‘वह बच्चा मेरी आँखों से दुनिया को देखेगा’
कौशल किशोर
‘मैं वापस कर आया हूँ
उनका दिया हुआ
रोबदार हैट
वजनदार बूट
और तमाम गुनाहों से सनी लथपथ वर्दी
मैं छोड़ आया हूँ
मेज और कुर्सी भी
जिस पर बैठकर
बेबसी में अनचाहे
हमें करने पड़े थे
घटिया और घृणित समझौते
आज खुली हवा में
अपने मित्रों के बीच
सांस लेते हुए
मैं महसूस कर सकता हूँ
जीवन कितना सुन्दर है
ये पंक्तियां हैं भगवान स्वरूप कटियार की कविता ‘मुक्ति का सौंदर्य’ की जिसे उन्होंने राज्य सूचना केन्द्र, हजरतगंज, लखनऊ में जन संस्कृति मंच (जसम ) के द्वारा 21 जनवरी 2010 को आयोजित कार्यक्रम में सुनाई। इसी महीने कवि कटियार साठ साल के हुए और पिछले महीने की 31 तारीख को सूचना विभाग से सहायक निदेशक के पद से सेवामुक्त हुए। जसम ने कार्यक्रम उन्हीं पर केन्द्रित किया था।
इस मौके पर भगवान स्वरूप कटियार ने ‘इक्कीसवीं सदी की बीसवीं सदी के नाम चिट्ठी’, ‘हवा में घुलता आदमी’, ‘जंगल मेरे मित्र’, ‘टुकड़े टुकड़े मौत’, ‘मां’, ‘आदमी होने का व्याकरण’, ‘मेरे न होने पर’ सहित करीब एक दर्जन से अधिक कविताओं का पाठ किया और अपनी कविता के विविध रंगों से श्रोताओं का परिचय कराया। उनकी ये पंक्तियां काफी अन्दर तक संवेदित करती रहीं:
‘मैं खत्म हो जाऊँगा पूरी तरह
यह तय है
हाँ, यकीनन मैं मर जाऊँगा............
पर वह बच्चा
जो मेरी कविता पढ़ रहा है
मेरी आँखों से दुनिया को देखेगा।’
कविता पाठ से पहले भगवान स्वरूप कटियार ने अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि एक स्वतंत्रचेता रचनाकार के लिए सृजन एक खिलवाड़ न होकर गंभीर दायित्व के निर्वहन की समन्वित प्रक्रिया है। सार्थक रचना सदैव किसी बड़े सरोकार से जुड़ी होती है और इसीलिए वह लोकरुचि से भी जुड़ी होती है। रचनाकार उस लोक की बात जरूर करेगा जिसमें वह साँस ले रहा है। साहित्य की चिन्ता सही फैसले की चिन्ता है जो हमें बड़े चिन्तन के क्षेत्र में ले जाती है। मेरी कविताओं का मकसद न तो कोई नजरिया पेश करना है और न ही राजनैतिक नारों की तरह बेवजह शोर मचाना है। आखिर जीवन मूल्यों, बेहतर जिन्दगी और बेहतर समाज के लिए हमें कुछ कुर्बानियाँ तो देनी ही होगी, जिससे हम आज मुकरने लगे हैं। लिखने-पढ़ने के क्षेत्र में चाहे जितनी प्रतिकूल परिस्थितियाँ हो जायें, रचना और रचनाकार बचे रहेंगे बल्कि समाज को भी बचाये रख सकेंगे -
लिखे जाने से भले हीफर्क न पड़ता हो
पर न लिखे जाने से बहुत फर्क पड़ता है
जैसे बोलने से भले ही फर्क न पड़ता हो
पर चुप्पी तो प्रतिरोध का निषेध है
इसलिए सोचना बोलना
पढ़ना और लिखना परिवर्तन की बुनियादी शर्त है
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ लेखक व समीक्षक अनिल सिन्हा ने कहा कि भगवान स्वरूप कटियार को हिन्दी कवि समाज हाशिये पर रखता है। इसका कारण शायद यह है कि रचनाकारों की जो साहित्यिक गोलबंदी है, उसमें कटियार कोई पहल नहीं लेते। वे सच को सीधे कहने का साहस करते हैं जिससे उनकी सामाजिक चिन्ताएँ व सरोकार का पता चलता है। यानी वे एक स्वस्थ-सुसंस्कृत-संवेदनशील और अपने हक के लिए लड़ने वाले समाज की कल्पना करते हैं। उनका काव्य प्रयास इसी तरफ प्रेरित है। तमाम घटनाओं पर वे तत्काल प्रतिक्रिया देते हैं जिससे उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता और सामाजिक सजगता का पता चलता है।
कवि व समीक्षक कौशल किशोर ने भगवान स्वरूप कटियार की कविता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इनकी कविताएँ लोकतांत्रिक चेतना की कविताएं हैं जिसमे लोकतांत्रिक व्यक्ति का संघर्ष, उसकी इच्छा-आकांक्षा की अभिव्यकित होती है। कटियार का व्यक्तित्व बहुत सरल-सहज है, उनकी कविता की दुनिया भी ऐसी ही है, बहुत आत्मीय। इनको पढ़ते हुए बार-बार लगता है कि यहाँ हमारी ही दुनिया अभिव्यक्त हो रही है। इनकी कविताओं में माँ,, प्रेम, दुख, ख्वाब, दलदल, घर और वह घरती है जो आज निशाने पर है। ये हमारे जटिल यथार्थ की सहज-सरल कविताएँ हैं और यही कटियार की काव्य खासियत है।
इस मौके पर कटियारजी की बेटी युवा लेखिका व पत्रकार प्रतिभा कटियार ने कहा कि बचपन से मैं देखती आई हूँ कि पापा के अन्दर विद्रोही स्वर है। दुख व कष्ट आये हैं लेकिन वे उनसे लड़ते हुए आगे बढ़े है। एक तड़प, कुछ कहने की छटपटाहट तथा विचारों के प्रति दृढता उनमें है। वे हार न मानने वाले ऐसे पिता हैं जिन्होंने मेरे और मेरे भाई के अन्दर संघर्ष की प्रेरणा दी है। यही संघर्ष इनकी रचनाओं में भी अभिव्यक्त होता है। पापा में जबरदस्त आशावाद है।
भगवान स्वरूप कटियार की कविताओं पर बालते हुए आलोचक चन्द्रेश्वर का कहना था कि ये कविताएँ समकालीन कविता के आज के प्रचलित मुहावरे से अलग हैं। यहाँ दुख की बात कही गयी है लेकिन ये कविताएँ दुखवादी नहीं हैं। यहाँ दुख का दिखावा नहीं हैं। घर परिवार से लेकर देश दुनिया तक के विषय को लेकर चिन्ताएँ हैं, इनका फैलाव है। यह हारती नहीं हैं, संघर्ष की बात करती हैं और बखूबी संप्रेषित होती हैं। चन्द्रेश्वर ने ‘स्त्री और रोटी’ कविता को लेकर सवाल किया कि क्यों रोटी बनाती हुई स्त्री ही सुन्दर लगती है। स्त्री के सौंदर्य को इस रूप में देखना परम्परावादी व पुरुषवादी सोच है।
कवि वीरेन्द्र सारंग ने कहा कि वरिष्ठता के बावजूद कटियार की कविताओं में युवापन है। इनका कथ्य बहुत मजबूत है। इनकी कई कविताओं में ईश्वर आता है लेकिन ईश्वर को लेकर जो विचार, भाव व आलोचना है, वह प्रभावित करता है। वहीं ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव का कहना था कि ब्रेख्त की कविताओं में अंधेरा हावी रहता है लेकिन कटियार की कविताएँ अंधेरे से उजाले की यात्रा करती है।
समकालीन कविता पर कथाकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा की टिप्पणी ने बहस में गरमी पैदा कर दी। उनका कहना था कि 70 के बाद की कविताएँ लोक सं कटी हुई शहरी कविताएँ हैं। ये पाठकों को आतंकित करती हैं। हालत यह है कि कवि अपनी कविताएँ याद नहीं रख पाता लेकिन वह चाहता है कि पाठक उसकी कविता को पढ़े और याद रखे। कहानी की भी कमोबेश यही हालत है। आज की कविताओं में गेयता का अभाव है। इसीलिए यह समाज व पाठक से दूर होती जा रही है।
कवि अशोक चन्द्र का कहना था कि लोक को सीमित अर्थ में न देखकर उसे आधुनिक रूप में देखने की जरूरत है। यह लोक गाँवों से लेकर शहरों तक फैला है तथा विकास के इस दौर में उसका इस्तेमाल हुआ लेकिन वह स्वयं हाशिए पर ढ़केल दिया गया है। हाशिये का यह लोक कविता के केन्द्र में आये, कविता में इस लोक की समझ हो तथा कविता इससे संवाद करे, ऐसी ही कविता बड़ी हो सकती है।
संस्कृतिकर्मी प्रतुल जोशी व बुद्धिजीवी अशोक मिश्र ने पंत और निराला का उदाहरण देते हुए कहा कि कविता गेय हो, यह जरूरी नहीं है। लेकिन कविता का लयात्मक होना जरूरी है। कविता विचार को अलग तरीके से कहती है यही उसकी विशिष्टता है। कविता में बुद्धिजीवी जब हावी होता है तो कविता कमजोर हो जाती है। भगवान स्वरूप कटियार की कविताओं में विचारों की उष्मा के साथ आम आदमी का संघर्ष है और ये रिश्तों की आत्मीयता से पूर्ण हैं।
महिला नेता ताहिरा हसन व राघवेन्द्र का कहना था कि स्त्री, घर व परिवार को लेकर कविताओं में पारम्परिक विचार है जिस बारे में कटियारजी को सचेत रहने की जरूरत है। ‘हिजड़ा’ जैसे विशेषण का इस्तेमाल जिस तरह किया गया है, वह उचित नहीं है क्योंकि यह समुदाय मानव समाज का हिस्सा है, उपेक्षित है और गलत नजरिये से इसे देखा गया है। लेकिन आज उनमें भी संघर्ष की चेतना फैल रही है।
कार्यक्रम के अन्त में कवि, कलाकार व अभिनेता निर्मल पाण्डेय के निधन पर जन संस्कृति मंच ने एक मिनट का मौन रखकर अपनी शोक संवेदना प्रकट की। इस मौके पर नाटककार राजेश कुमार ने उनके योगदान की चर्चा की और कहा कि वे नैनीताल के युवमंच और जसम से सांस्कृतिक यात्रा शुरू की थी। बाद में वे कला अभिव्यक्ति के बड़े आयाम की तलाश में मुम्बई तक गये। उनमें कला की बड़ी संभावना थी।
कौशल किशोर
‘मैं वापस कर आया हूँ
उनका दिया हुआ
रोबदार हैट
वजनदार बूट
और तमाम गुनाहों से सनी लथपथ वर्दी
मैं छोड़ आया हूँ
मेज और कुर्सी भी
जिस पर बैठकर
बेबसी में अनचाहे
हमें करने पड़े थे
घटिया और घृणित समझौते
आज खुली हवा में
अपने मित्रों के बीच
सांस लेते हुए
मैं महसूस कर सकता हूँ
जीवन कितना सुन्दर है
ये पंक्तियां हैं भगवान स्वरूप कटियार की कविता ‘मुक्ति का सौंदर्य’ की जिसे उन्होंने राज्य सूचना केन्द्र, हजरतगंज, लखनऊ में जन संस्कृति मंच (जसम ) के द्वारा 21 जनवरी 2010 को आयोजित कार्यक्रम में सुनाई। इसी महीने कवि कटियार साठ साल के हुए और पिछले महीने की 31 तारीख को सूचना विभाग से सहायक निदेशक के पद से सेवामुक्त हुए। जसम ने कार्यक्रम उन्हीं पर केन्द्रित किया था।
इस मौके पर भगवान स्वरूप कटियार ने ‘इक्कीसवीं सदी की बीसवीं सदी के नाम चिट्ठी’, ‘हवा में घुलता आदमी’, ‘जंगल मेरे मित्र’, ‘टुकड़े टुकड़े मौत’, ‘मां’, ‘आदमी होने का व्याकरण’, ‘मेरे न होने पर’ सहित करीब एक दर्जन से अधिक कविताओं का पाठ किया और अपनी कविता के विविध रंगों से श्रोताओं का परिचय कराया। उनकी ये पंक्तियां काफी अन्दर तक संवेदित करती रहीं:
‘मैं खत्म हो जाऊँगा पूरी तरह
यह तय है
हाँ, यकीनन मैं मर जाऊँगा............
पर वह बच्चा
जो मेरी कविता पढ़ रहा है
मेरी आँखों से दुनिया को देखेगा।’
कविता पाठ से पहले भगवान स्वरूप कटियार ने अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि एक स्वतंत्रचेता रचनाकार के लिए सृजन एक खिलवाड़ न होकर गंभीर दायित्व के निर्वहन की समन्वित प्रक्रिया है। सार्थक रचना सदैव किसी बड़े सरोकार से जुड़ी होती है और इसीलिए वह लोकरुचि से भी जुड़ी होती है। रचनाकार उस लोक की बात जरूर करेगा जिसमें वह साँस ले रहा है। साहित्य की चिन्ता सही फैसले की चिन्ता है जो हमें बड़े चिन्तन के क्षेत्र में ले जाती है। मेरी कविताओं का मकसद न तो कोई नजरिया पेश करना है और न ही राजनैतिक नारों की तरह बेवजह शोर मचाना है। आखिर जीवन मूल्यों, बेहतर जिन्दगी और बेहतर समाज के लिए हमें कुछ कुर्बानियाँ तो देनी ही होगी, जिससे हम आज मुकरने लगे हैं। लिखने-पढ़ने के क्षेत्र में चाहे जितनी प्रतिकूल परिस्थितियाँ हो जायें, रचना और रचनाकार बचे रहेंगे बल्कि समाज को भी बचाये रख सकेंगे -
लिखे जाने से भले हीफर्क न पड़ता हो
पर न लिखे जाने से बहुत फर्क पड़ता है
जैसे बोलने से भले ही फर्क न पड़ता हो
पर चुप्पी तो प्रतिरोध का निषेध है
इसलिए सोचना बोलना
पढ़ना और लिखना परिवर्तन की बुनियादी शर्त है
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ लेखक व समीक्षक अनिल सिन्हा ने कहा कि भगवान स्वरूप कटियार को हिन्दी कवि समाज हाशिये पर रखता है। इसका कारण शायद यह है कि रचनाकारों की जो साहित्यिक गोलबंदी है, उसमें कटियार कोई पहल नहीं लेते। वे सच को सीधे कहने का साहस करते हैं जिससे उनकी सामाजिक चिन्ताएँ व सरोकार का पता चलता है। यानी वे एक स्वस्थ-सुसंस्कृत-संवेदनशील और अपने हक के लिए लड़ने वाले समाज की कल्पना करते हैं। उनका काव्य प्रयास इसी तरफ प्रेरित है। तमाम घटनाओं पर वे तत्काल प्रतिक्रिया देते हैं जिससे उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता और सामाजिक सजगता का पता चलता है।
कवि व समीक्षक कौशल किशोर ने भगवान स्वरूप कटियार की कविता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इनकी कविताएँ लोकतांत्रिक चेतना की कविताएं हैं जिसमे लोकतांत्रिक व्यक्ति का संघर्ष, उसकी इच्छा-आकांक्षा की अभिव्यकित होती है। कटियार का व्यक्तित्व बहुत सरल-सहज है, उनकी कविता की दुनिया भी ऐसी ही है, बहुत आत्मीय। इनको पढ़ते हुए बार-बार लगता है कि यहाँ हमारी ही दुनिया अभिव्यक्त हो रही है। इनकी कविताओं में माँ,, प्रेम, दुख, ख्वाब, दलदल, घर और वह घरती है जो आज निशाने पर है। ये हमारे जटिल यथार्थ की सहज-सरल कविताएँ हैं और यही कटियार की काव्य खासियत है।
इस मौके पर कटियारजी की बेटी युवा लेखिका व पत्रकार प्रतिभा कटियार ने कहा कि बचपन से मैं देखती आई हूँ कि पापा के अन्दर विद्रोही स्वर है। दुख व कष्ट आये हैं लेकिन वे उनसे लड़ते हुए आगे बढ़े है। एक तड़प, कुछ कहने की छटपटाहट तथा विचारों के प्रति दृढता उनमें है। वे हार न मानने वाले ऐसे पिता हैं जिन्होंने मेरे और मेरे भाई के अन्दर संघर्ष की प्रेरणा दी है। यही संघर्ष इनकी रचनाओं में भी अभिव्यक्त होता है। पापा में जबरदस्त आशावाद है।
भगवान स्वरूप कटियार की कविताओं पर बालते हुए आलोचक चन्द्रेश्वर का कहना था कि ये कविताएँ समकालीन कविता के आज के प्रचलित मुहावरे से अलग हैं। यहाँ दुख की बात कही गयी है लेकिन ये कविताएँ दुखवादी नहीं हैं। यहाँ दुख का दिखावा नहीं हैं। घर परिवार से लेकर देश दुनिया तक के विषय को लेकर चिन्ताएँ हैं, इनका फैलाव है। यह हारती नहीं हैं, संघर्ष की बात करती हैं और बखूबी संप्रेषित होती हैं। चन्द्रेश्वर ने ‘स्त्री और रोटी’ कविता को लेकर सवाल किया कि क्यों रोटी बनाती हुई स्त्री ही सुन्दर लगती है। स्त्री के सौंदर्य को इस रूप में देखना परम्परावादी व पुरुषवादी सोच है।
कवि वीरेन्द्र सारंग ने कहा कि वरिष्ठता के बावजूद कटियार की कविताओं में युवापन है। इनका कथ्य बहुत मजबूत है। इनकी कई कविताओं में ईश्वर आता है लेकिन ईश्वर को लेकर जो विचार, भाव व आलोचना है, वह प्रभावित करता है। वहीं ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव का कहना था कि ब्रेख्त की कविताओं में अंधेरा हावी रहता है लेकिन कटियार की कविताएँ अंधेरे से उजाले की यात्रा करती है।
समकालीन कविता पर कथाकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा की टिप्पणी ने बहस में गरमी पैदा कर दी। उनका कहना था कि 70 के बाद की कविताएँ लोक सं कटी हुई शहरी कविताएँ हैं। ये पाठकों को आतंकित करती हैं। हालत यह है कि कवि अपनी कविताएँ याद नहीं रख पाता लेकिन वह चाहता है कि पाठक उसकी कविता को पढ़े और याद रखे। कहानी की भी कमोबेश यही हालत है। आज की कविताओं में गेयता का अभाव है। इसीलिए यह समाज व पाठक से दूर होती जा रही है।
कवि अशोक चन्द्र का कहना था कि लोक को सीमित अर्थ में न देखकर उसे आधुनिक रूप में देखने की जरूरत है। यह लोक गाँवों से लेकर शहरों तक फैला है तथा विकास के इस दौर में उसका इस्तेमाल हुआ लेकिन वह स्वयं हाशिए पर ढ़केल दिया गया है। हाशिये का यह लोक कविता के केन्द्र में आये, कविता में इस लोक की समझ हो तथा कविता इससे संवाद करे, ऐसी ही कविता बड़ी हो सकती है।
संस्कृतिकर्मी प्रतुल जोशी व बुद्धिजीवी अशोक मिश्र ने पंत और निराला का उदाहरण देते हुए कहा कि कविता गेय हो, यह जरूरी नहीं है। लेकिन कविता का लयात्मक होना जरूरी है। कविता विचार को अलग तरीके से कहती है यही उसकी विशिष्टता है। कविता में बुद्धिजीवी जब हावी होता है तो कविता कमजोर हो जाती है। भगवान स्वरूप कटियार की कविताओं में विचारों की उष्मा के साथ आम आदमी का संघर्ष है और ये रिश्तों की आत्मीयता से पूर्ण हैं।
महिला नेता ताहिरा हसन व राघवेन्द्र का कहना था कि स्त्री, घर व परिवार को लेकर कविताओं में पारम्परिक विचार है जिस बारे में कटियारजी को सचेत रहने की जरूरत है। ‘हिजड़ा’ जैसे विशेषण का इस्तेमाल जिस तरह किया गया है, वह उचित नहीं है क्योंकि यह समुदाय मानव समाज का हिस्सा है, उपेक्षित है और गलत नजरिये से इसे देखा गया है। लेकिन आज उनमें भी संघर्ष की चेतना फैल रही है।
कार्यक्रम के अन्त में कवि, कलाकार व अभिनेता निर्मल पाण्डेय के निधन पर जन संस्कृति मंच ने एक मिनट का मौन रखकर अपनी शोक संवेदना प्रकट की। इस मौके पर नाटककार राजेश कुमार ने उनके योगदान की चर्चा की और कहा कि वे नैनीताल के युवमंच और जसम से सांस्कृतिक यात्रा शुरू की थी। बाद में वे कला अभिव्यक्ति के बड़े आयाम की तलाश में मुम्बई तक गये। उनमें कला की बड़ी संभावना थी।