रविवार, 20 दिसंबर 2009

लोक रंग -- 2010


लोकरंग - 2010


हमेशा की तरह कार्यक्रम ग्राम-जोगिया जनूबी पट्टी ,फाजिलनगर,कुशीनगर में आयोजित होगा।
कार्यक्रम दो रात और एक दिन का होगा ।


इस बार हुड़का वादन,आल्हा,अचरी गायन, फाग गायन, कबीर गायन,पंवरिया नृत्य, सारंगी वादन,सोहर गायन, फरी नृत्य,झारी गायन एवं नाथ संप्रदाय के योगियों का गायन,जांघिया नृत्य, नौटंकी, और तमाम लोकगीतों का गायन होगा ।


संभावित तिथि मई २०१० के प्रथम सप्ताह में रखी जायेगी ।
यह एक नि:शुल्क आयोजन है । आप सादर आमंत्रित हैं ।


`लोकरंग 2010´ के आयोजन के लिए अपने सुझाव, अपने आसपास के महत्वपूर्ण लोक कलाकारों, लोक कलाकारों की टीमों और लोकसंस्कृतियों के बारे में जानकारी उपलब्ध करा कर आप हमारा सहयोग कर सकते हैं

संपर्क : सुभाष चन्द्र कुशवाहा , बी - 4/140, विशाल खंड गोमती नगर , लखनऊ

mobile : 09415582577

लोक रंग -- २००९ : एक रिपोर्ट

"सांस्कृतिक फूहड़पन और भड़ैती के विरूद्ध ''

कौशल किशोर

लोककला का उत्सव और उत्सव का गांव के रूप में चर्चित जोगिया जनूबी पट्टी,आजकल चर्चा में है । यह गांव गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर से लगभग 17 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित एक छोटा सा कस्बा, फाजिलनगर से तीन किलोमीटर दूर है । राष्ट्रीयकृत मार्ग से एक ऊबड़।खाबड़, पगडण्डीनुमा सड़क जोगिया जनूबा पट्टी को जाती है । जोगिया जनूबी पट्टी हिन्दी कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा का पैतृक गांव है। उनके संयोजन में `लोकरंग सांस्कृतिक समिति ने एक नई सांस्कृतिक पहल ली है ।

युवाओं को अपसंस्कृति और फूहड़नप से बचाने, खत्म हो रही समरसता,सामाजिकता और भाईचारा को नव जीवन प्रदान करने के लिए, लोक कलाओं को मंच प्रदान कर इस संस्था ने पूरे गांव को कला गांव के रूप में बदल डाला है । दीवारों व अनाज के बखारों पर बनी सुन्दर कलाकृतियां, जगह।जगह भोजपुरी व हिन्दी कविताओं, गीतों के पोस्टरों ने गांव को आर्ट गैलरी की शक्ल दे दी है । गांव और देश के तमाम साहित्यकार,कलाप्रेमी चकित मन से यहां खींचे चले आ रहे हैं । विगत वर्ष यह आयोजन 23 व 24 मई 2008 को संपन्न हुआ था और इस वर्ष 28 व 29 मई को `लोक रंग-2009´ के दो दिवसीय कार्यक्रम में सौ से अधिक क्षेत्रीय लोक कलाकारों के साथ बड़ी संख्या में हिन्दी के जाने-माने लेखक व बुद्धिजीवी आये। दो दिनों तक चले इस कार्यक्रम में विविध लोक कलाओं, जनगीतों व नाटकों का प्रदर्शन हुआ तथा `विकास की आन्हीं : उड़ गइल छान्हीं´ विषय पर संगोष्ठी हुई। इस आयोजन के द्वारा यह विचार मजबूती के साथ उभरा कि लोक संस्कृति की जन पक्षधर धारा को आगे बढ़ाकर ही अपसंस्कृति का मुकाबला किया जा सकता है।

`लोक-रंग´ के इस आयोजन को देखने-सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग आये। उन्होंने फूहड़ पुरबिया गानों की जगह अपनी मिट्टी, जीवन के गीत।संगीत तथा अपनी लोक कलाओं का भरपूर आनन्द उठाया। इस आयोजन की एक बड़ी खासियत थी कि यह बिना किसी सरकारी मदद के संपन्न हुआ और पूरी तरह जनता के सहयोग व भागीदारी पर निर्भर था। जन संस्कृति मंच, जनवादी लेखक संघ तथा प्रगतिशील लेखक संघ जैसे सांस्कृतिक संगठनों का इसे सहयोग मिला। हिरावल, पटना तथा इप्टा, आजमगढ़ तो अपने पूरे दल-बल के साथ यहां मौजूद रहे ही। इस तरह `लोक-रंग-2009´ लोक कलाकारों के मिलन का मंच भी बना।

वर्श 2009 का आयोजन भोजपुरी के लोकप्रिय कवि मोती बी0ए0 और लोक कलाकार मो0 रसूल को समर्पित था। इस मायने में `लोक-रंग´ की यह उपलब्धि कही जायेगी कि उसने गुमनाम लोक कलाकार रसूल की खोज की है जिनकी मृत्यु 1952 में हो चुकी है । बिहार के गोपालगंज के गांव जिगना के रहने वाले रसूल का नाम कभी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बंगाल तक मशहूर था। वे हिन्दू।मुस्लिम की साझी पुरबिया संस्कृति की अनूठी मिसाल थे। अपने लिखे भजनों, गीतों व नाटकों के द्वारा वे काफी लोकप्रिय रहे । उन्होंने आजादी की लड़ाई में योगदान दिया था और अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध आवज उठाई थी -

`छोड़ द गोरकी के अब तू खुशामी बालमाएकर कहिया ले करब,गुलामी बालमा ।´

रसूल की खोज करते हुए संस्था ने 350 पृष्ठों की लोक संस्कृति की अनूठी पुस्तक `लोकरंग-1´, प्रकाशित किया है जिसके संपादक, सुभाष चन्द्र कुशवाहा हैं ।

दो दिनों तक चले इस समारोह में श्रीमती शान्ती के नेतृत्व में गांव की महिलाओं के द्वारा कजरी गायन, रामजीत सिंह और उनके साथियों के द्वारा एकतारा वादन व निर्गुन गायकी, नागेश्वर यादव और उनके साथियों के द्वारा बिरहा गायकी व फरी नृत्य, मीर बिहार व कटहरी बाग की टीमों के द्वारा चइता गायन, देसही देवरिया की टीम के द्वारा खजड़ी, एकतारा वादन व निर्गुन गायकी, आदि विविध कार्यक्रमों के द्वारा लोक संस्कृति का प्रदर्शन हुआ। इप्टा, आजमगढ़ ने लोकगीतों के अलावा कहरवा , जांघिया नृत्य, धोबियाऊ नृत्य और जोगीरा प्रस्तुत किया।

हिरावल ने भारतेन्दु हरिश्चन्द के प्रसिद्ध नाटक `अंधेर नगरी चौपट राजा´ का मंचन किया। इसके मूल नाट्या लेख में परिवर्तन किए बिना देश के अन्दर बढ़ती साम्प्रदायिकता, बाजारवाद के विभिन्न दृश्यों के समायोजन के द्वारा हिरावल ने इस नाटक को सामयिक बनाने का प्रयास किया है। सूत्रधार, आजमगढ़ ने इस मौके पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के द्वारा लिखित नाटक `हवालात´ का मंचन किया। हिरावल के द्वारा वीरेन डंगवाल, महेश्वर, गोरख पाण्डेय, दिनेश कुमार शुक्ल, प्रकाश उदय आदि की कविताओं व गीतों की प्रस्तुति इस आयोजन का विशेष आकर्षण था।

पूर्वांचल में गायन, वादन, नृत्य आदि के जो कला रूप आम तौर पर प्रचलित व लोकप्रिय हैं, `लोक-रंग´ में उनकी एक बानगी देखने को मिलती है। वैसे ये विधाएं आज संकट में हैं और धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं। लेकिन इस समारोह से इन विधाओं को फिर से अपनी जमीन मिल रही है। कलाकारों में अच्छा-खासा उत्साह है। वे अपनी कला को मांजने तथा नयी विषय-वस्तु से उसे सजाने-संवारने की दिशा में सोचने लगे हैं।

`लोक-रंग´ की एक खासियत यह भी रही कि उसने अपनी बहसों में किसानों से लेकर बुद्धिजीवियों तक को हिस्सेदार बनाया। एक अनूठा प्रयोग भी यहां देखने को मिला, वह है लोक कलाओं को आधुनिक कला तथा बुद्धिजीवी समुदाय को गंवई जनता के साथ जोड़ने का। यह एक नई बात थी। इसीलिए लोग सोचने लगे हैं कि यदि `लोक-रंग´ अपनी निरन्तरता आगे कायम रख सका तो यह निसन्देह सांस्कृतिक आन्दोलन का रूप ले सकता है और पूरब की इस पट्टी में सांस्कृतिक चेतना की एक नयी बयार महसूस की जा सकती है।

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

रंगमंच पर "आंबेडकर और गाँधी"

राजेश कुमार का नाटक
निर्देशन : अरविन्द गौर
कौशल किशोर


रंगमंच पर इतिहास के दो बड़े नायकों को ज्वलंत सामाजिक सवालों पर संवाद करते, समस्याओं से भरे इतिहास के उस जटिल दौर में आगे की राह तलाशते तथा वैचारिक रूप से गुत्थम-गुत्था होते देखना एक नया अनुभव है। ऐसा ही अनुभव राजेश कुमार का नाटक 'अम्बेडकर और गाँधी ' देता है। अस्मिता थियेटर ग्रुप, नई दिल्ली ने 29 नवम्बर 2009 को इस नाटक का मंचन लखनऊ के संत गाडगे प्रेक्षागृह ( उत्तरप्रदेश प्रदेश संगीत नाटक हैं ) में किया जिसकी परिकल्पना व निर्देशन अरविन्द गौड़ का था।

अम्बेडकर और गाँधी भारतीय राजनीतिक इतिहास के दो बहुप्रतिष्ठित नायक रहे हैं। शूद्र जहाँ अम्बेडकर के लिए दलित हैं, वहीं गाँधी की नजर में हरिजन हैं। जाति, वर्ण, अस्पृश्यता, धर्म - जैसे मुद्दों पर गाँधी व अम्बेडकर के बीच बहसें होती हैं। हिन्दू सवर्णों के द्वारा शूद्र समाज को अपमानित व अवहेलित किये जाने वाली स्थितियों को दोनों समाप्त करना चाहते हैं तथा शूद्रों का उद्धार और सामाजिक प्रतिष्ठा चाहते हैं। लेकिन हिन्दू धर्म में व्याप्त वर्णाश्रम व्यवस्था तथा इस व्यवस्था के उन्मूलन के सवाल पर गाँधी और अम्बेडकर के बीच तीखा द्वन्द्व है। राजेश कुमार का नाटक इस द्वन्द्व को उभारता है।

रंगमंच पर आंबेडकर और गाँधी के बीच बहसें होती हैं। विभिन्न मुद्दों पर उनका अपना नजरिया सामने आता है। वे एक-दूसरे को अपने विचारों से प्रभावित करना चाहते हैं। गाँधी चाहते हैं कि अम्बेडकर उनके हरिजन प्रेम और हरिजन उद्धार के विचारों को समझें, उनका समर्थन करे। अम्बेडकर को दलितों के लिए गाँधीजी की ‘दया’ नहीं अधिकार चाहिए। दोनों के विचारों के तरकश में तर्कों के तीरों की कमी नहीं और वे एक-दूसरे पर विचारों के वाणों का भरपूर प्रहार करते हैं। उनके अपने-अपने तर्क हैं। कोई भी अपने विचारों से एक सूत तक पीछे हटने को तैयार नहीं। विभिन्न मुद्दों पर चलने वाली बहसें कई बार तीखी हो उठती हैं। कई बार बहस टकराहट और वैचारिक उŸोजना के चरम बिन्दु पर पहुँच जाती है। फिर भी व्यक्तिगत स्तर पर कटुता नहीं आती और संवाद जारी रहता है।

अम्डेकर दलितों के लिए अलग निर्वाचन की अपनी मांग पर डटे रहते हैं। अम्बेडकर के विचारों का जब कोई काट गाँधी के पास नहीं बचता, ऐसी स्थिति में वे अपने अनशन के हथियार का प्रयोग करते हैं। गाँधीजी की हालत खराब होने लगती है। उनके पुत्र देवदास गाँधी प्राण बचाने का अनुरोध लेकर अम्बेडकर के पास आते हैं। अम्बेडकर के लिए यह द्वन्द्व से भरे क्षण हैं। एक तरफ उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता है तो दूसरी तरफ गाँधीजी की प्राण रक्षा का सवाल है। नाटक में यह दृश्य अत्यन्त प्रभावशाली है जब अम्बेडकर की जीवन संगिनी रमा बाई उनसे कहती हैं कि लोग अपनी जान बचाने के लिए महात्मा के पास जाते हैं लेकिन आज आपको उनकी जान बचाने का मौका मिला है जिन्हें लोग महात्मा मानते हैं। अम्बेडकर राजनीति से दूर सीधी-सरल रमा बाई के विचारों की गहराई से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। उनका द्वन्द्व समाप्त हो जाता है और वे गाँधी से मिलने के लिए तैयार हो जाते हैं।

गाँधी की प्राण रक्षा और कांग्रेसियों के दबाव की वजह से अम्बेडकर और गाँधी के बीच ऐतिहासिक पूना समझौता होता है फिर भी वर्णाश्रम व्यवस्था और धर्म, जाति, अस्पृश्यता आदि के मुद्दे पर उनके वैचारिक मतभेद बने रहते हैं और ऐतिहासिक विकासक्रम में ये दोनों विपरीत दिशा ग्रहण करते हैं। नाटक ‘अम्बेडकर और गाँधी’ में इन दोनों पात्रों के विचारों का चरम मार्मिक रूप सामने आता है जहाँ अम्बेडकर यह कहते हुए सामने आते हैं कि मेरा जन्म हिन्दू के रूप में हुआ, इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं थे लेकिन वे एक हिन्दू के रूप में मरे, यह उन्हें स्वीकार नहीं और वर्णाश्रम व्यवस्था के विरोध में अन्ततः वे अपना धर्म परिवर्तन कर लेते हैं। वहीं गाँधी की अभिलाषा अगले जन्म में किसी भंगी महिला की कोख से पैदा होनेे के रूप में अभिव्यक्त होती है।

गाँधी की हत्या कर दी जाती है। यह अम्बेडकर को आहत करने वाली खबर थी। वे कहते हैं कि गाँधीजी के विचारों से उनकी कभी भी सहमति नहीं रही लेकिन बहस और संवाद चलता रहा। लेकिन जिस हिन्दू धर्म की एकता और वर्ण व्यवस्था की रक्षा के लिए गाँधीजी तर्क देते रहे, उसके पक्ष में सारी जिन्दगी काम करते रहे, उसी हिन्दू धर्म की संकीर्णता को उनका उदारवाद और धर्म निरपेक्षता बरदाश्त नहीं था और उन्हें हिन्दू धर्म की साम्प्रदायिकता और कट्टरता का शिकार होना पड़ा। नाटक हिन्दू साम्प्रदायिकता के असहिष्णु व फासीवादी रूप को भी सामने लाता है जहाँ विचार, विरोध, तर्क, संवाद जैसे शब्द बेमानी हो जाते हैं।

नाटक के दो मुख्य पात्र हैं - अम्बेडकर और गाँधी पूरा नाटक इनके इर्द-गिर्द चलता है। नाटक में ये दोनों पात्र आज के अम्बेडकर और गँाधी, जो प्रतिमाओं में कैद हैं, से अलग हैं . न महात्मा ये हैं और न मसीहा बल्कि मनुष्य हैं जिनमें खूबियां हैं तो मानवीय दुर्बलताएं भी हैं। लेकिन आज की पीढी इन्हे ' महात्मा ' और ' मसीहा ' के रूप में ही ज्यादा जानती है क्योंकि इनका परिचय बहुत-कुछ इसी रूप में कराया गया है। यहाँ पूजा भाव अधिक है। नाटक इस इमेज को तोड़ता है और नई पीढ़ी के अन्दर इतिहास को फिर से जानने-समझने की उत्सुकता पैदा करता है।

राजेश कुमार का यह नाटक विचार प्रधान है। इसका सारा ताना-बाना बहस और संवाद पर आधारित है। चूँकि यह बहस आज भी जारी है, इसलिए यह असमाप्त संवाद है। आमतौर पर हिन्दी में संवाद पर आधारित राजनीतिक नाटकों का अभाव रहा है। इस तरह के नाटकों के साथ सपाटता और ऊबाऊपन का खतरा बना रहता है। पिछले दिनों लखनऊ की एक गोष्ठी में इस नाटक के आलेख का राजेश कुमार के द्वारा पाठ किया गया था। उस गोष्ठी में कई रंग निर्देशकों व कलाकारों का कहना था कि नाटक पर विचार और संवाद का बोझ है। उनकी टिप्पणी थी कि नाटक मात्र संवाद नहीं होता है.

लेकिन ' आंबेडकर और गाँधी ' की प्रस्तुति इस टिप्पणी को खारिज करती है। अरविंद गौड़ के निर्देशन और परिकल्पना की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने नाटक की प्रमाणिकता की रक्षा करते हुए संवादों पर केन्द्रित इस नाटक में कथा तत्वों, गीत-संगीत व दृश्यों का बेहतर संयोजन प्रस्तुत किया जिसने नाटक को पूरा गतिमय बनाये रखा। इस नाटक में अवतार सिंह पाश की कविता ‘हम लड़ेंगे साथी’, ‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना’, शंकर शैलेन्द्र, भूपेन हजारिका व बाॅब दायलान के गीतों का बहुत सुन्दर इस्तेमाल हुआ है। दो दर्जन से अधिक कलाकार जब इन कविताओं और गीतों के साथ कोरस प्रस्तुत करते हैं तो इतिहास और अतीत का संघर्ष दर्शकों के सामने सजीव हो उठता है। गाँधी की भूमिका में वीरेन बसाया, अम्बेडकर के रूप में बजरंग बली सिंह, रमा बाई की भूमिका में शिल्पी मारवाह के साथ करीब तीस से अधिक कलाकारों से सजे इस नाटक की संगीत रचना डा0 संगीता गौर ने की।