शुक्रवार, 3 जून 2011

शमशेर, केदार व नागार्जुन जन्मशती समारोह "काल से होड़ लेती कविता "



कौशल किशोर

शमशेर, केदार और नागार्जुन न सिर्फ प्रगतिशील आंदोलन की उपज हैं बल्कि ये हिन्दी की प्रगतिशील काव्यधारा के निर्माता भी हैं। इनका एक ही साथ जन्मशताब्दी का होना महज संयोग हो सकता है लेकिन अपने समय व समाज में काल से होड़ लेने की इनकी प्रवृति कोई संयोग नहीं है। शमशेर तो ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ जैसी कविता तक रच डालते हैं: ‘काल तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू - तुझमें अपराजित मैं वास करूँ‘‘। अपराजित का यह भाव काल से गुत्थम गुत्था होने या एक कठिन संघर्ष में शामिल होने से ही पैदा होता है
और यह भाव इन तीनों कवियों में समान रूप से मौजूद है। यही बात है जो अपनी काव्यगत विशिष्टता के बावजूद ये प्रगतिशील कविता की त्रयी निर्मित करते हैं। इसीलिए इनके जन्मशताब्दी वर्ष पर इन्हें याद करना मात्र स्मरण करने की औपचारिकता का निर्वाह नहीं हो सकता बल्कि इसके द्वारा प्रगतिशील और संघर्षशील कविता की जड़ों को समझना है।

इसी समझ के साथ लखनऊ में 29 मई 2011 को जन संस्कृति मंच की ओर से ‘काल से होड़ लेती कविता’ शीर्षक से शमशेर, केदार व नागार्जुन जन्मशती समारोह का आयोजन स्थानीय जयशंकर प्रसाद सभागार में किया गया जिसके मुख्य वक्ता थे प्रसिद्ध आलोचक व जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष डॉ मैनेजर पाण्डेय तथा आयोजन की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने की। कार्यक्रम तीन हिस्सों में बँटा था जिसका पहला हिस्सा इन कवियों के कविता पाठ, चन्द्रेश्वर के कविता संग्रह ‘अब भी’ के लोकार्पण तथा उनके कविता पाठ का था। कार्यक्रम के दूसरे भाग में ‘हमारे वक्त में शमशेर, केदार व नागार्जुन का महत्व व प्रासंगिकता’ पर व्याख्यान था तथा अन्तिम भाग में ‘हमारे सम्मुख शमशेर’ से शमशेर के कविता पाठ की वीडियो फिल्म का प्रदर्शन था।

कविता पाठ व ‘अब भी’ का लोकार्पण

कार्यक्रम का आरम्भ भगवान स्वरूप कटियार द्वारा शमशेर की कविता ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ के पाठ से हुआ। उन्होंने शमशेर की कविता ‘बात बोलेगी’ तथा ‘ निराला के प्रति’ का भी पाठ किया। ‘जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है/तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है/जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है/जो रवि के रथ का घोड़ा है/वह जन मारे नहीं मरेगा/नहीं मरेगा’ केदार की इस प्रसिद्ध कविता का पाठ किया ब्रहमनारायण गौड़ ने। उन्होंने केदार की कविता ‘मजदूर का जन्म’ व ‘वीरांगना’ भी सुनाईं। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने नागार्जुन की दो कविताओं ‘अकाल और उसके बाद’ तथा ‘लजवन्ती’ का पाठ किया।

जन्मशती समारोह में मैनेजर पाण्डेय ने चन्द्रेश्वर के कविता संग्रह ‘अब भी’’ का लोकार्पण किया तथा चन्द्रेश्वर ने अपने इस संग्रह से ‘यकीन के साथ’, ‘उस औरत की फाइल में’, ‘हाफ स्वेटर’, ‘उनकी कविताएँ’, ‘कितना यकीन’ और ‘यह कैसा समय’ शीर्षक से कई कविताएँ सुनाईं और अपनी कविता के विविध रंगों से उपस्थित लोगों का परिचय कराया। उनकी कविता की ये पंक्तियाँ बहुत अन्दर तक संवेदित करती रहीं: ‘क्या आप यकीन के साथ कह सकते हैं/कि यह आप की ही कलम है/कि यह आपका चश्मा/आप का ही है/कि आपके ही हैं/ये जू
ते..... कितना अजीब है/ यह समय/कितना घालमेल/चीजों का/आप यह भी नहीं कह सकते/कि यही है... हाँ/यही है मेरा देश’।

‘अब भी’ का लोकार्पण करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि चन्द्रेश्वर की कविताएँ उस पेड़ की डाली हैं जिसकी जड़ें हैं नागार्जुन, केदार, शमशेर, त्रिलोचन और मुक्तिबोध। ये कविताएँ आज के समय के सवालों से टकराती हैं। यह ऐसा समय है जब सामाजिक संवेदनशीलता धीरे.धीरे नष्ट हो रही है। किसी को दूसरे के सुख.दुख से मतलब नहीं है। मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है। चन्द्रेश्वर की कविताएँ इस क्षरण को दर्ज करने वाली कविताएँ हैं। ये व्यवस्था विरोध की कविताएँ हैं और चन्द्रभूषण तिवारी जैसे इंकलाब चाहने वाले वामपंथी बुद्धिजीवी से प्रेरणा लेती है। चन्द्रेश्वर अपनी कविताओं से शमशेर, केदार व नागार्जुन की प्रगतिशील काव्यधारा की परम्परा
को आज के समय में आगे बढ़ाते हैं।

हमारे वक्त शमशेर, केदार व नागार्जुन

जन्मशती आयोजन में चर्चा का मुख्य विषय ‘शमशेर, केदार व नागार्जुन का महत्व व प्रासंगिकता’ था जिसके मुख्य वक्ता मैनेजर पाण्डेय थे। उन्होंने अपने व्याख्यान को मुख्यतौर से नागार्जुन व शमशेर की कविताओं पर केन्द्रित किया। उन्होंने चर्चा की शुरुआत आज के दौर से की और कहा कि यह स्मृतिहीनता का समय है। आज का सच यह है कि राजनीतिक दल अपने ही निर्माताओं को भूलने में लगे हैं। राजनीतिक नेता स्वाधीनता आन्दोलन के मूल्यों को भूला चुके हैं। उन्हें याद करें तो अपने अन्दर अपराध बोध होगा। मनमोहन सिंह यदि नेहरू को याद करें तो उन्हें नींद नहीं आयेगी। इन्दिरा गाँधी ने संविधान में संशोधन कर ‘समाजवाद’ शब्द शामिल किया था लेकिन यह सरकार जिस पूँजीवाद पर अमल कर रही है, वह लूट और झूठ की व्यवस्था है जहाँ ‘सत्यम’ सबसे बड़ा ‘झूठम’ साबित हुआ। संविधान का शपथ लेकर सरकार बनती है लेकिन आज वह अपने ही संविधान के विरुद्ध काम करती है। आज लोकतंत्र के ‘लोक’ का सरकारीकरण हो चुका है और वह ‘लोक सेवा आयोग’ और ‘लोक निर्माण विभाग’ में सिमट कर रह गया है। ऐसे में हमारे लिएं लोक और लोकतंत्र की जगह जन और जनतंत्र का इस्तेमाल करना ज्यादा बेहतर है।

नागार्जुन की कविताओं पर चर्चा करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि कविता वही जनतांत्रिक होती है जो जनता के लिए, जनता के बारे में, जनता की भाषा में लिखी जाय। इस अर्थ में नागार्जुन जनतंत्र के सबसे बड़े कवि हैं, संरचना, कथ्य और भाषा तीनों स्तरों पर। जब नागार्जुन कहते हैं कि ‘जन कवि हूँ/ साफ कहूँगा/ क्यों हकलाऊँ’’, तो उनके सामने उनकी दिशा स्पष्ट है। कवि जिसके लिए लिखता है, कथ्य व भाषा का चुनाव वह उसी के अनुरूप करता है। यह खासियत नागार्जुन की कविताओं में है। पर आज कुछ कवियों की कविताओं में हकलाहट है। आखिर यह हकलाहट कब आती है ? जब कविता से सुविधा पाने की चाह होती है तो मन में दुविधा आती है और जब मन में दुविधा होती है तो कंठ में हकलाहट का पैदा होना स्वाभाविक है।

नागार्जुन के काव्यलोक पर बोलते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि भारत जितना व्यापक और विविधताओं से भरा है, नागार्जुन का काव्यलोक भी उतना ही व्यापक और विविधतापूर्ण है। उन्होंने कश्मीर, केरल, मिजोरम और गुजरात पर कविताएँ लिखीं। उŸार से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम तक सारे भारत का भूगोल नागार्जुन की कविताओं में समाहित हैं। भाषा के स्तर पर भी नागार्जुन कई भाषाओं के कवि हैं। मूल रूप से मैथिली के कवि और हिन्दी के महाकवि नागार्जुन ने संस्कृत और बांग्ला में भी कविताएँ लिखी हैं।

मैनेजर पाण्डेय का कहना था कि आमतौर पर नागार्जुन को राजनीतिक कविताओं का कवि माना जाता है। इसकी वजह यह है कि उन्होंने नेहरू, इन्दिरा, मोरारजी, चरण सिंह से लेकर राजीव गाँधी तक अपने समय के दर्जनों राजनेताओं पर कविताएँ लिखीं और उन्हें अपनी कविता का निशाना बनाया। उन्होंने नागभूषण पटनायक जैसे क्रान्तिकारियों पर भी कविताएँ लिखीं। पर राजनीति ही उनकी कविता का विषय नहीं रहा है। बाबा नागार्जुन ने भारतीय सामाजिक जीवन पर भी ढ़ेर सारी कविताएँ लिखी हैं। यहाँ मनुष्य का दुख ही नहीं है बल्कि उसका सम्पूर्ण परिवेश है जहाँ कानी कुतिया, छिपकली, कौआ आदि सब मौजूद हैं जिनसे मनुष्य का रिश्ता है। कोई पूँजीवाद धरती का विस्तार नहीं कर सकता लेकिन वह जीवन, प्रकृति और संस्कृति का दोहन व लूटने तथा नष्ट करने में लगा है। बाबा की कविताएँ पूँजीवाद के प्रतिरोध की कविताएँ हैं। उनके हर संग्रह में प्रकृति सम्बन्धी कविताएँ मिल जायेंगी।

नागार्जुन की काव्यभाषा की चर्चा करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि आमतौर पर तीन तरह के कवि होते हैं। पहली श्रेणी में ऐसे कवि हैं जिनकी कविता की उठान तो बड़ी अच्छी होती है पर तीन कदम चलने के बाद ही भाषा लड़खड़ाने लगती है। दूसरी श्रेणी में हिन्दी के अधिकांश कवि हैं जिनकी कविता की भाषा शुरू से अन्त तक साफ, सुथरी व संतुलित है। पर बड़े कवि वे हैं जहाँ काव्य भाषा के जितने स्तर व रूप हैं, वे वहाँ है, सरलतम से लेकर सघनतम तक। तुलसीदास में जहाँ सरल चौपाइयाँ हैं, वहीं कवितावली व विनय पत्रिका की भाषा अलग है। निराला में ‘भिक्षुक’ कविता है तो ‘राम की शक्तिपूजा’ में काव्यभाषा का स्तर व रूप बिल्कुल भिन्न है। यही विशेषता नागार्जुन में मिलती है जो उन्हें महाकवि बनाती है।

शमशेर बहादुर सिंह की कविता के सम्बन्ध में मैनेजर पाण्डेय ने अपने वक्तव्य की शुरुआत इस प्रश्न से की कि शमशेर की कविता को कैसे न पढ़े और कैसे पढ़ें ? उनका कहना था कि आलोचकों ने शमशेर को मौन का कवि कहा है। दरअसल मौन वहाँ होता है जहाँ एक साधक अपने इष्ट से या एक भक्त अपने ईश्वर से साक्षात्कार करता है या फिर दुख में व्यक्ति मौन की स्थिति में होता है। यह विचार शमशेर जैसे कवि के बारे में कही जा रही है जिसके शब्द खुद बोलते हैं ‘बात बोलेगी/भेद खोलेगी/बात ही’ और कवि स्वयं काल से होड़ लेता है। यह रहस्यवादी आलोचना है जिसका काम सारी प्रगतिशील कविता को इसके जरिये ठिकाने लगाने की कोशिश है। इसके बरक्स भैतिकवादी आलोचना है जो मानती है कि भाषा मनुष्य को जीवन.जगत और एक.दूसरे से जोड़ती है। इसीलिए शमशेर की कविता को समझने के लिए जिन्दगी को समझना जरूरी है, हिन्दी.उर्दू की परम्परा को भी समझना जरूरी है।

शमशेर के काव्य के सम्बन्ध में मैनेजर पाण्डेय का कहना था कि बड़ी कविता वह है जो संकट के समय व्यक्ति के काम आये। शमशेर प्रकृति, संस्कृति और जिन्दगी के कवि हैं। गोस्वामी तुलसीदास की एक चौपाई है ‘पीपल पात सरिस मन डोला....’ । इन पंक्तियों का अर्थ वही समझ सकता है जिसने पीपल के पŸो का स्वभाव देखा है। शमशेर के काव्य को समझने के लिए उस अनुभव से गुजरना जरूरी है जिस अनुभव से ये कविताएँ सृजित हुई हैं। जिसने माउंट आबू की झील में डूबते सूर्य को नहीं देखा, वह उनकी इस प्राकृतिक क्रिया पर लिखी कविता के भाव को कैसे समझ सकता है।

मैनेजर पाण्डेय का कहना था कि यह रहस्यवादी आलोचना या आलोचना की खण्डित व एकांगी दृष्टि है जिसकी वजह से शमशेर कभी मौन के कवि नजर आते हैं तो कभी प्रेम व सौंदर्य के और कभी ऐन्द्रिकता के। शमशेर तो ‘सत्य का क्या रंग, पूछो एक संग’ के कवि हैं। उनकी नजर में तो सारी कलाएँ एक.दूसरे से जुड़ी हैं। शमशेर के यहाँ हिन्दी.उर्दू की एकता है और वे अपनी रचनाओं में काल से होड़ लेते हुए अपने समय के साथ उपस्थित होते हैं। वे ‘धर्मों के जो अखाड़े हैं, उन्हें लड़वा दिया जाय/क्या जरूरत हिन्दोस्ताँ पर हमला किया जाय।’ जैसा व्यंग्य करते हैं। अपने निहित स्वार्थ के लिए धर्म के इस्तेमाल पर चोट करते हैं, तो ‘अमन का राग’ के द्वारा शान्ति का राग छेड़ते हैं। शमशेर जटिल भी है और सरल भी। इसीलिए शमशेर पोपुलर नहीं, एक जरूरी कवि हैं।

केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं पर युवा आलोचक सुधीर सुमन ने अपना वक्तव्य रखा। उनका कहना था कि केदार देशज आधुनिकता के कवि हैं जिनकी कविताएँ अपनी परम्परा और इतिहास से गहरे तौर पर जुड़ी हुई है। उनके जीवन और कविता में जनता के स्वाभिमान, संघर्ष चेतना और जिन्दगी के प्रति एक गहरी आस्था मौजूद है। पूँजीवाद जिन मानवीय मूल्यों और सौंदर्य को नष्ट कर रहा है, उस पूँजीवादी संस्कृति और राजनीति के प्रतिवाद में केदार ने अपनी कविताएँ रचीं। उनकी कविताओं में जो गहरी उम्मीद है, किसान मेहनतकश जनता की जीत के प्रति , वह आज भी हमें ऊर्जावान बनाने में सक्षम है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि आजकल कविता के प्रति अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ है। यह सुखद है कि आज इस कार्यक्रम में कविता पर बात.विचार के लिए अच्छी तादाद में लोग यहाँ एकत्र हुए हैं। उन्होंने शंकर शैलेन्द्र का उदाहरण देते हुए बताया कि उनका लिखा गीत ‘हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ लाखों संघर्षशील जनता की जबान पर है। मानस की चौपाइयाँ लोगों को याद है। पर आज कवि को अपनी ही कविता याद नहीं रहती। उन्हें कविता पढ़ने के लिए अपनी डायरी का सहारा लेना पड़ता है। इस स्मृतिहीनता के कारण क्या कहीं कविता के भीतर तो मौजूद नही है ?

नरेश सक्सेना का कहना था कि शमशेर की कविताएँ खास तरह की हैं। शब्द सरल हैं, पर व्यंजना कठिन है। शमशेर व नागार्जुन ने अपनी कविता में सभी कलाओं का इस्तेमाल किया है। ‘बहुत दिना चूल्हा रोया, चक्की रही उदास’ कहरवा में है तो ‘प्रात नम था.......’ धमाल है। हम कविता के पास उसमें छिपे सौंदर्य व आनन्द की प्राप्ति के लिए जाते हैं। कविता यह काम करती है तभी वह मौन और सन्नाटे को तोड़ती सकती है।

हमारे सम्मुख शमशेर

कार्यक्रम के अन्तिम सत्र में शमशेर के कविता पाठ की वीडियो फिल्म दिखाई गई। इस फिल्म के माध्यम से शमशेर सामने थे। लोगों ने उन्हें अपनी कविता पढ़ते हुए देखा। इस फिल्म में उनके सभी संग्रहों - ‘कुछ कविताएँ’, ‘कुछ और कविताएँ’, ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ और ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ से कविताएँ थी। कविता प्रेमियों के लिए यह नया अनुभव था। शमशेर के मुख से लोगों ने उनकी गजलें भी सुनीं।

इस जन्मशती आयोजन में लखनऊ और अन्य जिलों से आये लेखकों, साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों की अच्छी.खासी उपस्थिति थी जिनमें रमेश दीक्षित, शोभा सिंह, शकील सिद्दीकी, वीरेन्द्र यादव, सुभाष राय, वंदना मिश्र, दयाशंकर राय, प्रभा दीक्षित व कमल किशोर श्रमिक ;कानपुरद्ध, राजेश कुमार, ताहिरा हसन, दिनेश प्रियमन ;उन्नावद्ध, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, शैलेन्द्र सागर, राकेश, अशोक चौधरी व मनोज सिंह ;गोरखपुरद्ध, चितरंजन सिंह ;इलाहाबादद्ध, सुशीला पुरी, अनीता श्रीवास्तव, विमला किशोर, मंजु प्रसाद, श्याम अंकुरम आदि प्रमुख थे। कार्यक्रम के अन्त ंमें मार्क्सवादी आलोचक चन्द्रबली सिंह के निधन पर दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई।

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बुधवार, 25 मई 2011

कामरेड चन्द्रबली सिंह को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि

२५ मई, दिल्ली.
हिन्दी के सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक , संगठनकर्ता और विश्व कविता के श्रेष्टतम अनुवादकों में शुमार कामरेड चन्द्रबली सिंह का विगत २३ मई को ८७ वर्ष की आयु में बनारस में निधन हो गया. चन्द्रबली जी का जाना एक ऐसे कर्मठ वाम बुद्धिजीवी का जाना है जो मार्क्सवादी सांस्कृतिक आन्दोलन के हर हिस्से में बराबर समादृत और प्रेरणा का स्रोत रहा.
चन्द्रबली जी रामविलास शर्मा , त्रिलोचन शास्त्री की पीढी से लेकर प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों की युवतम पीढी के साथ चलने की कुव्वत रखते थे. वे जनवादी लेखक संघ के संस्थापक महासचिव और बाद में अध्यक्ष रहे. उससे पहले तक वे प्रगतिशील लेखक संघ के महत्वपुर्ण स्तम्भ थे. जन संस्कृति मंच के साथ उनके आत्मीय सम्बन्ध ताजिन्दगी रहे. बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद राष्ट्रीय एकता अभियान के तहत सांस्कृतिक संगठनों के साझा अभियान की कमान बनारस में उन्ही के हाथ थी और इस दौर में उनके और हमारे संगठन के बीच जो आत्मीय रिश्ता कायम हुआ , वह सदैव ही चलता रहा. उनके साक्षात्कार भी समकालीन जनमत में प्रकाशित हुए. चन्द्रबली जी वाम सांस्कृतिक आन्दोलन के समन्वय के प्रखर समर्थक रहे.
चन्द्रबली जी ने मार्क्सवादी सांस्कृतिक आन्दोलन के भीतर की बहसों के उन्नत रूप और स्तर के लिए हरदम ही संघर्ष किया. 'नयी चेतना' १९५१ में उनका लेखा छपा था, 'साहित्य में संयुक्त मोर्चा'. ( बाद में वह 'आलोचना का जनपक्ष' पुस्तक में संकलित भी हुआ). चन्द्रबली जी ने इस लेख में लिखा, "सबसे अधिक निर्लिप्त और उद्देश्यपूर्ण आलोचना- आत्मालोचना कम्यूनिस्ट लेखकों और आलोचकों की और से आनी चाहिए. उन्हें अपने भटकावों को स्वीकार करने में किसी प्रकार की झेंप या भीरुता नहीं दिखलानी चाहिए, क्योंकि जागरूक क्रांतिकारी की यह सबसे बड़ी पहचान है कि वह आम जनता को अपने साथ लेकर चलता है और वह यह जानता है कि दूसरों की आलोचना के साथ साथ जबतक वह अपनी भी आलोचना नहीं करता तब तक वह न सिर्फ जनता को ही साथ न ले सकेगा, वरन स्वयं भी वह अपने लिए सही मार्ग का निर्धारण नहीं करा पाएगा दूसरों की आलोचना में भी चापलूसी करने की आवश्यकता नहीं , क्योंकि चापलूसी उन्हें कुछ समय तक धोखा दे सकती है, किन्तु उन्हें सुधार नहीं सकती. मैत्रीपूर्ण आलोचना का यह अर्थ नहीं कि हम दूसरों की गलतियों को जानते हुए भी छिपा करा रखें. मार्क्सवादी आलोचना-आत्मालोचना के स्तर और रूप की यही विशेषता होनी चाहिए कि हम उसके सहारे आगे बढ़ सकें. " आज से ६० साल पहले लिखे गए इस लेख में आपस में और मित्रों के साथ पालेमिक्स के रूप, स्तर और उद्देश्य की जो प्रस्तावना है वह आज और भी ज़्यादा प्रासंगिक है. उन्होंने अपने परम मित्र और साथी रामविलास शर्मा के साथ अपने लेखों में जो बहसें की हैं वे स्वयं उनके बनाए निकष का प्रमाण हैं.
उनकी आलोचना की दोनों ही पुस्तकें 'आलोचना का जनपक्ष' तथा 'लोकदृष्टि और हिंदी साहित्य' दस्तावेजी महत्त्व की हैं. इनमें हिंदी साहित्य और संस्कृति के प्रगतिशील अध्याय के तमाम उतार- चढ़ाव, बहसों और उपलब्धियों की झांकी ही नहीं मिलती , बल्कि आज के संस्कृतिकर्मी और अध्येता के लिए इनमें तमाम अंतर्दृष्टिपूर्ण सूत्र बिखरे पड़े हैं.
पाब्लो नेरूदा ,नाजिम हिकमत,वाल्ट व्हिटमैन और एमिली डिकिन्सन की कविताओं के उनके अनुवाद उच्च कोटि की काव्यात्मक संवेदना, चयन दृष्टि और सांस्कृतिक अनुवाद के प्रमाण हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि ब्रेख्त, मायकोवस्की और तमाम अन्य कवियों के उनके अप्रकाशित अनुवाद और दूसरी सामग्रियां जल्द ही प्रकाशित होंगी.
जन संस्कृति मंच वाम सांस्कृतिक आन्दोलन की अनूठी शख्सियत साथी चन्द्रबली सिंह को लाल सलाम पेश करता है और शोकसंतप्त परिजन, मित्रों, साथियों के प्रति हार्दिक संवेदना प्रकट करता है.
प्रणय कृष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी .

चन्द्रबली सिंह सच्चे कम्युनिस्ट आदर्शों
और सिद्धान्तों पर चलने वाले लेखक व आलोचक थे।

लखनऊ, 23 मई। हिन्दी के प्रसिद्ध समालोचक चन्द्रबली सिंह नहीं रहे। आज सुबह साढ़े आठ बजे बनारस में उनका निधन हो गया। वे करीब 86 साल के थे। यह हमारे लिए अत्यन्त दुखद है। जन संस्कृति मंच उनके निधन पर अपना गहरा शोक प्रकट करता है। अपनी शोक संवेदना प्रकट करते हुए जसम लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने कहा कि चन्द्रबली सिंह सच्चे कम्युनिस्ट आदर्शों और सिद्धान्तों पर चलने वाले लेखक व आलोचक थे। विचारधारा और सिद्धान्त से इतर उनके अन्दर कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी, सारी जिन्दगी उन्होंने इसी पर अमल किया और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता का जीवन जिया। उनकी मशहूर आलोचनात्मक कृति ‘आलोचना का जनपक्ष’ उनकी वैचारिक प्रखरता का उदाहरण है। उन्होंने नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरुदा आदि की रचनाओं का अनुवाद भी किया।

आज चन्द्रबली सिंह के निधन पर चन्द्रेश्वर, राजेश कुमार, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, भगवान स्वरूप कटियार, शोभा सिंह, रवीन्द्र कुमार सिन्हा, बी एन गौड़, श्याम अंकुरम आदि रचनाकारों ने भी शोक प्रकट किया। इनका कहना था कि पार्टी और विचार के प्रति कट्टरता के स्तर की दृढ़ता के बावजूद चन्द्रबली जी के व्यवहार में कोई संकीर्णता नहीं थी और हमेशा साझे सांस्कृतिक आंदोलन पर जोर दिया तथा बनारस में तो उन्होंने जलेस, प्रलेस और जसम के संयुक्त सांस्कृतिक आंदोलन का नेतृत्व किया। चन्द्रबली जी हमारे मूल्यवान साथी थे और आज ऐसे साथी दुर्लभ होते जा रहे हैं और ऐसे दौर में जब प्रतिक्रियावादी ताकतें वामपंथी आंदोलन पर हमलावर बनी है, चन्द्रबली जी हमारे लिए प्रेरक रहे। उनका जाना वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन के लिए बड़ी क्षति है।

कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच, लखनऊ
एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 08400208031, 09807519227

शनिवार, 14 मई 2011

जन चेतना का चितेरा : अशोक भौमिक

जनवादी चित्रकार देवब्रत मुखोपाध्याय का बनाया हुआ चित्तप्रसाद का पोर्ट्रेट

जनवादी चित्रकार चित्तप्रसाद के जन्‍मदिवस पर उनकी कला की विशेषताओं को रेखांकित करता वरिष्‍ठ चित्रकार अशोक भौमिक का आलेख-

चित्तप्रसाद एक प्रगतिशील चित्रकार ही नहीं थे, वह सक्रिय राजनीतिक कर्मियों की पहली कतार पर तैनात एक सजग सिपाही भी थे। भारतीय चित्रकला के इतिहास में उनके जैसा दूसरा उदाहरण नहीं है। 15 मई, 1917 में बंगाल के दक्षिण 24 परगना के नैहाटी शहर में उनका जन्‍म हुआ। उनका परिवार अत्‍यंत शिक्षित परिवार था। उनकी मां ने आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों की कई तरह से मदद की थी। बीए की परीक्षा पास करने के बाद चित्तप्रसाद सक्रिय रूप से चित्रकला, संगीत, नाटक आदि कलाओं की ओर झुके। यहां उल्‍लेखनीय यह है कि उन्‍होंने चित्रकला में कोई शिक्षा नहीं ली। वह 1942 में भारतीय कम्‍युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने थे।

वर्ष 1942-43 में बंगाल के मिदनापुर और चिटगांव इलाके में उन्होंने महाअकाल के विकराल रूप को बेहद करीब से देखा और इस इलाके में घूम-घूम कर स्केचेस बनायें और रिपोर्ताज लिखे जो ‘पीपुल्स वार’ में नियमित प्रकाशित होते रहे। इन प्रकाशनों के जरिये चित्तप्रसाद ने पत्रकारिता के एक सर्वथा नये आयाम से पाठकों को परिचित कराया।

1944 (20-27 दिसंबर) में पार्टी द्वारा मुंबई के खेवाड़ी स्थित ‘रेड फ्लैग हॉल’ में आयोजित ‘ भूखा बंगाल’ चित्र प्रदर्शनी में चित्तप्रसाद के चित्र दिखे, साथ ही पी.पी.एच. ने चित्तप्रसाद द्वारा लिखी पुस्‍तक ‘हंगरी बंगाल’ प्रकाशित की। इसके प्रकाशन के तुरंत बाद सरकार ने इसे प्रतिबंधित घोषित कर इसकी सारी प्रतियाँ जला दीं।

मुंबई प्रवास के दौरान वह फिल्‍म से जुडे़ लोगों, कवियों, चित्रकारों, गायकों के बहुत चेहते थे। नेमीचंद जैन, रेखा जैन, शमशेर बहादुर सिंह आदि रचनाकारों के साथ-साथ बलराज साहनी, सलील चौधरी जैसे लोगों और पंजाबी के प्रसिद्ध लेखक सुखबीर जी से भी इनका अच्‍छा परिचय था। हिन्‍दी फिल्‍म के इतिहास में विमल राय की महत्‍वपूर्ण फिल्‍म ‘दो बीघा जमीन’ का वुडकट के माध्‍यम से बनाया गया पोस्‍टर निश्चित रूप से ऐतिहासिक महत्‍व रखता है।

1946 के नौसेना विद्रोह में हम चित्तप्रसाद को नौसैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिलाये न केवल सड़कों पर देख पाते हैं, साथ ही इस विद्रोह के समर्थन में उनके द्वारा बने गये यादगार चित्रों और पोस्टरों में हम चित्रकला के एक ऐसे जुझारू स्वरूप को देख पाते हैं जिसे केवल जन आंदोलन को देख कर नहीं, बल्कि उसमे सशरीर शरीक होकर ही रचा जा सकता है। इसी चित्रकार को हम एक ओर जहाँ बंगाल के तेभागा किसान आन्दोलन के करीब जाकर चित्र रचते पाते हैं , वहीँ 1946 के जून महीने में आंध्र प्रदेश के तेलंगाना सशस्त्र किसान आन्दोलन के केंद्र तक पहुँच कर एक अभूतपूर्व चित्र श्रृंखला बनाते पाते हैं। इस चित्रकार को हम महाराष्ट्र के कोल्हापुर में आये सूखे के दौरान किसानों के करीब पाते हैं, विजयवाडा़ अखिल भारतीय किसान सम्मलेन (1944) में श्रोताओं के बीच बैठ कर चित्र बनाते पाते हैं, मुंबई की बस्तियों में रह रहे गरीब बाल श्रमिकों की व्यथा कथा को कैनवास पर उतारते पाते हैं।

इसके साथ ही उन्होंने जन आंदोलनों के एक सजग इतिहासकार के रूप में अपने चित्रों में कश्मीर-आन्दोलन, भगत सिंह की शहादत, डाक कर्मचारियों और रेल कर्मचारियों के आंदोलनों को अमर भी किया है।

हमारे देश में सभी चित्रकारों के साथ कोई-न-कोई प्रान्त जुड़ा हुआ है। राजा रवि वर्मा, यामिनी राय, नन्दलाल बोस से लेकर प्रायः सभी समकालीन चित्रकारों पर इस पहचान को सहज ही देखा जा सकता है, पर एक आधुनिक चित्रकार अपने राजनीतिक-सामजिक सरोकारों के चलते प्रान्तों और प्रदेशों की सीमा के पार जाकर एक जनपक्षधर चित्रकार बन सकता है, इसकी मिसाल हम केवल चित्तप्रसाद में ही पाते हैं। सही मायने में भारतीय चित्रकार कहलाने के हकदार शायद चित्तप्रसाद ही हैं।

देश के विभिन्न जन आंदोलनों पर बनाये गये चित्तप्रसाद के कुछ यादगार चित्रों से मौजूदा बाजारवाद की गिरफ्त में कैद जनता से पूरी तरह से कट कर अराजक पूंजी के सहारे पनपती समकालीन कला को बेहतर पहचानने मे मदद मिेलती है।

चित्तप्रसाद ने जन आंदोलनों के साथ रह कर असंख्य चित्र बनाये थे, यह हम सब जानते हैं, पर गरीब बच्‍चों पर, खासकर उनकी जिन्‍दगी की बदहाली पर उनके चित्र बेहद महत्वपूर्ण हैं। विश्‍व कला के इतिहास में बच्‍चों के चित्र बहुत कम हैं। भारतीय कला में देवताओं के बाल रूप और शिशु राजकुमारों के चित्रण के अलावा बच्चों को हम बहुत ही हम उपस्थित पाते हैं। पाश्‍चात्‍य कला में भी फरिश्‍ते के रूप में डैनों वाले नंगे बच्‍चे दिख जाते हैं, पर वे चित्रों के मूल विषय नहीं बनते हैं। चित्तप्रसाद ने अपनी चित्र श्रृंखला ‘Angels without Fairytales ‘ के केंद्र में बच्चों को रखकर उन्हें नायक का अपूर्व दर्ज़ा दिया है। अनाथ बच्चों के एकाकीपन के लिये जहाँ चित्तप्रसाद एक दीया और एक खेले जाने के लिये इंतज़ार करती गुड़िया को कमरे में संयोजित कर चित्र को इतना मार्मिक बनाते हैं, वहीं होटलवाला बच्चा देर रात होटल के बंद हो जाने के बाद अकेला बर्तनों के ढेर से जूझ रहा है। साथ में एक रतजगा कुत्ता है, एक तिरछी लौ वाली ढिबरी है और फर्श पर रेंगते बहुत सारे तिलचट्टे हैं, पर इन सब के बावजूद कितना अकेलापन है यहाँ !
गहरी रात को फुटपाथ पर कथरी ओढ़े बच्चों के बीच गुजरता कुत्ता क्या इन बच्चों के मुकाबले अपनी जिन्दगी के बेहतर होने का ऐलान नहीं कर रहा है ? इन यादगार चित्रों में बच्चों के प्रति चित्तप्रसाद का गहरा प्रेम तो दिखता ही है, साथ ही ये भी साफ़ नज़र आता है कि इन चित्रों को चित्तप्रसाद ने बच्चों के लिये नहीं बनाया, बल्कि इन बच्चों के ऐसे हालात के लिये जिम्मेदार समाज को धिक्कारा है।

चित्तप्रसाद के चित्रों में महिलाओं का एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। इन चित्रों में वे मेहनतकश पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर जीवन संघर्ष के समान हिस्सेदार के रूप में दिखती है। कोल्‍हापुर के सूखे में भी वे पुरुषों के पास हैं तो गारो पहाड़ में जंगली सूअर का शिकार करते हुए भी पुरुषों के साथ है। बांध बनाते हुए वे समान रूप से मेहनत करती है तो बाढ़ जैसी विपदा में समान रूप से पीडि़त है।

इप्टा के गठन के बाद एक नाट्य प्रस्तुति के ठीक पहले कामरेड शांति बर्धन नगारा बजा कर नाट्य प्रस्तुति का एलान कर रहे थे। चित्तप्रसाद ने उस मुहूर्त को अपने स्केच बुक मे कैद किया। बाद मे इसको आधार बना कर चित्तप्रसाद ने इप्टा का लोगो बनाया। भारत मे प्रगतिशील सांस्कृतिक कर्मियों के सपनों का प्रतीक यह चिन्ह हम सबको चित्तप्रसाद की याद भी दिलाता है।

चित्तप्रसाद के चित्रों को देखते हुए हम जनोन्मुख और अजिट-प्राप (agit-prop) कला के एक ऐसे रूप से परिचित होते है, जो चित्र होकर भी महज नारा या पोस्टर नहीं हैं। यहाँ शोषित-पीड़ितों के पास जाने का साहस है जो दरअसल कला के सामंती मानकों को चुनौती देने का साहस भी है। युगों से शास्त्रीय कला सामंतों और धनी कला व्यापारियों के बनाये हुए मानदंडों पर पनपती रही है, पर इसके समानांतर लोक कला अपने सहज सरल स्वरूप- गरीब किसान के आंगन में रंगोली-अल्पना बन या किसी लोक उत्सव के प्रांगण सज्जा के रूप तक ही सीमित रही। यह कला उत्सवधर्मी होकर भी जीवन से कटी हुई नहीं थी (इसका सबसे अच्छा उदाहरण वारली की लोक कला है )। इस कला मे मेहनत करते, शोषित होते लोगों का जिक्र तो है, पर राजनीतिक विचारों के अभाव के कारण इसमें प्रतिरोध का आह्वान नहीं है। चित्तप्रसाद इन दोनों कलाओं की गहरी जाँच-पड़ताल के बाद इनके विकल्प के रूप में एक तीसरी कला का अनुसरण करते हैं (इस सन्दर्भ में आधुनिक कला पर सामंती प्रभाव और गुफा चित्रों पर चित्तप्रसाद के दो महत्वपूर्ण लेखों को हम देख सकते हैं ) । चित्तप्रसाद की कला में मेहनतकश वर्ग का जहाँ शोषण का चित्रण है, वहीँ उनके प्रतिरोध की गाथा भी मौजूद है। वह वास्तव में संघर्षशील आम जनता के इतिहासकार होने के साथ-साथ संघर्ष की कथाओं के हरकारा भी हैं, जो बंगाल की कथा को महाराष्ट्र तक पहुचते हैं तो तेलंगाना जाकर भगत सिंह की चर्चा करते हैं।

उनके अनेक चित्रों में बार-बार मजदूर-किसान वर्ग के लिये एक विशिष्ट राजनीतिक एकता की पुकार दिखती है। जन आंदोलनों में वह कांग्रेस, कम्‍युनिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग के झंडे एकसाथ फहराते हैं, वहीं विभिन्न मोर्चों पर संघर्ष करते लोगों के बीच संकीर्ण साम्प्रदायिकता को गैर हाजिर पाते हैं और हर चित्र में स्त्री-पुरुष को हर संघर्ष में समान साझेदार बनाते हैं। मेहनतकशों की एकता हर स्तर पर हर कीमत पर चित्तप्रसाद के लिये सबसे जरूरी था जिसे उन्होंने अपने चित्रों में बार-बार रेखंकित किया।

उनके रंगीन चित्रों में कई पाश्‍चात्‍य चित्रकारों का प्रभाव देखा जा सकता है। इनमें मातिस और ब्रॉक प्रमुख हैं। यहां गौरतलब यह भी है कि रंगीन चित्रों में चित्तप्रसाद ने आनंद और सुख का उत्‍सव दिखाया है, वहीं उनके काले-सफेद चित्रों (या प्रिंट) में हमारे जीवन के कठोर यथार्थ को व्‍यक्‍त किया है।

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे के समर्थन में लेखक व संस्कृतिकर्मी भी उतरे

लखनऊ, 8 अप्रैल। जन संस्कृति मंच (जसम) के आहवान पर अन्ना हजारे के आंदोलन के समर्थन में आज जसम के संयोजक व कवि कौशल किशोर, कवि भगवान स्वरूप कटियार, बी एन गौड़, प्रतिभा कटियार, कवि वीरेन्द्र सारंग, एपवा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ताहिरा हसन व विमला किशोर, अलग दुनिया के कृष्णकांत वत्स, नाटककार राजेश कुमार, लेनिन पुस्तक केन्द्र के प्रबन्धक गंगा प्रसाद, आर के सिन्हा आदि लखनऊ के लेखक व संस्कृतिकर्मी झूलेलाल पार्क पहुँचे । इन्होंने धरना देकर भ्रष्टाचार के खिलाफ और न्याय के इस आंदोलन के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त की।

इस अवसर पर हुई सभा को संबोधित करते हुए वक्ताओं ने कहा कि अन्ना हजारे के आंदोलन ने साबित किया है कि हम जिन्दा हैं। अन्याय व लूट से इस देश को बचाने और सŸाा के विरुद्ध प्रतिरोध की हमारी क्षमता खत्म नहीं हुई है। देश की जनता को एक ईमारदार व न्यायपूर्ण व्यवस्था चाहिए। सरकारी लोकपाल नहीं बल्कि जनलोकपाल चाहिए। जनता को ऐसा राजनीतिक तंत्र चाहिए जो उसके प्रति जवाबदेह हो। पर यह तो ऐसा तंत्र है जो लूट व भ्रष्टाचार की संस्कृति पर टिका है।

वक्ताओं ने नागार्जुन की कविता का हवाला देते हुए कहा कि जेपी आंदोलन के समय इंदिरा गाँधी को निशाना बनाते हुए बाबा ने कहा था कि ‘हे देवि, तुम तो काले धन की वैशाखी पर टिकी हुई हो’ और ‘लूटपाट के काले धन की करती है रखवाली, पता नहीं दिल्ली की रानी गोरी है या काली’, पर मनमोहन सिंह की सरकार तो घोटालों के पहाड़ पर बैठी है और कालेधन की संरक्षक बन गई है। देश के बड़े हिस्से से इसने सामान्य लोकतंत्र का भी अपहरण कर लिया है। अन्ना के आंदोलन से ये सारे सवाल बहस के केन्द्र में आ गये हैं।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

जनविरोधी अर्थनीति और भ्रष्ट राजनीति के खिलाफ आंदोलन जारी रहेगा : जन संस्कृति मंच

जन संस्कृति मंच


जन लोकपाल विधेयक बनने से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को बल मिलेगा: प्रो. मैनेजर पांडेय

दिल्ली, उत्तर प्रदेश और पटना में आज जसम से जुड़े लेखक-संस्कृतिकर्मी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शामिल हुए


प्रकाशनार्थ/ प्रसारणार्थ
नई दिल्ली: 8 अप्रैल
जन लोकपाल विधेयक लागू करने के सवाल पर आज जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय के नेतृत्व में लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का समूह जंतर-मंतर पहंुचा और पिछले तीन दिन से जारी श्री अन्ना हजारे के आंदोलन के प्रति अपना समर्थन जताया। जन संस्कृति मंच से जुड़े कलाकारों ने इसी तरह उत्तर प्रदेश के लखनऊ और गोरखपुर समेत कई दूसरे शहरों और बिहार की राजधानी पटना में इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में आज शामिल हुए। जंतर मंतर पर इस आंदोलन में शिरकत करने वालों में जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय, राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कवि मंगलेश डबराल, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कवयित्री शोभा सिंह, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कवि मदन कश्यप, कवि-पत्रकार अजय सिंह, कहानीकार अल्पना मिश्र, कवि रंजीत वर्मा, द गु्रप संस्था के संयोजक फिल्मकार संजय जोशी, संगवारी नाट्य संस्था के संयोजक कपिल शर्मा, युवा चित्रकार अनुपम राय, रंगकर्मी सुनील सरीन, संस्कृतिकर्मी सुधीर सुमन, श्याम सुशील, मीडिया प्रोफेशनल रोहित कौशिक, संतोष प्रसाद और रामनिवास आदि प्रमुख थे। लेखक-संस्कृतिकर्मियों ने जंतर मंतर पर उपस्थित जनसमूह के बीच पर्चे भी बांटे।
इस मौके पर जसम अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि इस देश में जिस पैमाने पर बड़े-बड़े घोटाले सामने आए हैं और भ्रष्टाचार जिस कदर बढ़ा है, उससे आम जनता के भीतर भारी क्षोभ है। यह गुस्सा इसलिए भी है कि कांग्रेस-भाजपा समेत शासकवर्ग की जितनी भी राजनीतिक पार्टियां हैं, वे इस भ्रष्टाचार को संरक्षण और बढ़ावा दे रही हैं। अगर यूपीए सरकार श्री अन्ना हजारे की मांगों को मान भी लेती है, तो भी भ्रष्टाचार के खिलाफ छिड़ी इस मुहिम को और भी आगे ले जाने की जरूरत बनी रहेगी।
उन्होंने कहा कि मौजूदा दौर में होने वाले घोटाले पहले के घोटालों की तुलना में बहुत बड़े हैं, क्योंकि निजीकरण की नीतियों ने कारपोरेट घरानों के लिए संसाधनों की बेतहाशा लूट का दरवाजा खोल दिया है. देश के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों- जमीन, खनिज, पानी- ही नहीं लोगों की जीविका के साधनों की भी लूट का सिलसिला बेरोक-टोक जारी है। राडिया टेपों और विकीलीक्स के खुलासों ने साफ कर दिया है कि साम्राज्यवादी ताकतें कारपोरेट हितों और नीतियों के अनुरूप काम करने वाले मंत्रियों की सीधे नियुक्ति करवाती हैं। सभी तरह के सवालों से परे रखी गयी सेना के उच्चाधिकारी न सिर्फ जमीन घोटालों में लिप्त पाये गये हैं, बल्कि रक्षा सौदों में भी बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होने का नियमित खुलासा हो रहा है। न्यायपालिका के शीर्ष पर विराजमान न्यायधीशों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की खबरें प्रामाणिक तौर पर उजागर हो चुकी हैं। कांग्रेस के कई नेता भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद अपने पदों पर जमे हुए हैं। केंद्र ही नहीं राज्य सरकारों में भी भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। कर्नाटक में भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री भूमि घोटाले में संलिप्त हैं और पूरे प्रदेश की अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से जितनी अपनी अवैध अर्थव्यवस्था चलाने वाले रेड्डी बंधु सरकार के सम्मानित और प्रभावशाली मंत्री हैं। इन स्थितियों में कारपोरेट लूट और भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं को लाठी-गोली का सामना करना पड़ रहा है, उन्हें देशद्रोही बताकर जेलों में बंद किया जा रहा है, जबकि भ्रष्टाचारी खुलेआम घूम रहे हैं।
प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि ऐसे कठिन हालात में प्रभावी लोकपाल कानून बनाने के लिए शुरू हुई भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को और भी ऊंचाई पर ले जाने की जरूरत है, ताकि जनता की भावनाओं के अनुरूप भ्रष्टाचार से मुक्त देश बनाया जा सके।
जन संस्कृति मंच की मांग है कि 1. सरकार द्वारा तैयार किये गये नख-दंत विहीन लोकपाल कानून के मसविदे को रद्द किया जाये और भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्षरत कार्यकर्ताओं की भागीदारी से एक प्रभावशाली लोकपाल कानून बनाया जाये।
2. टाटा, रिलायंस, वेदांत और दाउ जैसे भ्रष्टाचार और कानून के उल्लंघन में संलिप्त कारपोरेट घरानों को काली सूची में डाला जाये।
3. स्विटजरलैंड के बैंकों में अपनी काली कमायी जमा किये लोगों के नाम सार्वजनिक किये जायें, काले धन की एक-एक पाई को देश में वापस लाया जाये और इसका इस्तेमाल समाज कल्याण के कामों में किया जाये। हम यह भी मांग करते हैं कि तमाम अंतरराश्ट्रीय कानूनों की आड़ में काले धन को विदेश ले जाने के सभी दरवाजे निर्णायक तौर पर बंद किये जायें।
4. आदर्श घोटाले व अन्य रक्षा घोटालों में लिप्त सैन्य अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाया जाये और उन्हें कड़ी सजा दी जाये.
5. कारपोरेट लूट और भ्रष्टाचार के लिए उर्वर जमीन मुहैया कराने वाली निजीकरण और व्यावसायीकरण की नीतियों को उलट दिया जाये।
6. कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए उनके दबाव में लिये गये सभी सरकारी निर्णयों की समीक्षा की जाये और उन्हें उलट दिया जाये।
जन संस्कृति मंच
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की ओर से
सुधीर सुमन द्वारा जारी

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

प्रलेस के महासचिव प्रो. कमला प्रसाद को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि



आज सुबह ही हम सब प्रो. कमला प्रसाद के असामयिक निधन का समाचार सुन अवसन्न रह गए. रक्त कैंसर यों तो भयानक मर्ज़ है, लेकिन फिर भी आज की तारीख में वह लाइलाज नहीं रह गया है. ऐसे में यह उम्मीद तो बिलकुल ही नहीं थी कि कमला जी को इतनी जल्दी खो देंगे. उन्हें चाहने वाले, मित्र, परिजन और सबसे बढ़कर प्रगतिशील, जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन की यह भारी क्षति है. इतने लम्बे समय तक उस प्रगतिशील आंदोलन का बतौर महासचिव नेतृत्व करना जिसकी नींव सज्जाद ज़हीर, प्रेमचंद, मुल्कराज आनंद , फैज़ सरीखे अदीबों ने डाली थी, अपन आप में उनकी प्रतिबद्धता और संगठन क्षमता के बारे में बहुत कुछ बयान करता है.
१४ फरवरी,१९३८ को सतना में जन्में कमला प्रसाद ने ७० के दशक में ज्ञानरंजन के साथ मिलकर 'पहल' का सम्पादन किया, फिर ९० के दशक से वे 'प्रगतिशील वसुधा' के मृत्युपर्यंत सम्पादक रहे. दोनों ही पत्रिकाओं के कई अनमोल अंकों का श्रेय उन्हें जाता है. कमला प्रसाद जी ने पिछली सदी के उस अंतिम दशक में भी प्रलेस का सजग नेतृत्व किया जब सोवियत विघटन हो चुका था और समाजवाद को पूरी दुनिया में अप्रासंगिक करार देने की मुहिम चली हुई थी. उन दिनों दुनिया भर में कई तपे तपाए अदीब भी मार्क्सवाद का खेमा छोड़ अपनी राह ले रहे थे. ऐसे कठिन समय में प्रगतिशील आन्दोलन की मशाल थामें रहनेवाले कमला प्रसाद को आज अपने बीच न पाकर एक शून्य महसूस हो रहा है. कमला जी की अपनी मुख्य कार्यस्थली मध्य प्रदेश थी. मध्य प्रदेष कभी भी वाम आन्दोलन का मुख्य केंद्र नहीं रहा. ऐसी जगह नीचे से एक प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठन को खडा करना कोइ मामूली बात न थी. ये कमला जी की सलाहियत थी कि ये काम भी अंजाम पा सका. निस्संदेह हरिशंकर परसाई जैसे अग्रजों का प्रोत्साहन और मुक्तिबोध जैसों की विरासत ने उनका रास्ता प्रशस्त किया, लेकिन यह आसान फिर भी न रहा होगा.
कमला जी को सबसे काम लेना आता था, अनावश्यक आरोपों का जवाब देते उन्हें शायद ही कभी देखा गया हो. जन संस्कृति मंच के पिछले दो सम्मेलनों में उनके विस्तृत सन्देश पढ़े गए और दोनों बार प्रलेस के प्रतिनिधियों को हमारे आग्रह पर सम्मेलन संबोधित करने के लिए उन्होनें भेजा. वे प्रगतिशील लेखक संघ , जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के बीच साझा कार्रवाइयों की संभावना तलाशने के प्रति सदैव खुलापन प्रदर्शित करते रहे और अनेक बार इस सिलसिले में हमारी उनसे बातें हुईं. इस वर्ष कई कार्यक्रमों के बारे में मोटी रूपरेखा पर भी उनसे विचार विमर्ष हुआ था जो उनके अचानक बीमार पड़ने से बाधित हुआ. संगठनकर्ता के सम्मुख उन्होंने अपनी आलोचकीय और वैदुषिक क्षमता, अकादमिक प्रशासन में अपनी दक्षता को उतनी तरजीह नहीं दी. लेकिन इन रूपों में भी उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. मध्यप्रदेश कला परिषद् और केन्द्रीय हिंदी संस्थान जैसे शासकीय निकायों में काम करते हुए भी वे लगातार प्रलेस के अपने सांगठनिक दायित्व को ही प्राथमिकता में रखते रहे. उनका स्नेहिल स्वभाव, सहज व्यवहार सभी को आकर्षित करता था. उनका जाना सिर्फा प्रलेस , उनके परिजनों और मित्रों के लिए ही नहीं , बल्कि समूचे वाम- लोकतांत्रिक सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए भारी झटका है. जन संस्कृति मंच .प्रो. कमला प्रसाद को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है . हम चाहेंगे कि वाम आन्दोलन की सर्वोत्तम परम्पराओं को विकसित करनेवाले संस्कृतिकर्मी इस शोक को शक्ति में बदलेंगे और उन तमाम कामों को मंजिल तक पहुचाएँगे जिनके लिए कमला जी ने जीवन पर्यंत कर्मठतापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह किया.

- प्रणय कृष्ण , महासचिव , जन संस्कृति मंच


जाने मने आलोचक डॉ. कमला प्रसाद का जाना

जनवादी और प्रगतिशील आन्दोलन का नुकसान है

---- जन संस्कृति मंच

लखनऊ , २५ मार्च . जन संस्कृति मंच ने हिन्दी के जाने माने आलोचक , प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव और "वसुधा" के संपादक डा० कमला प्रसाद के निधन पर गहरा शोक प्रकट किया है. आज जारी बयान में जसम लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने कहा कि कमला प्रसाद जी का जाना जनवादी और प्रगतिशील आन्दोलन का भारी नुकसान है. अपनी वैचारिक प्रतिबधता और साहित्य ओ समाज में अपने योगदान के लिए हमेशा याद किये जायेंगे . अयोध्या के सम्बन्ध में हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ साझा सांस्कृतिक पहल उन्होंने ली थी तथा संयुक्त सांस्कृतिक आंदोलनों में उनकी विशिष्ट भूमिका थी.

हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक कमला प्रसाद का आज शुक्रवार 25 मई की सुबह नई दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया । कैंसर से पीड़ित प्रसाद का लम्बे समय से इलाज चल रहा था. वह मध्यप्रदेश से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका वसुधा के सम्पादक और प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव थे । मध्य प्रदेश के सतना जिले के गांव धौरहरा में 1938 में जन्मे प्रसाद की प्रमुख कृतियां साहित्य शास्त्र, आधुनिक हिन्दी कविता और आलोचना की द्वन्द्वात्मकता, रचना की कर्मशाला, नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं । हिन्दी की महत्वपूर्ण पत्रिका "पहल" के संपादन में भी वे लम्बे समय तक ज्ञानरंजन के साथ रहे .

कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच लखनऊ


गुरुवार, 10 मार्च 2011

अनिल सिन्हा की याद ने सबको रूला दिया







शब्दों की दुनिया के लोग - लेखक, पत्रकार, संस्कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी ...... सब थे। ऐसा बहुत कम मौका आया होगा जब उन्हें शब्दों के संकट का सामना करना पड़ा हो। पर हालत ऐसी ही थी। किसी को भी अपने विचारों-भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे। एक-दो वाक्य तक बोल पाना मुश्किल हो रहा था। हिन्दी कवि वीरेन डंगवाल की हालत तो और भी बुरी थी। सब कुछ जैसे गले में ही अटक गया है। यह कौन सी कविता है ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पर वह कविता ही थी। उसके पास शब्द नहीं थे पर वह वेगवान नदीे की तरह बह रही थी। इतना आवेग, सीधे दिल में उतर रही थी। आँसूओं के रूप में बहती इस कविता को सब महसूस कर रहे थे। यह प्रकृति का कमाल ही है कि जहाँ शब्द साथ छोड़ देते हैं, शब्दों का जबान से तालमेल नहीं बैठ पाता, ऐसे में हमारी इन्द्रियाँ विचारों-भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम बन जाती हैं। 6 मार्च को अनिल सिन्हा की स्मृति सभा में ऐसा ही दृश्य था। बड़ी संख्या में साहित्यकार, पत्रकार, रंगकर्मी, कलाकार, बुद्धिजीवी, राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता, अनिल सिन्हा के परिजन, मोहल्ले के साथी, पास-पड़ोस के स्त्री-पुरुष सब इक्ट्ठा थे। अचानक अनिल सिन्हा के चले जाने का दुख तो था ही, पर सब उनके साथ की स्मृतियों का सझाा करना चाहते थे। किसी के साथ दस साल का, तो किसी से तीस व चालीस साल का और कुछ का तो जन्म से ही उनका साथ था और सभी उनके साथ बीताये क्षणों की स्मृतियों, अपने अनुभवों को आपस में बाँटना चाहते थे।

इस अवसर पर कवि भगवान स्वरूप कटियार और विमला किशोर ने अपनी भावनाओं को कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया। वे कविताएँ यहाँ दी जा रही हैं:

एक बेचैन आवाज


भगवान स्वरूप कटियार

जहां मेरा इंतजार हो रहा है
वहां मैं पहुंच नहीं पा रहा हूं
दोस्तों की फैली हुई बाहें
और बढे हुए हांथ मेरा इंतजार कर रहे हैं .

पर मेरी उम्र का पल पल
रेत की तरह गिर रहा है
रैहान मुझे बुला रहा है
ऋतु- अनुराग,निधि- अर‘ाद,
‘ाा‘वत- दिव्या और मेरी प्रिय आ‘ाा
और मेरे दोस्तों की इतनी बडी दुनिया
मैं किस किस के नाम लूं
सब मेरा इंतजार कर रहे हैं
पर मैं पहुंच नहीं पा रहा हू
मेरी सांसें जबाब दे रही हैं .

पर दोस्तो याद रखना
मौत ,वक़्त की अदालत का आखिरी फैसला नहीं है
जिन्दगी मौत से कभी नहीं हरती
मेरे दोस्त ही तो मेरी ताकत रहे हैं
इसलिए मैं हमे‘ाा कहता रहा हूं
कि दोस्त से बडा कोई रि‘ता नहीं होता
और ना ही दोस्ती से बडा कोई धर्म
मैं तो यहां तक् कहता हू
कि दोस्ती से बडी कोई विचारधारा भी नहीं होती
जैसे चूल्हे में जलती आग से बडी
कोई रो‘ानी नहीं होती .

इसलिए मेरी गुजारि‘ा है
कि उलझे हुए सवालों से टकराते हुए
एक बेहतर इंसानी दुनिया बनाने के लिए
मेरी यादों के साथ संघर्“ा का कारवां चलता रहे


मंजिल के आखिरी पडाव तक.

याद

विमला किशोर

एक पक्षी उड़ गया
मानो, हमारा प्यारा साथी छूट गया
वह पच्चीस तारीख थी
साल दो हजार ग्यारह का दूसरा महीना था
एक बिजली सी कौंध गई
आँखों में
चारो तरफ घिर आया अंधेरा
मन भी बहुत आहत हुआ
दूर, बहुत दूर चला गया वह बादलों के पार
झाँक रहा वह वहीं से
हम सबके दिलों मे
उजियारा फैलाता
आज भी खड़ा है
हम सबकी यादों में
जिन्दगी के मायने बताता
अटल
दैदिप्यमान
प्रकाश स्तम्भ की तरह
हम सबको राह दिखाता