गिर्दा के निधन से जनता ने अपना कलाकार खो दिया है - जसम
गिरीश तिवार गिर्दा का निधन कल 22 अगस्त को हुआ। उनके निधन पर जन संस्कृति मंच (जसम) लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने शोक प्रकट करते हुए कहा कि 80 के दशके में उŸाराखंड में जो लोकप्रिय आन्दोलन चला, गिर्दा उसके अभिन्न अंग थे। इसी दौर में जन सांस्कृतिक आंदोलन को भी संगठित करनें के प्रयास तेज हुए जिसकी परिणति नैनीताल में ‘युवमंच’ तथा हिन्दी।उर्दू प्रदेशों में जन संस्कृति मंच के गठन में हुई। गिर्दा इस प्रयास के साथी रहे हैं।
जसम की कार्यकारिणी के सदस्य, लेखक व पत्रकार अजय सिंह ने गिर्दा को याद करते हुए कहा कि गिर्दा का क्रान्तिकारी वामपंथी राजनीतिक व सांस्कृतिक आंदोलन से गहरा जुड़ाव था और वे इंडियन पीपुल्य फ्रंट (आई पी एफ) और जन संस्कृति मंच से जुड़े थे। उनका असमय जाना बड़ी क्षति है।
नाटककार राजेश कुमार ने शोक संवोदना प्रकट करते हुए कहा कि गिर्दा ने थियेटर को विचार को संप्रेषित करने का माध्यम बनाया। उनके गीतों, नाटकों व रंगकर्म में हमें बदलाव के विचारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता देखने को मिलती है। यह प्रतिबद्धता जनता और उसके आंदोलन से गहरे जुड़ाव से ही संभव है।
जसम की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व कवयित्री शोभा सिंह ने कहा कि गिर्दा की कला व रचनाएँ जन आंदोलनों से प्रेरित है और उसी से ऊर्जा ग्रहण करती है तथा अपने रचना कर्म के द्वारा गिर्दा जन आंदोलन को आवेग प्रदान करते हैं। यह एक बड़ी और दुलर्भ बात है जो हमें गिर्दा में मिलती है। यह गिर्दा की खासियत है।
कवि भगवान स्वरूप कटियार, कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा, अलग दुनिया के के0 के0 वत्स, श्याम अंकुरम, रवीन्द्र कुमार सिन्हा, वीरेन्द्र सारंग आदि जन जन संस्कृति मंच से जुड़े लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने भी गिरीश तिवार गिर्दा के निघन पर शोक प्रकट किया है।
गिरीश तिवाड़ी ‘गिरदा’ की कविता
सियासी उलट बाँसी
पानी बिच मीन पियासी
खेतो में भूख उदासी
यह उलट बाँसियाँ नहीं कबीरा, खालिस चाल सियासी
पानी बिच मीन पियासी
लोहे का सर पाँव काठ के
बीस बरस में हुए साठ के
मेरे ग्राम निवासी कबीरा, झोपड़पट्टी वासी
पानी बिच मीन पियासी
सोया बच्चा गाये लोरी
पहरेदार करे है चोरी
जुर्म करे है न्याय निवारण, नयाय चढ़े है फाँसी
पानी बिच मीन पियासी
बंगले में जंगला लग जाये
जंगल में बंगला लग जाय
वन बिल ऐसा लागू होगा, मरे भले वनवासी
पानी बिच मीन पियासी
जो कमाय सो रहे फकीरा
बैठे - ठाले भरें जखीरा
भेद यही गहरा है कबीरा, दीखे बात जरा सी
पानी बिच मीन पियासी
(यह कविता लखनऊ से प्रकाशित ‘जन संस्कृति’ के अंक-6, अप्रैल-जून 1985 में प्रकाशित हुई थी। वहीं से ली गई है।)
1 टिप्पणी:
नमन
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