संकट का सामना करना पड़ा हो। पर हालत ऐसी ही थी। किसी को भी अपने विचारों-भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे। एक-दो वाक्य तक बोल पाना मुश्किल हो रहा था। हिन्दी कवि वीरेन डंगवाल की हालत तो और भी बुरी थी। सब कुछ जैसे गले में ही अटक गया है। यह कौन सी कविता है ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पर वह कविता ही थी। उसके पास शब्द नहीं थे पर वह वेगवान नदीे की तरह बह रही थी। इतना आवेग, सीधे दिल में उतर रही थी। आँसूओं के रूप में बहती इस कविता को सब महसूस कर रहे थे। यह प्रकृति का कमाल ही है कि जहाँ शब्द साथ छोड़ देते हैं, शब्दों का जबान से तालमेल नहीं बैठ पाता, ऐसे में हमारी इन्द्रियाँ विचारों-भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम बन जाती हैं। 6 मार्च को अनिल सिन्हा की स्मृति सभा में ऐसा ही दृश्य था। बड़ी संख्या में साहित्यकार, पत्रकार, रंगकर्मी, कलाकार, बुद्धिजीवी, राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता, अनिल सिन्हा के परिजन, मोहल्ले के साथी, पास-पड़ोस के स्त्री-पुरुष सब इक्ट्ठा थे। अचानक अनिल सिन्हा के चले जाने का दुख तो था ही, पर सब उनके साथ की स्मृतियों का सझाा करना चाहते थे। किसी के साथ दस साल का, तो किसी से तीस व चालीस साल का और कुछ का तो जन्म से ही उनका साथ था और सभी उनके साथ बीताये क्षणों की स्मृतियों, अपने अनुभवों को आपस में बाँटना चाहते थे।</div><div><br /></div><div>इस अवसर पर कवि<b> भगवान स्वरूप कटियार</b> और <b>विमला किशोर</b> ने अपनी भावनाओं को कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया। वे कविताएँ यहाँ दी जा रही हैं:</div><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; font-family: arial, sans-serif; "><div id=":w1" class="ii gt" style="margin-top: 5px; margin-right: 15px; margin-bottom: 5px; margin-left: 15px; padding-bottom: 20px; position: relative; z-index: 2; "><div id=":w0"><p><span class="Apple-style-span" > <b> </b></span><span class="Apple-style-span" ><b>एक बेचैन आवाज</b></span><span class="Apple-style-span" > </span></p><p><span class="Apple-style-span" ><br /> </span><span class="Apple-style-span" ><b> भगवान स्वरूप कटियार</b></span><br /><span class="Apple-style-span" > </span><br /><span class="Apple-style-span" > </span><span class="Apple-style-span" > जहां मेरा इंतजार हो रहा है<br /> वहां मैं पहुंच नहीं पा रहा हूं<br /> दोस्तों की फैली हुई बाहें<br /> और बढे हुए हांथ मेरा इंतजार कर रहे हैं .<br /> <br /> पर मेरी उम्र का पल पल<br /> रेत की तरह गिर रहा है<br /> रैहान मुझे बुला रहा है<br /> ऋतु- अनुराग,निधि- अर‘ाद,<br /> ‘ाा‘वत- दिव्या और मेरी प्रिय आ‘ाा<br /> और मेरे दोस्तों की इतनी बडी दुनिया<br /> मैं किस किस के नाम लूं<br /> सब मेरा इंतजार कर रहे हैं<br /> पर मैं पहुंच नहीं पा रहा हू<br /> मेरी सांसें जबाब दे रही हैं .<br /> <br /> पर दोस्तो याद रखना<br /> मौत ,वक़्त की अदालत का आखिरी फैसला नहीं है<br /> जिन्दगी मौत से कभी नहीं हरती<br /> मेरे दोस्त ही तो मेरी ताकत रहे हैं<br /> इसलिए मैं हमे‘ाा कहता रहा हूं<br /> कि दोस्त से बडा कोई रि‘ता नहीं होता<br /> और ना ही दोस्ती से बडा कोई धर्म<br /> मैं तो यहां तक् कहता हू<br /> कि दोस्ती से बडी कोई विचारधारा भी नहीं होती<br /> जैसे चूल्हे में जलती आग से बडी<br /> कोई रो‘ानी नहीं होती .<br /> <br /> इसलिए मेरी गुजारि‘ा है<br /> कि उलझे हुए सवालों से टकराते हुए<br /> एक बेहतर इंसानी दुनिया बनाने के लिए<br /> मेरी यादों के साथ संघर्“ा का कारवां चलता रहे</span></p><p><span class="Apple-style-span" ><br /> मंजिल के आखिरी पडाव तक.</span></p></div></div><div class="hq gt" style="margin-top: 5px; margin-right: 15px; margin-bottom: 15px; margin-left: 15px; clear: both; "></div><div class="hi" style="background-image: initial; background-attachment: initial; background-origin: initial; background-clip: initial; background-color: rgb(242, 242, 242); padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; width: auto; border-bottom-left-radius: 6px 6px; border-bottom-right-radius: 6px 6px; "></div><div class="gA gt" style="background-image: initial; background-attachment: initial; background-origin: initial; background-clip: initial; background-color: rgb(242, 242, 242); padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; width: auto; border-bottom-left-radius: 6px 6px; border-bottom-right-radius: 6px 6px; "></div></span></div><div> <span class="Apple-style-span" ><b> याद</b></span></div><div><br /></div><div> <b> विमला किशोर</b></div><div><br /></div><div> एक पक्षी उड़ गया</div><div> मानो, हमारा प्यारा साथी छूट गया</div><div> वह पच्चीस तारीख थी</div><div> साल दो हजार ग्यारह का दूसरा महीना था</div><div> एक बिजली सी कौंध गई</div><div> आँखों में</div><div> चारो तरफ घिर आया अंधेरा</div><div> मन भी बहुत आहत हुआ</div><div> दूर, बहुत दूर चला गया वह बादलों के पार </div><div> झाँक रहा वह वहीं से </div><div> हम सबके दिलों मे</div><div> उजियारा फैलाता</div><div> आज भी खड़ा है</div><div> हम सबकी यादों में</div><div> जिन्दगी के मायने बताता</div><div> अटल</div><div> दैदिप्यमान</div><div> प्रकाश स्तम्भ की तरह </div><div> हम सबको राह दिखाता </div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space:pre"> </span></div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space:pre"><br /></span></div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-62884865182071136182011-03-04T20:27:00.000-08:002011-03-05T01:06:43.167-08:00स्मृति अनिल सिन्हा<div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6J1ZJhKagbfUYNCKZsof-XCzaF-Ue2bLK8gVDonvJck6gTXz4jmiFeZpZxUgmXv5GkisWvCXyAqHdFICQA1hDc_i8cikbPt9po3KfiFXJvy4srLLQt7elYYqmOkkw9XvWta1iDjeq0CY/s320/Picture+134.jpg" style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5580451719771803890" /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span"><div><b>स्मृति गोष्ठी</b></div><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" >स्मृति अनिल सिन्हा: बेहतर व मानवोचित दुनिया की उम्मीद का संस्कृतिकर्मी</span></div><div><br /></div><div><b>कौशल किशोर</b></div><div><br /></div><div>लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा के अचानक अपने बीच से चले जाने से हमने ऐसा मजबूत और ऊर्जावान साथी खोया है जिनसे जन सांस्कृतिक आंदोलन को अभी बहुत कुछ पाना था। उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से नई पीढ़ी को बहुत कुछ सीखना था। सŸार के दशक में और उसके बाद चले सांस्कृतिक आंदोलन के वे अगुआ थे। अनिल सिन्हा कलाओं के अर्न्तसम्बन्ध पर जनवादी, प्रगतिशील नजरिये से गहन विचार और समझ विकसित करने वाले विरले समीक्षक और मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के मानक थे। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से प्रगतिशील रचनाकर्म के बाहर के दायरे में भी उन्हें सम्मान प्राप्त था।</div><div><br /></div><div>यह विचार कवि व जसम के संयोजक कौशल किशोर ने ‘स्मृति अनिल सिन्हा’ के अन्तर्गत आयोजित स्मृति सभा में शोक प्रस्ताव के माध्यम से व्यक्त किये। जाने.माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा का निधन 25 फरवरी को पटना में मस्तिष्क आघात से हुआ। उनकी स्मृति में जन संस्कृति मंच ने उŸार प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ के प्रेमचंद सभागार में 27 फरवरी को शोकसभा का आयोजन किया। कार्यक्रम का संचालन कवि.आलोचक चन्द्रेश्वर ने किया। चन्द्रेश्वर का कहना था कि इससे बढ़कर हमारे लिए दुख की बात क्या होगी कि आज इस सभागार में शमशेर, केदार व नार्गाजुन जन्मशती का आयोजन था। अनिल सिन्हा इस समारोह के मुख्य कर्ता.धर्ता थे। लेकिन अनिलजी हमारे बीच नहीं रहे और हमें इस सभागार में उनकी स्मृति में शोकसभा करनी पड़ रही है।</div><div><br /></div><div>11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में जन्मे अनिल सिन्हा ने पटना विश्वविद्यालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्यालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कई तरह के काम किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यावर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से वे भी जुड़े रहे। 1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ, वे मंगलेश डबराल, अजय सिंह, मोहन थपलियाल आदि के साथ यहीं आ गये। तब से लखनऊ ही उनका स्थाई निवास था। अमृत प्रभात लखनऊ संस्करण के बन्द होने के बाद उन्होंने नवभारत टाइम्स में काम किया। दैनिक जागरण, रीवाँ के भी वे स्थानीय संपादक रहे। लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने वह अखबार छोड़ दिया। ‘राष्टीªय सहारा’ में साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ का भी उन्होंने सम्पादन किया था। </div><div><br /></div><div>कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में उन्होंने काम किया। ‘मठ’ नम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। पिछले दिनों उनके द्वारा अनूदित पुस्तक ‘साम्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मूलन’ छपकर आया। अनिल सिन्हा जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। जन संस्कृति मंच उŸार प्रदेश के पहले सचिव के रूप में सांस्कृतिक आंदोलन का उन्होंने नेतृत्व किया था। इस समय वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी जनवादी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। भाकपा ;मालेद्ध से उनका जुड़ाव उस वक्त से था जब पार्टी भूमिगत थी। </div><div><br /></div><div>अनिल सिन्हा को याद करते हुए उनके घनिष्ठ सहयोगी तथा कवि.पत्रकार अजय सिंह ने शोकसभा के मौके पर कहा कि अनिल सिन्हा से मेरा साथ सŸार के दशक के शुरू में ही हो गया था। हमने सांस्कृतिक.राजनीतिक आंदोलनों में मिलकर काम किया। लखनऊ से जब अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ, हम यहीं आ गये। हमारी घनिष्ठता और बढ़ी। हमने यहाँ नवचेतना सांस्कृतिक संगठन बनाया। जन संस्कृति मंच, इंडियन पीपुल्स फ्रंट तथा भकपा ;मालेद्ध में हमने साथ काम किया। इन आंदोलनों में तपकर ही अनिल सिन्हा के रचनात्मक व वैचारिक व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था। लेखन व पत्रकारिता के साथ ही अनिल की चित्रकला व संगीत में भी गहरी रूचि थी। पिछले दिनों दिल्ली में शमशेर जन्मशती आयोजन के अवसर पर अनिल ने शमशेर की कलाकृतियों पर व्याख्यान दिया था। इससे कला के बारे में उसकी गहरी समीक्षा दृष्टि का पता चलता है। अनिल के इस तरह असमय हमारे बीच से चले जाने से जो सूनापन पैदा हुआ है, उसे भर पाना आसान नहीं होगा। </div><div><br /></div><div>अनिल सिन्हा को याद करते हुए वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि अनिल सिन्हा शान्त स्वभाव के बेहतर इन्सान थे। आत्मप्रचार से दूर उनका लेखन सादगी व संघर्ष का लेखन है। उनका व्यक्तित्व ऐसा रहा है जिस पर आप भरोसा कर सकते हैं। आज के समय में ऐसे इन्सान का मिलना कठिन होता जा रहा है। वे मानवीयता के ऐसे उदाहरण हैं जिनसे सीखा जा सकता है। </div><div><br /></div><div>प्रगतिशील लेखक संघ की ओर अनिल सिन्हा को श्रद्धांजलि देते हुए आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि 1980 के बाद अमृत प्रभात में काम करते हुए राकेश के साथ अनिल सिन्हा से हर इतवार को हमारी मुलाकात हुआ करती थी। हमारे बीच कला, साहित्य तथा वामपंथी राजनीति को लेकर विचार.विमर्श होता था। विचारों की साफगोई उनके लेखन में हमें देखने को मिलती है। वे एक अच्छे समीक्षक थे। उन दिनों मैं ‘प्रयोजन’ साहित्यिक पत्रिका निकालता था। इस पत्रिका को उनका सहयोग व सुझाव मिला। उन्होंने अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ की समीक्षा की थी। अनिल सिन्हा का नजरिया मूलतः समाज को बदलने का रहा है। उनका लेखन व पत्रकारिता इसी के प्रति प्रतिबद्ध है।</div><div><br /></div><div>जनवादी लेखक संघ की ओर से ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव ने श्रद्धासुमन अर्पित किये।। उनका कहना था कि अनिल सिन्हा अत्यन्त सक्रिय रचनाकार थे। इनके जीवन में कोई दोहरापन नहीं था। जो अन्दर था, वही बाहर। आज के दौर में ऐसे रचनाकार का मिलना कठिन है। आज तो हालात ऐसी है कि दो.चार रचनाएँ क्या छपी, लेखक महान बनने की महत्वाकांक्षा पालने लगते हैं। अनिल सिन्हा इस तरह की महत्वकांक्षाओं से दूर काम में विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे, साहित्य की राजनीति से दूर। इसीलिए उपेक्षित भी रहे।</div><div><br /></div><div>हिन्दी.उर्दू लेखक शकील सिद्दीकी का कहना था कि लखनऊ के जिन दो रचनाकारों के व्यक्तित्व ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया, वे अनिल सिन्हा व मोहन थपलियाल थे। ये दोनों विश्वसनीय व्यक्ति थे। अनिल सिन्हा ने गलत को कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी खूबी यह भी थी कि अपने विरोध को भी बड़ी शालीनता से दर्ज कराते थे। कथाकार शिवमूर्ति ने अनिल सिन्हा को याद करते हुए कहा कि रेणुजी भी पटना में लम्बी मूर्छा में रहते हुए दिवंगत हुए। उनके निधन ने सबको मर्माहत किया तथा बड़ी भारी रिक्तता छोड़ी। अनिल सिन्हा ने फिर वही कथा दोहराई है। इनकी बातचीत तथा व्यवहार में जो शीतलता व शान्ति थी, वह सचमुच अदभुत थी। ये बातचीत में न सिर्फ अपनी बात कहते बल्कि दूसरों को सुनने का स्पेस भी प्रदान करते।</div><div><br /></div><div>अनिल सिन्हा के पुत्र शाश्वत सिन्हा ने इस मौके पर कहा कि मेरे पापा बेटे.बेटियो के बीच कोई फर्क नहीं करते थे और हम सभी के साथ उनका रिश्ता दोस्तों जैसा था। सात साल से मैं अमरीका में हूँ। वे इतने संवेदनशील थे कि फोन पर ही वे बातचीत से ही मेरी समस्याओं को, यहाँ तक कि मेरी खामोशी को भी पढ़ लेते थे। पापा जिस पारिवारिक परिवेश से आये थे, वह सामंती व धार्मिक जकड़न भरा था। उन्होंने इस जकड़न के खिलाफ संघर्ष करके अपने को आधुनिक व प्रगतिशील बनाया था। उन्होने यही संस्कार हमें दिये। आज हमारे लिए बड़ी चुनौती है कि पापा ने सच्चाई, सहजता, आत्मीयता, मानवता व जनपक्षधरता के जो मूल्य सहेजे थे, उन्हें हम कैसे जियें, अपने जीवन में हम उन्हें कैसे सफलीभूत करें।</div><div><br /></div><div>इस अवसर पर पी यू सी एल व राही मासूम रजा अकादमी की ओर से कवयित्री.पत्रकार वंदना मिश्र, एपवा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ताहिरा हसन, कथाकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा, लखनऊ विश्वविद्दालय के प्रो0 रमेश दीक्षित, जसम की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कवयित्री शोभा सिंह, जसम दिल्ली इकाई की सचिव पत्रकार भाषा सिंह, पत्रकार महेश पाण्डेय व अनुराग सिंह, कवि अशोक चन्द्र व भगवान स्वरूप कटियार आदि ने भी अनिल सिन्हा को अपनी शोक संवेदना प्रकट की तथा अपने विचार रखे।</div><div><br /></div><div>वक्ताओं का कहना था कि अनिल सिन्हा बेहतर व मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार हैं। वे मानते रहे हैं कि एक रचनाकार का काम हमेशा बेहतर समाज का निर्माण करना है, उसके लिए संघर्ष करना है। उनका लेखन इसी लक्ष्य को समर्पित है। इसीलिए अनिल सिन्हा जैसे रचनाकार कभी नहीं मरते। अपने काम और विचारों के साथ हमेशा हमारे बीच जिन्दा रहते हैं। ये हमारे आंदोलन के ऐसे प्रकाश स्तम्भ हैं जो हमें आगे बढ़ने की रोशनी दिखाते हैं। </div><div><br /></div></span></div><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" > दोस्तों के दोस्त - अनिल सिन्हा</span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><b> भगवान स्वरूप कटियार</b></div><div><br /></div><div>हरदिल अजीज वरिश्ळ पत्रकार- लेखक साथी अनिल सिन्हा के आकस्मिक निधन से मीडिया जगत समेत साहित्य,कला तथा संस्कृतिकर्मियों की दुनिया को गहरा झटका लगा है.यह एक </div><div>अप्रत्याषित स्तब्ध करने वाला आघात है.उन्होंने गत ्25 फरवरी 2011 को दिन में 11.50 पर्</div><div>पटना के मगध अस्पताल में अन्तिम सांस ली और जिन्दगी की ही तरह ही मौत से भी लडते</div><div>हुए हम सबका साथ छोड दिया.चलते- फिरते किसी हरदिल अजीज इंसान का अनायास चले</div><div>जाना दुखद और स्तब्धकारी तो है ही अविष्वसनीय भी लगता है. </div><div><br /></div><div>अनिलजी गत 21 फरवरी को अपनी पत्नी आषा जी के साथ अपनी छोटी बहिन और उसके परिवार से मिलने पटना जा रहे थे .पटना से उनका गहरा जुडाव और लगाव था.उनके अधिकांष परिजन पटना में ही रह्ते थे. उनकी षुरुआती जिन्दगी पटना से ही प्रारम्भ हुई थी.रास्ते में पटना जाते हुए मुगलसराय के आसपास सोते में उन्हें ब्रेनसट्रोक हुआ जिसका पता तब चला जब उनकी पत्नी आषाजी ने हांथ पकड कर उळाना चाहा पर उळने के बजाय उनका हांथ निर्जीव होकर गिर गया.आषाजी के दुख और मनास्थिति की हम कल्पना कर सकते हैं.उन्होंने तुरन्त पटना में अपने रिष्तेदारों को फोन करके कहाकि पटना स्टेषन पर डाक्टर और एम्बुलेंस लेकर आजांय .</div><div><br /></div><div>पटना पहुंच कर मगध अस्पताल में अनिलजी का इलाज षुरू हुआ जहां चिकत्सकों ने बताया कि इनके ब्रेनस्टेम में क्लोटिंग हो गयी है जिसका इलाज क्लोटिंग होने के तीन घंटे की अन्दर ही संभव है ,यह इलाज भी सिर्फ दिल्ली ,बम्बई और कोलकता में ही संम्भव है.अनिलजी डीप कोमा में चले गये .खबर मिलते ही दोनो बेटियां ऋतु,निधि दोनों दामाद अनुराग और अरषद पटना पहुंच चुके थे.सपोर्टिव ट्रीट्मेन्ट चल रहा था.सभी लोग इस इंतजार में थे कि वे कोमा से बाहर आयें तो दिल्ली ले जायं .पर वेन्टीलेटर पर रह्ते हुए कोमा की स्थिति में मरीज को कहीं षिफ्ट करना संभव नहीं होता है.षाष्वत और दिव्या भी अमेरिका से पटना के लिए रवाना हो चुके थे.सबके चेहरंो़ पर् गहरी चिंता और उदासी के साथ दिलों में एक उम्मीद पल रही थी.जिस किसी को खबर मिलती चिन्ता और षोक में डूब जाता.यह सब कैसे हो गया अचानक अप्रत्याषित.लखनऊ में हम सब षमषेर,केदार नागार्जुन जन्मषती समारोह की तैयारी में जुटे थे.इस कायर््ाक्रम की सारी परिकल्पना एवं तैयारी अनिलजी की ही थी ,सारे वक्ताओं से उन्होंने व्यक्तिगत सम्पर्क कर कार्यक्रम में षिरकत के लिए आग्रह किया था. अनिल छोट-बडे सबके दिलों के बहुत करीब थे इसलिए इस आघात से सभी आहत थे.</div><div> </div><div> हम और कौषल जी दोनों 24फरवरी को सुबह आळ बजे पटना के मगध अस्पताल पहुंच चुके थे.अस्पताल के तीसरे तल के आई.सी.यू. वार्ड के बैड नम्बर 9 पर अनिलजी अचेत</div><div>अवस्था में लेटे हुए थे.उनके षरीर के सारे अंग ळीक से काम कर रहे थे सिर्फ दिमाग के सिवा. दिमाग से काम भी तो बहुत लिया था उन्होने .लिखने-पढने के अलावा अपने दोस्तों और समाजिक सरोकारों की चिन्ताओं का बोझ उन्होने अपने नाजुक् से दिमाग पर ले रखा था. अनिलजी पूरी तरह अचेत थे और डीप कोमा थे. पर चेहरे पर वही सादगी का तेज,सौम्यता ,भोलापन और वेलौस दोस्ती का भाव रोषनी की चमक की तरह मौजूद था .हम सब की एक ही चिंता थी कि अनिलजी कोमा से बाहर आयें . पट्ना के सारे पत्रकार,चित्रकार.संस्कृतिकर्मी लेखक् तथा राजनैतिक मित्र जो भी सुनता पटना के मगध अस्पताल की ओर बदहवास सा भागता चला आता .कैसे हैं अनिलजी कब तक ळीक होंगे. उनकी हम सबको बेहद जरूरत है.पटना रेडियो उनकी बीमारी का बुलटिन लगातार प्रसारित कर रहा था.दिल्ली और लखनऊ के पत्रकार ,लेखक और संास्कृतिकर्मी कौषलजी से लगातार फोन पर हालचाल ले कर चिन्तित हो रहे थे. मंगलेष डबराल,वीरेन्द्र यादव, अमेरिका से इप्टा के राकेष सभी लोग लगातार अजय सिंह से फोन पर हालचाल ले रहे थे और चिंतित हो रहे थे.गंगाजी,गौड्जी, आर के सिन्हा आदि लगातार फोन पर हालचाल ले रहे थे और दुखी हो रहे थे. पटना में आलोक धन्वा का हाल तो बेहद बुरा था.आई़.सी.यू़. में वे अनिलजी को चिल्ला चिल्ला कर बुलाते हुए रो पडे. लगभग सभी का एक जैसा हाल था .जो नहीं रो रहे थे ,वे अन्दर से रो रहे थे.अनिलजी के दोस्तों की दुनियंा लुट रही थी.सब अपने को कंगाल महसूस कर रहे थे. दोस्तों के दोस्त ,हमारे सुख-दुख के सच्चे साथी ,हमारी हर लडाई के अग्रणी योध्दा अनिल सिन्हा का अचानक अप्रत्याषित ढंग हमारे बीच से चला जाना हम सब के लिए एक गहरा आघात है .उनके जैसा सादा - सच्चा इंसानी इंसान भला हमें कहां मिलेगा . संघर्श में तपा निर्मल व्यक्तित्व ,क्रान्तिकारी वाम राजनीत और संस्कृतिकर्म के अथक योध्दा अनिल सिन्हा अपने पीछे कितना सूनापन छोड गये हैं इसका अंदाजा लगाना बहुत मुष्किल है. बेषक हमने एक मजबूत ,प्रतिबध्द और ऊर्जावान् ऐसा साथी खोया है जिससे हमारे सांस्कृतिक आन्दोलनों अभी बहुत कुछ मिलना था और नई पीढी को बहुत कुछ सीखना था . वे सत्तर के दषक के बाद चले संास्कृतिक आन्दोलन के हर पडाव के साक्षी ही नहीं निर्माता भी थे . वे कलाओं के अन्तर्सम्बधों पर जनवादी प्रगतिषील नजरिये से गहन विचार और समझ विकसित करने वाले विरले समीक्षक थे . वे मूल्यनिश्ळ पत्रकारिता के मानक थे ण्</div><div><br /></div><div>साथी अनिल सिन्हा का जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद ,गया, बिहार में हुआ था . उन्होंने पटना युनीवर्सिटी 1962 में हिन्दी में एम.ए. किया था . युनीवर्सिटी की चाटुकारिता पूर्ण घटिया राजनीत से क्षुब्ध होकर उन्होंने अपना पी एच डी कर्म अधूरा छोड दिया .उन्होने कई तरह के महत्वपूर्ण कार्य किये थे. प्रूफरीडिंग , प्राध्यापकी ,विभिन्न विशयों पर षोध जैसे कार्य उन्होंने किये थे . सत्तर के दषक में उन्होंने पटना से “विनिमय“ नाम की साहित्यिक पत्रिका का संपादन और प्रकाषन किया जो अपने समय की चर्चित पत्रिका रही है . वे आर्यावर्त, आज , ज्योत्सना, जन, दिनमान से बतौर लेखक एवं पत्रकार जुडे रहे . वर्श 1980 में जब लकनऊ से अमृत प्रभात निकलना षुरू हुआ ,उन्होंने इसमे काम करना षुरू किया.तब से लखनऊ उनका स्थायी निवास बन गया .वे लाखनऊ के महानगर , इन्दिरा नगर आदि मुहल्लों में अपने साथियों के साथ रहे . अन्त में 3/30 पत्रकारपुरम गोमती नगर में उनका स्थायी आषियाना बन गया .उनका घर भी उन्ही की तरह सादगी और नैसर्गिक सौन्दर्य से भरपूर सचमुच घर है महज मकान नहीं .</div><div><br /></div><div> अमृत प्रभात बन्द होने के बाद उन्होंने लखनऊ में नव भारत टाइम्स ज्वाइन किया जिसमें वे बन्द होने तक काम करते रहे . नव भारत टाइम्स बन्द होने के बाद वे विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन करते रहे .हिन्दुस्तान की अधिकांष पत्र- पत्रिकाओं अनिलजी का लिखा प्रकाषित हुआ है. उनके लेखन में सादगी और धार दोनो थे .राश्ट्रीय सहारा में उन्होंने सृजन पृश्ळ का भी संपादन किया . कहानी ,समीक्षा, आलोचना, कला समीक्षा ,भेंटवार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में काम किया. उनका कहानी संग्रह “मळ“ 2005 में भावना प्रकाषन से प्रकाषित हुआ. उनकी ”हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप, एवं संभावनाएं“भी प्रकाषित हुई जो पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण पुस्तक है. उनका अनुवाद कार्य “साम्राज्यवाद का विरोध और जातियों का उन्मूलन“ अभी हाल ही में ग्रंथषिल्पी से प्रकाषित होकर आया है. अनिल सिन्हा एक बेह्तर इंसानी दुनिया बनाने के लिए निरन्तर संघर्श में विष्वास रखते थे .उनका मानना था कि रचनाकार का काम हमेषा एक बेहतर समाज की तामीर करना है,उसके लिए लडना और संघर्श करना है. उनका संपूर्ण रचनाकर्म इस ध्येय को समर्पित था. वे जनसंस्कृति मंच के संस्थापकों में थे. वे उत्तर प्रदेष जनसंस्कृति मंच के प्रथम सचिव रहे और उन्होंने संास्कृतिक आन्दोलनों का क्रान्तिकारी नेतृत्व किया. वे जनवादी आन्दोलनों के प्रकाषस्तम्भ थे . इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी संगळनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. भाकपा (माले) से उनका जुडाव उस समय से है जब वह भूमिगत संगळन था. उनका 3/30 पत्रकारपुरम गोमती नगर हम सब के लिए एक ऐसा छायादार दरख्त था जिसकी ळंडी छांव में हम सब साहित्य- संस्कृतिकर्मी आश्रय और दिषा पाते थे.</div><div><br /></div><div>हमें उनकी विरासत पर गर्व है उसे जिन्दा रखने और आगे बढाने के लिए हम संकल्प बध्द हैं. अनिल सिन्हा जैसे साथी कभी नहीं मरते . अपने काम और विचारों के साथ वे सदैव हमारे बीच हमारे साथ रहें गे.उनका दोस्ताना लहजा और अपनापन सदैव हमारे साथ रहेगा जो हमें हर मोड पर ताकत, दिषा और प्रेरणा देता रहेगा.</div><div><br /></div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-26751070076504441202011-03-02T07:22:00.000-08:002011-03-02T07:26:47.675-08:00गोरखपुर में अनिल सिन्हा की स्मृति में शोक सभा<span class="Apple-style-span" style="color: rgb(51, 51, 51); font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px; "><div class="post hentry" style="position: relative; min-height: 0px; "><h3 class="post-title entry-title" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; position: relative; font: normal normal normal 30px/normal Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; ">संस्कृति कर्मियों के लिए प्रकाश स्तम्भ थे</h3><div class="post-header" style="line-height: 1.6; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 1em; margin-left: 0px; color: rgb(153, 119, 85); "><div class="post-header-line-1"></div></div><div class="post-body entry-content" style="width: 518px; font-size: 14px; line-height: 1.5; position: relative; "><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj3-h0xF7dY4t11ol6_apyIjBiLOMIn3FWKtxXwmEktPdvLv9SBYBzkm4G0Rg5JZ2hetSiJhsgXbeIXdqUM7L9SU9t5CWteJv-FLTsU4g7V5GG5sbRIX-npZRj7XU6v4QjnriGmDaq2mkzc/s1600/LKO+Film+festival+2010+070.jpg" style="text-decoration: none; color: rgb(204, 51, 0); "><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj3-h0xF7dY4t11ol6_apyIjBiLOMIn3FWKtxXwmEktPdvLv9SBYBzkm4G0Rg5JZ2hetSiJhsgXbeIXdqUM7L9SU9t5CWteJv-FLTsU4g7V5GG5sbRIX-npZRj7XU6v4QjnriGmDaq2mkzc/s320/LKO+Film+festival+2010+070.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5578263516430718274" style="border-top-style: none; border-right-style: none; border-bottom-style: none; border-left-style: none; border-width: initial; border-color: initial; position: relative; 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संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य, कला समीक्षक, पत्रकार एवं कथाकार अनिल सिन्हा के निधन पर शनिवार (26 feb ko )को प्रेमचन्द पार्क में हुई एक शोक सभा में शहर के साहित्यकारों, संस्कृति कर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उन्हें श्रद्धाजंलि दी।<br />वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन की अध्यक्षता में जनसंस्कृति मंच द्वारा आयोजित इस शोक सभा में वक्ताओं ने कहा कि जन संस्कृति मंच के कर्मठ और विचारवान साथी अनिल सिन्हा आजीवन प्रगतिशील मूल्यों के लिए संघर्ष करते रहे। वह अपनी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता और जन पक्षधरता से कभी डिगे नहीं। वह जसम के संस्थापक सदस्य, उत्तर प्रदेश इकाई के पहले सचिव और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे। उनका संगठन की गतिविधियों के प्रति उत्साह सबके लिए प्रेरणास्पद थां। उन्होंने एक प्रतिभाशाली और प्रखर पत्रकार के रूप में कई पत्र-पत्रिकाओं, अमृत प्रभात, नव भारत टाइम्स आदि में काम किया। राष्ट्रीय सहारा के स्थानीय संस्करण में सर्जना नामक स्तम्भ लिखा। उन्होंने 70 के दशक में पटना से विनिमय नाम की साहित्यिक पत्रिका निकाल लघुपत्रिका आन्दोलन में योग दिया। उनकी कहानियों का एक संग्रह मठ चर्चित रहा. उनकी सर्जानात्मक रुचियों की परिधि बहुत व्यापक थी जिसमें पत्रकारिता से लेकर चित्रकला, सिनेमा जैसे माध्यम भी शामिल थे। सीपीआई एमएल के साथ उनका गहरा और पुराना रिश्ता था।<br />शोक सभा में युवा आलोचक कपिलदेव ने कहा कि अनिल सिन्हा ने माक्र्सवादी विचारधारा को संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरूप में उतारने का जीवन भर प्रयास किया। उन्होंने अनिल सिन्हा की स्मृति में उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर आयोजन का सुझाव दिया। शोक सभा की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कथाकार मदनमोहन ने जनसंस्कृति मंच की स्थापना के दौरान अनिल सिन्हा की सक्रियता को याद करते हुए कहा कि विचारधारा और संस्कृति कंे अन्तर सम्बन्धों को लेकर उनकी उनसे काफी संवाद रहा; उनका सम्पूर्ण लेखन जनता की मुक्ति के लिए था; वह जितने सरल व सादे थे वैचारिक रूप यसे उतने ही दृढ थे। शोक सभा मे दो मिनट मौन रखकर अनिल सिन्हा को श्रद्धाजलि दी गई। शोक सभा का संचालन करते हुए जनसंस्कृति मंच के प्रदेश सचिव मनोज कुमार सिंह ने कहा कि अनिल सिन्हा उन जैसे युवा संस्कृति कर्मियों के लिए प्रकाश स्तम्भ थे। शोक सभा में पत्रकार अशोक चैधरी, वेद प्रकाश, रंग कर्मी आरिफ अजीज लेनिन, अशोक राव, बैजनाथ मिश्र, भाकपा माले के जिला सचिव राजेश साहनी, हरिद्वार प्रसाद, बैजनाथ मिश्र, गोपाल राय, पीयूएचआर के जिला सचिव श्याममिलन आदि उपस्थित थे।<div style="clear: both; "></div></div><div class="post-footer" style="line-height: 1.6; margin-top: 10px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 10px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; color: rgb(153, 119, 85); border-top-style: dashed; border-top-width: 1px; border-top-color: rgb(119, 119, 119); "><div class="post-footer-line post-footer-line-1"><div class="post-share-buttons" style="display: inline-block; zoom: 1; margin-top: 0px !important; margin-right: 0.5em !important; margin-bottom: 0px !important; margin-left: 0.5em !important; vertical-align: middle; "><a class="goog-inline-block share-button sb-blog" href="http://www.blogger.com/share-post.g?blogID=2168757706359101130&postID=8092680455224502020&target=blog" target="_blank" title="इसे ब्लॉग करें! " style="width: 21px; height: 22px; background-image: url(http://www.blogger.com/img/share_buttons.png) !important; background-attachment: initial !important; background-origin: initial !important; background-clip: initial !important; background-color: initial !important; overflow-x: hidden; overflow-y: hidden; margin-top: 0px; margin-right: -2px; margin-bottom: 0px; margin-left: -2px; position: relative; display: inline-block; text-decoration: none; color: rgb(204, 51, 0); background-position: -21px 0px !important; background-repeat: no-repeat no-repeat !important; "><span class="share-button-link-text" style="position: absolute; left: -999px; "> करें!</span></a> <a class="goog-inline-block share-button sb-twitter" href="http://www.blogger.com/share-post.g?blogID=2168757706359101130&postID=8092680455224502020&target=twitter" target="_blank" title="Twitter पर साझा करें" style="width: 21px; height: 22px; background-image: url(http://www.blogger.com/img/share_buttons.png) !important; 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margin-top: 0px; margin-right: -2px; margin-bottom: 0px; margin-left: -2px; position: relative; display: inline-block; text-decoration: none; color: rgb(204, 51, 0); background-position: -84px 0px !important; background-repeat: no-repeat no-repeat !important; "><span class="share-button-link-text" style="position: absolute; left: -999px; ">Google Buzz पर शेयर करें</span></a></div></div><div class="post-footer-line post-footer-line-2"><span class="post-labels"></span></div><div class="post-footer-line post-footer-line-3"><span class="post-location"></span></div></div></div></span>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-67911597135751838222011-02-26T04:39:00.000-08:002011-02-26T05:50:08.109-08:00जाने - माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitgzRyKrbVKVTeDVGhQqyVGUl6AneAFDeatIKrldP8MYR-pbZ3p0fjRglkfg7NE-dhbSLC47AQSw5XQ1a0QjKbrI1Pf-a1BRfJxnoC1MXpb03gefGPa7ILdB1A-yazAElzKPJiXxuSkD8/s1600/8ykikjkgkugu.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 302px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitgzRyKrbVKVTeDVGhQqyVGUl6AneAFDeatIKrldP8MYR-pbZ3p0fjRglkfg7NE-dhbSLC47AQSw5XQ1a0QjKbrI1Pf-a1BRfJxnoC1MXpb03gefGPa7ILdB1A-yazAElzKPJiXxuSkD8/s320/8ykikjkgkugu.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5577994986896631698" /></a><br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEji0wKAJtw4UNFh-2Xq9Q6ZXgx_vS2k-n4hQvX0MmQCaW8BKPmp3NtLsS44Z70atfCX6bgk873SpdhyphenhyphenDMJw-dI9kb4vsjaRdppx2Cc5FhDlbP-16HoQn0UOXk24ZZ4Rg3IYXvRxUC5cEls/s1600/Picture+270.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEji0wKAJtw4UNFh-2Xq9Q6ZXgx_vS2k-n4hQvX0MmQCaW8BKPmp3NtLsS44Z70atfCX6bgk873SpdhyphenhyphenDMJw-dI9kb4vsjaRdppx2Cc5FhDlbP-16HoQn0UOXk24ZZ4Rg3IYXvRxUC5cEls/s320/Picture+270.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5577993973457901570" /></a><br /><span class="Apple-style-span" style="border-collapse: collapse; "><div style="margin-top: 5px; margin-right: 15px; margin-bottom: 5px; margin-left: 15px; padding-bottom: 20px; "><div style="font-family: arial, sans-serif; "><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b><br /></b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b>प्रिय साथियों, </b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b>अबतक आप सबको साथी अनिल सिन्हा के असमय गुज़र जाने का अत्यंत दुखद समाचार मिल चुका होगा.. अनिल जी जैसा सादा और उंचा इंसान , उनके जैसा संघर्ष से तपा निर्मल </b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b>व्यक्तित्व, क्रांतिकारी वा</b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b>म राजनीति और संस्कृति -कर्म का अथक योदधा अपने पीछे कितना बड़ा सूनापन छोड़ गया है, अभी इसका अहसास भी पूरी तरह नहीं हो पा रहा. यह भारी दुःख जितना आशा जी, शाश्वत, ऋतु,निधि,अनुराग , अरशद और अन्य परिजन तथा मित्रों का है उतना ही जन संस्कृति के सभी सह-कर्मियों का भी. हमने एक ऐसा साथी खोया है जिससे नयी पी</b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b>ढी को बहुत कुछ सीखना था, कृतित्व से भी और व्यक्तित्व से भी. हमारे सांस्कृतिक आन्दोलन के हर पड़ाव के वे साक्षी ही नहीं, निर्माताओं में थे. कलाओं के अंतर्संबंध पर जनवादी- प्रगतिशील नज़रिए से गहन विचार और समझ विकसित करनेवाले विरले समीक्षक, मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के मानक व्यक्तित्व के रूप में वे प्रगतिशील संस्कृति कर्म के बाहर के भी दायरे में अत्यंत समादृत रहे. उनके रचनाकार पर तो अलग से ही विचार की ज़रुरत है. जन संस्कृति मंच अपने आन्दोलन के इस प्रकाश स्त</b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b>म्भ की विरासत को आगे बढाने का संकल्प लेते हुए कामरेड अनिल सिन्हा को श्रद्धांजलि व्यक्त करता है. हम साथी कौशल किशोर द्वारा अनिल जी के जीवन और व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाली संक्षिप्त टिप्पणी नीचे दे रहे हैं. यह </b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b>टिप्पणी और अनिल जी की </b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><i><b>तस्वीर अटैचमेंट के रूप में भी आपको संप्रेषित कर रहा हूँ. प्रणय कृष्ण, महासचिव , जन संस्कृति मंच</b></i></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><br /></div><div style="-webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><b><u><span class="Apple-style-span"> जाने - माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे</span></u></b></div><div style="-webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbqyBXRZXBYm4AU8wj5QTVXYrc5cSDkvOfMJ8-fIvf2c5gxcZFIM_zToomNDVjwFaYdsvRKSlnLalZ2EbB0xSlgpgAvKAg_thO18bV4J3xGwUFXzaw50QUfIQ-1d5o49iBvVh231ShMtw/s320/Picture+352.jpg" style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5577994425500823714" /></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><br /></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; ">लखनऊ, 25 फरवरी। जाने माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे। आज 25 फरवरी को दिन के 12 बजे पटना के मगध अस्पताल में उनका निधन हुआ। 22 फरवरी को जब वे दिल्ली से </div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; ">पटना आ रहे थे, ट्रेन में ही उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ। उन्हें पटना के मगध अस्पताल में अचेतावस्था में भर्ती कराया गया। तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझते हुए अखिरकार आज उन्होंने अन्तिम सांस ली। उनका अन्तिम संस्कार पटना में ही होगा। उनके निधन की खबर से पटना, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद आदि सहित जमाम जगहों में लेखको, संस्कृ</div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; ">तिकर्मियों के बीच दुख की लहर फैल गई। जन संस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा दुख प्रकट किया है। उनके निधन को जन सांस्कृतिक आंदोलन के लिए एक बड़ी क्षति बताया है।</div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "> </div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; ">ज्ञात हो कि अनिल सिन्हा एक जुझारू व प्रतिबद्ध लेखक व पत्रकार रहे हैं। उनका जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विशविद्दालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्दालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्हों</div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; ">ने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। उन्होंने कई तरह के काम किये। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यवर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से वे जुड़े रहे। 1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ उन्होंने इस अखबार में काम किया। अमृत प्रभात लखनऊ में बन्द होने के बाद में वे नवभारत टाइम्स में आ गये। दैनिक जागरण, रीवाँ के भी वे स्थानीय संपादक रहे। लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने वह अखबार छोड़ दिया।</div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><br /></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; ">अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे हैं। वे मानते रहे हैं कि एक रचनाकार का काम हमेशा एक बेहतर समाज का निर्माण करना है, उसके लिए संघर्ष करना है। उनका लेखन इस ध्येय को समर्पित है। वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। वे जन संस्कृति मंच उŸार प्रदेश के पहले सचिव थे। वे क्रान्तिकारी वामपंथ की धारा तथा भाकपा ;मालेद्ध से भी जुड़े थे। इंडियन नीनुल्स फ्रंट जेसे क्रान्तिकारी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। इस राजनीति जुड़ाव ने उनकी वैचारिकी का निर्माण किया था।</div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnvw6Pp0u9aCqRSnENs98P3AyV4kFJ8xPDe0j5QbxwlLnl3SBpjdl-kLtg0EQxCTexU8N71L8DGVKEM9qQ_tU5C1vZGurbo68JUIX2Y4UER3z1O6O0xV_FsiAk0UMfUmVSjNH0YAIi6Ao/s320/Picture+211.jpg" style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5577982167884808114" /></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; ">कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में उन्होंने काम किया। ‘मठ’ नम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। पिछले दिनों उनके द्वारा अनुदित पुस्तक ‘सामा्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मुलन’ छपकर आया थ। उनकी सैकड़ों रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में छपती रही है। उनका रचना संसार बहुत बड़ा है , उससे भी बड़ी है उनको चाहने वालों की दुनिया। मृत्यु के </div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; ">अन्तिम दि</div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; ">नों तक वे अत्यन्त सक्रिय थे तथा 27 फरवरी को लखनऊ में आयोजित शमशेर, नागार्जुन व केदार जन्तशती आयोजन के वे मुख्य कर्मा.णर्ता थे।</div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><br /></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; ">उनके निधन पर शेक प्रकट करने वालों में मैनेजर पाण्डेय, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, प्रणय कृष्ण, रामजी रायअशोक भैमिक, अजय सिंह, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजेन्द्र कुमार, भगवान स्वरूप् कटियार, राजेश कुमार, कौशल किशोर, गिरीष चन्द्र श्रीवास्तव, चन्द्रेश्वर, वीरेन्द्र यादव, दयाशंक राय, वंदना मिश्र, राणा प्रताप, समकालीन लोकयुद्ध के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय आदि रचनाकार प्रमुख हैं। अपनी संवेदना प्रकट करते हुए जारी वक्तव्य में रचनाकारों ने कहा कि अनिल सिन्हा आत्मप्रचार से दूर ऐसे रचनाकार रहे हैं जो संघर्ष में यकीन करते थे। इनकी आलोचना में सृर्जनात्मकता और शालीनता दिखती है। ऐसे रचनाकार आज विरले मिलेंगे जिनमे इतनी वैचारिक </div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; ">प्रतिबद्धता और सृर्जनात्मकता हो। इनके निधन से लेखन और विचार की दुनिया ने एक अपना सच्चा व ईमानदार साथी खो दिया है। </div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><b><br /></b></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><b>कौशल किशोर</b></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><b>संयोजक</b></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><b>जन संस्कृति मंच, लखनऊ</b></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><br /></div><div style="font-size: 13px; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><span class="Apple-style-span" style="-webkit-border-horizontal-spacing: 0px; -webkit-border-vertical-spacing: 0px; "><b><br /></b></span></div><div><b><br /></b></div><div style="-webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><span class="Apple-style-span" style="-webkit-border-horizontal-spacing: 0px; -webkit-border-vertical-spacing: 0px; "><div style="font-size: 13px; ">जन संस्कृति मंच के कर्मठ और विचारवान साथी अनिल सिन्हा का आज 25 फरवरी को पूर्वान्ह 11 बजे निधन हो गया. 11 जनवरी, 42 को पैदा हुए अनिल जी ने पटना विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी की और तभी प्रगतिशील मूल्यों के लिए संघर्ष करने वाली सामाजिक शक्तियों के साथ सहयोग करने का संकल्प लिया. वे आजीवन इस संकल्प को निभाते रहे. वे कभी अपनी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता और जन पक्षधरता से कभी डिगे नहीं. वे ज स म के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. ज स म की उत्तर प्रदेश इकाई के पहले सचिव के रूप में उन्होंने ज स म को सक्रिय करने में जो भूमिका निभाई, वह अविस्मरणीय है. ज स म की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के महत्वपूर्ण अंग के रूप में वे अभी भी अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे. लगभग एक वर्ष पहले उन्हें पक्षाघात हुआ था लेकिन उसके बाद भी संगठन की गतिविधियों के प्रति उनका उत्साह हम सब के लिए बेहद प्रेरणापद था. यह उनके मनोबल और अदम्य जिजीविषा का परिणाम था कि उनका स्वास्थ्य सुधर रहा </div><div style="font-size: 13px; "><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRxdWQjH0He6s3Pb_70_Xvv_PHnBFkTNootG_4hxMbkAkKbWMiFLTjfAibWWB0teqeE8FWoyWzaDwiejHgxINtqmEHeEZLFr_uQFJwhtvQ1eDf9lgRZafkc8Gm2y4AXltRN44umrajY7E/s320/Picture+270.jpg" style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5577984852140967794" />था. ज स म की गतिविधियों में पूर्ववत </div><div style="font-size: 13px; ">उत्साह के साथ उनकी भागीदारी देखकर हमलोग उनसे बराबर आशान्वित रहते थे. आज उनके आकस्मिक निधन के समाचार ने हम सब को हतसंज्ञ कर दिया. वे स्थाई तौर पर लखनऊ में रह रहे थे और पिछले दिनों एक विवाह में सम्मिलित होने पटना गए थे. वहीं से लौटने को थे कि एकाएक गंभीर रूप से पुनः अस्वस्थ हुए और वहीं पटना के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया.</div><div style="font-size: 13px; ">अनिल जी ने एक प्रतिभाशाली और प्रखर पत्रकार के रूप में भी कई पत्र-पत्रिकाओं, अमृत प्रभात, न भा टा आदि</div><div style="font-size: 13px; "> में काम किया. राष्ट्रीय सहारा के स्थानीय संस्करण में <b>सर्ज़ना</b> नामक एक स्तम्भ लिखते रहे. उन्होंने 70 के दशक में पटना से <b>विनिमय</b> नाम की साहित्यिक पत्रिका निकाल लघुपत्रिका आन्दोलन में योग दिया. उनकी कहानियों का एक संग्रह<b> मठ</b> चर्चित रहा. उनकी सर्ज़ानात्मक रुचियों की परिधि बहुत व्यापक थी जिसमें पत्रकारिता से लेकर चित्रकला, सिनेमा जैसे माध्यम भी शामिल थे. सी पी आई एम एल के साथ उनका गहरा और पुराना रिश्ता था. कठिन दिनों में भी वे संगठन के साथी रहे. ऐसे प्रतिबद्ध और अविचलित रहने वाले अपने प्रखर साथी के न रहने पर जो क्षति हमें हुई है, वह अपूरणीय है. हम अनिल जी के शोकाकुल परिवार के लिए कामना करते हैं कि उन्हें यह दुःख </div><div style="font-size: 13px; ">सहने की शक्ति मिले. </div><div style="font-size: 13px; "><br /></div><div style="font-size: 13px; "><b>प्रो. राजेन्द्र कुमार </b></div><div style="font-size: 13px; "><b>(अध्यक्ष)</b></div><b><span class="Apple-style-span">ज स म उत्तर प्रदेश</span><br /></b></span></div><div style="-webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div></div></div><div style="-webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><span style="color: rgb(80, 0, 80); "><span class="Apple-style-span" style="color: rgb(0, 0, 0); -webkit-border-horizontal-spacing: 0px; -webkit-border-vertical-spacing: 0px; "><div class="gmail_quote"><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-XzloIC27iW4-cSBryQVMmTKpT7PvKRQPFuS_-l7QMis2fN6P3Sok_Bue1A8PYuuYCWhl9EecONR9XIRohn0TmH-VoTlTaGQgPiE4IcIyg3hEz7Zptbb0qULCOiGJ2ZDURqjdih4Y9Zs/s320/Picture+222.jpg" style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5577983419639961282" /><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0in; margin-right: 0in; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">यूं </span></span><span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">च</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">ले गये भाई अनिल सिन्हा? </span><span> 23 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">जनवरी के ई</span><span><span>-</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">मेल में आप ने वादा किया था कि </span><span>25 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">फरवरी को लखनऊ आ जाऊंगा । आना तो दूर</span><span>, </span><span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal; ">स</span><span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">दा-सदा के लिए शरीरिक दूरी बना ली । आप थे तो पत्रकारपुरम की ओर अनायास मुड़ जाता था । जाता तो भाभी जी </span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">बहुत कुछ जबरदस्ती खिलाती और आप बहुत प्यार से घर-परिवार, देश-समाज, साहित्य-संस्कृति पर बोलते-बतियाते । क्या बताऊं, लखनऊ बसने के बाद, आप का होना, अभिभावक का होना था । इतनी जल्दी टुअर कर चल दिए । जाइए,<span> </span>मैं नहीं बोलता आप से </span><span><span>?</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "> यह भी कोई बात हुई । </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "><span> </span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">जब मैं बीमार था पिछले दिनों</span><span><span>, </span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">कितनी बार देखने आये थे आप <span> </span></span><span><span>?</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "> <span> </span>साथ में भाभी जी भी थीं ।<span> </span>अब<span> </span></span><span><span>?</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "> <span> </span>कौन देखेगा मुझे । अब तो मुझे पक्का विश्वास है कि आप लोकरंग में भी नहीं आयेंगे । अब तक तो आप आते ही रहे</span><span><span>, </span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "><span> </span>बेहतर करने के बारे में सिखाते रहे ।<span> </span>अब <span> </span></span><span><span>?</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "> <span> </span>क्या करूं फोल्डर से नाम निकाल दूं <span> </span></span><span><span>?</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "> <span> </span>लेकिन दिल में जो कसक है उसका क्या <span> </span></span><span><span>?</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "> <span> </span>दिल के फोल्डर जो आप की स्मृति है उसका क्या <span> </span></span><span><span>?</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "> <span> </span>पटना आपकी कर्म</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">भूमि थी</span><span><span>, </span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">वहां जाकर आपने चीरनिद्रा ग्रहण कर ली । अब आप के चाहने वाले</span><span><span>, </span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">आपके संगी-साथियों पर जो बीत रही है उसके बारे कुछ तो विचार किये होते । विगत तीन दिनों से मन खटक रहा था पर एक विश्वास भी कि आप आयेंगे जरूर । कुछ दिन पूर्व ही आप ने<span> </span>27 फरवरी के कार्यक्रम के लिए </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; ">मुझसे मैंनेजर पाण्डेय का रेलवे आरक्षण कराने को कहा था जिसे मैंने तत्काल करा कर भेज दिया था । अब आप के कारण वह सब खत्म । संचालक तो आप ही थे <span> </span></span><span><span>?</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "><span> </span>ऐसा धोखा <span> </span></span><span><span>?</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "> <span> </span>मुझे तो अब भी विश्वास नहीं होता कि आप ऐसा करेंगे <span> </span></span><span><span>?</span></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; "><span> </span>जाइये मैं आप से नहीं बोलता ... । ----मेरे भा...ई<span> </span>।</span></p><p class="MsoNormal" style="margin-top: 0in; margin-right: 0in; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><span><span> </span></span><span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal; font-size: medium; "><b>सुभाष चन्द्र कुशवाहा</b> <span> </span></span></p><br /><a href="http://sigads.rediff.com/RealMedia/ads/click_nx.ads/www.rediffmail.com/signatureline.htm@Middle?" target="_blank" style="color: rgb(0, 0, 204); font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><img src="http://www.blogger.com/post-edit.g?blogID=3740312506965112152&postID=6791159713575183822" /></a></div><div style="font-family: arial, sans-serif; font-size: 13px; "><br /></div></span></span></div></div><div style="font-size: 13px; margin-top: 5px; margin-right: 15px; margin-bottom: 15px; margin-left: 15px; clear: both; font-family: arial, sans-serif; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "></div></span>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-2210757550477356732011-02-07T08:31:00.000-08:002011-02-08T06:56:09.885-08:00गोरख पांडेय स्मृति संकल्प<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitxQ7bMdTGNIWSgYE-Yv9AM8gug3HVWo7fwoayAd24UFnBnGBKr3O1rMHGfu-L7IrAu8PlAalcxCMX6PkVgxzpWTRBGNlCTXFT2S917P-BerkuaH4vlZZHundKPZNLT0MxjYEviRgCdRw/s1600/gorakh+smirti+udghatankarta+pranay+krishn.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitxQ7bMdTGNIWSgYE-Yv9AM8gug3HVWo7fwoayAd24UFnBnGBKr3O1rMHGfu-L7IrAu8PlAalcxCMX6PkVgxzpWTRBGNlCTXFT2S917P-BerkuaH4vlZZHundKPZNLT0MxjYEviRgCdRw/s320/gorakh+smirti+udghatankarta+pranay+krishn.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5571331809581848002" /></a><br /><div><span class="Apple-style-span"><b>जसम, उ.प्र. का पांचवा राज्य सम्मेलन</b></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span">गोरख स्मृति संकल्प और जसम, उत्तर प्रदेश का पांचवा राज्य सम्मेलन 29-30 जनवरी 2011 को कवि गोरख पांडेय के गांव में संपन्न हुआ। गोरख के गुजरने के 21 साल बाद जब पिछले बरस लोग देवरिया जनपद के इस </span></div><div><span class="Apple-style-span">‘पंडित का मुंडेरा’ गांव में जुटे थे, तब करीब 65 लोगों ने गोरख से जुड़ी अपनी यादों को साझा किया था। इस बार भी वे उत्प्रेरक यादें थीं। उनके सहपाठी अमरनाथ द्विवेदी ने संस्कृत विश्वविद्यालय में छात्रसंघ के अध्यक्ष और बीचयू में एक आंदोलनकारी छात्र के बतौर उनकी भूमिका को याद किया। उन्होंने बताया कि गोरख अंग्रेजी के वर्चस्व के विरोधी थे, लेकिन हिंदी के कट्टरतावाद और शुद्धतावाद के पक्षधर नहीं थे। बीचयू में संघी कुलपति के खिलाफ उन्होंने छात्रों के आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसके कारण उन्हें विश्वविद्यालय प्रशासन की यातना भी झेलनी पड़ी। साम्राज्यवादी-सामंती शोषण के खिलाफ संघर्ष के लिए उन्होंने नक्सलवादी आंदोलन का रास्ता चुना और उसके </span><span class="Apple-style-span">पक्ष में लिखा। जहां भी जिस परिवार के संपर्क में वे रहे उसे उस आंदोलन से जोड़ने की कोशिश की। भर्राई हुई आवाज में राजेेंद्र मिश्र ने उनकी अंतिम यात्रा में उमड़े छात्र-नौजवानों, रचनाकारों और बुद्धिजीवियों के जनसैलाब को फख्र से याद करते हुए कहा कि मजदूरों और गरीबों की तकलीफ से वे बहुत </span><span class="Apple-style-span">दुखी रहते थे। फसल कटाई के समय वे हमेशा उनसे कहते कि पहले वे अपनी जरूरत भर हिस्सा घर ले जाएं, उसके बाद ही खेत के मालिक को दें। पारसनाथ जी के अनुसार वे कहते थे कि अन्याय और शोषण के राज का तख्ता बदल देना है और सचमुच उनमें तख्ता बदल देने की ताकत थी। गोरख की बहन बादामी देवी ने बड़े प्यार से उन्हें याद किया। उन्हें सुनते हुए ऐसा लगा जैसे गोरख की बुआ भी वैसी ही रही होंगी, जिन पर उन्होंने अपनी एक मशहूर कविता लिखी</span>थी।</div><div><span class="Apple-style-span"></span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span">जसम महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिस संगठन को गोरख ने बनाया था उसकी तरफ से उनकी कविता और विचार की दुनिया को याद करते हुए खुद को नई उर्जा से लैस करने हमलोग उनके गांव आए हैं। गोरख ने मेहनतकश जनता के संघर्ष और उनकी संस्कृति को उन्हीं की बोली और धुनों में पिरोकर वापस उन तक पहुंचाया था। उन्होंने सत्ता की संस्कृति के प्रतिपक्ष में जनसंस्कृति को खड़ा किया था, आज उसे ताकतवर बनाना ही सांस्कृतिक आंदोलन का प्रमुख कार्यभार है। इसके बाद ‘जनभाषा और जनसंस्कृति की चुनौतियां’ विषय पर जो संगोष्ठी हुई वह भी इसी फिक्र से बावस्ता थी। </span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span">आलोचक गोपाल प्रधान दो टूक तरीके से कहा कि हर चीज की तरह संस्कृति का निर्माण भी मेहनतकश जनता करती है, लेकिन बाद में सत्ता उस पर कब्जा करने की कोशिश करती है। भोजपुरी और अन्य जनभाषाओं का बाजारू इस्तेमाल इसलिए संभव हुआ है कि किसान आंदोलन कमजोर हुआ है। समकालीन भोजपुरी साहित्य के संपादक अरुणेश नीरन ने कहा कि जन और अभिजन के बीच हमेशा संघर्ष होता है, जन के पास एक भाषा होती है जिसकी शक्ति को अभिजन कभी स्वीका</span>र नहीं करता, क्योंकि उसे स्वीकार करने का मतलब है उस जन की शक्ति को भी स्वीकार करना।</div><div><br /></div><div> कवि प्रकाश उदय का मानना था कि सत्ता की संस्कृति के विपरीत जनता की संस्कृति हमेशा जनभाषा में ही अभिव्यक्त होगी। कवि बलभद्र की मुख्य चिंता भोजपुरी की रचनाशीलता को रेखांकित किए जाने और भोजपुरी पर पड़ते बाजारवादी प्रभाव को लेकर थी। प्रो. राजेंद्र कुमार ने कहा कि जीवित संस्कृतियां सिर्फ यह सवाल नहीं करतीं कि हम कहां थे, बल्कि वे सवाल उठाती हैं कि हम कहां हैं। आज अर्जन की होड़ है, सर्जन के लिए स्पेस कम होता जा रहा है। सत्ता की संस्कृति हर चीज की अपनी जरूरत और हितों के अनुसार अनुकूलित करती है, जबकि संस्कृति की सत्ता जनता को मुक्त करना चाहती है। प्रेमशीला शुक्ल ने जनभाषा के जन से कटने पर फिक्र जाहिर की। विद्रोही जी ने कहा कि हिंदी और उससे जुड़ी जनभाषाओं के बीच कोई टकराव नहीं है, बल्कि दोनों का विकास हो रहा है। हमें गौर इस बात पर करना चाहिए कि उनमें कहा क्या जा रहा है।</div><div><br /></div><div>संगोष्ठी के अध्यक्ष और सांस्कृतिक-राजनैतिक आंदोलन में गोरख के अभिन्न साथी रामजी राय ने कहा कि गोरख उन्हें हमेशा जीवित लगते हैं, वे स्मृति नहीं हैं उनके लिए। जनभाषा में लिखना एक सचेतन चुनाव था। उन्होंने न केवल जनता की भाषा और धुनों को क्रांतिकारी राजनीति की उर्जा से लैस कर उन तक पहुंचाया, बल्कि खड़ी बोली की कविताओं को भी लोकप्रचलित धुनों में ढाला, ‘पैसे का गीत’ इसका उदाहरण है। अपने पूर्ववर्ती कवियों और शायरों की पंक्तियों को भी गोरख ने बदले हुए समकालीन वैचारिक अर्थसंदर्भों के साथ पेश किया। रामजी राय ने कहा कि जनभाषाएं हिंदी की ताकत हैं और बकौल त्रिलोचन हिंदी की कविता उनकी कविता है जिनकी सांसों को आराम न था। सत्ता के पाखंड और झूठ का निर्भीकता के साथ पर्दाफाश करने के कारण ही गोरख की कविता जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हुई। ‘समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई’ संविधान में समाजवाद का शब्द जोड़कर जनता को भ्रमित करने की शासकवर्गीय चालाकी का ही तो पर्दाफाश करती है जिसकी लोकप्रियता ने भाषाओं की सीमाओं को भी तोड़ दिया था, कई भाषाओं में इस गीत का अनुवाद हुआ। रामजी राय ने गोरख की कविता ‘बुआ के नाम’ का जिक्र करते हुए कहा कि मां पर तो हिंदी में बहुत-सी कविताएं लिखी गई हैं, पर यह कविता इस मायने में उनसे भिन्न है कि इसमें बुआ को मां से भी बड़ी कहा गया है। संगोष्ठी का संचालन आलोचक आशुतोष कुमार ने किया।</div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span">सांस्कृतिक सत्र में हिरावल (बिहार) के संतोष झा, समता राय, डी.पी. सोनी, राजन और रूनझुन तथा स्थानीय गायन टीम के जितेंद्र प्रजापति और उनके साथियों ने गोरख के गीतों का गायन किया। संकल्प (बलिया) के आशीष त्रिवेदी, समीर खान, शैलेंद्र मिश्र, कृष्ण कुमार मिट्ठू, ओमप्रकाश और अतुल कुमार </span></div><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4OEc9U3B24fJF6tvUDlHKz7XYwaD8GVb78EwrDS28aOoUYadUjnQvGRstuoXS9ZCy18XYs4igOPI5bcJjysLFg871Rc0Q6Z0fHgNwbEIWPjwJVaYOa7AnN3_CndbsEHWo5dCzNqtGUWM/s320/hamare+vatan+ki+nayi+jindgi+ho+by+hirawal.jpg" style="text-align: center;float: right; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 10px; margin-left: 10px; cursor: pointer; width: 320px; height: 240px; " border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5570988508658034274" /><div><span class="Apple-style-span">राय ने गोरख पांडेय, अदम गोंडवी, उदय प्रकाश, विमल कुमार और धर्मवीर भारती की कविताओं पर आधारित एक प्रभावशाली नाट्य प्रस्तुति की। आशीष मिश्र ने भिखारी ठाकुर के मशहूर नाटक विदेशिया के गीत भी सुनाए, इस दौरान लोकधुनों का जादुई असर से लोग मंत्रमुग्ध हो गए। इस अवसर पर एक काव्यगोष्ठी भी हुई, जिसमें अष्टभुजा शुक्ल, कमल किशोर श्रमिक, रमाशंकर यादव विद्रोही, राजेंद्र कुमार, कौशल किशोर, रामजी राय, प्रभा दीक्षित, चंद्रेश्वर, भगवान स्वरूप कटियार, डॉ. चतुरानन ओझा, सच्चिदानंद, मन्नू राय, सरोज कुमार पांडेय ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। संचालन सुधीर सुमन ने किया। </span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span">सम्मेलन में प्रतिनिधियों ने मनोज सिंह को जसम, उ.प्र. के राज्य सचिव और प्रो. राजेद्र कुमार को अध्यक्ष के रूप में चुनाव किया। इस अवसर पर एक स्मारिका भी प्रकाशित की गई है, जिसमें गोरख की डायरी से प्राप्त कुछ अप्रकाशित कविताएं, जनसंस्कृति की अवधारणा पर उनका लेख और उनके जीवन और रचनाकर्म से संबंधित शमशेर बहादुर सिंह, महेश्वर और आशुतोष के लेख और साक्षात्कार हैं। </span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><span class="Apple-style-span">इस बीच 29 जनवरी को बिहार के आरा और समस्तीपुर में भी गोरख की स्मृति में आयोजन हुए। आरा में काव्यगोष्ठी की अध्यक्षता कथाकार नीरज सिंह, आलोचक रवींद्रनाथ राय और जसम के राज्य अध्यक्ष रामनिहाल गंुजन ने की तथा संचालन राकेश दिवाकर ने किया। इनके अतिरिक्त सुमन कुमार सिंह, ओमप्रकाश मिश्र, सुनील श्रीवास्तव, के.डी. सिंह, कृष्ण कुमार निर्मोही, भोला जी, अरुण शीतांश, संतोष श्रेयांस, जगतनंदन सहाय, अविनाश आदि ने अपनी कविताओं का पाठ किया तथा युवानीति के कलाकारों ने गोरख के गीत सुनाए। समस्तीपुर में डॉ. सुरेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में गोरख की याद में आयोजित संकल्प संगोष्ठी में रामचंद्र राय ‘आरसी’, डॉ. खुर्शीद खैर, डॉ. मोईनुद्दीन अंसारी, डॉ. एहतेशामुद्दीन, डा. सीताराम यादव और डॉ. सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने अपने विचार रखे।</span></div><div><span class="Apple-style-span"><br /></span></div><div><b><span class="Apple-style-span">सुधीर सुमन </span></b></div><div><br /></div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-23997248919453740852011-01-23T23:16:00.000-08:002011-01-23T23:19:25.201-08:00<span class="Apple-style-span" style="font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; color: rgb(51, 51, 51); line-height: 21px; "><h2 style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 5px; padding-right: 0px; padding-bottom: 5px; padding-left: 0px; letter-spacing: -0.05em; border-bottom-width: 1px; border-bottom-style: solid; border-bottom-color: rgb(234, 233, 228); border-top-width: 0px; border-top-style: solid; border-top-color: rgb(234, 233, 228); ">शमशेर की कविता में प्राइवेट-पब्लिक के बीच अंतराल नहीं : डंगवाल</h2><div style="margin-top: 10px; margin-right: 0px; margin-bottom: 10px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; display: block; border-bottom-width: 1px; border-bottom-style: dotted; border-bottom-color: rgb(51, 51, 51); "><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; "><strong style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; ">नई दिल्ली: </strong>शमशेर अपनी काव्य प्रेरणाओं को ऐतिहासिक संदर्भों के साथ जोड़ते हैं। उनकी कविता में प्राइवेट-पब्लिक के बीच कोई अंतराल नहीं है। उनसे हमें भौतिक दुनिया की सुंदर सच्चाइयों से वाबस्ता रहने की सीख मिली। 21 जनवरी को गांधी शांति प्रतिष्ठान में जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित दो दिवसीय शमशेर जन्मशती समारोह में ‘शमशेर और मेरा कविकर्म’ नामक संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए चर्चित कवि वीरेन डंगवाल ने यह बात कही। इस संगोष्ठी से पूर्व शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और फैज की रचनाओं पर आधारित चित्रकार अशोक भौमिक द्वारा बनाए गए पोस्टरों और जनकवि रमाशंकर विद्रोही की पुस्तक ‘नई खेती’ का लोकार्पण प्रसिद्ध आलोचक डॉ. मैनेजर पांडेय ने किया। डॉ. पांडेय ने कहा कि कविता को जनता तक पहुंचाने का काम जरूरी है। विद्रोही भी अपनी कविता को जनता तक पहुंचाते हैं। किसान आत्महत्याओं के इस दौर में ऐसे कवि और उनकी कविता का संग्रह आना बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने यह भी कहा कि चित्रकला के जरिए कविता को विस्तार दिया जा सकता है। इस मौके पर कवि कुबेर दत्त द्वारा संपादित शमशेर पर केंद्रित फिल्म का प्रदर्शन किया गया, जिसमें उनके समकालीन कई कवियों ने उनकी कविता के बारे में अपने विचार व्यक्त किए थे।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">कवि अनामिका ने कहा कि शमशेर की कविताएं स्त्रियों के मन को छुने वाली हैं। वे बेहद अंतरंग और आत्मीय हैं। वे सरहदों को नहीं मानतीं। कवि मदन कश्यप ने उन्हें प्रेम और सौंदर्य का कवि बताते हुए कहा कि वह सामंती-धार्मिक मूल्यों से बनी नैतिकता को कविता में तोड़ते हैं, पर उसे सीधे चुनौती देने से बचना चाहते हैं। इसलिए उनकी प्रेम कविताओं में अमूर्तन है। त्रिनेत्र जोशी ने कहा कि शमशेर संवेदनात्मक ज्ञान के कवि हैं। अपने ज्ञान और विचार को संवेदना को कैसे संवेदना के जरिए समेटा जाता है, हमारी पीढ़ी ने उनसे यही सीखा है। शोभा सिंह का कहना था कि शमशेर बेहद उदार और जनपक्षधर थे। स्वप्न और यथार्थ की उनकी कविताओं में गहरा मेल दिखाई पड़ता है। मार्क्सवाद के प्रति उनकी पक्षधरता थी और स्त्री की स्वतंत्र बनाने पर उनका जोर था। उनके प्रभाव से उनका कविता, मार्क्सवाद और जन-आंदोलन से जुड़ाव हुआ। इब्बार रब्बी ने शमशेर की रचनाओं और जीवन में निजत्व के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि उनकी काव्य पंक्तियां मुहावरे की तरह बन गई हैं। नीलाभ ने कहा कि शमेशर का व्यक्ति जिस तरह से जीवन को देखता है, उनकी कविता उसी का लेखाजोखा है। उनकी कविता में 1947 से पहले आंदोलन से उपजा आशावाद भी है और उसके बाद के मोहभंग से उपजी निराशाएं भी हैं। इसके साथ ही पार्टी और व्यक्ति का द्वंद्व भी। गिरधर राठी ने कहा कि भाषा और शब्दों का जैसा इस्तेमाल शमशेर ने किया, वह बाद के कवियों के लिए एक चुनौती-सी रही है। वे सामान्य सी रचनाओं में नयापन ढूंढ लेने वाले आलोचक भी थे। ऐसा वही हो सकता है जो बेहद लोकतांत्रिक हो। मंगलेश डबराल ने कहा कि शमशेर मानते थे कि कविता वैज्ञानिक तथ्यों का निषेध नहीं करती। उनकी कविता आधुनिकवादियों और प्रगतिवादियों- दोनों के लिए एक चुनौती की तरह रही है। कथ्य और रूप के द्वंद्व को सुलझाने के क्रम में हर कवि को शमशेर की कविता से गुजरना होगा। यद्यपि नागार्जुन के बाद उनकी कविता के सर्वाधिक पोस्टर बने, लेकिन वे जनसंघर्षों के नहीं, बल्कि संघर्षों के बाद की मुक्ति के आनंद के कवि हैं। संगोष्ठी का संचालन युवा कवि अच्युतानंद मिश्र ने किया।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">दूसरे सत्र में काव्यपाठ की शुरुआत शमशेर द्वारा पढ़ी गई उनकी कविताओं के वीडियो के प्रदर्शन से हुई। काव्यपाठ की अध्यक्षता इब्बार रब्बी और गिरधर राठी ने की तथा संचालन आशुतोष कुमार ने किया। शोभा सिंह, कुबेर दत्त, दिनेश कुमार शुक्ल, लीलाधर मंडलोई, अनामिका, रमाशंकर यादव विद्रोही, राम कुमार कृषक, मदन कश्यप, नीलाभ, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, त्रिनेत्र जोशी, पंकज चतुर्वेदी आदि ने अपनी कविताएं सुनाईं, जिनमें कई कविताएं शमशेर पर केंद्रित थीं।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; "><strong style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; ">समारोह के दूसरे दिन</strong> 22 जनवरी को आयोजित कार्यक्रम कर अध्यक्षता करते हुए चर्चित मार्क्सवादी आलोचक प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि शमशेर की कविताएं विद्वानों के लेखों या शब्दकोशो के जरिए कम समझ में आती हैं, जीवन-जगत के व्यापक बोध से उनकी कविताएं समझ में आ सकती हैं। प्रगतिशील और गैरप्रगतिशील आलोचना में यह फर्क है कि प्रगतिशील आलोचना रचना को समझने में मदद करती है, लेकिन गैरप्रगतिशील आलोचना रचना के प्रति समझ को और उलझाती है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">साहित्यालोचक प्रो. नित्यानंद तिवारी ने कहा कि कठिन प्रकार में बंधी सत्य सरलता बिना किसी भीतर से जुड़ी़ विचारधारा के बिना संभव नहीं है। शमशेर का गद्य जीवन से जुड़ा गद्य है। वे जनसामान्य के मनोभाव की अभिव्यक्ति के लिए गद्य को प्रभावशाली मानते थे। गद्य ही सीमाएं को तोड़ता हैं। इसे मुक्ति का माध्यम समझना चाहिए। वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि एक पल शमशेर की कविता में बहुत आता है, लेकिन यह असीम से जुड़ा हुआ पल है। काल के प्रति शमशेर का जो रुख है, वह बेहद विचारणीय है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">इलाहाबाद से आए आलोचक प्रो. राजेंद्र कुमार ने कहा कि शमशेर ऐसे कवि थे जो अभावों से अपनी भावमयता को संपन्न करते रहे। तमाम किस्म की प्रतिकूलताओं से उनकी होड़ रही। वह हकीकत को कल्पना के भीतर से बाहर लाने की तमन्ना वाले कवि है। कवि-आलोचक सुरेश सलिल ने शमशेर, मुक्तिबोध, केदार और नागार्जुन जैसे कवियों को आपस में अलगाए जाने की कोशिशों का विरोध करते हुए इस पर जोर दिया कि इन सारे कवियों की सांस्कृतिक-वैचारिक सपनों की परंपरा को आगे बढ़ाए जाने की जरूरत है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">युवा कथाकार अल्पना मिश्र ने कहा कि शमशेर का गद्य पूरे जनजीवन के यथार्थ को कविता में लाने के लिए बेचैन एक कवि का वैचारिक गद्य है। यह गद्य जबर्दस्त पठनीय है। कला का संघर्ष और समाज का संघर्ष अलग नहीं है, इस ओर वह बार-बार संकेत करते हैं। युवा कथाकार योगेंद्र आहूजा ने कहा कि शमशेर केवल कवियों के कवि नहीं थे। नूर जहीर ने शमशेर से जुड़ी यादों को साझा करते हुए कहा कि हिंदी-उर्दू की एकता के वह जबर्दस्त पक्षधर थे। उर्दू के मिजाज को समझने पर उनका जोर था। गोबिंद प्रसाद ने शमशेर की रूमानीयत का पक्ष लेते हुए कहा कि उनके समस्त रोमान के केंद्र में मनुष्य का दर्द मौजूद है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने कहा कि शमशेर और अज्ञेय की काल संबंधी दृष्टियों में फर्क है। शमशेर एक क्षण के भीतर के प्रवाह को देखने की कोशिश करते हैं। उनकी कविता एक युवा की कविता है, जो हर तरह की कंडिशनिंग को रिजेक्ट करती है। कवि-पत्रकार अजय सिंह ने शमशेर संबंधी विभिन्न आलोचना दृष्टियों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए शमशेर को गैरवामपंथी वैचारिक प्रवृत्तियों से जोड़कर देखे जाने का विरोध किया। हालिया प्रकाशित दूधनाथ सिंह द्वारा संपादित संस्मरणों की किताब के फ्लैप पर अज्ञेय की टिप्पणी को उन्होंने इसी तरह की प्रवृत्ति का उदाहरण बताया। उन्होंने शमशेर की कुछ कम चर्चित कविताओं का जिक्र करते हुए कहा कि उनमें आत्मालोचना, द्वंद्व और मोह भी है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">आयोजन में कला आलोचक रमण सिन्हा ने चित्रकला के ऐतिहासिक संदर्भों के साथ शमशेर की चित्रकला पर व्याख्यान-प्रदर्शन किया। यह व्याख्यान उनके चित्रों और कविताओं को समझने के लिहाज से काफी जानकारीपूर्ण था। कला आलोचक अनिल सिन्हा ने कहा कि विडंबना यह है कि उत्तर भारत में विभिन्न विधाओं का वैसा अंतर्मिलन कम मिलता है, जैसा शमशेर के यहां मिलता है। शमशेर का गद्य भी महत्वपूर्ण है जो उनके चित्र और कविता को समझने में मदद करता है और उसी तरह चित्रकला उनकी कविता को समझने में मददगार है।</p><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 15px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; text-align: justify; ">सुप्रसिद्ध चित्रकार-साहित्यकार अशोक भौमिक ने चित्रकला के जनसांस्कृतिक परंपरा की ओर ध्यान देने का आग्रह किया और कहा कि बाजार ने जिन चित्रकारों से हमारा परिचय कराया वही श्रेष्ठता की कसौटी नहीं हैं। इसका उदाहरण शमशेर की चित्रकला है। कार्यक्रम का संचालन पत्रकार भाषा सिंह ने किया।</p><div><br /></div></div></span>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-54133981597251487852011-01-04T22:58:00.001-08:002011-01-04T23:07:17.229-08:00डॉ0 विनायक सेन की सजा के खिलाफ लखनऊ के लेखकों व संस्कृतिकर्मियों का विरोध प्रदर्शन<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaPzgB2Fg6VWyu2JO0XppW2CfZhia7LEW_yQfTP9dQ9gP1uIviX-mjzhf870vstOKkePB-7aRDubp1DGQBqUp8EWpniGG2TNXIfD6H1p2QWDLxHjkQ2q3DXfvp0AqV8sMTegR0F5b88zU/s1600/mail.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5558594348759536898" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 200px; CURSOR: hand; HEIGHT: 134px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaPzgB2Fg6VWyu2JO0XppW2CfZhia7LEW_yQfTP9dQ9gP1uIviX-mjzhf870vstOKkePB-7aRDubp1DGQBqUp8EWpniGG2TNXIfD6H1p2QWDLxHjkQ2q3DXfvp0AqV8sMTegR0F5b88zU/s200/mail.jpg" border="0" /></a><br /><div><span style="font-size:130%;"><strong>कौशल किशोर</strong> </span><br /><br />छŸाीसगढ़ की निचली अदालत द्वारा विख्यात मानवाधिकारवादी व जनचिकित्सक डॉ0 विनायक सेन को दिये उम्रकैद की सजा के खिलाफ तथा उनकी रिहाई की माँग को लेकर जन संस्कृति मंच (जसम) की ओर से 2 जनवरी 2011 को लखनऊ के शहीद स्मारक पर विरोध प्रदर्शन व सभा का आयोजन किया गया। इसके माध्यम से लखनऊ के लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, नागरिक अधिकार व जन आंदोलनों से जुड़े कार्यकर्ताओं ने विनायक सेन की सजा पर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि इस तरह का फैसला हमारे बचे.खुचे जनतंत्र का गला घोटना है, यह नागरिक आजादी और लोकतंत्र पर हमला है। इसलिए विनायक सेन की रिहाई का आंदोलन लोकतंत्र को बचाने का संघर्ष है।<br /><br />प्रदर्शनकारी लेखकों व कलाकारों के हाथों में प्ले कार्ड्स थे जिनमें सीखचों में बन्द विनायक सेन की तस्वारें थीं और उन पर लिखा था ‘कॉरपोरेट पूँजी का खेल, विनायक सेन को भेजे जेल’, ‘विनायक सेन को रिहा करो’ आदि। इस अवसर पर जन कलाकार परिषद के कलाकारों ने शंकर शैलेन्द्र का गीत ‘भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की, देशभ्क्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की’ और दुष्यन्त की गजल ‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए’ गाकर अपना विरोध जताया।<br /><br />जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित इस विरोध प्रदर्शन के माध्यम से माँग की गई कि डा0 विनायक सेन को रिहा किया जाय, आपरेशन ग्रीनहंट व सलवा जुडुम को बन्द किया जाय, छŸाीसगढ जनसुरक्षा कानून और इसी तरह के अन्य जन विरोधी कानूनों को खत्म किया जाय और इन्हीं कानूनों के तहत उम्रकैद की सजा पाये नारायण सन्याल और पीयूष गुहा को रिहा किया जाय।<br /><br />इस विरोध प्रदर्शन में जनवादी लेखक संघ, एपवा, पी यू सी एल, इंकलाबी नौजवान सभा, अलग दुनिया, आइसा, दिशा, अमुक आर्टिस्ट ग्रुप, आवाज आदि के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। इस मौके पर हुई विरोध सभा को रामजी राय, अजय सिंह, शिवमूर्ति, ताहिरा हसन, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, रमेश दीक्षित, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजेश कुमार, के0 के0 पाण्डेय, भगवान स्वरूप कटियार, चन्द्रेश्वर, वंदना मिश्र, के0 के0 वत्स, कल्पना पाण्डेय, बी0 एन0 गौड़, सुरेश पंजम, आदियोग, बालमुकुन्द धूरिया, अनिल मिश्र ‘गुरूजी’, विमला किशोर, जानकी प्रसाद गौड़, के0 के0 शुक्ला, महेश आदि ने सम्बोधित किया। सभा का संचालन जसम के संयोजक कौशल किशोर ने किया।<br /><br />वक्ताओं ने कहा कि जिन कानूनों के आधार पर विनायक सेन को सजा दी गई है, वे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं। इनमें कई कानून अंग्रेजों के बनाये हैं जिनका उद्देश्य ही आजादी के आंदोलन को कुचलना था। आज उन्हीं कानूनों तथा छŸाीसगढ़ में लागू दमनकारी कानूनों का सहारा लेकर विनायक सेन पर राजद्रोह व राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने की साजिश का आरोप लगाया गया है और इसके आधार पर उन्हें सजा दी गई है। गौरतलब है कि अपने आरोपों के पक्ष में पुलिस द्वारा जो साक्ष्य पेश किये गये, वे गढ़े हुए थे और अपने आरोपों को सिद्ध कर पाने वह असफल रही है। अगर इन आरोपों को आधार बना दिया जाय तो लोकतांत्रिक विरोध की हर आवाज पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया जा सकता है।<br /><br />वक्ताओं ने इस बात पर गहरी चिन्ता व्यक्त की कि न्यायालयों के फैसले भी राजनीतिक होने लगे हैं। भोपाल गैस काँड और अयोध्या के सम्बन्ध में आये कोर्ट के फैसले ने न्यायपालिका के चेहरे का पर्दाफाश कर दिया है। विनायक सेन के सम्बन्ध में आया फैसला नजीर बन सकता है जिसके आधार पर विरोध की आवाज को दबाया जायेगा। अरुंघती राय पर भी इसी तरह की धारायें लगाकर मंकदमा दर्ज किया गया है। इस प्रदेश में भी सामाजिक कार्यकर्ता सीमा आजाद को एक साल से जेल में बन्द रखा गया है।<br /><br />वक्ताओं का कहना था कि जब भ्रष्टाचारी, घोटालेबाज, माफिया व अपराधी सŸाा को सुशोभित कर रहे हों वहाँ आदिवासियों, जनजातियों को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने तथा सलवा जुडुम से लेकर सरकार के जनविरोधी कार्यों का विरोध करने वाले डॉ सेन पर दमनकारी कानून का सहारा लेकर आजीवन कारावास की सजा देने का एक मात्र मकसद जनता के प्रतिरोध की आवाज को कुचल देना है। इसीलिए आज विनायक सेन प्रतिरोध की संस्कृति और इंसाफ व लोकतंत्र की लड़ाई के प्रतीक बन गये हैं।<br /><br />जसम के इस प्रदर्शन के माध्यम से यह घोषणा भी की गई कि डा0 विनायक सेन की रिहाई के लिए विभिन्न संगठनो को लेकर रिहाई समिति बनाई जायेगी तथा यह समिति विविध आंदोलनात्क कार्यक्रमों के द्वारा जनमत तैयार करेगी।<br /><br /><br />एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ-226017<br />फोन: 09807519227, 08400208031</div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-76302962229139339922010-12-28T22:08:00.000-08:002010-12-28T22:14:46.203-08:00लखनऊ में विरोध सभा २ जन. कों<div align="center"><span style="font-size:130%;">कारपोरेट जगत का देखो खेल </span></div><div align="center"><span style="font-size:130%;">विनायक सेन को भेजे जेल</span></div><span style="font-size:130%;"><div align="center"><br /></span><strong><em>पी0 यू0 सी0 एल0 के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ विनायक सेन की उम्रकैद की सजा<br />के खिलाफ<br /></em></strong><br /><span style="font-size:180%;"><em><span class=""> विरोध</span> सभा</em> </span><span style="font-size:180%;"> <br /></span><span class=""></span></div><div align="center"><strong>तारीख व समय: 02 जनवरी 2011, दिन के 1.00 बजे</strong><br /><span class=""></span></div><div align="center">स्थान: शहीद स्थल, लखनऊ<br /><span class=""></span></div><div align="center">शहर के बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों, नागरिक व लोकतांत्रिक अधिकार संगठनों, जन आंदोलन के कार्यकर्ताओं से अपील है कि इस विरोध सभा में शामिल हों।<br /> <strong><em> निवेदक </em></strong> </div><div align="center"> <strong>कौशल किशोर </strong> </div><div align="center"><strong><em>संयोजक, जन संस्कृति मंच, लखनऊ</em></strong> </div><div align="center">मो - 09807519227, 08400208031<br /><br /> </div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-54611242674648131112010-12-28T22:00:00.000-08:002010-12-29T02:47:42.053-08:00लखनऊ के लेखकांे व संस्कृतिकर्मियों का कहना है:<span style="font-size:180%;">डॉ विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा जनप्रतिरोध की आवाज को कुचलना है</span><br /><span style="font-size:180%;"><span class=""></span></span><br />लखनऊ, 28 दिसम्बर। जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित सभा में लखनऊ के लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक व राजनीतिक कार्यकताओं ने पी यू सी एल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ विनायक सेन पर देशद्रोह का आरोप लगाते हुए उन्हें दी गई उम्रकैद की सजा पर अपना पुरजोर विरोध प्रकट किया है। यह सभा अमीनाबाद इण्टर कॉलेज में हुई जिसमें इससे सम्बन्धित प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें कहा गया कि लोकतंत्र के सभी स्तम्भ आज पूँजी के मठ व गढ़ में बदल गये हैं जहाँ से जनता, उसके अधिकारों व लोकतंात्रिक मूल्यों पर गोलाबारी की जा रही है। इसने न्ययापालिका के चरित्र का पर्दाफाश कर दिया है। डॉ विनायक सेन पर देशद्रोह का आरोप लगाने व उन्हें उम्रकैद की सजा देने का एक मात्र उद्देश्य जनता के प्रतिरोध की आवाज को कुचल देना है तथा सरकार का विरोध करने वालों को यह संदेश देना है कि वे सावधान हो जायें और सŸाा के लिए कोई संकट पैदा न करें।<br /><br />इस घटना पर विरोध प्रकट करने वालों में लेखक अनिल सिन्हा, शकील सिद्दीकी, डॉ गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, कवि भगवान स्वरूप कटियार, कौशल किशोर, ब्रह्मनारायण गौड, श्याम अंकुरम़ व वीरेन्द्र सारंग, कवयित्री व पत्रकार प्रतिभा कटियार, कथाकार सुरेश पंजम व सुभाष चन्द्र कुशवाहा, नाटककार राजेश कुमार, ‘अलग दुनिया’ के के0 के0 वत्स, ‘कर्मश्री’ की सम्पादिका पूनम सिंह, एपवा की विमला किशोर, कलाकार मंजु प्रसाद, लेनिन पुस्तक केन्द्र के प्रबन्धक गंगा प्रसाद, सामाजिक कार्यकर्ता अरुण खोटे, इंकलाबी नौजवान सभा के प्रादेशिक महामंत्री बालमुकुन्द धूरिया, भाकपा ;मालेद्ध के शिवकुमार, लक्षमी नारायण एडवोकेट, ट्रेड यूनियन नेता के0 के0 शुक्ला, डॉ मलखान सिंह, जानकी प्रसाद गौड़ प्रमुख थे।<br /><br />प्रस्ताव में माँग की गई है कि डॉ सेन को आरोप मुक्त कर उन्हें रिहा किया जाय। प्रस्ताव में आगे कहा गया है कि जिस छतीसगढ़ विशेष लोक सुरक्षा कानून 2005 और गैरकानूनी गतिविधि ;निरोधकद्ध कानून 1967 के अन्तर्गत डॉ विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा दी गई है, ये कानून अपने चरित्र में दमनकारी हैं और ऐसे जनविरोधी कानून का इस्तेमाल यही दिखाता है कि देश में अघोषित इमरजेन्सी जैसी स्थिति है। जब भ्रष्टाचारी, अपराधी, माफिया व धनपशु सŸाा को सुशोभित कर रहे हों, सम्मान पा रहे हों, वहाँ आदिवासियों, जनजातियों को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराना, जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना तथा सलवा जुडुम से लेकर सरकार के जनविरोधी कार्यों का विरोध करने वाले डॉ सेन पर दमनकारी कानून का सहारा लेकर आजीवन कारावास की सजा देने से यही बात सिद्ध होती है।<br /><br />प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि सŸाा द्वारा देशभक्ति का नया मानक गढ़ा जा रहा है जिसके द्वारा सच्चाई और तथ्यों का गला घोंटा जा रहा है। इस मानक में यदि आप फिट नहीं हैं तो आपको देशद्रोही घोषित किया जा सकता है और आपके विरूद्ध कार्रवाई की जा सकती है, आप गिरफ्तार किये जा सकते हैं आपको सजा दी जा सकती है और आप देश छोड़ने तक के लिए बाध्य किये जा सकते हैं। यही अरुंधती राय के साथ किया गया। उनके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया गया है और डॉ विनायक सेन को देशद्रोही करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। इन घटनाओं ने हमारे इर्द।गिर्द फैले अंधेरे को गहरा किया है और समय की माँग है कि इनके विरूद्ध हम लाम बन्द हों बकौल मुक्तिबोध ‘अब अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे/तोड़ने होंगे गढ़ और मठ सभी "<br /><br /><strong>कौशल किशोर</strong> <br />संयोजक <br />जन संस्कृति मंच, लखनऊ<div><br /></div><div><p class="MsoNormal" align="center" style="text-align:center;text-indent:9.6pt; mso-layout-grid-align:none;text-autospace:none"><b style="mso-bidi-font-weight: normal"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010";mso-bidi-font-family: "Kruti Dev 010";color:black">vihy</span></b></p><p class="MsoNormal" align="center" style="text-align: justify;text-indent: 9.6pt; "><b style="mso-bidi-font-weight: normal"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010";mso-bidi-font-family: "Kruti Dev 010";color:black"><span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal; ">cukjl izlkn Hkkstiqjh lEeku lekjksg ¼26 fnlacj 2010 iVuk] fcgkj½ esa ekStwn ge lHkh lkfgR;dkj&laLd`frdehZ] i=dkj&cqf)thoh NÙkhlx<+ ls'ku dksVZ dh vksj ls izfl) fpfdRld vkSj ekuokfèkdkj dk;ZdrkZ MkW- fouk;d lsu dks vkthou dkjkokl dh ltk lquk, tkus dh ?kVuk ij xgjh fpark tkfgj djrs gSa vkSj bls ns'k ds yksdra= ds fy, xaHkhj ladV ds crkSj fpfg~ur djrs gSaA</span></span></b></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">MkW- fouk;d lsu fpfdRlk ds {ks= esa tulsok ds fy, pfpZr jgs gSaA ,d yksdra= ftu yksddY;k.kdkjh ijaijkvksa ls etcwr gksrk gS] mldks ÅtkZ nsus okyh 'kf[l;r ds :i esa MkW- fouk;d lsu e'kgwj jgs gSaA <o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">blds igys tc jktuSfrd nqjkxzgo'k NÙkhlx<+ ljdkj us mu ij ^jktnzksg* dk vkjksi yxkdj mUgsa tsy esa can fd;k Fkk] rc Hkh ns'k ds yksdra=ilan ,oa U;k;ilan yksxksa us blds f[kykQ vkokt cqyan dhA ukscsy iqjLdkj ls lEekfur fo}kuksa lesr nqfu;k ds fofHkUu {ks=ksa ds fo}ku mudh fjgkbZ ds i{k esa [kM+s gq,A blh tuncko esa mUgsa tekur fey ikbZA<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">vc ls'ku dksVZ us MkW- fouk;d lsu dks tks ltk nh gS] og mfpr izrhr ugha gksrhA ge U;k;ky; ls okLrfod U;k; dh vis{kk djrs gSa vkSj yksdra=ilan&balkQialn yksxksa] cqf)thfo;ksa] i=dkjksa] lkfgR;dkj&laLd`frdfeZ;ksa vkSj lkekftd&jktuhfrd dk;ZdrkZvksa ls vihy djrs gSa fd os U;k; vkSj yksdrkaf=d vf/kdkj ds i{k esa laxfBr gksaA MkW- fouk;d lsu dks balkQ fnykus ds fy, ,dtqV gksaA <o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;mso-layout-grid-align:none; text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010""><o:p> </o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;mso-layout-grid-align:none; text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">gLrk{kjdrkZ %& </span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">vkyksd/kUok<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">ujs'k lDlsuk<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">[kxsanz Bkdqj<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">fotsanz ukjk;.k flag<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">'kkafr lqeu<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">ufpdsrk<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">jkefugky xaqtu<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">jfoHkw"k.k<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">jsorh je.k<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">lq/khj lqeu<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">vjfoan dqekj<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">iwue flag<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">larks"k >k<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">uohu<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">v'kksd xqIr<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">lqeu dqekj flag<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">larks"k Js;kal<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">v#.k 'khrka'k<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">gjsanz izlkn flUgk<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">jfo ?kks"k<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align:justify;text-indent:9.6pt;mso-layout-grid-align: none;text-autospace:none"><span style="font-size:14.0pt;font-family:"Kruti Dev 010"; mso-bidi-font-family:"Kruti Dev 010"">;qxy fd'kksj izlkn<o:p></o:p></span></p> <p class="MsoNormal"><o:p> </o:p></p></div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-66640345508940943292010-12-28T21:46:00.000-08:002010-12-28T21:58:35.184-08:00निरंकुश राजसत्ताओं ने फिर दण्डित किया कलाकारों कों<span style="font-size:180%;">शायर अकाल शातिर और इरानी फिल्मकार जाफर पनाही का साथ दें</span><br /><br />निरंकुश राजसत्ताएं सदैव से ही विरोध के प्रति असहिष्णु रही हैं ।अगर ये सत्ताएँ धर्मं पर आधारित हों तो कहना ही क्या ? हाल की दो अत्यंत निंदनीय घटनाओं ने इस बात को ओर भी पुष्ट किया हे. एक का सम्बन्ध भारत के गुजरात राज्य से है , तो दूसरे का समबन्ध इरान के इस्लामिक राज से. गुजरात तो भारत के सेक्युलर राज्य के भीतर एक राज्य है, लेकिन नरेन्द्र मोदी उसे हिंदुत्व की विचारधारा के तहत संचालित करते हैं. हाल ही में शायर अकाल शातिर को इस निजाम का तब शिकार होना पडा जब उनकी शायरी की किताब 'अभी ज़िंदा हूँ मैं ' में प्रकाशित एक आलोचक की टिप्पणी से नाराज़ होकर गुजरात उर्दू साहित्य अकादमी ने किताब के प्रकाशन के लिए दी गयी १००००/- की सहायता राशि वापस करने के लिए शायर को नोटिस थमाई है . यह टिप्पणी रौनक अफरोज ने लिखी है जिसमें मोदी की भर्त्सना की गयी है. टिप्पणी के जिस अंश पर अकादमी ने एतराज़ जताते हुए अपनी पुस्तक प्रकाशन योजना के लिए सहायता देने के नियमों के खिलाफ बताया है, वह इस प्रकार हे-" नरेन्द्र मोदी के इक्तेदार में आते ही उसने इस रियासत से उर्दू का सफाया ही करा दिया. मोदी ने सिर्फ इतने पर ही इक्तेफा नहीं किया, बल्कि २००२ में एक सोचे समझे मंसूबे के तहत पूरे गुजरात में फिरकावारान फसादात और हैवानियत का वो नंगा खेल खेला कि पूरी इंसानियत ही शर्मसार हो कर रह गयी. हर तरफ लूट मार, क़त्ल-ओ-गारतगीरी , इस्मतदारी,आतिज़नी और अक़लियाती नस्लकुशी जैसी संगीन वारदात करवाकर उसने पूरे मुल्क में खौफ -ओ-हिरास पैदा कर दिया था." भिवंडी के नक्काद अफ़रोज़ की टिप्पणी इस किताब के पृष्ठ संख्या १४ पर छपी है. इस प्रकरण से यह भी साफ़ होता जा रहा है कि साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं की बहुप्रचारित स्वायत्तता ऐसे राज्यों में कितनी खोखाली है. अफारोज़ का वक्तव्य वैसा ही है जैसा मोदी के शासन में राज्य -प्रायोजित अल्पसंख्यकों के जनसंहार को लेकर किसी भी सोचने समझाने वाले इंसान का हो सकता है. इस तरह के वक्तव्य तमाम मानवाधिकार रिपोर्टों में मोदी के शासन को लेकर सहज ही देखे जा सकते हैं. बहरहाल शातिर ने अफारोज़ की टिप्पणी को शामिल कर हिम्मत का काम किया है . हमें उनकी हौसला अफजाई करने के साथ-साथ उनके संघर्ष में हर चंद मदद करनी चाहिए. गुजरात उर्दू साहित्य अकादमी को उन्हें दी गयी नोटिस को वापस लेना चाहिए . उसकी इस हरकत से अभिव्यक्ति की आज़ादी तो एक और धक्का लगा है जिसकी जितनी निंदा की जाए कम है<br /><span class=""></span><br />दूसरी घटना और भी ज्यादा भयानक है। मशहूर इरानी फिल्मकार जफर पनाही को इरान के निरंकुश इस्लामी शासन ने ६ साल की कैद और २० साल तक फिल्में बनाने या निर्देशित करने, स्क्रिप्ट लिखने, विदेशा यात्रा करने और मीडिया में इंटरव्यू देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। उनपर आरोप है कि वे शासन के खिलाफ प्रचार अभियान चला रहे थे। पनाही इससे पहले जुलाई २००९ में गिरफ्तार किए गए थे जब वे राष्ट्रपति पद के लिए हुए विवादास्पद चुनाव में मारे गए आन्दोलनकारियों के शोक में शामिल हुए थे। छूटने के बाद उनपर विदेश जाने पर प्रतिबन्ध तभी से लगा हुआ है। फरवरी २०१० में वे फिर अपने परिवार और सहकर्मियों के साथ गिरफ्तार किए गए। वे इरान में लगातार विपक्ष की आवाज़ बने हुए हैं. महान अब्बास किअरोस्तामी के साथ अपने फ़िल्मी सफर की शुरुआत करने वाले पनाही को अपनी पहली ही फीचर फिल्म 'वाईट बैलून ' के लिए १९९५ के कैन्स फिल्म समारोह में पुरस्कृत किया गया. उनके नाटक 'द सर्किल ' के लिए सन २००० में वेनिस का 'गोल्डन लिओन' पुरस्कार मिला. उनकी मशहूर फिल्मों में 'वाईट बैलून' के अलावा 'द मिरर', 'क्रिमसन गोल्ड' तथा 'ऑफ साइड' जैसी फिल्में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म दुनिया की अमूल्य निधियां हैं. जाफर पनाही जैसे महान फिल्मकार को इरान की निरंकुश धर्मसता द्वारा प्रताड़ित किए जाने की हम निंदा करते हैं और सभी कलाकारों , संस्कृतिकर्मियों से आग्रह करते हैं कि वे भारत में इरानी एम्बेसी की मार्फ़त इस तानाशाहीपूर्ण कदम का पुरजोर विरोध इरानी शासकों को अवश्य दर्ज कराएं .प्रणय क्रष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच <br /><span class=""></span><br /><strong>प्रणय कृष्ण </strong><br />महासचिव<br />जन संस्कृति मंचकौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-33952906145405210222010-12-28T09:19:00.000-08:002010-12-28T09:25:15.425-08:00लोकतंत्र को उम्रकैद25 दिसम्बर, 2010<br /> ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी. मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई - न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है. छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा. बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी. यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए. डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से , जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर , न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़ सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़ , मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-<div><br />“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है<br />हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”</div><div><br />इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द वाइटहाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.( आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को .क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश , बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?</div><div><br />याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है 1870 में लाई गई जिसके तहत सरकार के खिलाफ ”घृणा फैलाना”, ” अवमानना करना” और ” असंतोष पैदा”करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बर्खा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं ? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ ”सलवा जुडूम” चलाती हैं, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाशा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों . याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.</div><div><br />डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है?. एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे?</div><div> <br />इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा.सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि ”कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है ”. तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों ( हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसिदिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?</div><div><br />अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था,<br /><br />“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,<br />देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !<br /><br />यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--<br />बंब संब की छोड़ो, भाशण दिया कि पकड़े जाओगे !<br />निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,<br />न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,<br />कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “<br /><br />ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.<br />आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है.</div><div><br />- मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो , जितनी दूर तक हो हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन.<br /><br />प्रणय कृष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच </div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-60038698592446762882010-12-27T01:01:00.002-08:002010-12-27T19:30:17.319-08:00संगोष्ठी रपट : एस0 के0 पंजम की कृतियाँ:<span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:x-large;">अतीत व वर्तमान के संघर्ष का दस्तावेज </span></span><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;font-size:7;"><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap;font-size:48px;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:large;">कौशल किशोर </span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;font-size:7;"><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap;font-size:48px;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">जाने-माने युवा लेखक एस0 के0 पंजम के उपन्यास ‘</span><b><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">गदर जारी रहेगा’</span></b><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;"> तथा इतिहास की पुस्तक ‘</span><b><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">शूद्रों का प्राचीनतम इतिहास</span></b><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">’ का विमोचन 26 दिसम्बर 2010 (रविवार) को लखनऊ में अमीनाबाद इण्टर कॉलेज, अमीनाबाद के सभागार में हुआ। कार्यक्रम का आयोजन जन संस्कृति मंच (जसम) ने किया था जिसकी अध्यक्षता करते हुए हिन्दी के वरिष्ठ कवि ब्रहमनारायण गौड़ ने कहा कि पंजम की ये दोनों पुस्तकें अतीत व वर्तमान के संघर्ष का दस्तावेज हैं। ‘गदर जारी रहेगा’ के माध्यम से सरकार की जन विरोधी नीतियों को चुनौती देने का जो साहस किया गया है, वह प्रशंसनीय है। अपनी पुस्तक ‘शूद्रों का प्रचीनतम इतिहास’ के द्वारा पंजम ने अतीत के छुपाये गये तथ्यों पर से घूल झाड़ कर सच्चाई को सामने लाने का काम किया है। कार्यक्रम का संचालन जसम के संयोजक व कवि कौशल किशोर ने किया । </span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">गौरतलब है कि एस0 के0 पंजम की दोनों पुस्तकें दिव्यांश प्रकाशन (एम0आई0जी0 222, टिकैतराय कॉलोनी, लखनऊ) से अभी हाल में प्रकाशित हुई हैं। ‘शूद्रों का प्राचीनतम इतिहास’ (मूल्य- सजिल्दः 495.00, पेपर बैकः 250.00) इतिहास की पुस्तक है जिसमें वैज्ञानिक व तर्कसंगत तरीके से इस सवाल का जवाब खोजा गया है कि शूद्र वर्ग कौन है, इसकी उत्पति कैसे हुई ? इसी क्रम में सृष्टि, पृथ्वी व जीव की उत्पति से होते हुए भारत में नस्लों की उत्पति तथा शूद्र वर्ण एवं जाति नहीं, बल्कि नस्ल हैं, इसका विशद अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। वैदिक काल में शिक्षा, सभ्यता और संस्कृति की क्या स्थिति रही है, बौद्ध काल में शिक्षा, आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था कैसी रही है, भारतीय समाज में दास प्रथा और वर्ण व्यवस्था व उसकी संस्कृति व संस्कार किस रूप में रहे हैं आदि का वृहत वर्णन है। ‘शूद्रस्तान’ की चर्चा करते हुए पुस्तक में फुले, साहूजी, पेरियार, अम्बेडकर, जगजीवन राम के विचारों को सामने लाया गया है। </span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">वहीं ‘गदर जारी रहेगा’ (मूल्य- सजिल्दः 250.00, पेपर बैकः 150.00) उपन्यास है। सŸाा का दमन, उसके द्वारा जनता का शोषण, जल, जंगल, जमीन से गरीब जनता का विस्थापन व बेदखली और जन प्रतिरोध, इस विषय पर यह उपन्यास केन्द्रित है। आज भी भारत में अंग्रेज सरकार द्वारा बनाये गये नब्बे प्रतिशत काले कानून लागू हैं। उन्हीं में एक है भूमि अधिग्रहण कानून 1894 । विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) का जन्म इसी से होता है। देश में इस समय 512 सेज हैं। यह सेज क्या है ? किसके हितों के लिए है ? आज के नये सामंत कौन हैं ? इनसे उपन्यास परिचित कराता है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों के पक्ष में खड़ी सŸाा की एक तरफ बन्दूकें हैं तो दूसरी तरफ अपनी सम्पदा और अधिकारों के लिए संघर्ष करती, अपना रक्त बहाती जनता है। इसी संघर्ष की उपज नन्दीग्राम, सिंगूर व कलिंग नगर आदि हैं। ‘गदर जारी रहेगा’ सेज के नाम पर उजाड़ी गई जनता के प्रतिरोध संघर्ष की कहानी है। </span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">हिन्दी-उर्दू के जाने-माने लेखक शकील सिद्दीकी और सामाजिक कार्यकर्ता अरुण खोटे ने पुस्तकों का विमोचन किया। इस अवसर पर बोलते हुए शकील सिद्दीकी ंने कहा कि एस0 के0 पंजम की इतिहास की पुस्तक हमें अतीत को समझने में मदद करती है। हमारा अतीत उथल-पुथल से भरा है और उसके अवशेष आज भी मौजूद हैं। ब्राहमणवाद, पुरातनपंथ से संघर्ष के बिना हम अपने समाज को प्रगतिशील व आधुनिक नहीं बना सकते हैं। हालत यह है कि अम्बेडकर को मानने वाले भी कर्मकांड का अनुसरण कर रहे हैं। जरूरत उनके रेडिकल विचारों को सामने लाने की है। आज समाज में मानव विरोधी शक्तियाँ ज्यादा आक्रामक हुई हैं। इस हालत में साहित्य मात्र समाज का दर्पण बनकर नहीं रह सकता है। उसे समाज परिवर्तन का हथियार बनना पड़ेगा। यह अच्छी बात है कि पंजम इसी प्रतिबद्धता के साथ साहित्य में सक्रिय हैं। </span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">अपने संयोजकीय वक्तव्य में कौशल किशोर ने दोनों पुस्तकों का परिचय देते हुए कहा कि एस0 के0 पंजम का उपन्यास ‘गदर जारी रहेगा’ विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के यथार्थ को सामने लाता है। वहीं ‘शूद्रों का प्राचीनतम इतिहास’ प्राचीन भारतीय समाज के सामाजिक द्वन्द्व को समग्रता में देखने व समझने का प्रयास है। ये दोनों पुस्तकें एस0 के0 पंजम की लेखन-यात्रा में मील का पत्थर हैं। </span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">‘गदर जारी रहेगा’ पर अपना आधार वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कवि व लेखक श्याम अंकुरम ने कहा कि पंजम का लेखन बेतरतीब आक्रोश, चिढ़ भरे गुस्से का विवरण होता रहा है जो ‘गदर जारी रहेगा’ में विस्तार पाकर संगठित संघर्ष के रूप में नियोजित विद्रोह बन जाता है। बेतरतीब आक्रोश से संगठित विद्रोह तक की इनकी यह यात्रा अपने स्वअर्जित अनुभव व विवेक द्वारा तय की गई है, ‘भूख व्यक्ति को श्रम सिखाती है, भूख व्यक्ति को हिंसा सिखाती है, भूख व्यक्ति को संघर्ष में झोकती है और संघर्ष से शहादत मिलती है’। शहादत की यह अनिवार्यता इनके उपन्यास में जगह-जगह है जो खेतिहर मजदूर, दलित, आदिवासियों के वर्ग संश्रय निर्माण के जरिये इस नजरिये को उदघाटित करती है, ‘आज लड़ाई धर्म व जाति की नहीं है और है भी तो यह बहुत छोटी-संकुचित है। असल लड़ाई तो समाजवाद की है।’ </span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा ने कहा कि यह आज के राजनीतिक संघर्ष का उपन्यास है। ंिसंगूर, नन्दीग्राम, कलिंगनगर में जो दमन-उत्पीड़न हुआ, यही इसकी विषय वस्तु है। यहाँ एक तरफ देशी-विदेशी पूँजीपतियों के पक्ष में खड़ी सŸाा की बन्दूकें हैं तो दूसरी तरफ अपनी सम्पदा और अधिकारों के लिए संघर्ष करती जनता है। इस अवसर पर ‘निष्कर्ष’ के संपादक डॉ0 गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि पंजम का उपन्यास आज के समय से मुठभेड़ करता है और जरूरी विषय उठाता है लेकिन उपन्यास का कलापक्ष कमजोर है जिस पर पंजम को ध्यान देने की जरूरत है। उपन्यास पर पत्रकारिता हावी है। साहित्य विचार व राजनीति विहिन नहीं हो सकता लेकिन यह जितना ही छिपे रूप में आये, उसका असर ज्यादा गहरा होता है। </span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">‘घी के लड्डू टेढ़ो भले’ कहावत का उद्धरण देते हुए कवि व आलोचक चन्द्रेश्वर ने कहा कि इस भयानक दौर में कला और शिल्प से ज्यादा जरूरी है कि आपका लेखन लूट और दमन के विरूद्ध है या नहीं। वैसे ‘गदर’ शब्द हिन्दी में 1857 के संदर्भ में आया जिसका प्रयोग नकारात्क अर्थों में किया गया लेकिन पंजम के उपन्यास में इसका अर्थ संघर्ष व प्रतिरोध है। इस दौर में जब कथा व उपन्यास लेखन बहुत मनोगत हुआ है, ऐसे में उपन्यास के माध्यम से ‘सेज’ के यथार्थ और जन प्रतिरोध की अभिव्यक्ति इस उपन्यास को प्रासंगिक बनाता है। </span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><br /></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">इस अवसर पर ‘अलग दुनिया’ के के0 के0 वत्स, अनन्त लाल, अंग्रेजी के प्रवक्ता राम सिंह प्रेमी, डॉ मलखन सिंह आदि ने भी अपने विचार प्रकट किये। कार्यक्रम में लेखकों, बुद्धिजीवियों और राजनीतिक व समाजिक कार्यकर्ताओं की अच्छी-खासी उपस्थिति थी जिनमें नाटककार राजेश कुमार कवि भगवान स्वरूप कटियार व वीरेन्द्र सारंग, ‘कर्म श्री’ की सम्पादिका पूनम सिंह, कथाकार नसीम साकेती, कलाकार मंजु प्रसाद, लेनिन पुस्तक केन्द्र के गंगा प्रसाद, लक्षमीनारायण एडवोकेट, एपवा की विमला किशोर, इंकलाबी नौजवान सभा के प्रादेशिक महामंत्री बालमुकुन्द धूरिया, भाकपा (माले) के शिवकुमार आदि प्रमुख थे। </span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="white-space: pre-wrap;"><b><br /></b></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;"><b>एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ -226017 </b></span></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; font-family:-webkit-monospace;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;"><b>मो - 09807519227, 08400208031 </b></span></span><div><span class="Apple-style-span" style="font-family:-webkit-monospace;font-size:100%;"><span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap;font-size:13px;"><br /></span></span></div></div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-981638165347614182010-12-20T06:00:00.005-08:002010-12-20T06:06:23.750-08:00doosra<span class="Apple-style-span" style="font-family: Verdana; color: rgb(51, 51, 51); font-size: 13px; "><div id="main-wrapper" style="margin-left: 9px; width: 599px; float: left; background-color: rgb(255, 255, 255); display: inline; word-wrap: break-word; overflow-x: hidden; overflow-y: hidden; "><div class="main section" id="main"><div class="widget Blog" id="Blog1"><div class="blog-posts hfeed"><div class="date-outer"><div class="date-posts"><div class="post-outer"><div class="post hentry" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 1.5em; margin-left: 0px; padding-bottom: 1.5em; "><h3 class="post-title entry-title" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; padding-top: 0px; padding-right: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; font-size: 16px; font-weight: bold; line-height: 1.1em; ">प्रतिरोध का सिनेमा का दूसरा पटना फ़िल्म उत्सव</h3><div class="post-header" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.75em; margin-left: 0px; line-height: 1.3em; "><div class="post-header-line-1" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.75em; margin-left: 0px; line-height: 1.3em; "></div></div><div class="post-body entry-content" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.75em; margin-left: 0px; line-height: 1.3em; "><span style="font-weight: bold; font-family: arial; font-size: 23px; "><span><span><span>जीवन</span></span></span> में जो सुंदर है उसके चुनाव का</span><span style="font-weight: bold; font-family: arial; font-size: 23px; "> विवेक है सिनेमा</span><span style="font-weight: bold; font-family: arial; font-size: 23px; "><br /></span><span style="font-family: arial; font-size: 23px; "><span style="font-style: italic; "><span><span><span>शाजी</span></span></span></span><span style="font-style: italic; "> </span><span style="font-style: italic; ">एन</span><span style="font-style: italic; ">. </span><span style="font-style: italic; ">करुन</span></span><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRy_9JMa9P34svrb07qbmpbi2MIAElrZMmh8_1V5YLBpj7ULWIWphRtSxOMqQ-V64h9Qfm0X3C-x1tx4hmuHokWCmZGTgwimV8MaL1ieehJZTcFX_GDGdzLUWrxL2GI3I6YXlrwhRD7ncJ/s1600/shaji_2ndPFF_10.JPG" style="color: rgb(51, 102, 153); "><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRy_9JMa9P34svrb07qbmpbi2MIAElrZMmh8_1V5YLBpj7ULWIWphRtSxOMqQ-V64h9Qfm0X3C-x1tx4hmuHokWCmZGTgwimV8MaL1ieehJZTcFX_GDGdzLUWrxL2GI3I6YXlrwhRD7ncJ/s320/shaji_2ndPFF_10.JPG" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5548925743754632130" border="0" style="border-top-width: 1px; border-right-width: 1px; border-bottom-width: 1px; border-left-width: 1px; padding-top: 4px; padding-right: 4px; padding-bottom: 4px; padding-left: 4px; border-top-style: solid; border-right-style: solid; border-bottom-style: solid; border-left-style: solid; border-top-color: rgb(204, 204, 204); border-right-color: rgb(204, 204, 204); border-bottom-color: rgb(204, 204, 204); border-left-color: rgb(204, 204, 204); display: block; margin-top: 0px; margin-right: auto; margin-bottom: 10px; margin-left: auto; text-align: center; cursor: pointer; width: 437px; height: 240px; " /></a><span style="font-size: 10px; "><span style="font-size: 9px; "></span></span><span style="font-size: 11px; "><span>दूसरे</span> पटना फ़िल्म उत्सव में उदघाटन वक्तव्य देते हुए शाजी एन करून</span><br /><br /><br />‘सिनेमा मनुष्य के कला के साथ अंतर्संबंध का दृश्य रूप है। मनुष्य के जीवन में जो सुंदर है उसके चुनाव के विवेक का नाम सिनेमा है। चीजों, घटनाओं या परिस्थितियों और सही-गलत मूल्यों की गहरी समझदारी, बोध और ज्ञान से ही यह विवेक निर्मित होता है। हम जिस यथार्थ को देख सकते हैं या देखना चाहते हैं, कला उसे ही सामने रखती है।’ प्रसिद्ध फ़िल्मकार शाजी एन करुन ने जसम-हिरावल द्वारा कालिदास रंगालय में आयोजित त्रिदिवसीय पटना फ़िल्मोत्सव - प्रतिरोध का सिनेमा का उद्घाटन करते हुए कला और यथार्थ के रिश्ते पर एक महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया।<br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8tR8TYz0TD11opjaBJMcOrfwSaW7c0bc0ihy95FAQ6zN_WAB7ZKGA7OFXQJ5q0LdBT81BerGHGjswwvPQeE147JWiRPppsp5iFB1B3EtwnmljC3BjF3NWIdqlA3FZyhQ9DllRYjsqjn1q/s1600/Shaji_N_Karun_2ndPFF_10.JPG" style="color: rgb(51, 102, 153); "><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8tR8TYz0TD11opjaBJMcOrfwSaW7c0bc0ihy95FAQ6zN_WAB7ZKGA7OFXQJ5q0LdBT81BerGHGjswwvPQeE147JWiRPppsp5iFB1B3EtwnmljC3BjF3NWIdqlA3FZyhQ9DllRYjsqjn1q/s320/Shaji_N_Karun_2ndPFF_10.JPG" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5548927522082065170" border="0" style="border-top-width: 1px; border-right-width: 1px; border-bottom-width: 1px; border-left-width: 1px; padding-top: 4px; padding-right: 4px; padding-bottom: 4px; padding-left: 4px; border-top-style: solid; border-right-style: solid; border-bottom-style: solid; border-left-style: solid; border-top-color: rgb(204, 204, 204); border-right-color: rgb(204, 204, 204); border-bottom-color: rgb(204, 204, 204); border-left-color: rgb(204, 204, 204); float: left; margin-top: 0pt; margin-right: 10px; margin-bottom: 10px; margin-left: 0pt; cursor: pointer; width: 255px; height: 282px; " /></a><br /><span><span><span>उद्घाटन</span></span></span> से पूर्व मीडियाकर्मियों से एक मुलाकात में फ़िल्मोत्सव के मुख्य अतिथि शाजी एन. करुन ने कहा कि सिनेमा हमारी स्मृतियों को उसके सामाजिक आशय के साथ दर्ज करता है। सिनेमा अपने आप में एक बड़ा दर्शन है। लेकिन हमारे यहां इसका सार्थक इस्तेमाल कम हो हो रहा है। हमारे देश में करीब 1000 फिल्में बनती हैं लेकिन दुनिया के फ़िल्म समारोहों में चीन, वियतनाम, कोरिया, मलेशिया और कई छोटे-छोटे देशों की फ़िल्में हमसे ज्यादा दिखाई पड़ती हैं, इसलिए कि वे उन देशों के जीवन यथार्थ को अभिव्यक्त करती हैं और उन्हें सिर्फ मुनाफे के लिए नहीं बनाया जाता।<br /><br /><span style="font-size: 11px; ">शाजी एन करून</span><br />अपनी फ़िल्म कुट्टी स्रांक के लिए श्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय सम्मान पाने वाले शाजी एन. करुन ने कहा कि आस्कर<br />अवार्ड वाली फ़िल्में पूरी दुनिया में दिखाई जाती हैं, जबकि नेशनल अवार्ड पाने वाली फ़िल्में इस देश में ही दिखाई नहीं जातीं। अब तक वे छह बड़ी फ़िल्में बना चुके हैं और उनके लिए यह पहला मौका है कि बिहार में जनता के प्रयासों से हो रहे फ़िल्मोत्सव में उनकी एक फ़िल्म दिखाई जा रही है। इस तरह के प्रयास राख में दबी हुई चिंगारी को सुलगाने की तरह हैं। शाजी ने कहा कि आर्थिक समृद्धि से भी कई गुना ज्यादा जरूरी सांस्कृतिक समृद्धि है। आज किसी भी आदमी को अपनी दस यादें बताने को कहा जाए तो वह कम से कम एक अच्छी फ़िल्म का नाम लेगा। लेकिन बालीवुड की मुनाफा वाली फ़िल्मों और टेलीविजन में जिस तरह के कार्यक्रमों की भीड़ है, उसके जरिए कोई सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं हो सकता। आज जरूरत है कि सिनेमा को सामाजिक बदलाव के माध्यम के बतौर इस्तेमाल किया जाए।<br /><br />इस दौरान प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने बताया कि यह आयोजन देश में इस तरह का 16वां आयोजन है, जो बगैर किसी बडे़ पूंजीपति, सरकार या कारपोरेट सेक्टर की मदद के हो रहा है। फ़िल्मोत्सव स्वागत समिति की अध्यक्ष ‘सबलोग’ की संपादक मीरा मिश्रा ने कहा कि आज समाज के हर क्षेत्र में अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध की जरूरत है। प्रतिरोध का सिनेमा इसी लक्ष्य से प्रेरित है।<br /><br />उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष सुप्रसिद्ध कवि आलोकधन्वा ने<br />कहा कि बहुमत हमेशा लोकतंत्र का<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjddLEwVEP9IdTdr6VIOCRxJo0LDOKCl0Nc6rfc5bcuY35ffAus8ksEreGFhwK5cnO1ZqoBo3tD4zOzlTfrkt1U8fp2RMMOR_ukxpv3WFqepFy_QPDOTMnH1OnIKXglJEFKV_Ov2MhZFlsI/s1600/entry_venue_2ndPFF_10.JPG" style="color: rgb(51, 102, 153); "><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjddLEwVEP9IdTdr6VIOCRxJo0LDOKCl0Nc6rfc5bcuY35ffAus8ksEreGFhwK5cnO1ZqoBo3tD4zOzlTfrkt1U8fp2RMMOR_ukxpv3WFqepFy_QPDOTMnH1OnIKXglJEFKV_Ov2MhZFlsI/s320/entry_venue_2ndPFF_10.JPG" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5548932204720736274" border="0" style="border-top-width: 1px; border-right-width: 1px; border-bottom-width: 1px; border-left-width: 1px; padding-top: 4px; padding-right: 4px; padding-bottom: 4px; padding-left: 4px; border-top-style: solid; border-right-style: solid; border-bottom-style: solid; border-left-style: solid; border-top-color: rgb(204, 204, 204); border-right-color: rgb(204, 204, 204); border-bottom-color: rgb(204, 204, 204); border-left-color: rgb(204, 204, 204); float: right; margin-top: 0pt; margin-right: 0pt; margin-bottom: 10px; margin-left: 10px; cursor: pointer; width: 320px; height: 294px; " /></a><span> सूचक</span> नहीं होता, कई बार वह लोकतंत्र का अपहरण करके भी आता है।कला की दुनिया जिन बारीक लोकतांत्रिक संवेदनाओं के पक्ष में खड़ी होती है,कई बार वह बड़ी उम्मीद को जन्म देती है। हमारे भीतर<span> लोकतांत्रिक</span>मूल्यों को पैदा करने में विश्व और देश की क्लासिक<span>फ़िल्मों</span> ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। इस वक्त अंधेरा बहुत घना है।<span> इस</span> अंधेरे वक्त में जनभागीदारी वाले ऐसे आयोजन उजाले की तरह हैं।<br />वास्तविक लोकतंत्र के लिए वामपंथ का जो संघर्ष है,<br />उससे अलग करके इस आयोजन को नहीं देखा जा सकता।<br /><span style="font-size: 11px; "><span></span></span><br /><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjemfLlWjLOPr7TGefUtS5WrtEvx90bWeHjABMuoaCowNzWWuw0QBrKCVl1EP8fQsNVE2i3xvhwPonMI8_H6DmjxaPsZei7vaUm343SV6pFf7hqyN7ObiSkdUe0QVF6vfupd34U9Do6aSW3/s1600/Performance_Hirawal_2nd+PFF_10.JPG" style="color: rgb(51, 102, 153); "><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjemfLlWjLOPr7TGefUtS5WrtEvx90bWeHjABMuoaCowNzWWuw0QBrKCVl1EP8fQsNVE2i3xvhwPonMI8_H6DmjxaPsZei7vaUm343SV6pFf7hqyN7ObiSkdUe0QVF6vfupd34U9Do6aSW3/s320/Performance_Hirawal_2nd+PFF_10.JPG" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5548934468681821362" border="0" style="border-top-width: 1px; border-right-width: 1px; border-bottom-width: 1px; border-left-width: 1px; padding-top: 4px; padding-right: 4px; padding-bottom: 4px; padding-left: 4px; border-top-style: solid; border-right-style: solid; border-bottom-style: solid; border-left-style: solid; border-top-color: rgb(204, 204, 204); border-right-color: rgb(204, 204, 204); border-bottom-color: rgb(204, 204, 204); border-left-color: rgb(204, 204, 204); float: left; margin-top: 0pt; margin-right: 10px; margin-bottom: 10px; margin-left: 0pt; cursor: pointer; width: 320px; height: 240px; " /></a>इस मौके पर इतिहास की प्रोफेसर डा. भारती एस कुमार ने शाजी एन. करुन को गुलदस्ता भेंट किया। डा. सत्यजीत ने फ़िल्मोत्सव की स्मारिका का लोकार्पण किया। उद्घाटन सत्र के आखिर में कवि गोरख पांडेय की स्मृति में लिखे गए दिनेश कुमार शुक्ल के गीत ‘जाग मेरे मन मछंदर’ को हिरावल के कलाकारों ने गाया। मंच पर अर्थशास्त्री प्रो. नवल किशोर चैधरी, अरुण कुमार सिंह, पत्रकार अग्निपुष्प और कथाकार अशोक भी मौजूद थे।<br /><br /><span style="font-size: 11px; ">हिरावल द्वारा ‘जाग मेरे मन मछंदर’ की प्रस्तुति</span><br /><br />दूसरे सत्र में शाजी एन. करुन की फिल्म कुट्टी स्रांक दिखाई गई। यह एक केरल के एक ऐसे नाविक की कहानी है जिसके जीवन का एकमात्र शौक चिविट्टु नाटकम (म्यूजिकल ड्रामा) है। उसका काम और उसका गुस्सैल स्वभाव उसे एक जगह टिकने नहीं देता। मनुष्य के सच्चे व्यवहार और सच्चे प्रेम के लिए उसकी अंतहीन प्रवृत्ति का प्रतिनिधि है वह। उसकी मृत्यु के बाद उसकी प्रेमिकाओं के जरिए उसका व्यक्तित्व खुलता है। फ़िल्म प्रदर्शन के बाद शाजी एन. करुन के साथ दर्शकों का विचारोत्तेजक संवाद हुआ।<br /><br />दूसरे दिन फ़िल्म प्रदर्शन की शुरुआत अपनी मौलिक कथा के लिए आस्कर अवार्ड से नवाजी गई फ्रांसीसी फ़िल्म ‘दी रेड बलून’ से हुई। लेखक और निर्देशक अल्बर्ट लामोरेस्सी की इस फ़िल्म में बेहद कम संवाद थे। इसमें पास्कल नाम के बच्चे और उसके लाल गुब्बारे की कहानी है। गुब्बारा पास्कल के स्व से जुड़ा हुआ है। उस गुब्बारे को पाने और नष्ट कर देने के लिए दूसरे बच्चे लगातार कोशिश करते हैं। इस फ़िल्म को देखना अपने आप में बच्चों की फैंटेसी की दुनिया में दाखिल होने की तरह था। दूसरी फ़िल्म संकल्प मेश्राम निर्देशित ‘छुटकन की महाभारत’ थी। इस फिल्म में जब गांव में नौटंकी आती है तो उससे प्रभावित छुटकन सपना देखता है कि शकुनी मामा और दुर्योधन का हृदय परिवर्तन हो गया है और वे राज्य पर अपना दावा छोड़ देते हैं।<br />फ़िल्मोत्सव के दूसरे दिन दिखाई गई दो फ़िल्में अलग-अलग संदर्भों में धर्म और मनुष्य के रिश्ते की पड़ताल करती प्रतीत हुईं। राजनीति धर्म को किस तरह बर्बर और हिंसक बनाती है यह नजर आया उड़ीसा के कंधमाल के आदिवासी ईसाईयों पर हिंदुत्ववादियों के बर्बर हमलों पर बनाई गई फ़िल्म ‘फ्राम हिंदू टू हिंदुत्व’ में। उड़ीसा सरकार के अनुसार इन हमलों में 38 लोगों की जान गई थी, 3 लापता हुए थे, 3226 घर तहस-नहस कर दिए गए थे और 195 चर्च और पूजा घरों को नष्ट कर दिया गया था। 25,122 लोगों को राहत कैंपों में शरण लेना पड़ा और हजारों लोग जो उड़ीसा और भारत के अन्य इलाकों में पलायन कर गए, उनकी संख्या का कोई हिसाब नहीं है। बाबरी मस्जिद ध्वंस की पूर्व संध्या पर दिखाई गई इस फ़िल्म से न केवल कंधमाल के ईसाईयों की व्यथा का इजहार हुआ, बल्कि भाजपा-आरएसएस की सांप्रदायिक घृणा और हिंसा पर आधरित राजनीति का प्रतिवाद भी हुआ।<br /><br />सहिष्णु कहलाने वाले हिंदू धर्म के स्वघोषित ठेकेदारों के हिंसक कुकृत्य के बिल्कुल ही विपरीत पश्चिम बंगाल के मुस्लिम फकीरों पर केंद्रित अमिताभ चक्रवर्ती निर्देशित फ़िल्म ‘बिशार ब्लूज’ में धर्म का एक लोकतांत्रिक और मानवीय चेहरा नजर आया। ये मुस्लिम फकीर- अल्लाह, मोहम्मद, कुरान, पैगंबर- सबको मानते हैं। लेकिन इनके बीच के रिश्ते को लेकर उनकी स्वतंत्र व्याख्या है। इन फकीरों के मुताबिक खुद को जानना ही खुदा को जानना है।<br /><br />पहाड़ को काटकर राह बना देने वाले धुन के पक्के दशरथ मांझी पर बनाई गई फ़िल्म ‘दी मैन हू मूव्ड दी मांउटेन’ इस फ़िल्मोत्सव का आकर्षण थी। युवा निर्देशक कुमुद रंजन ने एक तरह से उस आस्था को अपने समय के एक जीवित संदर्भ के साथ दस्तावेजीकृत किया है कि मनुष्य अगर ठान ले तो वह कुछ भी कर सकता है। जिस ताकत की पूंजी और सुविधाओं पर काबिज वर्ग हमेशा अपनी प्रभुता के मद में उपेक्षा करता है या उपहास उड़ाता है, गरीब और पिछड़े हुए समाज और बिहार राज्य में अंतर्निहित उस ताकत के प्रतीक थे बाबा दशरथ मांझी। अकारण नहीं है कि इस फ़िल्म के निर्देशक को बाबा दशरथ मांझी से मिलकर कबीर से मिलने का अहसास हुआ।<br /><br />सुमित पुरोहित निर्देशित फिल्म ‘आई वोक अप वन मार्निंग एंड फाउंड माईसेल्फ फेमस’ पूंजी की संस्कृति द्वारा मनुष्य को बर्बर और आदमखोर बनाए जाने की नृशंस प्रक्रिया को न केवल दर्ज करने, बल्कि उसका प्रतिरोध का भी एक प्रयास लगी। सुमित पुरोहित ने कालेज में अपने जूनियर दीपंकर की आत्महत्या और उस आत्महत्या को हैंडी-कैमरे में शूट करने वाले उसके बैचमेट अमिताभ पांडेय और उस दृश्य को बेचने वाली मीडिया के प्रसंग को अपनी फ़िल्म का विषय बनाया है। अमिताभ चूंकि शक्तिशाली घराने से ताल्लुक रखता था, जिसके कारण इस मामले को दबाने की कोशिश की गई, लेकिन चार वर्ष बाद सुमित और अन्य छात्रों ने उन तथ्यों को सामने लाने का फैसला किया, जिसकी प्रक्रिया में यह फ़िल्म भी बनी। इस फ़िल्म के सन्दर्भ में सबसे चौंकाने वाला तथ्य फ़िल्म के आख्रिर में स्क्रीन पर लिखे वक्तव्यों से पता चलता है. डाक्यूमेंटरी जैसे सरंचना वाली यह फ़िल्म वास्तव में एक कपोल कल्पना थी जिसका मकसद टी वी के सबकुछ देख लेने और कैद कर लेने पर अपनी टिप्पणी करना था.<br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-1JvOjgeqvF3WHFRbeqTb7mYwxo4y2szfq0pNIXdYtAq3DMOyeSa22TakTB_NzCeAvuKz2TqXKf5wR3zIkcQaCS0h_LTmtChXB2Z1gje9givMObUJsImnx7YYJjaFFAKGJg1DzDrlozar/s1600/manvendra_tripathi_Samjhauta_2ndPff_10.JPG" style="color: rgb(51, 102, 153); "><br /></a>अपने अस्तित्व की रक्षा के नाम पर सुविधाओं के भीषण होड़ में लगा <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_fOD3X7p0Bzv5GpZkheMD8wl_Czfm7_vlaaThzUxei8Jp5Ts6I7ngKJRUqAc_h3T8xzysINZwFY-hB9gLBjXakT9JWFKmlwrju3P7jGhpvAkTQE8LmUyBjbhGwQTTYm9pHfJkm47BtghT/s1600/manvendra_tripathi_Samjhauta_2ndPff_10.JPG" style="color: rgb(51, 102, 153); "><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_fOD3X7p0Bzv5GpZkheMD8wl_Czfm7_vlaaThzUxei8Jp5Ts6I7ngKJRUqAc_h3T8xzysINZwFY-hB9gLBjXakT9JWFKmlwrju3P7jGhpvAkTQE8LmUyBjbhGwQTTYm9pHfJkm47BtghT/s320/manvendra_tripathi_Samjhauta_2ndPff_10.JPG" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5548937444946653378" border="0" style="border-top-width: 1px; border-right-width: 1px; border-bottom-width: 1px; border-left-width: 1px; padding-top: 4px; padding-right: 4px; padding-bottom: 4px; padding-left: 4px; border-top-style: solid; border-right-style: solid; border-bottom-style: solid; border-left-style: solid; border-top-color: rgb(204, 204, 204); border-right-color: rgb(204, 204, 204); border-bottom-color: rgb(204, 204, 204); border-left-color: rgb(204, 204, 204); float: right; margin-top: 0pt; margin-right: 0pt; margin-bottom: 10px; margin-left: 10px; cursor: pointer; width: 256px; height: 342px; " /></a><br />पूरा समाज, खासकर मध्यवर्ग क्यों अपने अस्तित्व की रक्षा के नाम<br />पर सुविधाओं के भीषण होड़ में लगा पूरा समाज, खासकर मध्यवर्ग<br />क्यों संवेदनहीन होता जा रहा है, क्यों वह मूल्यहीन और अमानवीय<br />हो रहा है, युवा रंग निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन निर्देशित नाटक<br />‘समझौता’ ने इसका जवाब तलाशने को प्रेरित किया। आहुती नाट्य एकाडमी, बेगूसराय की इस नाट्य प्रस्तुति में<span> मानवेंद्र</span>त्रिपाठी ने अविस्मरणीय एकल अभिनय किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुक्तिबोध की कहानी पर आधारित इस नाटक में मूल कहानी के भीतर एक रूपक चलता है सर्कस का,<span> जहां</span>मनुष्य ही शेर और रीछ बने हुए हैं। पशु की भूमिका में रूपांतरण की प्रक्रिया बहुत ही यातनापूर्ण और अपमानजनक है, जिसके खिलाफ एक आत्मसंघर्ष नायक के भीतर चलता है। नायक को लगता है कि उसकी सर्विस और सर्कस में कोई फर्क नहीं है। नाट्य रूपांतरण सुमन कुमार ने किया था। संगीत परिकल्पना संजय उपाध्याय की थी। संगीत संयोजन अवधेश पासवान का था और गायन में भैरव, चंदन वत्स, आशुतोष कुमार, मोहित मोहन, पंकज गौतम थे। मुक्तिबोध की इस कहानी के बारे में परिचय सुधीर सुमन ने दिया।संवेदनहीन होता जा रहा है, क्यों वह मूल्यहीन और अमानवीय हो रहा है, युवा रंग निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन निर्देशित नाटक ‘समझौता’ ने इसका जवाब तलाशने को प्रेरित किया। आहुति नाट्य एकाडमी, बेगूसराय की इस नाट्य प्रस्तुति में मानवेंद्र त्रिपाठी ने अविस्मरणीय एकल अभिनय किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुक्तिबोध की कहानी पर आधारित इस नाटक में मूल कहानी के भीतर एक रूपक चलता है सर्कस का, जहां मनुष्य ही शेर और रीछ बने हुए हैं। पशु की भूमिका में रूपांतरण की प्रक्रिया बहुत ही यातनापूर्ण और अपमानजनक है, जिसके खिलाफ एक आत्मसंघर्ष नायक के भीतर चलता है। नायक को लगता है कि उसकी सर्विस और सर्कस में कोई फर्क नहीं है। नाट्य रूपांतरण सुमन कुमार ने किया था। संगीत परिकल्पना संजय उपाध्याय की थी। संगीत संयोजन अवधेश पासवान का था और गायन में भैरव, चंदन वत्स, आशुतोष कुमार, मोहित मोहन, पंकज गौतम थे। मुक्तिबोध की इस कहानी के बारे में परिचय सुधीर सुमन ने दिया।<br />फ़िल्मोत्सव के समापन के रोज दर्शकों ने चार महिला फ़िल्मकारों की फ़िल्मों का अवलोकन किया। महिला दिवस के शताब्दी वर्ष के अवसर पर प्रदर्शित ये फ़िल्में समाज की सचेतन महिला दृष्टि के गहरे सरोकारों की बानगी थीं।<br /><br />इन फ़िल्मों के कथ्य और उसकी प्रस्तुति से दर्शक गहरे प्रभावित नजर आए। <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1C5zfaIMAsXEoEd7NjJJjyNqXuv_5k00uDtDDqrB3U5rbV-7sTX0HokEjU-eeeCEcWCFCzcn3Qk5tnq9zc4aBPqHQFSw8zzWK_H2Ip6ecyzPClO8EFG60GIoMGrUqWWcv0A7MV96FyXVs/s1600/pressconf_Santosh_Anupama_2ndPff_10.JPG" style="color: rgb(51, 102, 153); "><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1C5zfaIMAsXEoEd7NjJJjyNqXuv_5k00uDtDDqrB3U5rbV-7sTX0HokEjU-eeeCEcWCFCzcn3Qk5tnq9zc4aBPqHQFSw8zzWK_H2Ip6ecyzPClO8EFG60GIoMGrUqWWcv0A7MV96FyXVs/s320/pressconf_Santosh_Anupama_2ndPff_10.JPG" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5548939693922934194" border="0" style="border-top-width: 1px; border-right-width: 1px; border-bottom-width: 1px; border-left-width: 1px; padding-top: 4px; padding-right: 4px; padding-bottom: 4px; padding-left: 4px; border-top-style: solid; border-right-style: solid; border-bottom-style: solid; border-left-style: solid; border-top-color: rgb(204, 204, 204); border-right-color: rgb(204, 204, 204); border-bottom-color: rgb(204, 204, 204); border-left-color: rgb(204, 204, 204); float: left; margin-top: 0pt; margin-right: 10px; margin-bottom: 10px; margin-left: 0pt; cursor: pointer; width: 320px; height: 283px; " /></a>अनुपमा श्रीनिवासन निर्देशित<br />फ़िल्म ‘आई वंडर’ राजस्थान, सिक्किम और तमिलनाडु के ग्रामीण बच्चों के स्कूल, घर और उनकी जिंदगी को केंद्र में रखकर बनाई गई है। फ़िल्म ने कई गंभीर सवाल खड़े किए, जैसे कि इन बच्चों के लिए स्कूल का मतलब क्या है? बच्चे स्कूल में और उसके बाहर आखिर सीख क्या रहे हैं? इन बच्चों के रोजमर्रा के अनुभवों के जरिए इस फ़िल्म ने दर्शकों को यह सोचने के लिए बाध्य किया कि शिक्षा है क्या और उसे कैसी होनी चाहिए। अनुपमा इस मौके पर फेस्टिवल में मौजूद थीं, उनसे दर्शकों ने शिक्षा पद्धति को लेकर कई सवाल किए<br />दीपा भाटिया निर्देशित फ़िल्म ‘नीरो’ज गेस्ट’ किसानों की आत्महत्याओं पर केंद्रित थी। दीपा ने सुदूर गांव के गरीब-मेहनतकश किसानों से लेकर बड़े-बड़े सेमिनारों में बोलते देश के मशहूर पत्रकार पी. साईनाथ को अपने कैमरे में उतारा है। पिछले 10 सालों में लगभग 2 लाख किसानों की आत्महत्या के वजहों की शिनाख्त करती यह फिल्म एक जरूरी राजनैतिक हस्तक्षेप की तरह लगी।<br /><br />पूना फिल्म इंस्टिट्यूट से फ़िल्म संपादन में प्रशिक्षित बेला नेगी की पहली फ़िल्म ‘दाएं या बाएं’ में ग्रामीण संस्कृति पर पड़ते बाजारवाद के प्रभावों को चित्रित किया गया था। पूंजीवादी-बाजारवादी संस्कृति ने जिन प्रलोभनों और जरूरतों को पैदा किया है, उनको बड़े ही मनोरंजक अंदाज में इस फ़िल्म ने निरर्थक साबित किया।<br /><br />‘दी अदर सांग’ भारतीय शास्त्रीय संगीत और गायिकी की उस परंपरा को बड़ी खूबसूरती से दस्तावेजीकृत करने वाली फ़िल्म थी, जिसको उन ठुमरी गायिकाओं ने समृद्ध बनाया था, जो पेशे से तवायफ थीं। फ़िल्म निर्देशिका सबा दीवान ने तीन साल तक तवायफों की जीवन शैली और उनकी कला पर गहन शोध करके यह फ़िल्म बनाई है। इस फ़िल्म ने दर्शकों को रसूलनबाई समेत कई मशहूर ठुमरी गायिकाओं के जीवन और गायिकी से तो रूबरू करवाया ही, लागत करेजवा में चोट गीत के मूल वर्जन ‘लागत जोबनवा में चोट’ के जरिए शास्त्रीय गायिकी में अभिजात्य और सामान्य के बीच के सौंदर्यबोध और मूल्य संबधी द्वंद्व को भी चिह्नित किया। अभिजात्य हिंदू शास्त्रीय संगीत परंपरा के बरअक्स इन गायिकाओं की परंपरा को जनगायिकी की परंपरा के बतौर देखने के अतिरिक्त इस फिल्म में व्यक्त महिलावादी नजरिया भी इसकी खासियत थी। लोगों ने बेहद मंत्रमुग्ध होकर इस फ़िल्म को देखा।<br /><br />म्यूजिक वीडियो जिन सामाजिक प्रवृत्तियों और वैचारिक या व्यावसायिक आग्रहों से बनते रहे हैं, तरुण भारतीय और के. मार्क स्वेर द्वारा तैयार किये गए म्यूजिक वीडियो के संकलन ‘हम देखेंगे’ उसको समझने की एक कोशिश थी।<br /><br />इस मौके पर जसम, बिहार के राज्य सचिव संतोष झा ने कलाकारों और दर्शकों से अपील की, कि वे जनता से जुड़े बुनियादी मुद्दों, उसकी लोकतांत्रिक आकांक्षा और उसके बेहद जरूरी प्रतिरोधों को दर्ज करें और 10-15 मिनट के लघु फ़िल्म के रूप में निर्मित करके अगस्त, 20111 तक फेस्टिवल के संयोजक के पास भेज दें, जो फ़िल्में चुनी जाएंगी, उनका प्रदर्शन अगले फ़िल्म फेस्टिवल में किया जाएगा। समापन वक्तव्य कवि आलोकधन्वा ने दिया।<br /><br />फ़िल्म फेस्टिवल में गोरखपुर फ़िल्म सोसाइटी और समकालीन जनमत की ओर से किताबों, कविता पोस्टरों और<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgOv1frxH56evLRTZ1ETEqYz_uT4V4g3xPv6h6sLEXbWI0_8fpwhlORVCQdu4Hg2487kb7UEaaVX0bcmMQnij_qJ6PhNK1x5wnV9DdcFbpYRT4Ty-5HBrHJUydhM-ZZZP680zz_1NIxtkXn/s1600/books_dvds_2nd+Pff_10.JPG" style="color: rgb(51, 102, 153); "><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgOv1frxH56evLRTZ1ETEqYz_uT4V4g3xPv6h6sLEXbWI0_8fpwhlORVCQdu4Hg2487kb7UEaaVX0bcmMQnij_qJ6PhNK1x5wnV9DdcFbpYRT4Ty-5HBrHJUydhM-ZZZP680zz_1NIxtkXn/s320/books_dvds_2nd+Pff_10.JPG" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5548942418181623666" border="0" style="border-top-width: 1px; border-right-width: 1px; border-bottom-width: 1px; border-left-width: 1px; padding-top: 4px; padding-right: 4px; padding-bottom: 4px; padding-left: 4px; border-top-style: solid; border-right-style: solid; border-bottom-style: solid; border-left-style: solid; border-top-color: rgb(204, 204, 204); border-right-color: rgb(204, 204, 204); border-bottom-color: rgb(204, 204, 204); border-left-color: rgb(204, 204, 204); float: right; margin-top: 0pt; margin-right: 0pt; margin-bottom: 10px; margin-left: 10px; cursor: pointer; width: 320px; height: 240px; " /></a>फ़िल्मों की डीवीडी का स्टाल भी लगाया गया था। प्रेक्षागृह के बाहर राधिका-अर्जुन द्वारा बनाए गए कविता पोस्टर लगाए गए थे, जो फ़िल्मोत्सव का आकर्षण बने हुए थे। इस अवसर पर शताब्दी वर्ष वाले कवियों की कविताओं पर आधारित सारे छोटे पोस्टर पटना के साहित्य-संस्कृतिप्रेमियों ने खरीद लिए। किताबों और फ़िल्मों की डीवीडी की भी अच्छी मांग देखी गई। पूरे आयोजन का संचालन संतोष झा और संजय जोशी ने किया। उनके साथ विभिन्न फ़िल्मों और निर्देशकों का परिचय डा. भारती एस. कुमार, के.के. पांडेय और सुमन कुमार ने दिया।<br /><br />-<b>सुधीर सुमन</b><br /><br /><br /><span style="font-size: 10px; "><span></span></span><span style="font-size: 10px; "><span></span></span><div id="refHTML" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.75em; margin-left: 0px; line-height: 1.3em; "></div><div style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.75em; margin-left: 0px; line-height: 1.3em; clear: both; "></div></div><div class="post-footer" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.75em; margin-left: 0px; color: rgb(51, 51, 51); font-size: 11px; line-height: 1.3em; "><div class="post-footer-line post-footer-line-1" style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0.75em; margin-left: 0px; line-height: 1.3em; "><br /></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></span>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-74064161396186954162010-11-21T22:53:00.000-08:002010-11-25T07:47:00.731-08:00लूट और दमन के खिलाफ सृजन और संघर्ष का अभियान<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjY4UD6ad0R7Rb8t_W_fcFFKUyjX2UP9g_0RmnWL6AVancQBgOxqdZVI5g0dZeaGWTpyqNm6fgfgBhXqTaCKWq0tVNye6ofuFflKHIPZawm5F_f2uQbmZOhJwOzLeN4-HKLl-LN6gBIQqI/s1600/100_3923.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5543513504999580434" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 240px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjY4UD6ad0R7Rb8t_W_fcFFKUyjX2UP9g_0RmnWL6AVancQBgOxqdZVI5g0dZeaGWTpyqNm6fgfgBhXqTaCKWq0tVNye6ofuFflKHIPZawm5F_f2uQbmZOhJwOzLeN4-HKLl-LN6gBIQqI/s320/100_3923.JPG" border="0" /></a><br /><div><span style="font-size:180%;">जसम का बारहवां राष्ट्रीय सम्मेलन </span><br /><span style="font-size:180%;"></span><br /><br />लूट और दमन की संस्कृति के खिलाफ सृजन और संघर्ष को समर्पित जसम का बारहवां राष्ट्रीय सम्मेलन 13-14 नवंबर को दुर्ग (छत्तीसगढ़) में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। सम्मेलन में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, दिल्ली, राजस्थान, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों के प्रतिनिधि शामिल हुए। प्रो। मैनेजर पांडेय और प्रणय कृष्ण को पुनः जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष और महासचिव रूप में चुनाव किया गया। सम्मेलन में 115 सदस्यीय नई राष्ट्रीय परिषद का चुनाव किया गया। कामकाज के विस्तार के लिहाज से महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के प्रतिनिधियों को भी राष्ट्रीय पार्षद बनाया गया। प्रलेस के संस्थापक सज्जाद जहीर की पुत्री प्रसिद्ध कथाकार-पत्रकार और नृत्यांगना नूर जहीर समेत 19 नए नाम राष्ट्रीय परिषद में शामिल किए गए। मंगलेश डबराल, अशोक भौमिक, शोभा सिंह, वीरेन डंगवाल, रामजी राय, मदन कश्यप, रविभूषण, रामनिहाल गुजन, शंभु बादल और सियाराम शर्मा को जसम का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया। राष्ट्रीय कार्यकारिणी 35 सदस्यों की है, जिसमें सुधीर सुमन, भाषा सिंह, दीपक सिन्हा, सुरेंद्र सुमन, संतोष झा, अनिल अंशुमन, अजय सिंह, के. के. पांडेय, आशुतोष कुमार, बलराज पांडेय, संजय जोशी, सुभाष कुशवाहा, हिमांशु पंड्या, गोपाल प्रधान, कौशल किशोर, पंकज चतुर्वेदी, कैलाश बनवासी और सोनी तिरिया शामिल हैं।<br /><br /><br />सृजन और संघर्ष के दो बडे नाम- मुक्तिबोध और शंकर गुहा नियोगी सम्मेलन के केंद्र में थे। सम्मेलन के तमाम सत्रों में मंच पर लगे मुख्य बैनर पर दोनों की तस्वीरें थीं। दुर्ग के शंकर गुहा नियोगी हाल (बाकलीवाल स्मृति भवन) में हिरावल (पटना) के कलाकारों द्वारा मुक्तिबोध की ‘अधेरे में’ कविता के एक उत्प्रेरक अंश ‘ओ मेरे आदर्शवादी मन/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन/ अब तक क्या किया/ जीवन क्या जीया’ के बेहद प्रभावशाली गायन से सम्मेलन की शुरुआत हुई और समापन हिरावल (भिलाई) द्वारा ‘अधेरे में’ की नाट्य प्रस्तुति से हुई। सम्मेलन ने बिहार के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के नायक का। रामनरेश राम, छात्र नेता राजेश, ‘सही समझ’ के संपादक और कथाकार सोहन शर्मा, रंगकर्मी शिवराम, जनकवि गिर्दा, रंगकर्मी अमिताभ दासगुप्ता और अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता को एक मिनट का मौन रखकर अपनी श्रद्धांजलि दी।<br /><br /><br />प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल ने ‘सत्ता और संस्कृति’ विषय पर मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यान दिया, जो कि सम्मेलन का उद्घाटन वक्तव्य भी था। मंगलेश डबराल ने इराक, अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले और भारतीय शासकवर्ग द्वारा आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, मजदूरों और किसानों के बर्बर दमन का जिक्र करते हुए कहा कि आज सत्ता को अपने किसी भी दुष्कृत्य के लिए कोई ग्लानिबोध नहीं रह गया है। साधारणजन की तकलीफों के प्रति सत्ता बिल्कुल संवेदनहीन हो चुकी है। कश्मीर में जनप्रदर्शनों के हिंसक दमन, अरुंधति राय को जेल भेजने की धमकी, दंतेवाड़ा में आदिवासियों की हत्याओं और विस्थापन, कामन वेल्थ गेम के नाम पर मजदूरो को दिल्ली से भगाए जाने जैसे कई प्रसगों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि सत्ता बिल्कुल प्रतिक्रियावादी और फासिस्ट हो चुकी है। एक अनियंत्रित आर्थिक उदारवाद की जो संस्कृति है, भाजपा और कांग्रेस उसके प्रवक्ता और वाहक हैं और उन्हें भारत में पनपे नवधनाढ़य नए मध्यवर्ग का निर्लज्ज साथ मिल रहा है। साधारण जनता के जो बड़े सांस्कृतिक मूल्य है सत्ता उसे खत्म कर देना चाहती है और लूट, बर्बरता के मूल्यों के प्रचार में लगी है, मीडिया उसका एक ताकतवर माध्यम है। मंगलेश डबराल ने कहा कि आज संस्कृतिकर्मियों और साहित्यकारों को ऐसी सत्ताओं से अपने संबंध को पुनर्परिभाषित करना होगा। राज्य, पूंजी, बाजार या उसके उत्पाद और उसकी राजनीति के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रतिरोध संगठित करना होगा।<br /><br /><br />उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो। मैनेजर पांडेय ने कहा कि जो आतताई, निर्मम, लुटेरी और झूठ की सत्ता है, उसका होना ही मनुष्यता के प्रति अपराध है। उसके विकल्प के प्रति सोचना ही पड़ेगा। आज पूंजीवाद समाजवाद से लड़ने के लिए उसी सामंतवाद और धार्मिक प्रवृत्तियों का सहारा ले रहा है, जिसका कभी उसने विरोध किया था। हमारे पास जनता, समाजवाद और माक्र्सवाद से जुड़े लेखकों और संस्कतिकर्मियों के त्याग, समर्पण और संघर्ष की मिसालें हैं, उनकी स्मृति हमारी ताकत है, हमें उस ताकत के साथ मौजूदा सत्ताओं के खिलाफ खड़ा होना होगा। अन्याय और बुराई के खिलाफ जनता में जो बेचैनी और आक्रोश है, उसे अभिव्यक्ति देनी होगी। उद्धाटन सत्र में प्रलेस के महासचिव कमला प्रसाद, जलेस की केंद्रीय कार्यकारिणी की ओर से मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और चंचल चैहान द्वारा भेजा गया शुभकामना संदेश भी पढ़ा गया। कवि आलोक धन्वा ने भी सम्मेलन के लिए अपना संदेश भेजा था, जिसका पाठ किया गया। सम्मेलन को जलेस के नासिर अहमद सिकंदर और प्रलेस के रवि श्रीवास्तव ने भी संबोधित किया। मंच पर वीपी केशरी, रविभूषण, राजेंद्र कुमार, रामजी राय, अशोक भौमिक आदि भी मौजूद थे। संचालन अवधेश ने किया।<br /><br /><br />सम्मेलन को संबोधित करते हुए विशिष्ट अतिथि सुप्रसिद्ध कवि नवारुण भट्टाचार्य ने कहा कि मुक्तिबोध और शंकर गुहा नियोगी को याद करते हुए आज फिर से ‘संघर्ष और निर्माण’ के नारे की याद आती है। जिस तरह से आज का साम्राज्यवाद और उसके देशी दलाल अपने स्वार्थ में आदिवासियों और देश के मेहनतकशों के लिए विनाश और विस्थापन का चक्र चला रहे हैं, उसके खिलाफ फिर उसी नारे के साथ उठ खड़ा होना वक्त की जरूरत है।<br /><br /><br />दूसरे दिन सांगठनिक सत्र की शुरुआत मसविदा दस्तावेज के पाठ से हुई। दस्तावेज की शुरुआत जनभाषा में अवधेश प्रधान द्वारा रचित एक गीत से हुई, जो अपने आप में जसम के लक्ष्य की ओर भी संकेत करता है। उस गीत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कारपोरेट के हित में भारतीय शासकवर्गों द्वारा की जा रही लूट और लूट को जारी रखने के लिए किए जा रहे बर्बर दमन के यथार्थ के साथ उसके खिलाफ एक ताकतवर जनप्रतिरोध का आह्वान है। दस्तावेज ने इसे चिह्नित किया कि अमेरिका अपने देश में बेरोजगारी दूर करने लिए भारतीय बाजार के आखेट में लगा है। ओबामा इसी मकसद से भारत आए थे। विकास के नाम पर आदिवासी क्षेत्रों, जंगल, पहाड़, जल, जमीन के दोहन, भारी पैमाने पर विस्थापन, पर्यावरण विनाश और जनसंहार की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जाहिर करते इस दस्तावेज में यह कहा गया कि आज पूंजीवादी लोकतंत्र के हर खंभे की निष्पक्षता और स्वायत्तता स्वांग लगने लगी है। न्यायपालिका तक सत्ता की राजनीति और पूंजी के तकाजों से घिरी नजर आ रही है। अयोध्या और यूनियन कार्बाइड मामले में जो फैसला आया है, वह इसी का उदाहरण है। पेड न्यूज, अंधविश्वास, युद्धोन्माद, सांप्रदायिकता के सहयोगी होने और जनांदोलनों के प्रति विरोधी रुख के कारण मीडिया की भूमिका भी जनपक्षधर नहीं रह गई है। अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी कंपनियों-एजेंसियों के साथ सरकार, संसद, सैन्यबल, नौकरशाही, वित्तीय संस्थाओं, एनजीओ और मीडिया के स्वार्थपूर्ण समझौतों तथा शैक्षणिक, बौद्धिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से लेकर ग्राम पंचायतों तक लूट और दमन की संस्कृति के विस्तार पर गहरी फिक्र जाहिर करते सम्मेलन के इस दस्तावेज में जनता के प्रतिरोध की संस्कृति को संगठित करने पर जोर दिया गया। किसानों की आत्महत्या और आनर किलिंग के संदर्भ में जसम की ओर से मजबूत सांस्कृतिक हस्तक्षेप की जरूरत पर भी दस्तावेज में जोर दिया गया।<br /><br /><br />दस्तावेज पर विचार विमर्श की शुरुआत करते हुए प्रो। मैनेजर पांडेय ने कहा कि आज आशा के जो स्रोत हैं, उन्हें भी याद करने की जरूरत है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ क्यूबा, वेनेजुएला जैसे देशों का प्रतिरोध और सेज के खिलाफ भारतीय जनता के प्रतिरोध को उम्मीद की तरह देखना होगा। उन्होंने कहा कि संघर्ष की छोटी सी छोटी कोशिशों को भी दर्ज करना होगा। उन्होंने कहा कि कला-संस्कृति की सारी विधाओं में जनता के जीवन की जो अभिव्यक्ति हो रही है, उसे एक सुचिंतित वैचारिक दिशा देनी होगी। समाजवाद आज और भी प्रासंगिक हो गया है। समाजवादी सपनों की दिशा में संस्कृतिकर्म को गति देनी होगी। उड़ीसा से आए राधाकांत, पश्चिम बंग गण सांस्कृतिक परिषद् के नीतीश, जेवियर कुजूर-झारखंड, राकेश दिवाकर, सुनील चौधरी-आरा, सूर्यनारायण-इलाहाबाद, सुरेश पंजम-लखनऊ, आशुतोष कुमार-दिल्ली, संजय जोशी-गाजियाबाद, शोभा सिंह-लखनऊ, पंकज चतुर्वेदी-कानपुर, कपिल शर्मा-दिल्ली, समता राय-पटना, जय प्रकाश नायर-छत्तीसगढ़, मंगलेश डबराल-दिल्ली और के.के.पांडेय-इलाहाबाद ने सांगठनिक सत्र में चले विचार विमर्श में हिस्सा लिया। सांगठनिक सत्र की अघ्यक्षता रामजी राय, राजेंद्र कुमार, शंभू बादल और रामनिहाल गुंजन ने की।<br /><br /><br />जसम के इस सम्मेलन में कला-संस्कृति की कई विधाओं और शैलियों की छटाएं देखी गई। कला का हर रंग इस स्वप्न को सामने ला रहा था कि कैसे देश दुनिया में जनपक्षधर व्यवस्थाएं निर्मित हों, किस तरह मानवीय सभ्यता-संस्कृति की प्रगति हो। जो है उससे बेहतर चाहिए, मुक्तिबोध की यह चिंता जैसे सम्मेलन के केंद्र में थी। मुक्तिबोध के चारों पुत्र- रमेश, दिवाकर, गिरीष और दिलीप सम्मेलन में आए, यह सम्मेलन एक सुखद संयोग था।<br /><br /><br /><span style="font-size:130%;"><strong>भारतीय चित्रकला के प्रगतिशील पक्ष से अवगत हुए दर्शक</strong></span><br /><br /><br />प्रसिद्ध चित्रकार-कथाकार अशोक भौमिक ने भारतीय चित्रकला का प्रगतिशील पक्ष’ विषय पर काफी जानकारीपूर्ण और सरोकारों के लिहाज से अत्यंत उपयोगी व्याख्यान दिया। उन्होंने भारतीय चित्रकला के इतिहास को, उस पर मौजूद राजनैतिक-आर्थिक प्रभावों का जिक्र करते हुए, पेश किया। धर्म, सामंती मूल्यबोध, मुगल और यूरोपीय कला से भारत की चित्रकला किस कदर प्रभावित रही और किस तरह बंगाल के भीषण अकाल और तेभागा आंदोलन के दौर में भारतीय चित्रकला में आम मेहनतकश जन के दुख-सुख और संघर्ष का दस्तावेजीकरण हुआ, इसकी भी उन्होंने चर्चा की। उन्होंने भारतीय चित्रकला को जनोन्मुख बनाने में कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित किया। अशोक भौमिक अपने कविता पोस्टरों के लिए भी चर्चित रहे हैं। जसम सम्मेलन स्थल पर लगाए गए राधिका-अर्जुन द्वारा बनाए गए पोस्टर उसी परंपरा को विकसित करने की एक कोशिश लगे।<br /><br /><br /><span style="font-size:130%;">कविता पोस्टरों के जरिए याद किए गए मशहूर कवि और </span><span style="font-size:130%;">शायर</span><br /><span style="font-size:130%;"><span class=""></span></span><br /><br />यह वर्ष भारतीय उपमहाद्वीप के मशहूर शायर फैज अहमद फैज,मजाज, हिंदी कवि नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल और अज्ञेय का जन्मशताब्दी वर्ष है। राधिका-अर्जुन ने उनकी कविताओं पर आधारित बडे़ प्रभावशाली पोस्टर बनाए थे। इन कविता पोस्टरों के जरिए इन शायरों और कवियों की विचारधारा, काव्य-संवेदना और उनकी प्रतिबद्धता से दर्शक रूबरू हुए। नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता ‘प्रतिबद्ध हूं’ के संकल्प के साथ एक पोस्टर में यह दिशानिर्देश भी नजर आया कि ‘साधारण जनों से/ अलहदा होकर रहो मत/ कलाधर या रचयिता होना नहीं है पर्याप्त/ पक्षधर की भूमिका धारण करो।’ पोस्टरों में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘हरिजन गाथा’ के अंश थे तो शासकीय दमन के प्रतिरोध में उतरे मुक्ति सैनिकों की तलाश भी थी। फैज के मशहूर नज्म ‘लाजिम है’ का यकीन एक ओर था तो दूसरी ओर आदमी में मौजूद लोहे की ताकत का बयान करती केदारनाथ अग्रवाल की कविता का अंश तो तीसरी ओर शमशेर की कविता में मौजूद ‘वज्र कठिन कमकर की मुट्ठी में पथ प्रदर्शिका मशाल’। अधिकांश कविता पोस्टरों में साधारण मेहनतकश जनता की इंकलाबी ताकत के प्रति गहन आस्था की अभिव्यक्ति थी। रक्तपायी शासकवर्ग के हित में जनता की बदहाली, शोषण-दमन आदि के सवाल पर चुप रहने वाले साहित्यिक-कविजन, चिंतक, शिल्पकार आदि के प्रति सख्त आलोचना मुक्तिबोध के साथ-साथ सर्वेश्वर, गोरख, मायकोव्स्की, पाब्लो नेरुदा, आलोक धन्वा की कविताओं पर आधारित पोस्टरों में भी थी। गुर्राते हुए भेड़ियों के खिलाफ मशाल जलाने और बेजुबानों की आवाज बनने का आह्वान और संकल्प का इजहार भी थे ये पोस्टर।<br /><br /><br />सांगठनिक सत्र में मंच की दायीं ओर लगा मशहूर कवि और गायक पाल राबसन की कविता पर आधारित पोस्टर एक तरह से जसम के राष्ट्रीय सम्मेलन के मकसद की अभिव्यक्ति था-<br />प्रत्येक कलाकार, प्रत्येक वैज्ञानिक<br />प्रत्येक लेखक को अब यह तय करना<br />होगा कि वह कहां खड़ा है<br />सुरक्षित आश्रय के रूप में कोई पृष्ठभाग<br />नहीं है.....कलाकार को पक्ष चुनना ही होगा।<br />स्वतंत्रता के लिए संघर्ष, या फिर गुलामी- उसे<br />किसी एक को चुनना ही होगा....<br />और कोई विकल्प नहीं है।<br />लोकार्पण<br />नवारुण भट्टाचार्य ने जसम सम्मेलन की स्मारिका का लोकार्पण किया। जिसमें जन्मशताब्दी वर्ष वाले रचनाकारों के अतिरिक्त पहल के संपादक ज्ञानरंजन, मैनेजर पांडेय, रघुवीर सहाय, निराला आदि की रचनाएं हैं। संपादन कैलाश बनवासी ने किया है। इस अवसर पर झारखंड के संस्कृतिकर्मी कालेश्वर गोप के कहानी संग्रह ‘मैं जीती हूं’ का लोकार्पण कैलाश बनवासी ने किया।<br />चित्र और मूर्ति प्रर्दशनी सम्मेलन में गिलबर्ट जोसेफ, सुनीता वर्मा, डीएस विद्यार्थी, एफ.आर. सिन्हा, बृजेश तिवारी, रश्मि भल्ला, जीके निर्मलकर और प्रांजली के चित्र तथा धनंजय पाल के चित्र प्रदर्शित थे, जो सम्मेलन का महत्वपूर्ण आकर्षण थे।<br />जनगीत, बाउल, डाक्युमेंटरी और फिल्म का प्रदर्शन<br />पश्चिम बंग गण परिषद की ओर से आए बाउल गायकों-नर्तकों ने अपनी प्रस्तुति के जरिए अद्भुत समां बांधा। भोजपुर के क्रांतिकारी किसान आंदोलन के महानायक का. रामनरेश राम के निधन के तुरत बाद बनाई गई नीतिन की डाक्यूमेंटरी और ईरानी फिल्म ‘टर्टल्स कैन फ्लाई’ भी सम्मेलन में दिखाई गई। शहीद गुरु बालकदास बाल मंच (जामुल/छत्तीसगढ़) और हिरावल (भिलाई) के बालकलाकारों की प्रस्तुति जितनी मनमोहक थी, उतना ही भविष्य की संभावनाओं से लैस थी। सम्मेलन में हिरावल (भिलाई), हिरावल (बिहार), दस्ता(इलाहाबाद) और युवानीति (आरा) के कलाकारों ने जनगीत पेश किए।<br />कविता पाठ<br />सम्मेलन के आखिरी सत्र के आरंभ में कविता पाठ हुआ, जिसमें नवारुण भट्टाचार्य ने अपनी बहुचर्चित कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश' का अंश सुनाया। मीता दास ने हिंदी में अनुदित उनकी कविताओं का पाठ किया। मंगलेष डबराल ने टार्च, भूख और भूत, मैं तैयार नहीं हूं, दरवाजे और खिड़कियां जैसी अपनी प्रसिद्ध कविताओं को सुनाया। विनोद कुमार शुक्ल ने भी अपनी तीन कविताओं का पाठ किया, जिसमें हमारे दौर की कई ज्वलंत समस्याओं को लेकर चिंता मौजूद थी। शोभा सिंह ने कश्मीर के हालात पर रची गई दो कविताओं और शमशेर की याद में लिखी गई अपनी कविता का पाठ किया। रमाशंकर विद्रोही ने नूर मियां के सूरमे और मानव सभ्यता में स्त्रियों के उत्पीड़न और दमन के खिलाफ लिखी गई अपनी लंबी कविता का पाठ किया। राजेंद्र कुमार की कविता में शासकों-प्रशासकों की खबर ली गई थी तो शंभू बादल की छोटी कविताएं जनजीवन की छोटी-छोटी उम्मीदें को बटोरने की एक कोशिश थी।<br />सम्मेलन का समापन हिरावल (बिहार) द्वारा गोरख पांडेय की स्मृति में रचित दिनेष कुमार शुक्ल की कविता ‘जाग मेरे मन मछंदर’ के गायन और हिरावल (भिलाई) द्वारा ‘अंधेरे में’ कविता की नाट्य प्रस्तुति से हुआ।<br />सम्मेलन में लेनिन पुस्तक केंद्र (लखनऊ), गोरखपुर फिल्म सोसाइटी और समकालीन जनमत की ओर से बुकस्टाल भी लगाए गए थे।<br />--सुधीर सुमन</div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-34681837669006751632010-10-25T23:56:00.000-07:002010-10-26T00:23:28.610-07:00जलेस प्रलेस और जसम का संयुक्त वक्तव्य<span style="font-size:180%;"><strong>बाबरी मस्जिद स्थल के बारे में लखनऊ बेन्च के फ़ैसले पर
<br />जलेस, प्रलेस और जसम का साझा बयान</strong></span>
<br /><span style="font-size:180%;"><strong>
<br />
<br /></strong></span>रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच का फ़ैसला इस देश के हर इंसाफ़पसंद नागरिक के लिए दुख और चिंता का सबब है। इस फ़ैसले में न सिर्फ तथ्यों, सबूतों और समुचित न्यायिक प्रक्रिया की उपेक्षा हुई है, बल्कि धार्मिक आस्था को अदालती मान्यता देते हुए एक ऐसी नज़ीर पेश की गयी है जो भविष्य के लिए भी बेहद ख़तरनाक है। इस बात का कोई साक्ष्य न होते हुए भी, कि विवादित स्थल को हिंदू आबादी बहुत पहले से भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मानती आयी है, फ़ैसले में हिंदुओं की आस्था को एक प्रमुख आधार बनाया गया है। अगर इस आस्था की प्राचीनता के बेबुनियाद दावों को हम स्वीकार कर भी लें, तो इस सवाल से तो नहीं बचा जा सकता कि क्या हमारी न्यायिक प्रक्रिया ऐसी आस्थाओं से संचालित होगी या संवैधानिक उसूलों से? तब फिर उस हिंदू आस्था के साथ क्या सलूक करेंगे जिसका आदिस्रोत ऋग्वेद का ‘पुरुषसूक्त’ है और जिसके अनुसार ऊंच-नीच के संबंध में बंधे अलग-अलग वर्ण ब्रह्मा के अलग-अलग अंगों से निकले हैं और इसीलिए उनकी पारम्परिक ग़ैरबराबरी जायज़ है? अदालत इस मामले में भारतीय संविधान से निर्देशित होगी या आस्थाओं से? तब स्त्री के अधिकारों-कर्तव्यों से संबंधित परम्परागत मान्यताओं के साथ न्यायपालिका क्या सलूक करेगी? हमारी अदालतें सती प्रथा को हिंदू आस्था के साथ जोड़ कर देखेंगी या संविधानप्रदत्त अधिकारों की रोशनी में उस पर फ़ैसला देंगी? कहने की ज़रूरत नहीं कि आस्था को विवादित स्थल संबंधी अपने फ़ैसले का निर्णायक आधार बना कर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने ‘मनुस्मृति’ और ‘पुरुषसूक्त’ समेत हिंदू आस्था के सभी स्रोतों को एक तरह की वैधता प्रदान की है, जिनके खि़लाफ़ संघर्ष आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना के निर्माण का एक अनिवार्य अंग रहा है और हमारे देश का संविधान उसी आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना की मूर्त अभिव्यक्ति है। इसलिए आस्था को ज़मीन की मिल्कियत तय करने का एक आधार बनाना संवैधानिक उसूलों के एकदम खि़लाफ़ है और इसमें आने वाले समय के लिए ख़तरनाक संदेश निहित हैं। ‘न्यायालय ने भी आस्था का अनुमोदन किया है’, ऐसा कहने वाले आर एस एस जैसे फासीवादी सांप्रदायिक संगठन की दूरदर्शी प्रसन्नता समझी जा सकती है!
<br /></strong></span>
<br />
<br />यह भी दुखद और चिंताजनक है कि विशेष खंडपीठ ने ए।एस.आई. की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट के आधार पर मस्जिद से पहले हिंदू धर्मस्थल होने की बात को दो तिहाई बहुमत से मान्यता दी है। इस रिपोर्ट में बाबरी मस्जिद वाली जगह पर ‘स्तंभ आधारों’ के होने का दावा किया गया है, जिसे कई पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने सिरे से ख़ारिज किया है। यही नहीं, ए.एस.आई. की ही एक अन्य खुदाई रिपोर्ट में उस जगह पर सुर्खी और चूने के इस्तेमाल तथा जानवरों की हड्डियों जैसे पुरावशेषों के मिलने की बात कही गयी है, जो न सिर्फ दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का प्रमाण है, बल्कि इस बात का भी प्रमाण है कि वहां कभी किसी मंदिर का अस्तित्व नहीं था। निस्संदेह, ए.एस.आई. के ही प्रतिसाक्ष्यों की ओर से आंखें मूंद कर और एक ऐसी रिपोर्ट परं पूरा यकीन कर जिसे उस अनुशासन के चोटी के विद्वान झूठ का पुलिंदा बताते हैं, इस फ़ैसले में अपेक्षित पारदर्शिता एवं तटस्थता का परिचय नहीं दिया गया है।
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<br />
<br />हिंदू आस्था और विवादास्पद पुरातात्विक सर्वेक्षण के हवाले से यह फ़ैसला प्रकारांतर से उन दो कार्रवाइयों को वैधता भी प्रदान करता है जिनकी दो-टूक शब्दों में निंदा की जानी चाहिए थी। ये दो कार्रवाइयां हैं, 1949 में ताला तोड़ कर षड्यंत्रपूर्वक रामलला की मूर्ति का गुंबद के नीचे स्थापित किया जाना तथा 1992 में बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना। आश्चर्य नहीं कि 1992 में साम्प्रदायिक ताक़तों ने जिस तरह कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाईं और 500 साल पुरानी एक ऐतिहासिक इमारत को न सिर्फ धूल में मिला दिया, बल्कि इस देश के आम भोलेभाले नागरिकों को दंगे की आग में भी झोंक दिया, उसके ऊपर यह फ़ैसला मौन है। इस फ़ैसले का निहितार्थ यह है कि 1949 में जिस जगह पर जबरन रामलला की मूर्ति को प्रतिष्ठित किया गया, वह जायज़ तौर पर रामलला की ही ज़मीन थी और है, और 1992 में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों द्वारा संगठित एक उन्मादी भीड़ ने जिस मस्जिद को धूल में मिला दिया, उसका ढहाया जाना उस स्थल के न्यायसंगत बंटवारे के लिए ज़रूरी था! हमारे समाज के आधुनिक विकास के लिए अंधविश्वास और रूढि़वादिता बड़े रोड़े हैं जिनका उन्मूलन करने के बजाय हमारी न्यायपालिका उन्हीं अंधविश्वासों और रूढि़वादिता को बढ़ावा दे तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है!
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<br />लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक सोच में यक़ीन करने वाले हम लेखक-संस्कृतिकर्मी, विशेष खंडपीठ के इस फ़ैसले को भारत के संवैधानिक मूल्यों पर एक आघात मानते हैं। हम मानते हैं कि अल्पसंख्यकों के भीतर कमतरी और असुरक्षा की भावना को बढ़ाने वाले तथा साम्प्रदायिक ताक़तों का मनोबल ऊंचा करने वाले ऐसे फ़ैसले को, अदालत के सम्मान के नाम पर बहस के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता। इसे व्यापक एवं सार्वजनिक बहस का विषय बनाना आज जनवाद तथा धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए सबसे ज़रूरी क़दम है।
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<br />
<br /><strong>हस्ताक्षरकर्ता
<br /></strong>मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
<br />कमला प्रसाद, महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
<br />मैनेजर पाण्डेय, अध्यक्ष, जन संस्कृति मंच
<br />चंचल चौहान, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
<br />आली जावेद, उप महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
<br />प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच
<br />कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-83858886297850102652010-10-13T02:25:00.000-07:002010-10-13T02:45:10.917-07:00तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव 2010<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixdPn4hMaU4ZaY5FqcwKDpxkuKWRrXRIS_EVetNPDZqUk04lX7Kp_QggGviQaUKJnbCKEgG-yD6_nJqqH62dRZk3YnNoD9VYmjopQLCp9I-Pd3ml9BrLuwveOzPTkbZ1FLOfyFbNniVqI/s1600/LKO+film+festival+105.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5527462335151483666" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 240px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixdPn4hMaU4ZaY5FqcwKDpxkuKWRrXRIS_EVetNPDZqUk04lX7Kp_QggGviQaUKJnbCKEgG-yD6_nJqqH62dRZk3YnNoD9VYmjopQLCp9I-Pd3ml9BrLuwveOzPTkbZ1FLOfyFbNniVqI/s320/LKO+film+festival+105.jpg" border="0" /></a><br /><div><strong><strong><strong><strong><span style="font-size:180%;">गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित</span></strong></strong></strong></strong> </div><br /><div><span style="font-size:180%;">सत्ता संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध के सिनेमा का अभियान</span><br /><br /><span style="font-size:130%;">कौशल किशोर<br /></span><br />आज जनजीवन और सामाजिक संघर्षों से जुड़ी ऐसी फीचर फिल्मों और वृतचित्रों का निर्माण हो रहा है जहाँ समाज की कठोर सच्चाइयाँ हैं, जनता का दुख-दर्द, हर्ष-विषाद और उसका संघर्ष व सपने हैं। ऐसी ही फिल्में प्रतिरोध के सिनेमा के सिलसिले को आगे बढ़ाती हैं और सिनेमा में प्रतिपक्ष का निर्माण करती हैं। जन संस्कृति मंच द्वारा ‘प्रतिरोध के सिनेमा’ की थीम पर 8 से 10 अक्तूबर 2010 को वाल्मीकि रंगशाला (उ0 प्र0 संगीत नाटक , गोमती नगर में आयोजित तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव इसी तरह की फिल्मों पर केन्द्रित था। सुपरिचित कलाकार और जनगायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित इस समारोह में एक दर्जन से अधिक हिन्दी और इससे इतर अन्य भाषाओं की फिल्मों के माध्यम से आम जन की पीड़ा व त्रासदी के साथ ही उनका संघर्ष और प्रतिरोध देखने को मिला। इस आयोजन की खासियत यह भी थी कि फिल्मों के प्रदर्शन के साथ ही चित्रकला, गायन और सिनेमा व संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर भी यहाँ चर्चा हुई।<br /><br />समारोह का उदघाटन करते हुए हिन्दी के युवा आलोचक और जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ंने कहा कि जन संस्कृति मंच द्वारा लखनऊ, गोरखपुर, बरेली, पटना, नैनीताल सहित देश के विभिन्न स्थानों पर आयोजित किए जाने वाला फिल्म उत्सव एक तरह का घूमता आइना है जो देश, समाज और दुनिया के ऐसे लोगों और इलाकों की तस्वीर दिखाता है जिनको मास मीडिया जानबूझ कर नहीं दिखाता या अपने तरीके से दिखाता है। दरअसल देश उनका हो गया है जिनका संसाधानों व सम्पत्ति पर कब्जा है और जिन्होंने देश के बहुसंख्यक आबादी को हाशिए पर डाल दिया है। सम्पत्ति और सत्ता पर कब्जा करने वाले लोग कलाओं, अभिव्यक्तियों और रचनाशीलता को भी अपने तरह से प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। ये लोग गरीबों की चेतना के पिछड़ेपन को भी बनाए रखना चाहते हैं। इसके खिलाफ खड़ा होना सिर्फ राजनीति का ही नहीं संस्कृति का भी काम हैं। शिल्प, चित्रकला, सिनेमा सहित कला की सभी विधाओं के जरिए शोषण, दमन से पीड़ित लेकिन संघर्षशील जनता की अभिव्यक्ति करना ही आज की सबसे बड़ी जरूरत है।<br /><br />उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता कर रहे जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अजय कुमार ने कहा कि कला का अर्थ है आदमी को बेहतर बनना है। इस काम में सिनेमा एक सशक्त माध्यम है। हमें फूहड़ सिनेमा के जरिए जनता के टेस्ट खराब करने तथा इसके द्वारा अपसंस्कृति व क्रूरताओं को फैलाने की जो कोशिश हो रही है, उसके खिलाफ मजबूती से खड़ा होना होगा। उद्घाटन सत्र में मशहूर चित्रकार एवं लेखक अशोक भौमिक ने फिल्म उत्सव की स्मारिका ‘प्रतिरोध का सिनेमा, सिनेमा का प्रतिपक्ष’ का लोकार्पण किया। उद्घाटन सत्र का संचालन जसम के संयोजक कौशल किशोर ने किया।<br /><br />फिल्म उत्सव की शुरुआत प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक के ‘जीवन और कला: संदर्भ तेभागा आन्दोलन और सोमनाथ होड़’ पर विजुअल व्याख्यान से हुई। उन्होंने कहा कि सोमनाथ होड़ का कलाकर्म कलाकारों को जनआन्दोलनों से जोड़ने के लिए प्रेरित करता है। 1946 में भारत की अविभाजित कम्युनिष्ट पार्टी ने 23 वर्ष के युवा कला छात्र सोमनाथ होड़ को तेभागा आन्दोलन को दर्ज करने का काम साैंपा था। सोमनाथ ने किसानों के उस जबर्दस्त राजनीतिक उभार और उनकी राजनीतिक चेतना को अपने चित्रों और रेखांकनों में अभिव्यक्ति दी थी, साथ ही साथ अपने अनुभवों को भी डायरी में दर्ज किया। उनकी डायरी और रेखा चित्र एक जनपक्षधर कलाकार द्वारा दर्ज किया गया किसान आन्दोलन का अद्भुत दस्तावेज है। श्री भौमिक ने सोमनाथ होड़ के चित्रांे और रेखांकनों के पहले भारतीय चित्रकला की यात्रा का विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा कि इस दौर में आम आदमी और किसान चित्रकला से अनुपस्थित है। उसकी जगह नारी शरीर, देवी-देवता और राजा-महराजा हैं। उन्होंने अपने व्याख्यान का अंत यह कहते हुए किया कि जनपक्षधर होना ही आधुनिक होना है।<br /><br /><br />फिल्म समारोह में तुर्की व ईरान की फिल्मों से लेकर बिहार व नैनीताल के गांव पर बनी फिल्में दिखाई गई। गौतम घोष की ‘पार’, यिल्माज गुने की ‘सुरू’ ;तुर्कीद्ध, बेला नेगी की दाँये या बाँये’ तथा बेहमन गोबादी की ‘टर्टल्स कैन फलाई’ ;ईरानीद्ध दिखाई गई। करीब पचीस साल पहले बनी गौतम घोष की ‘पार’ काफी चर्चित फीचर फिल्म रही है। यह बिहार के दलितों के उत्पीड़न, शोषण व विस्थापन के साथ ही उनके संघर्ष और जिजीविषा को सामने लाती है। इस फिल्म का परिचय नाटककार राजेश कुमार ने दिया।<br /><br />यिल्माज गुने की फिल्म सुरू दो कबीलों के बीच पिसती एक औरत की कहानी है। उसका पति अपने पिता से विद्रोह कर शहर में इलाज कराना चाहता है। एक संयोग के तहत उनका पूरा कुनबा अपनी भेड़ों को बेचने के लिए तुर्की की राजधानी अंकारा की या़त्रा करता है। इस यात्रा में वे बार-बार ठगे व लूटे जाते हैं। घर के विद्रोही बेटे केा अंकारा में अपनी बीवी के बेहतर इलाज की पूरी उम्मीद है। इस यात्रा में उनकी भेड़ें और पूरा परिवार ठगा जाता है और वे राजधानी की भीड़ में कहीं खो जाते हैं। यिल्माज गुने की फिल्मों पर बोलते हुए कवि और फिल्म समीक्षक अजय कुमार ने कहा कि बांग्ला कवि सुकान्त कहा करते थे कि मैं कवि से पहले कम्युनिस्ट हूँ, यह बात यिल्माज गुने पर लागू होती है। वे ऐसे फिल्मकार हैं जिन्हें सत्ता का दमन खूब झेलना पड़ा। जेल जाना पड़ा। देश से निर्वासित होना पड़ा। जेल में रहते हुए उन्होंने फिल्में बनाईं और उनका निर्देशन किया। उन्होंने मजदूर वर्ग की हिरावल भूमिका को पहचाना और अपनी जीवन दृष्टि को एक क्रंातिकारी जीवन दृष्टि में रूपान्तरित किया।<br /><br />बेला नेगी की फिल्म ‘दांये या बांये’ एक ऐसे नौजवान दीपक की कहानी है जो पहाड़ के अपने छोटे से कस्बे से जाकर शहर में गुजारा करता है। शहर में अपनी प्रतिभा का कोई इस्तेमाल न पाकर गांव लौट आता है। शहर से आया होने के कारण सभी की नजरों में वह एक विशेष व्यक्ति बन जाता है लेकिन वह शहर वापस जाने के बजाय गांव में स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाने का निर्णय लेता है जिस पर गांव के लोग उसे आदर्शवादी कहकर हंसते हैं। यह फिल्म जीवन की गाढ़ी जटिलता और दुविधाओं को सामने लाती है। यह बाजारवाद की चमक से दूर जीवन के यथार्थ से रु ब रु कराती है। यह फिल्म अभी रिलिज नहीं हुई है। इस तरह लखनऊ फिल्म समारोह में इसका प्रदर्शन प्रिमियर शो की तरह था।<br /><br />फिल्म समारोह में इरानी फिल्म ‘टर्टल्स कैन फलाई’ दिखाई गई। इस फिल्म पर बोलते हुए अजय कुमार ने कहा कि ईरान में दुनिया की सबसे अच्छी फिल्में बन रही हैं। इन्हे न सिर्फ विश्व स्तर पर सराहना मिल रही है बल्कि अन्य देश के फिल्मकार इससे प्रेरणा भी ले रहे हैं। वहाँ 40 के दशक में वैकल्पिक फिल्में बनने लगी थीं। इस दौरान करीब डेढ़ दर्जन से अधिक महिला फिल्मकारों ने भी फिल्में बनाईं और वे सराही गईं। अजय कुमार ने ‘टर्टल्स कैन फलाई’ के संदर्भ में कहा कि यह न केवल दिल को दहला देने वाली फिल्म है बल्कि यह अन्दर तक झकझोर देती है। युद्ध की विभीषिका पर यूँ तो कई फिल्में बनी हैं लेकिन इस फिल्म के द्वारा युद्ध विरोधी जो संदेश मिलता है, वह अनूठा है।<br /><br />कबीर परियोजना के तहत फिल्मकार शबनम विरमानी ने अपने दल के साथ मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पाकिस्तान और अमेरिका की यात्रा की। इस अवधि में ऐसे कई लोक गायकों, सूफी परंपरा से जुड़े गायकों से मिलने और उनको सुनने, कबीर के अध्ययन से जुड़े देशी-विदेशी विद्वानों और विभिन्न कबीर पंथियों से मिलकर उनके विचारों को जानने-समझने का प्रयत्न किया। छह वर्ष लंबी अपनी इस यात्रा में शबनम विरमानी ने चार वृत्तचित्र बनाए जिसमें से ‘हद-अनहद’ इस श्रृंखला की पहली कड़ी है। लखनऊ फिल्म उत्सव में इसे दिखाया गया। इस फिल्म का परिचय देते हुए कवि भगवान स्वरूप कटयार ने कहा कि इसके माध्यम से कबीर के राम को खोजने का प्रयास किया गया है, जो अयोध्या के राजा राम से भिन्न है। कबीर का राम अब भी लोक चेतना में बसा हुआ है। वह केवल किताबों तक सीमित नहीं है।<br /><br />डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों में बच्चों की दुनिया से लेकर ंकाश्मीर, उड़ीसा के जख्म दिखाती फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। राजेश एस जाला की ‘चिल्डेन आफ पायर’ बच्चों की उस दुनिया से रूबरू कराती है जिसे हम देखना नहीं चाहते लेकिन यह सच दुनिया के किसी न किसी हिस्से में घटित हो रहा है। संजय काक की डाक्यूमेंटरी फिल्म जश्न-ए-आजादी ने काश्मीर का सच प्रस्तुत किया, वहीं देबरंजन सारंगी की फिल्म फ्राम हिन्दू टू हिन्दुत्व उड़ीसा के कंधमाल में साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे मल्टीनेशनल और साम्प्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ को सामने लाने का काम किया। अतुल पेठे द्वारा बनाई फिल्म ‘कचरा व्यूह’ का भी प्रदर्शन हुआ जो सरकार और प्रशासन के सफाई कामगारों के प्रति दोरंगे व्यवहार का पर्दाफाश करती है।<br /><br />फिल्मकार संजय जोशी ने पांच डाक्यूमेन्टरी फिल्मों के अंश दिखाते हुए ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’ पर एक प्रस्तुति दी। उन्होंने आनन्द पटवर्धन की फिल्म बम्बई हमारा शहर, अजय भारद्वाज की एक मिनट का मौन, बीजू टोप्पो व मेघनाथ की विकास बन्दूक की नाल से, हाउबम पबन कुमार की एएफएसपीए 1958 और संजय काक की बंत सिंह सिंग्स के अंश दिखाते हुए कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों के जरिए सही तौर पर प्रतिपक्ष की भूमिका निर्मित की है। उन्होंने कहा कि वर्ष 1975 के बाद आनन्द पटवर्धन की क्रांति की तरंगे से डाक्यूमेन्टरी फिल्मों में प्रतिपक्ष का एक नया अध्याय शुरू हुआ था जिसमें फिल्मस डिवीजन के एकरेखीय सरकारी सच के अलावा जमीनी सच सामने आते हैं। कई फिल्मकारों ने अपनी प्रतिबद्धता, विजन के साथ तकनीक का उपयोग करते हुए कैमरे को जन आन्दोलनों की तरफ घुमाया है और सच को सामने लाने का काम किया है।<br /><br />फिल्म समारोह में संवाद सत्र के दौरान ‘वृतचित्र: प्रतिरोध के कई रंग’ विषय पर बोलते हुए लेखक व पत्रकार अजय सिंह ने कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्में राजनीतिक बयान होती हैं। यह राजनीति मुखर भी हो सकती है और छुपी हुई भी। जाहिर है कला के माध्यम से राजनीति फिल्म में प्रतिबिम्बित होती है। जब हम प्रतिरोध की सिनेमा की बात करते हैं तो उसका मतलब यह होता है कि हम मौजूदा ढंाचे के बरक्स कोई विकल्प भी पेश करना चाहते हैं। प्रतिरोध के पहले असहमति और विरोध का भी महत्व होता है और काफी पहले की बनी हुई डाक्यूमेंटरी फिल्में भी विरोध और असहमति के स्वर को आवाज देती रही हैं। उदाहरण के लिए 1970 के दशक में भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन के तहत बनी अशोक ललवानी की फिल्म ‘वे मुझे चमार कहते हैं’, एस सुखदेव की ‘पलामू के आदमखोर’, मीरा दीवान की ‘प्रेम का तोहफा’ जैसी फिल्मों को लिया जा सकता है। आज जरूरत इस बात की है कि रेडिकल दृष्टिकोण या वामपंथी नजरिए से डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाई जाए।<br /><br />लखनऊ फिल्म समारोह में फिल्मों का एक सत्र बच्चो के लिए भी था। इसमें अल्बर्ट लेमूरिस्सी की फ्रेंच फिल्म ‘रेड बैलून’ तथा फीचर फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ दिखाई गई। बच्चो ने इन फिल्मों के माध्यम से खेल कूद से इतर दुनिया पर्दे पर देखी जहाँ इस दुनिया में संवेदना भी है और कई जटिल सवाल भी। उन्हें महाभारत में द्रोपदी का चीरहरण गलत लगता है वहीं युद्ध बड़े लोग लड़ते हैं और उसकी कीमत बच्चों को भुगतनी पड़ती है। आखिर क्यों ? इस सत्र का संचालन के के वत्स ने किया।<br /><br />फिल्म उत्सव में फिल्मों के अलावा मालविका का गायन भी हुआ। पुस्तक व कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी, डाक्यूमेन्टरी फिल्मों का स्टाल, पोस्टर और इस्टालेशन दर्शकों के आकर्षण के केन्द्र रहे। गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के स्टाल पर दो दर्जन से अधिक डाक्यूमेंटरी फिल्मों के डीवीडी उपलब्ध थे। लेनिन पुस्तक केन्द्र और गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के पुस्तकों के स्टाल में भी लोगों ने रूचि दिखाई। कला संग्राम द्वारा हाल के बाहर ‘भेड़चाल’ के नाम से प्रस्तुत इस्टालेशन को लोगों ने खूब सराहा। बड़ी संख्या में छात्र, नौजवानों, महिलाओं व कर्मचारियों के साथ रवीन्द्र वर्मा, ‘उदभावना’ के सम्पादक अजेय कुमार, ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव, वीरेन्द्र यादव, शकील सिद्दीकी, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, धर्मेन्द्र, वीरेन्द्र सारंग, चन्द्रेश्वर, नसीम साकेती, रमेश दीक्षित, आतमजीत सिंह, प्रतुल जोशी, वन्दना मिश्र, सतीश चित्रवंशी, मनोज सिंह, अशोक चौघरी आदि लेखकों व कलाकारों की उपस्थिति और सिनेमा के साथ ही कला के विविध रूपों के प्रदर्शन ने जसम के इस फिल्म उत्सव को सांस्कृतिक मेले का रूप दिया।<br /><br /><br />एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ -226017<br />मो - 09807519227 </div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-77935128849179992372010-10-11T01:13:00.001-07:002010-10-11T01:27:59.416-07:00तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव 2010<span style="font-size:180%;"><strong>गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को </strong></span>
<br /><span style="font-size:180%;"><strong>लखनऊ फिल्म उत्सव </strong></span>
<br /><strong><span style="font-size:180%;">प्रतिरोध के सिनेमा और संवाद का तीन दिनों का आयोजन</span></strong>
<br /><strong><span style="font-size:180%;"></span>
<br /></strong>लखनऊ, 11 अक्तूबर। जन संस्कृति मंच (जसम) ने तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव वाल्मीकि रंगशाला (उ0 प्र0 संगीत नाटक अकादमी), गोमती नगर में आयोजित किया। इस फिल्म उत्सव की मुख्य थीम थी ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ जो सुपरिचित कलाकार और जनगायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित था। तीन दिनो तक चलने वाले इस समारोह में लखनऊ के सिनेमा प्रेमी दर्शकों को करीब एक दर्जन से अधिक हिन्दी और इससे इतर अन्य भाषाओं की फिल्मों के माध्यम से आम जन की पीड़ा व त्रासदी के साथ ही उनका संघर्ष और प्रतिरोध देखने को मिला।
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<br />समारोह का उदघाटन हिन्दी के युवा आलोचक एवं जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने किया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि जन संस्कृति मंच द्वारा लखनऊ, गोरखपुर, बरेली, पटना, नैनीताल सहित देश के विभिन्न स्थानों पर आयोजित किए जाने वाला फिल्म उत्सव एक तरह का घूमता आइना है जो देश, समाज और दुनिया के ऐसे लोगों और इलाको की तस्वीर दिखाता है। दरअसल देश उनका हो गया है जिनका संसाधानों व सम्पत्ति पर कब्जा है और जिन्होंने देश के बहुसंख्यक आबादी को हाशिए पर डाल दिया है। सम्पत्ति और सत्ता पर कब्जा करने वाले लोग कलाओं, अभिव्यक्तियों और रचनाशीलता को भी अपने तरह से प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। ये लोग गरीबों की चेतना के पिछड़ेपन को भी बनाए रखना चाहते हैं। इसके खिलाफ खड़ा होना सिर्फ राजनीति का ही नहीं संस्कृति का भी काम हैं। शिल्प, चित्रकला, सिनेमा सहित कला की सभी विधाओं के जरिए शोषण, दमन से पीड़ित लेकिन संघर्षशील जनता की अभिव्यक्ति करना ही आज की सबसे बड़ी जरूरत है। उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता कर रहे जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अजय कुमार ने कहा कि कला का अर्थ है आदमी को बेहतर बनना। इस काम में सिनेमा एक सशक्त माध्यम है। हमें फूहड़ सिनेमा के जरिए जनता के टेस्ट खराब करने की साजिश के खिलाफ मजबूती से खड़ा होना होगा। उद्घाटन सत्र में मशहूर चित्रकार एवं लेखक अशोक भौमिक ने फिल्म उत्सव की स्मारिका प्रतिरोध का सिनेमा, सिनेमा का प्रतिपक्ष का लोकार्पण किया। उद्घाटन सत्र का संचालन जसम के संयोजक कौशल किशोर ने किया।
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<br />फिल्म समारोह में दर्शकों ने तुर्की व ईरान की फिल्मों से लेकर बिहार व नैनीताल के एक गांव पर बनी फिल्में देखी। गौतम घोष की ‘पार’, यिल्माज गुने की ‘सुरू’ ;तुर्कीद्ध, बेला नेगी की दाँये या बाँये’ तथा बेहमन गोबादी की ‘टर्टल्स कैन फलाई’ दिखाई गई। करीब पचीस साल पहले बनी गौतम घोष की ‘पार’ काफी चर्चित फीचर फिल्म रही है। यह बिहार के दलितों के उत्पीड़न, शोषण व विस्थापन के साथ ही उनके संघर्ष और जिजीविषा को सामने लाती है। यिल्माज गुने की फिल्म सुरू दो कबीलों के बीच पिसती एक औरत की कहानी है। उसका पति अपने पिता से विद्रोह कर शहर में इलाज कराना चाहता है। एक संयोग के तहत उनका पूरा कुनबा अपनी भेड़ों को बेचने के लिए तुर्की की राजधानी अंकारा की या़त्रा करता है। इस यात्रा में वे बार-बार ठगे जाते हैं। घर के विद्रोही बेटे केा अंकारा में अपनी बीबी के बेहतर इलाज की पूरी उम्मीद है। इस यात्रा में उनकी भेड़ें और पूरा परिवार ठगा जाता है और वे राजधानी की भीड़ में कहीं खो जाते हैं। यिल्माज गुने की फिल्मों पर बोलते हुए कवि और फिल्म समीक्षक अजय कुमार ने कहा कि इल्माज गुने ऐसे फिल्मकार हैं जिन्हें सत्ता का दमन खूब झेलना पड़ा। उन्होंने मजदूर वर्ग की हिरावल भूमिका को पहचाना और अपनी जीवन दृष्टि को एक क्रंातिकारी जीवन दृष्टि में रूपान्तरित किया।
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<br />बेला नेगी की फिल्म ‘दांये या बांये’ एक ऐसे नौजवान दीपक की कहानी है जो पहाड़ के अपने छोटे से कस्बे से जाकर शहर में गुजारा करता है। शहर में अपनी प्रतिभा का कोई इस्तेमाल न पाकर गांव लौट आता है। शहर से आया होने के कारण सभी के नजरों में वह एक विशेष व्यक्ति बन जाता है लेकिन वह शहर वापस जाने के बजाय गांव में स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाने का निर्णय लेता है जिस पर गांव के लोग उसे आदर्शवादी कहकर हंसते हैं। यह फिल्म जीवन की गाढ़ी जटिलता और दुविधाओं को सामने लाती है। यह फिल्म अथी तक रिलिज नहीं हुई है। इस तरह लखनऊ फिल्म समारोह में इसका प्रदर्शन इसका प्रिमियर शो था।
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<br />कबीर परियोजना के तहत फिल्मकार शबनम विरमानी ने अपने दल के साथ मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान,पाकिस्तान और अमेरिका की यात्रा की। इस अवधि में ऐसे कई लोक गायकों, सूफी परंपरा से जुड़े गायकों से मिलने और उनको सुनने, कबीर के अध्ययन से जुड़े देशी-विदेशी विद्वानों और विभिन्न कबीर पंथियों से मिलकर उनके विचारों को जानने-समझने का प्रयत्न किया। छह वर्ष लंबी अपनी इस यात्रा में शबनम विरमानी ने चार वृत्तचित्र बनाए जिसमें से हद-अनहद इस श्रृंखला की पहली कड़ी है। लखनऊ में इसे दिखया गया। इस फिल्म के माध्यम से कबीर के राम को खोजने का प्रयास किया गया है, जो अयोध्या के राजा राम से भिन्न है। डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों में बच्चों की दुनिया से लेकर ंकाश्मीर, उड़ीसा के जख्म दिखती फिल्मों का प्रदशन हुआ। राजेश एस जाला की चिल्डेन आफ पायर बच्चों की उस दुनिया से रूबरू कराती है जिसे हम देखना नहीं चाहते लेकिन यह सच दुनिया के किसी न किसी हिस्से में घटित हो रहा है। संजय काक की डाक्यूमेंटरी फिल्म जश्न-ए-आजादी ने काश्मीर का सच प्रस्तुत किया, वहीं देबरंजन सारंगी की फिल्म फ्राम हिन्दू टू हिन्दुत्व उड़ीसा के कंधमाल में साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे मल्टीनेशनल और साम्प्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ को सामने लाने का काम किया। अतुल पेठे द्वारा बनाई फिल्म ‘कचरा व्यूह’ का भी प्रदर्शन हुआ जो सरकार और प्रशासन के सफाई कामगारों के प्रति दोरंगे व्यवहार का भी पर्दाफाश करती है।
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<br />फिल्मकार संजय जोशी ने पांच डाक्यूमेन्टरी फिल्मों के अंश दिखाते हुए ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’ पर एक प्रस्तुति दी। उन्होंने आनन्द पटवर्धन की फिल्म बम्बई हमारा शहर, अजय भारद्वाज की एक मिनट का मौन, बीजू टोप्पो व मेघनाथ की विकास बन्दूक की नाल से, हाउबम पबन कुमार की एएफएसपीए 1958 और संजय काक की बंत सिंह सिंग्स के अंश दिखाते हुए कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों के जरिए सही तौर पर प्रतिपक्ष की भूमिका निर्मित की है। उन्होंने कहा कि वर्ष 1975 के बाद आनन्द पटवर्धन की क्रांति की तरंगे से डाक्यूमेन्टरी फिल्मों में प्रतिपक्ष का एक नया अध्याय शुरू हुआ था जिसमें फिल्मस डिवीजन के एकरेखीय सरकारी सच के अलावा जमीनी सच सामने आते हैं। कई फिल्मकारों ने अपनी प्रतिबद्धता, विजन के साथ तकनीक का उपयोग करते हुए कैमरे को जनआन्दोलनों की तरफ घुमाया है और सच को सामने लाने का काम किया है।
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<br />फिल्म समारोह में संवाद सत्र के दौरान वृतचित्र: प्रतिरोध के कई रंग विषय पर बोलते हुए लेखक व पत्रकार अजय सिंह ने कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्में राजनीतिक बयान होती हैं। यह राजनीति मुखर भी हो सकती है और छुपी हुई भी। जाहिर है कला के माध्यम से राजनीति फिल्म में प्रतिविम्बित होती है। जब हम प्रतिरोध की सिनेमा की बात करते हैं तो उसका मतलब यह होता है कि हम मौजूदा ढंाचे के बरक्स कोई विकल्प भी पेश करना चाहते हैं। प्रतिरोध के पहले असहमति और विरोध का भी महत्व होता है और काफी पहले की बनी हुई डाक्यूमेंटरी फिल्में भी विरोध और असहमति के स्वर को आवाज देती रही हैं। उदाहरण के लिए 1970 के दशक में भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन के तहत बनी अशोक ललवानी की फिल्म वे मुझे चमार कहते हैं, एस सुखदेव की पलामू के आदमखोर, मीरा दीवान की प्रेम का तोहफा जैसी फिल्मों को लिया जा सकता है। आज जरूरत इस बात की है कि रेडिकल दृष्टिकोण या वामपंथी नजरिए से डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाई जाए। संवाद सत्र में अपने विचार रखने वालों में अनिल सिन्हा, राजेश कुमार, भगवान स्वरूप कटियार, के के वत्स, मनोज सिंह आदि प्रमुख थे।
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<br />फिल्मों के साथ ही इस समारोह में प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने ‘जीवन और कला: संदर्भ तेभागा आन्दोलन और सोमनाथ होड़’ पर विजुअल व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि सोमनाथ होड़ का कलाकर्म कलाकारों को जनआन्दोलनों से जोड़ने के लिए प्रेरित करता है। 1946 में भारत के अविभाजित कम्युनिष्ट पार्टी ने 23 वर्ष के युवा कला छात्र सोमनाथ होड़ को तेभागा आन्दोलन को दर्ज करने का काम सौपा था। सोमनाथ ने किसानों के उस जबर्दस्त राजनीतिक उभार और उनकी राजनीतिक चेतना को अपने चित्रों और रेखांकनों में अभिव्यक्ति दी ही साथ ही साथ अपने अनुभवों को भी डायरी में दर्ज किया। उनकी डायरी और रेखा चित्र एक जनपक्षधर कलाकार द्वारा दर्ज किया गया किसान आन्दोलन का अद्भुत दस्तावेज है। श्री भौमिक ने सोमनाथ होड़ के चित्रांे और रेखांकनों के पहले भारतीय चित्रकला की यात्रा का विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा कि इस दौर में आम आदमी और किसान चित्रकला से अनुपस्थित है। उसकी जगह नारी शरीर, देवी-देवता और राजा-महराजा हैं। उन्होंने अपने व्याख्यान का अंत यह कहते हुए कहा कि जनपक्षधर होना ही आधुनिक होना है।
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<br />फिल्म उत्सव में फिल्मों की स्क्रीनिंग के अलावा मालविका का गायन भी हुआ। पुस्तक व कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी, डाक्यूमेन्टरी फिल्मों का स्टाल, पोस्टर और इस्टालेशन दर्शकों के आकर्षण का केन्द्र रहे। गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के स्टाल पर दो दर्जन से अधिक डाक्यूमेंटरी फिल्मों के डीवीडी उपलब्ध थे जिसके बारे में दर्शकों ने जानकारी ली और उसे खरीदा। लेनिन पुस्तक केन्द्र और गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के पुस्तकों के स्टाल में भी लोगों ने रूचि दिखाई। कला संग्राम द्वारा हाल के बाहर भेड़चाल के नाम से प्रस्तुत इस्टालेशन को लोगों ने खूब सराहा। बड़ी संख्या में दर्शको की भागीदारी और सिनेमा के साथ ही कला के विविध रूपों के प्रदर्शन ने जसम के इस फिल्म उत्सव को सांस्कृतिक मेले का रूप दिया।
<br />कौशल किशोर
<br />संयोजक
<br />जन संस्कृति मंच, लखनऊ
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<br />कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-11066114147795865642010-09-18T09:24:00.000-07:002010-09-18T09:43:06.941-07:00तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव 2010<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZKX7eb9vHooajxkXYMRLN32vHyMNENB5wWZBMUDlcqZKoD4ZF1rJXyPVK_lB16FSlL189zwf67riJmbNpKjxMGALZ-hNx0Rv76YuSMHyVwwR0OVHALGhrpJgxzwmwPQOGN798ndAEFm4/s1600/Picture+152.jpg"><img style="MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 320px; FLOAT: right; HEIGHT: 240px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5518294939096562914" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZKX7eb9vHooajxkXYMRLN32vHyMNENB5wWZBMUDlcqZKoD4ZF1rJXyPVK_lB16FSlL189zwf67riJmbNpKjxMGALZ-hNx0Rv76YuSMHyVwwR0OVHALGhrpJgxzwmwPQOGN798ndAEFm4/s320/Picture+152.jpg" /></a><br /><div><span style="font-size:180%;">प्रतिरोध का सिनेमा</span><br /><br /><br /><span style="font-size:130%;">8, 9 व 10 अक्तूबर 2010</span><br /><span style="font-size:130%;">वाल्मीकि रंगशाला ;उ0 प्र0 संगीत नाटक अकादमीद्ध, गोमती नगर, लखनऊ</span><br /><br />मित्रों,<br /><br />कला माध्यमों से यह उम्मीद की जाती है कि वे हमारे समाज और जीवन की सच्चाइयों को अभिव्यक्त करें। सिनेमा आधुनिक कला का सबसे सशक्त और लोकप्रिय कला माध्यम है। लेकिन इस कला माध्यम पर बाजारवाद की शक्तियाँ हावी हैं। मुम्बइया व्यवसायिक सिनेमा द्वारा जिस संस्कृति का प्रदर्शन हो रहा है, वह जनचेतना को विकृत करने वाला है। सेक्स, हिंसा, मारधाड़ इन फिल्मों की मुख्य थीम है। यहाँ भारतीय समाज की कठोर सच्चाइयाँ, जनता का दुख-दर्द, हर्ष-विषाद और उसका संघर्ष व सपने गायब हैं।<br /><br />आज दर्शक विकल्प चाहता है। वह ऐसी फिल्में देखना चाहता है जो न सिर्फ उसका मनोरंजन करें बल्कि उसे गंभीर, संवेदनशील, जागरुक व जुझारू बनाये। दर्शकों की इसी इच्छा.आकांक्षा ने प्रतिरोध के सिनेमा या जन सिनेमा आन्दोलन को जन्म दिया है। जन सिनेमा के सिलसिले को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से हमने लखनऊ में 2008 से फिल्म समारोह के आयोजन द्वारा एक छोटी-सी शुरूआत की हैै जिसकी अगली कड़ी के रूप में तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव 2010 का आयोजन किया जा रहा है। जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित यह उत्सव 8, 9 व 10 अक्तूबर 2010 को वाल्मीकि रंगशाला, उŸार प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर, लखनऊ में होगा। तीन दिनों तक चलने वाले इस फिल्म उत्सव में करीब एक दर्जन से अधिक देशी, विदेशी वृतचित्रों और फीचर फिल्मों का प्रदर्शन होगा।<br /><br />आप हमारी ताकत हैं। आपके सक्रिय सहयोग की हमें जरूरत है। आप अपने परिवार व दोस्तों के साथ आयें, फिल्में देखें और इस आयोजन को सफल बनानें में अपना हर संभव सहयोग प्रदान करें, हमारी आपसे अपील है।<br /><br />निवेदक<br /><br /><strong>कौशल किशोर</strong><br /><strong>संयोजक</strong><br /><strong>जन संस्कृति मंच, लखनऊ<br /></strong>कार्यालय: एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017<br />मो - 09807519227, 09415220306, 09415568836, 09415114685</div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3740312506965112152.post-29719247503292975392010-08-24T06:05:00.000-07:002010-08-24T06:23:26.220-07:00गिरीश तिवारी गिर्दा समृति<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_tDjAAQ50d26-4ksZ5TvCkS7GNJxuys6dj1X9T17NKdfni9wCLXUTVyJxBHfww6J6uhn3hUGBoRc4jFtGKrPnHS4joMHPV5fXoZYhy55x57NaYai5uUl1DQUhdFNXDUzGhDbHUPZr6ww/s1600/CCI08242010_00000.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5508966159194592978" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 248px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_tDjAAQ50d26-4ksZ5TvCkS7GNJxuys6dj1X9T17NKdfni9wCLXUTVyJxBHfww6J6uhn3hUGBoRc4jFtGKrPnHS4joMHPV5fXoZYhy55x57NaYai5uUl1DQUhdFNXDUzGhDbHUPZr6ww/s320/CCI08242010_00000.JPG" border="0" /></a><br /><div><span style="font-size:180%;">गिर्दा के निधन से जनता ने अपना कलाकार खो दिया है - जसम</span></div><span style="font-size:180%;"><br /><div><br /></span></div>सुपरिचित गायक, कलाकार और संस्कृतिकर्मी गिरीश तिवारी गिर्दा के निधन पर जन संस्कृति मंच ने गहरा शोक प्रकट किया है और कहा है कि उनके निधन से जनता ने अपना गायक और कलाकार खो दिया है। गिर्दा ऐसे संस्कृतिकर्मी हैं जिनका कला संसार जन आंदोलनों के बीच निर्मित होता है।<br /><div><br />गिरीश तिवार गिर्दा का निधन कल 22 अगस्त को हुआ। उनके निधन पर जन संस्कृति मंच (जसम) लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने शोक प्रकट करते हुए कहा कि 80 के दशके में उŸाराखंड में जो लोकप्रिय आन्दोलन चला, गिर्दा उसके अभिन्न अंग थे। इसी दौर में जन सांस्कृतिक आंदोलन को भी संगठित करनें के प्रयास तेज हुए जिसकी परिणति नैनीताल में ‘युवमंच’ तथा हिन्दी।उर्दू प्रदेशों में जन संस्कृति मंच के गठन में हुई। गिर्दा इस प्रयास के साथी रहे हैं। </div><br /><div><br />जसम की कार्यकारिणी के सदस्य, लेखक व पत्रकार अजय सिंह ने गिर्दा को याद करते हुए कहा कि गिर्दा का क्रान्तिकारी वामपंथी राजनीतिक व सांस्कृतिक आंदोलन से गहरा जुड़ाव था और वे इंडियन पीपुल्य फ्रंट (आई पी एफ) और जन संस्कृति मंच से जुड़े थे। उनका असमय जाना बड़ी क्षति है।</div><br /><div><br />नाटककार राजेश कुमार ने शोक संवोदना प्रकट करते हुए कहा कि गिर्दा ने थियेटर को विचार को संप्रेषित करने का माध्यम बनाया। उनके गीतों, नाटकों व रंगकर्म में हमें बदलाव के विचारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता देखने को मिलती है। यह प्रतिबद्धता जनता और उसके आंदोलन से गहरे जुड़ाव से ही संभव है।</div><br /><div><br />जसम की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व कवयित्री शोभा सिंह ने कहा कि गिर्दा की कला व रचनाएँ जन आंदोलनों से प्रेरित है और उसी से ऊर्जा ग्रहण करती है तथा अपने रचना कर्म के द्वारा गिर्दा जन आंदोलन को आवेग प्रदान करते हैं। यह एक बड़ी और दुलर्भ बात है जो हमें गिर्दा में मिलती है। यह गिर्दा की खासियत है।</div><br /><div><br />कवि भगवान स्वरूप कटियार, कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा, अलग दुनिया के के0 के0 वत्स, श्याम अंकुरम, रवीन्द्र कुमार सिन्हा, वीरेन्द्र सारंग आदि जन जन संस्कृति मंच से जुड़े लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने भी गिरीश तिवार गिर्दा के निघन पर शोक प्रकट किया है।<br /></div><br /><div><span style="font-size:130%;">गिरीश तिवाड़ी ‘गिरदा’ की कविता</span></div><span style="font-size:130%;"></span><br /><div><br /><span style="font-size:180%;">सियासी उलट बाँसी</span></div><span style="font-size:180%;"></span><br /><div><br />पानी बिच मीन पियासी </div><br /><div>खेतो में भूख उदासी </div><br /><div>यह उलट बाँसियाँ नहीं कबीरा, खालिस चाल सियासी </div><br /><div>पानी बिच मीन पियासी</div><br /><div><br />लोहे का सर पाँव काठ के </div><br /><div>बीस बरस में हुए साठ के </div><br /><div>मेरे ग्राम निवासी कबीरा, झोपड़पट्टी वासी </div><br /><div>पानी बिच मीन पियासी<br /></div><br /><div>सोया बच्चा गाये लोरी </div><br /><div>पहरेदार करे है चोरी </div><br /><div>जुर्म करे है न्याय निवारण, नयाय चढ़े है फाँसी </div><br /><div>पानी बिच मीन पियासी</div><br /><div><br />बंगले में जंगला लग जाये </div><br /><div>जंगल में बंगला लग जाय </div><br /><div>वन बिल ऐसा लागू होगा, मरे भले वनवासी </div><br /><div>पानी बिच मीन पियासी<br /></div><br /><div>जो कमाय सो रहे फकीरा </div><br /><div>बैठे - ठाले भरें जखीरा </div><br /><div>भेद यही गहरा है कबीरा, दीखे बात जरा सी </div><br /><div>पानी बिच मीन पियासी </div><br /><div><br /><strong><em>(यह कविता लखनऊ से प्रकाशित ‘जन संस्कृति’ के अंक-6, अप्रैल-जून 1985 में प्रकाशित हुई थी। वहीं से ली गई है।)</em></strong> </div>कौशल किशोरhttp://www.blogger.com/profile/00792149500853468601noreply@blogger.com1