बुधवार, 9 दिसंबर 2009

रंगमंच पर "आंबेडकर और गाँधी"

राजेश कुमार का नाटक
निर्देशन : अरविन्द गौर
कौशल किशोर


रंगमंच पर इतिहास के दो बड़े नायकों को ज्वलंत सामाजिक सवालों पर संवाद करते, समस्याओं से भरे इतिहास के उस जटिल दौर में आगे की राह तलाशते तथा वैचारिक रूप से गुत्थम-गुत्था होते देखना एक नया अनुभव है। ऐसा ही अनुभव राजेश कुमार का नाटक 'अम्बेडकर और गाँधी ' देता है। अस्मिता थियेटर ग्रुप, नई दिल्ली ने 29 नवम्बर 2009 को इस नाटक का मंचन लखनऊ के संत गाडगे प्रेक्षागृह ( उत्तरप्रदेश प्रदेश संगीत नाटक हैं ) में किया जिसकी परिकल्पना व निर्देशन अरविन्द गौड़ का था।

अम्बेडकर और गाँधी भारतीय राजनीतिक इतिहास के दो बहुप्रतिष्ठित नायक रहे हैं। शूद्र जहाँ अम्बेडकर के लिए दलित हैं, वहीं गाँधी की नजर में हरिजन हैं। जाति, वर्ण, अस्पृश्यता, धर्म - जैसे मुद्दों पर गाँधी व अम्बेडकर के बीच बहसें होती हैं। हिन्दू सवर्णों के द्वारा शूद्र समाज को अपमानित व अवहेलित किये जाने वाली स्थितियों को दोनों समाप्त करना चाहते हैं तथा शूद्रों का उद्धार और सामाजिक प्रतिष्ठा चाहते हैं। लेकिन हिन्दू धर्म में व्याप्त वर्णाश्रम व्यवस्था तथा इस व्यवस्था के उन्मूलन के सवाल पर गाँधी और अम्बेडकर के बीच तीखा द्वन्द्व है। राजेश कुमार का नाटक इस द्वन्द्व को उभारता है।

रंगमंच पर आंबेडकर और गाँधी के बीच बहसें होती हैं। विभिन्न मुद्दों पर उनका अपना नजरिया सामने आता है। वे एक-दूसरे को अपने विचारों से प्रभावित करना चाहते हैं। गाँधी चाहते हैं कि अम्बेडकर उनके हरिजन प्रेम और हरिजन उद्धार के विचारों को समझें, उनका समर्थन करे। अम्बेडकर को दलितों के लिए गाँधीजी की ‘दया’ नहीं अधिकार चाहिए। दोनों के विचारों के तरकश में तर्कों के तीरों की कमी नहीं और वे एक-दूसरे पर विचारों के वाणों का भरपूर प्रहार करते हैं। उनके अपने-अपने तर्क हैं। कोई भी अपने विचारों से एक सूत तक पीछे हटने को तैयार नहीं। विभिन्न मुद्दों पर चलने वाली बहसें कई बार तीखी हो उठती हैं। कई बार बहस टकराहट और वैचारिक उŸोजना के चरम बिन्दु पर पहुँच जाती है। फिर भी व्यक्तिगत स्तर पर कटुता नहीं आती और संवाद जारी रहता है।

अम्डेकर दलितों के लिए अलग निर्वाचन की अपनी मांग पर डटे रहते हैं। अम्बेडकर के विचारों का जब कोई काट गाँधी के पास नहीं बचता, ऐसी स्थिति में वे अपने अनशन के हथियार का प्रयोग करते हैं। गाँधीजी की हालत खराब होने लगती है। उनके पुत्र देवदास गाँधी प्राण बचाने का अनुरोध लेकर अम्बेडकर के पास आते हैं। अम्बेडकर के लिए यह द्वन्द्व से भरे क्षण हैं। एक तरफ उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता है तो दूसरी तरफ गाँधीजी की प्राण रक्षा का सवाल है। नाटक में यह दृश्य अत्यन्त प्रभावशाली है जब अम्बेडकर की जीवन संगिनी रमा बाई उनसे कहती हैं कि लोग अपनी जान बचाने के लिए महात्मा के पास जाते हैं लेकिन आज आपको उनकी जान बचाने का मौका मिला है जिन्हें लोग महात्मा मानते हैं। अम्बेडकर राजनीति से दूर सीधी-सरल रमा बाई के विचारों की गहराई से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। उनका द्वन्द्व समाप्त हो जाता है और वे गाँधी से मिलने के लिए तैयार हो जाते हैं।

गाँधी की प्राण रक्षा और कांग्रेसियों के दबाव की वजह से अम्बेडकर और गाँधी के बीच ऐतिहासिक पूना समझौता होता है फिर भी वर्णाश्रम व्यवस्था और धर्म, जाति, अस्पृश्यता आदि के मुद्दे पर उनके वैचारिक मतभेद बने रहते हैं और ऐतिहासिक विकासक्रम में ये दोनों विपरीत दिशा ग्रहण करते हैं। नाटक ‘अम्बेडकर और गाँधी’ में इन दोनों पात्रों के विचारों का चरम मार्मिक रूप सामने आता है जहाँ अम्बेडकर यह कहते हुए सामने आते हैं कि मेरा जन्म हिन्दू के रूप में हुआ, इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं थे लेकिन वे एक हिन्दू के रूप में मरे, यह उन्हें स्वीकार नहीं और वर्णाश्रम व्यवस्था के विरोध में अन्ततः वे अपना धर्म परिवर्तन कर लेते हैं। वहीं गाँधी की अभिलाषा अगले जन्म में किसी भंगी महिला की कोख से पैदा होनेे के रूप में अभिव्यक्त होती है।

गाँधी की हत्या कर दी जाती है। यह अम्बेडकर को आहत करने वाली खबर थी। वे कहते हैं कि गाँधीजी के विचारों से उनकी कभी भी सहमति नहीं रही लेकिन बहस और संवाद चलता रहा। लेकिन जिस हिन्दू धर्म की एकता और वर्ण व्यवस्था की रक्षा के लिए गाँधीजी तर्क देते रहे, उसके पक्ष में सारी जिन्दगी काम करते रहे, उसी हिन्दू धर्म की संकीर्णता को उनका उदारवाद और धर्म निरपेक्षता बरदाश्त नहीं था और उन्हें हिन्दू धर्म की साम्प्रदायिकता और कट्टरता का शिकार होना पड़ा। नाटक हिन्दू साम्प्रदायिकता के असहिष्णु व फासीवादी रूप को भी सामने लाता है जहाँ विचार, विरोध, तर्क, संवाद जैसे शब्द बेमानी हो जाते हैं।

नाटक के दो मुख्य पात्र हैं - अम्बेडकर और गाँधी पूरा नाटक इनके इर्द-गिर्द चलता है। नाटक में ये दोनों पात्र आज के अम्बेडकर और गँाधी, जो प्रतिमाओं में कैद हैं, से अलग हैं . न महात्मा ये हैं और न मसीहा बल्कि मनुष्य हैं जिनमें खूबियां हैं तो मानवीय दुर्बलताएं भी हैं। लेकिन आज की पीढी इन्हे ' महात्मा ' और ' मसीहा ' के रूप में ही ज्यादा जानती है क्योंकि इनका परिचय बहुत-कुछ इसी रूप में कराया गया है। यहाँ पूजा भाव अधिक है। नाटक इस इमेज को तोड़ता है और नई पीढ़ी के अन्दर इतिहास को फिर से जानने-समझने की उत्सुकता पैदा करता है।

राजेश कुमार का यह नाटक विचार प्रधान है। इसका सारा ताना-बाना बहस और संवाद पर आधारित है। चूँकि यह बहस आज भी जारी है, इसलिए यह असमाप्त संवाद है। आमतौर पर हिन्दी में संवाद पर आधारित राजनीतिक नाटकों का अभाव रहा है। इस तरह के नाटकों के साथ सपाटता और ऊबाऊपन का खतरा बना रहता है। पिछले दिनों लखनऊ की एक गोष्ठी में इस नाटक के आलेख का राजेश कुमार के द्वारा पाठ किया गया था। उस गोष्ठी में कई रंग निर्देशकों व कलाकारों का कहना था कि नाटक पर विचार और संवाद का बोझ है। उनकी टिप्पणी थी कि नाटक मात्र संवाद नहीं होता है.

लेकिन ' आंबेडकर और गाँधी ' की प्रस्तुति इस टिप्पणी को खारिज करती है। अरविंद गौड़ के निर्देशन और परिकल्पना की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने नाटक की प्रमाणिकता की रक्षा करते हुए संवादों पर केन्द्रित इस नाटक में कथा तत्वों, गीत-संगीत व दृश्यों का बेहतर संयोजन प्रस्तुत किया जिसने नाटक को पूरा गतिमय बनाये रखा। इस नाटक में अवतार सिंह पाश की कविता ‘हम लड़ेंगे साथी’, ‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना’, शंकर शैलेन्द्र, भूपेन हजारिका व बाॅब दायलान के गीतों का बहुत सुन्दर इस्तेमाल हुआ है। दो दर्जन से अधिक कलाकार जब इन कविताओं और गीतों के साथ कोरस प्रस्तुत करते हैं तो इतिहास और अतीत का संघर्ष दर्शकों के सामने सजीव हो उठता है। गाँधी की भूमिका में वीरेन बसाया, अम्बेडकर के रूप में बजरंग बली सिंह, रमा बाई की भूमिका में शिल्पी मारवाह के साथ करीब तीस से अधिक कलाकारों से सजे इस नाटक की संगीत रचना डा0 संगीता गौर ने की।

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