मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

भगवान स्वरूप कटियार का कविता पाठ


‘वह बच्चा मेरी आँखों से दुनिया को देखेगा’

कौशल किशोर

मैं वापस कर आया हूँ
उनका दिया हुआ
रोबदार हैट
वजनदार बूट
और तमाम गुनाहों से सनी लथपथ वर्दी

मैं छोड़ आया हूँ
मेज और कुर्सी भी
जिस पर बैठकर
बेबसी में अनचाहे
हमें करने पड़े थे
घटिया और घृणित समझौते

आज खुली हवा में
अपने मित्रों के बीच
सांस लेते हुए
मैं महसूस कर सकता हूँ
जीवन कितना सुन्दर है

ये पंक्तियां हैं भगवान स्वरूप कटियार की कविता ‘मुक्ति का सौंदर्य’ की जिसे उन्होंने राज्य सूचना केन्द्र, हजरतगंज, लखनऊ में जन संस्कृति मंच (जसम ) के द्वारा 21 जनवरी 2010 को आयोजित कार्यक्रम में सुनाई। इसी महीने कवि कटियार साठ साल के हुए और पिछले महीने की 31 तारीख को सूचना विभाग से सहायक निदेशक के पद से सेवामुक्त हुए। जसम ने कार्यक्रम उन्हीं पर केन्द्रित किया था।

इस मौके पर भगवान स्वरूप कटियार ने ‘इक्कीसवीं सदी की बीसवीं सदी के नाम चिट्ठी’, ‘हवा में घुलता आदमी’, ‘जंगल मेरे मित्र’, ‘टुकड़े टुकड़े मौत’, ‘मां’, ‘आदमी होने का व्याकरण’, ‘मेरे न होने पर’ सहित करीब एक दर्जन से अधिक कविताओं का पाठ किया और अपनी कविता के विविध रंगों से श्रोताओं का परिचय कराया। उनकी ये पंक्तियां काफी अन्दर तक संवेदित करती रहीं:

‘मैं खत्म हो जाऊँगा पूरी तरह
यह तय है
हाँ, यकीनन मैं मर जाऊँगा............
पर वह बच्चा
जो मेरी कविता पढ़ रहा है
मेरी आँखों से दुनिया को देखेगा।’

कविता पाठ से पहले भगवान स्वरूप कटियार ने अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि एक स्वतंत्रचेता रचनाकार के लिए सृजन एक खिलवाड़ न होकर गंभीर दायित्व के निर्वहन की समन्वित प्रक्रिया है। सार्थक रचना सदैव किसी बड़े सरोकार से जुड़ी होती है और इसीलिए वह लोकरुचि से भी जुड़ी होती है। रचनाकार उस लोक की बात जरूर करेगा जिसमें वह साँस ले रहा है। साहित्य की चिन्ता सही फैसले की चिन्ता है जो हमें बड़े चिन्तन के क्षेत्र में ले जाती है। मेरी कविताओं का मकसद न तो कोई नजरिया पेश करना है और न ही राजनैतिक नारों की तरह बेवजह शोर मचाना है। आखिर जीवन मूल्यों, बेहतर जिन्दगी और बेहतर समाज के लिए हमें कुछ कुर्बानियाँ तो देनी ही होगी, जिससे हम आज मुकरने लगे हैं। लिखने-पढ़ने के क्षेत्र में चाहे जितनी प्रतिकूल परिस्थितियाँ हो जायें, रचना और रचनाकार बचे रहेंगे बल्कि समाज को भी बचाये रख सकेंगे -

लिखे जाने से भले हीफर्क न पड़ता हो
पर न लिखे जाने से बहुत फर्क पड़ता है
जैसे बोलने से भले ही फर्क न पड़ता हो
पर चुप्पी तो प्रतिरोध का निषेध है
इसलिए सोचना बोलना
पढ़ना और लिखना परिवर्तन की बुनियादी शर्त है

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ लेखक व समीक्षक अनिल सिन्हा ने कहा कि भगवान स्वरूप कटियार को हिन्दी कवि समाज हाशिये पर रखता है। इसका कारण शायद यह है कि रचनाकारों की जो साहित्यिक गोलबंदी है, उसमें कटियार कोई पहल नहीं लेते। वे सच को सीधे कहने का साहस करते हैं जिससे उनकी सामाजिक चिन्ताएँ व सरोकार का पता चलता है। यानी वे एक स्वस्थ-सुसंस्कृत-संवेदनशील और अपने हक के लिए लड़ने वाले समाज की कल्पना करते हैं। उनका काव्य प्रयास इसी तरफ प्रेरित है। तमाम घटनाओं पर वे तत्काल प्रतिक्रिया देते हैं जिससे उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता और सामाजिक सजगता का पता चलता है।

कवि व समीक्षक कौशल किशोर ने भगवान स्वरूप कटियार की कविता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इनकी कविताएँ लोकतांत्रिक चेतना की कविताएं हैं जिसमे लोकतांत्रिक व्यक्ति का संघर्ष, उसकी इच्छा-आकांक्षा की अभिव्यकित होती है। कटियार का व्यक्तित्व बहुत सरल-सहज है, उनकी कविता की दुनिया भी ऐसी ही है, बहुत आत्मीय। इनको पढ़ते हुए बार-बार लगता है कि यहाँ हमारी ही दुनिया अभिव्यक्त हो रही है। इनकी कविताओं में माँ,, प्रेम, दुख, ख्वाब, दलदल, घर और वह घरती है जो आज निशाने पर है। ये हमारे जटिल यथार्थ की सहज-सरल कविताएँ हैं और यही कटियार की काव्य खासियत है।

इस मौके पर कटियारजी की बेटी युवा लेखिका व पत्रकार प्रतिभा कटियार ने कहा कि बचपन से मैं देखती आई हूँ कि पापा के अन्दर विद्रोही स्वर है। दुख व कष्ट आये हैं लेकिन वे उनसे लड़ते हुए आगे बढ़े है। एक तड़प, कुछ कहने की छटपटाहट तथा विचारों के प्रति दृढता उनमें है। वे हार न मानने वाले ऐसे पिता हैं जिन्होंने मेरे और मेरे भाई के अन्दर संघर्ष की प्रेरणा दी है। यही संघर्ष इनकी रचनाओं में भी अभिव्यक्त होता है। पापा में जबरदस्त आशावाद है।

भगवान स्वरूप कटियार की कविताओं पर बालते हुए आलोचक चन्द्रेश्वर का कहना था कि ये कविताएँ समकालीन कविता के आज के प्रचलित मुहावरे से अलग हैं। यहाँ दुख की बात कही गयी है लेकिन ये कविताएँ दुखवादी नहीं हैं। यहाँ दुख का दिखावा नहीं हैं। घर परिवार से लेकर देश दुनिया तक के विषय को लेकर चिन्ताएँ हैं, इनका फैलाव है। यह हारती नहीं हैं, संघर्ष की बात करती हैं और बखूबी संप्रेषित होती हैं। चन्द्रेश्वर ने ‘स्त्री और रोटी’ कविता को लेकर सवाल किया कि क्यों रोटी बनाती हुई स्त्री ही सुन्दर लगती है। स्त्री के सौंदर्य को इस रूप में देखना परम्परावादी व पुरुषवादी सोच है।

कवि वीरेन्द्र सारंग ने कहा कि वरिष्ठता के बावजूद कटियार की कविताओं में युवापन है। इनका कथ्य बहुत मजबूत है। इनकी कई कविताओं में ईश्वर आता है लेकिन ईश्वर को लेकर जो विचार, भाव व आलोचना है, वह प्रभावित करता है। वहीं ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव का कहना था कि ब्रेख्त की कविताओं में अंधेरा हावी रहता है लेकिन कटियार की कविताएँ अंधेरे से उजाले की यात्रा करती है।

समकालीन कविता पर कथाकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा की टिप्पणी ने बहस में गरमी पैदा कर दी। उनका कहना था कि 70 के बाद की कविताएँ लोक सं कटी हुई शहरी कविताएँ हैं। ये पाठकों को आतंकित करती हैं। हालत यह है कि कवि अपनी कविताएँ याद नहीं रख पाता लेकिन वह चाहता है कि पाठक उसकी कविता को पढ़े और याद रखे। कहानी की भी कमोबेश यही हालत है। आज की कविताओं में गेयता का अभाव है। इसीलिए यह समाज व पाठक से दूर होती जा रही है।

कवि अशोक चन्द्र का कहना था कि लोक को सीमित अर्थ में न देखकर उसे आधुनिक रूप में देखने की जरूरत है। यह लोक गाँवों से लेकर शहरों तक फैला है तथा विकास के इस दौर में उसका इस्तेमाल हुआ लेकिन वह स्वयं हाशिए पर ढ़केल दिया गया है। हाशिये का यह लोक कविता के केन्द्र में आये, कविता में इस लोक की समझ हो तथा कविता इससे संवाद करे, ऐसी ही कविता बड़ी हो सकती है।

संस्कृतिकर्मी प्रतुल जोशी व बुद्धिजीवी अशोक मिश्र ने पंत और निराला का उदाहरण देते हुए कहा कि कविता गेय हो, यह जरूरी नहीं है। लेकिन कविता का लयात्मक होना जरूरी है। कविता विचार को अलग तरीके से कहती है यही उसकी विशिष्टता है। कविता में बुद्धिजीवी जब हावी होता है तो कविता कमजोर हो जाती है। भगवान स्वरूप कटियार की कविताओं में विचारों की उष्मा के साथ आम आदमी का संघर्ष है और ये रिश्तों की आत्मीयता से पूर्ण हैं।

महिला नेता ताहिरा हसनराघवेन्द्र का कहना था कि स्त्री, घर व परिवार को लेकर कविताओं में पारम्परिक विचार है जिस बारे में कटियारजी को सचेत रहने की जरूरत है। ‘हिजड़ा’ जैसे विशेषण का इस्तेमाल जिस तरह किया गया है, वह उचित नहीं है क्योंकि यह समुदाय मानव समाज का हिस्सा है, उपेक्षित है और गलत नजरिये से इसे देखा गया है। लेकिन आज उनमें भी संघर्ष की चेतना फैल रही है।

कार्यक्रम के अन्त में कवि, कलाकार व अभिनेता निर्मल पाण्डेय के निधन पर जन संस्कृति मंच ने एक मिनट का मौन रखकर अपनी शोक संवेदना प्रकट की। इस मौके पर नाटककार राजेश कुमार ने उनके योगदान की चर्चा की और कहा कि वे नैनीताल के युवमंच और जसम से सांस्कृतिक यात्रा शुरू की थी। बाद में वे कला अभिव्यक्ति के बड़े आयाम की तलाश में मुम्बई तक गये। उनमें कला की बड़ी संभावना थी।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

गोरखपुर फिल्म समारोह

चौतरफा प्रतिरोध की जरूरत-सईद मिर्जा

गोरखपुर। समाज में हाशिए के लोगों और उनके जीवन संघर्षों को संबोधित गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का शुभांरभ गुरूवार को यहां ाड़े ही जोशोखरोश के साथ शुरू हो गया । फिल्म समारोह का उद्घाटन जाने माने फिल्मकार सईद मिर्जा ने किया । इस अवसर पर उनकी दो फिल्मों सलीम लगड़े पे मत रो और अलवर्ट पिन्टो को गुस्सा क्यों आता है प्रदर्शित की गर्इं । सात फरवरी तक चलने वाले इस फिल्मोत्सव के दौरान 5 फ ीचर फिल्में , 6 डाक्यूमेंटरी ओर 3 एनीमेशन फिल्में दिखाई जाएंगी । फिल्मोत्सव के उद्घाटन अवसर पर दास्तानगोई का प्रदर्शन आकर्षण का केन्द्र बना रहा ।

उद्घाटन अवसर पर मिर्जा ने कहा पूंजीवादी वैश्वीकरण के इस दौर में चौतरफा प्रतिरोध की बेहद जरूरत है ,प्रतिरोध का शब्द मुझे बहुत पसंद है । उनका कहना था जो लोकतंत्र आज हमारे सामने है, वह जनता का तंत्र नहीं है । इस लोकतंत्र का पूंजीवाद, स्टाक मार्केट और नेस्ले-कोकाकोला जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ गहरा रिश्ता है । यह तंत्र आम आदमी की आकांक्षाओं,खुशियों और हक अधिकार की आवाज को कुचलने वाला तंत्र है । ऐसे दौर में जनता के दर्द और उम्मीद को अभिव्यक्ति देना भी प्रतिरोध है । कभी न्यू वो सिनेमा ने भी यह काम किया लेकिन 1990 के बाद उदारीकरण के दौर में इस तरह के सिनेमा बनने कम हो गए और फिल्म सोसाइटियां भी खत्म हो गई । इस तरह के सिनेमा के निर्माण में जो मदद मिलती थी, उसे भी सत्ता ने जानबूझ खत्म किया। ऐसी स्थिति में जनसंस्कृति मंच द्वारा जनता के सहयोग से गंभीर और जनपक्षधर फिल्मों के दर्शकों को संगठित करने और इस तरह के फिल्मों के निर्माण का माहौल ानाना काफी उम्मीद जगाता है।

अलवर्ट पिंटों को गुस्सा क्यों आता है,मोहन जोशी हाजिर हों, सलीम लगड़े पे मत रो और नसीम जैसी चर्चित फिल्में और नुक्कड़,सरकस,ए ट्रिस्ट विथ द पिपुल आफ इंडिया जैसे वृत्तचित्र और धारावाहिक बनाने वाले सईद मिर्जा ने कहा इस देश में कारपोरेट की मदद से भी फिल्म फेस्टिवल होते हैं ,पर वे वहां नहीं जाते।उदघाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि 1990 के बाद वैश्वीकरण के जरिए जो आर्थिक राजनीतिक व्यवस्था बनी ,उसने सिर्फ न्यू वो सिनेमा को ही हाशिए पर डाला,बल्कि ट्रेड यूनियन आंदोलन,किसान आंदोलन,समाज से मूल्यों की दुनिया,नौजवानों के दिलसों में मौजूद आदर्शों की दुनिया को भी हाशिए पर डाला । इतने बड़े मध्य वर्ग के भीतर गरीबों के प्रति करूणा होनी चाहिए थी ,वह भी हाशिए पर गई ।

फिल्मोत्सव क दूसरे दिन की शुरूआत महान फिल्मकार ऋत्विक घटक की क्लासिक फिल्म मेघे ढाका तारा से हुई । यह फिल्म एक स्त्री के अपने पारिवारिक संबंधों के प्रति फर्ज और वेयक्तिक स्ज्ञतर पर प्रेम की स्वाभाविक मानवीय आकांक्षाओं के बीच तीखे द्वंद्व की एक त्रासद दास्तान है । परंपरागत पारिवारिक मूल्य जिसमें सेवा ,कुर्बानी को स्त्रियों के लिए श्रेष्ठता का पैमाना बना दिया जाता है और जहां उनकी ोहद आंतरिक-प्रकृतिक आकांक्षाा को कुचल दिया जाता है, उस रिवाज को यह फिल्म चुनौती देती है। शुक्रवार को दर्शकों को एट माइ डोर स्टेप और आई वंडर नामक दो डाक्यूमेंटरी दिखाई गई । निष्ठा जैन द्वारा निर्देशित एट माइ डोर स्टेप महानगरों के मध्यमवर्गीय-उच्चवर्गीय लोगों के दरवाजे पर रोज दस्तक देने वाले मेहनतकशों यानी कूड़ा उठाने वाले ,घरेलू कामकरने वाले,कूरियर- गार्ड आदि का काम करने वालों की जिंदगी को दर्शाता है।

निरूपमा श्री निवासन निर्देशित डाकयूमेंटरी आई वंडर राजस्थान, सिक्किम ,और तमिलनाडु के ग्रामीण बच्चों की यात्रा और उनके रोजमर्रा के अनुभवों के बीच से दर्शकों को गुजारते हुए शिक्षा की विसंगतियों पर गंभीरता से सोचने के लिए प्रेरित करती है ।बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा किस तरह की होनी चाहिए ,इसकी इस डाक्यूमेंटरी से एक दिशा मिलती है । दूसरे दिन प्रदर्शित आखिरी फिल्म नसीम थी जिसका निर्देशन सईद मिर्जा ने किया है । यह फिल्म आजादी के पहले और बाद के मुस्लिम समाज की त्रासदियों का ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह है ।बाबरी ध्वंस के जरिए जिस सेकुलर ढांचे को गहरा नुकसान पहुंचाया गया, उसने मुस्लिम मन पर क्या असर डाला उसकी यह दास्तान है।

गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संयोजक मनोज कुमार सिंह ने ाताया फिल्मोत्सव में इस बार चित्तो प्रसाद,जैनुल आोदिन,सोमनाथ के चित्रों की प्रदर्शनी भी लगाई गई है ,जिसे अशोक भौमिक और अनुपम ने क्यूरेट किया है । सिंह ने बताया फिल्म समीक्षक- आलोचक जारी मल्ल पारख के आलेख आम आदमी का सिनेमा बनाम सिनेमा का आम आदमी का पाठ भी उत्सव का एक आकर्षण था । पाठ संजीव कुमार ने किया ।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

ये धुआं धुआं अँधेरा

मोहन थपलियाल की याद में हरिओम का कहानी पाठ

कौशल किशोर

‘ये धुआँ धुआँ अंधेरा’ कहानी है त्रासदी की। कहानी है सपने के बुनने और टूटने की। कहानी है हमारे लोकतंत्र व धर्म निरपेक्षता की सच्चाई की। युवा कवि-कथाकार हरिओम की यह कहानी ‘ये धुआँ धुआँ अंधेरा’ की विषय वस्तु साम्प्रदायिक फासीवाद के उभार के द्वारा हमारे समाज के वातावरण को विषाक्त बना दिये जाने पर केन्द्रित है। यह उन मुस्लिम और हिन्दू युवाओं - नसीम, अनीस, जयराज ...की कहानी है जो विभिन्न पृष्ठभूमि से आते हैं, उनके पास अपने सपने हैं लेकिन देश, दुनिया, समाज से रु ब रु होने पर पुराने सपनों की जगह वे नये सपने देखने लगते हैं। लूट, शोषण, दमन, अत्याचार से भरी इस दुनिया को बदलने का संघर्ष उनके अन्दर पैदा होता है। वे साथी बन जाते हैं। अपनी मंडली बन जाती है। वहाँ सवाल, संवेदना, बहसें और विचार की दुनिया है। यहां समाज बदलने का सपना है। जिन्दगी की मुश्किल लड़ाई को लड़ने का जज्बा है। नसीम और जयराज के बीच प्रेम के अंकुर जरूर फूटते हैं लेकिन उसमें साथीपन है। यह साथीपन आधुनिक, प्रगतिशील, स्वतंत्र व समता के विचारों पर आधारित है।

युवाओं के सपनों पर चोटें पड़ती है जब देश के माहौल में धर्म और साम्प्रदायिकता का उभार आता है। मुद्दे बदलते हैं। हिंसा, नफरत और अविश्वास का माहौल पैदा किया जाता है। एक तरफ कान के परदे फाड़ देने वाला शोर है ताकि वेदना की चीखें सुनाई न दे तो दूसरी तरफ खामोशी है इसलिए कि गुनाह बेपरदा न हो जाय। यह दौर है 1992 का जब भगवान के नाम पर बस्तियां जला दी जाती हैं, बड़े पैमाने पर दंगे होते हैं, धर्म निरपेक्षता और लोकतंत्र की होली जलाई जाती है। उन जलाई गई बस्तियों में एक बस्ती नसीम की भी है। वह नसीम जो सुबह की हवा की तरह ताजा थी, अपने विचारों में आधुनिक, स्वतंत्र और संघर्ष के जज्बे से भरी - उसके लिए हिला देने वाली घटना है। उसके अन्दर के प्रतिरोध की ताकत चुकने लगती है। वह अपनी लुटी - पिट्टी बस्ती में वापस लौट जाती है। वह सवाल छोड़ जाती है। यह कहानी पाठक को त्रासदी के गहरे समन्दर में ले जाती है जहाँ उसे लोकतंत्र के सही मायने को समझना है और संघर्ष के नये ताने-बाने बुनने हैं।

हरिओम ने अपनी इस कहानी का प्रभावशाली पाठ किया। मौका था कथाकार, पत्रकार व अनुवादक मोहन थपलियाल की याद में जन संस्कृति मंच (जसम ) द्वारा आयोजित कार्यक्रम का। यह 31 जनवरी को महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के लखनऊ केन्द्र में आयोजित हुआ। कहानी पर अच्छी चर्चा हुइ जिसमें गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव,, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजेश कुमार, भगवान स्वरूप कटियार, नसीम साकेती, चन्द्रेश्वर, वंदना मिश्र, सुशीला पुरी, मालविका, अशोक मिश्र, रवीन्द्र कुमार सिन्हा, ताहिरा हसन आदि ने भाग लिया।

कुछ वक्ताओं का कहना था कि नसीम का पात्र कृत्रिम व बनावटी लगता है। बेहतर होता अगर उसे प्रेमिका और सिगरेट पीते हुए न पेश किया जाता। इस छवि से वह रोमांटिक ज्यादा लगती है, आन्दोलनकारी कम। वहीं कुछ वक्ताओं का कहना था कि नसीम का सिगरेट पीना कोई नई बात नहीं है और यह पात्र का निजी मामला है। वह अपने विचार व व्यवहार से छात्राओं की नेता भी बनती है। प्रेम और क्रान्ति एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं। नसीम और जयराज प्रेम भी करते हैं और बुनकरों की बस्ती में भी जाते हैं। वक्ता इस बात पर सहमत थे कि बाबरी मस्जिद ध्वंस की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कहानी हमें गहरे रूप से संवेदित करती है और फासीवाद के भयावह रूप को सामने लाती है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए लेखक व पत्रकार अजय सिंह ने कहा कि यह आधुनिक संवेदना की कहानी है। कहानी की पात्र नसीम स्त्री समानता के लिए संघर्ष करती है। पारम्परिक वामपंथी मानसिकता के लिए नसीम का व्यवहार अस्वाभाविक लग सकता है लेकिन वह स्त्री पुरुष समानता पर आधारित आधुनिक विचारों वाली स्त्री है और इस समानता के लिए वह संघर्ष करती है। उत्तर आधुनिकता से अलग उसमें आधुनिक लोकतांत्रिक अकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है। कहानी अपने शिल्प में काफी सशक्त और प्रभावकारी है।

जसम के इस कार्यक्रम की शुरूआत मोहन थपलियाल को याद करते हुए हुई। मोहन थपलियाल के साथ के अपने दिनों तथा उनके रचना कर्म को याद करते हुए लेखक अनिल सिन्हा ने कहा कि मोहन में जहाँ गहरी वैचारिक प्रतिबद्धता थी, वहीं उन्होंने सारी जिन्दगी समझौताविहीन संघर्ष चलाया और उनका रचना कर्म इसी की उपज था। उनके जीवन का संघर्ष हमें बहुत कुछ मुक्तिबोध के संघर्ष की याद दिलाता है। मोहन गंभीर रूप से बीमार हुए और असमय हमारे बीच से चले गये। उनकी चिन्ता थी एक बेहतर समाज को बनाने की। वे फासीवाद विरोधी रचनाकार थे। इसी से उनका रचना संसार निर्मित होता है। फासीवाद विरोधी जर्मन और विदेशी साहित्य खासतौर से ब्रतोल्त ब्रेख्त के साहित्य को हिन्दी के पाठकों तक पहुँचाने का उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किया।

इस मौके पर मोहन थपलियाल की पत्नी कमला, बेटी नीति व बेटा उमंग के अलावा बड़ी संख्या में लखनऊ के लेखक व संस्कृतिकर्मी भी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन कवि व जसम, लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने किया।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

दिल्ली पुस्तक मेला में जसम का अभियान

जन संस्कृति मंच ने अपने घोषित कार्यक्रम के तहत आज से विश्व पुस्तक मेले में साहित्यकारों और पाठकों के बीच साहित्य के कारपोरेटाइजेशन के खिलाफ अभियान के शुरुआत की। आज पुस्तक मेले के गेट न. 12 पर कवि आलोचक विष्णु खरे, कवि शोभा सिंह, कथाकार योगेन्द्र आहूजा, कवि रंजीत वर्मा, कवि कुमार मुकुल, उद्भावना के संपादक अजेय कुमार, कवि अच्युतानन्द मिश्र, जनमत पत्रिका के संपादक सुधीर सुमन, कवि मुकुल सरल, जसम दिल्ली की सचिव भाषा सिंह, कवि सुनील चौधरी, खालिद, उपेन्द्र, सुलेखा, रूबल, सखी, सहर आदि ने साहित्य अकादमी और सैमसंग के गठजोड़ के मामले में भारत सरकार और संस्कृति मन्त्रालय की भूमिका पर सवाल उठाने वाली तिख्तयां उठा रखी थीं। इसी दौरान आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने भी इस अभियान के समर्थन में वहां कुछ देर खड़े हुए।

वहां गुजरने वाले साहित्यप्रेमियों और साहित्यकारों को पर्चे भी दिए जा रहे थे, जिनमें राष्ट्रीय साहित्य अकादमी की स्वायत्तता बरकरार रखने, टैगोर सरीखे साहित्यकारों की विरासत की रक्षा करने, अकादमी को कारपोरेट के प्रचार एजेंसी न बनने देने की अपील की गई थी। टैगौर के उद्धरणों वाले पर्चे जिनमें स्वाधीनता के मूल्यों का जिक्र है, भी लोगों को दिए गए।जसम द्वारा यह अभियान पुस्तक मेले में रोजाना 2 बजे से 4 बजे के बीच जारी रहेगा। जो लोग साहित्य अकादमी की स्वायत्तता और उसके लोकतान्त्रिकरण के पक्ष में हैं उन पाठकों और साहित्यकारों के बीच कल से हस्ताक्षर अभियान भी चलाया जाएगा।
भाषा सिंह सचिव, जनसंस्कृति मंच(जसम)दिल्ली

साहित्य की स्वाधीनता और जन पछधर परम्परा का उपहास

सुधीर सुमन

साहित्य की स्वाधीन और जनपक्षधर परंपरा का उपहास है समसुंग पुरस्कार । सैमसंग कंपनी और साहित्य अकादमी की ओर से दिया जा रहा टैगोर साहित्य पुरस्कार साहित्य की स्वायत्ता, भारतीय साहित्य की गौरवशाली परंपरा और टैगोर की विरासत के ऊपर एक हमला है। देश की तमाम भाषाओं के साहित्यकारों व साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों को इस प्रवृत्ति कासामूहिक तौर पर प्रतिरोध करना चाहिए। साहित्य अकादमी को सत्तापरस्ती और पूंजीपरस्ती से मुक्त किया जाना चाहिए। जिस तरह साहित्य अकादमी ने लेखकों का नाम चयन करके पुरस्कार के लिए समसुंग के पास भेजा है वह भारतीय साहित्यकारों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाला कृत्य है और इससे साहित्य अकादमी की स्वायत्तता पर प्रष्नचिह्न लग गया है। क्या अब इस देश की साहित्य अकादमी समसुंग जैसी कंपनियों के सांस्कृतिक एजेंट की भूमिका निभाएगी? यह खुद अकादमी के संविधान का उपहास उड़ाने जैसा है।

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर दिए जाने वाला यह पुरस्कार स्वाधीनता और जनता के लिए प्रतिबद्ध इस देश की लंबी और बेमिसाल साहित्यिक परंपरा पर कुठाराघात के समान है। बेशक देश की ज्यादातर पार्टियां और उनकी सरकारें साम्राज्यवादपरस्ती और निजीकरण की राह पर निर्बंध तरीके से चल रही हैं। देशी पूंजीपति घराने भी साहित्य-संस्कृति को पुरस्कारों और सुविधाओं के जरिए अपना चेरी बना लेने की लगातार कोशिश करते रहे हैं, बावजूद इसके देश के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों की बहुत बड़ी तादाद अपनी रचनाओं में इनका विरोध ही करती रही है। साहित्य अकादमी और समसुंग के पुरस्कारों के जरिए इस विरोध को ही अगंूठा दिखाने का उपहासजनक प्रयास किया जा रहा है और इसके लिए समय भी सोच समझकर चुना गया है। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्यापर पूरे देश को एक तरह का संकेत देने की तरह है कि जैसी साम्राज्यवादपरस्त जनविरोधी अर्थनीति पिछले दो दशक में इस देश पर लाद दी गई है, वैसे ही मूल्यों को साहित्य में प्रश्रय दिया जाएगा और साहित्य अकादमी जैसी अकादमियां इसका माध्यम बनेंगी।

बेशक साहित्य अकादमी सरकारी अनुदान से चलती है, मगर इसी कारण उसे सरकारी संस्कृति का प्रचार संस्थान बनने नहीं दिए जा सकता। जिस पैसे के जरिए यह अकादमी चलती है वह पैसा जनता के खून-पसीने का है और इसीलिए उस संस्था का एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के जश्न का ठेकेदारी ले लेना आपत्तिजनक है। इस पुरस्कार का विरोध करना साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों के साथ-साथ इस देश की जनता का भी फर्ज है।साहित्य अकादमी को और भी स्वायत्त बनाने और सही मायने में एक लोकतां़ित्रक देश की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी बनाने की जरूरत है। जिस शर्मनाक ढंग से समसुंग के समक्ष समर्पण किया गया है उसे देखते हुए सवाल खड़ा होता है कि क्या साहित्य अकादमी की विभिन्न समितियों में जो लेखक हैं, वे इस हद तक पूंजीपरस्त हो चुके हैं। उनका यह विवेकहीन निर्णय इस जरूरत को सामने लाता है कि अकादमी को लोकतांत्रिक बनाया जाए और उसे सत्तापरस्ती से मुक्त किया जाए।

टैगोर ने साहित्य-संस्कृति, शिच्चा और विचार को जनता से काटकर इस तरह समसुंग जैसी किसी कंपनी की सेवा में लगाने का काम नहीं किया था। जबकि आज साहित्य अकादमी ठीक इसके विपरीत आचरण कर रही है। यह टैगोर की विरासत के साथ भी दुव्र्यवहार है। देश के तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और लोकतंत्रपसंद-आजादीपसंद जनमत का ख्याल करते हुए पुरस्कृत लेखकों को भी एक बार जरूर पुनर्विचार करना चाहिए कि वे किन मूल्यों के साथ खड़े हो रहे हैं और इससे वे किनका भला कर रहे हैं। साहित्य मूल्यों और आदर्षों का क्षेत्र है। बेहतर हो कि वे उसके पतन का वाहक न बनें और इस पुरस्कार को ठुकराकर एक मिसाल कायम करें। 25 जनवरी को पुरस्कार समारोह के वक्त अपराह्न 3 बजे जन संस्कृति मंच के सदस्यों समेत दिल्ली के कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी ओबेराय होटल के सामने जो शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल होना चाहिए।
सुधीर सुमन, संपादक, समकालीन जनमत, राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य, जन संस्कृति मंच