शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

जाने - माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे























प्रिय साथियों,
अबतक आप सबको साथी अनिल सिन्हा के असमय गुज़र जाने का अत्यंत दुखद समाचार मिल चुका होगा.. अनिल जी जैसा सादा और उंचा इंसान , उनके जैसा संघर्ष से तपा निर्मल
व्यक्तित्व, क्रांतिकारी वा
म राजनीति और संस्कृति -कर्म का अथक योदधा अपने पीछे कितना बड़ा सूनापन छोड़ गया है, अभी इसका अहसास भी पूरी तरह नहीं हो पा रहा. यह भारी दुःख जितना आशा जी, शाश्वत, ऋतु,निधि,अनुराग , अरशद और अन्य परिजन तथा मित्रों का है उतना ही जन संस्कृति के सभी सह-कर्मियों का भी. हमने एक ऐसा साथी खोया है जिससे नयी पी
ढी को बहुत कुछ सीखना था, कृतित्व से भी और व्यक्तित्व से भी. हमारे सांस्कृतिक आन्दोलन के हर पड़ाव के वे साक्षी ही नहीं, निर्माताओं में थे. कलाओं के अंतर्संबंध पर जनवादी- प्रगतिशील नज़रिए से गहन विचार और समझ विकसित करनेवाले विरले समीक्षक, मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के मानक व्यक्तित्व के रूप में वे प्रगतिशील संस्कृति कर्म के बाहर के भी दायरे में अत्यंत समादृत रहे. उनके रचनाकार पर तो अलग से ही विचार की ज़रुरत है. जन संस्कृति मंच अपने आन्दोलन के इस प्रकाश स्त
म्भ की विरासत को आगे बढाने का संकल्प लेते हुए कामरेड अनिल सिन्हा को श्रद्धांजलि व्यक्त करता है. हम साथी कौशल किशोर द्वारा अनिल जी के जीवन और व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाली संक्षिप्त टिप्पणी नीचे दे रहे हैं. यह
टिप्पणी और अनिल जी की
तस्वीर अटैचमेंट के रूप में भी आपको संप्रेषित कर रहा हूँ. प्रणय कृष्ण, महासचिव , जन संस्कृति मंच

जाने - माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे

लखनऊ, 25 फरवरी। जाने माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे। आज 25 फरवरी को दिन के 12 बजे पटना के मगध अस्पताल में उनका निधन हुआ। 22 फरवरी को जब वे दिल्ली से
पटना आ रहे थे, ट्रेन में ही उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ। उन्हें पटना के मगध अस्पताल में अचेतावस्था में भर्ती कराया गया। तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझते हुए अखिरकार आज उन्होंने अन्तिम सांस ली। उनका अन्तिम संस्कार पटना में ही होगा। उनके निधन की खबर से पटना, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद आदि सहित जमाम जगहों में लेखको, संस्कृ
तिकर्मियों के बीच दुख की लहर फैल गई। जन संस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा दुख प्रकट किया है। उनके निधन को जन सांस्कृतिक आंदोलन के लिए एक बड़ी क्षति बताया है।
ज्ञात हो कि अनिल सिन्हा एक जुझारू व प्रतिबद्ध लेखक व पत्रकार रहे हैं। उनका जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विशविद्दालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्दालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्हों
ने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। उन्होंने कई तरह के काम किये। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यवर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से वे जुड़े रहे। 1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ उन्होंने इस अखबार में काम किया। अमृत प्रभात लखनऊ में बन्द होने के बाद में वे नवभारत टाइम्स में आ गये। दैनिक जागरण, रीवाँ के भी वे स्थानीय संपादक रहे। लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने वह अखबार छोड़ दिया।

अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे हैं। वे मानते रहे हैं कि एक रचनाकार का काम हमेशा एक बेहतर समाज का निर्माण करना है, उसके लिए संघर्ष करना है। उनका लेखन इस ध्येय को समर्पित है। वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। वे जन संस्कृति मंच उŸार प्रदेश के पहले सचिव थे। वे क्रान्तिकारी वामपंथ की धारा तथा भाकपा ;मालेद्ध से भी जुड़े थे। इंडियन नीनुल्स फ्रंट जेसे क्रान्तिकारी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। इस राजनीति जुड़ाव ने उनकी वैचारिकी का निर्माण किया था।
कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में उन्होंने काम किया। ‘मठ’ नम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। पिछले दिनों उनके द्वारा अनुदित पुस्तक ‘सामा्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मुलन’ छपकर आया थ। उनकी सैकड़ों रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में छपती रही है। उनका रचना संसार बहुत बड़ा है , उससे भी बड़ी है उनको चाहने वालों की दुनिया। मृत्यु के
अन्तिम दि
नों तक वे अत्यन्त सक्रिय थे तथा 27 फरवरी को लखनऊ में आयोजित शमशेर, नागार्जुन व केदार जन्तशती आयोजन के वे मुख्य कर्मा.णर्ता थे।

उनके निधन पर शेक प्रकट करने वालों में मैनेजर पाण्डेय, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, प्रणय कृष्ण, रामजी रायअशोक भैमिक, अजय सिंह, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजेन्द्र कुमार, भगवान स्वरूप् कटियार, राजेश कुमार, कौशल किशोर, गिरीष चन्द्र श्रीवास्तव, चन्द्रेश्वर, वीरेन्द्र यादव, दयाशंक राय, वंदना मिश्र, राणा प्रताप, समकालीन लोकयुद्ध के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय आदि रचनाकार प्रमुख हैं। अपनी संवेदना प्रकट करते हुए जारी वक्तव्य में रचनाकारों ने कहा कि अनिल सिन्हा आत्मप्रचार से दूर ऐसे रचनाकार रहे हैं जो संघर्ष में यकीन करते थे। इनकी आलोचना में सृर्जनात्मकता और शालीनता दिखती है। ऐसे रचनाकार आज विरले मिलेंगे जिनमे इतनी वैचारिक
प्रतिबद्धता और सृर्जनात्मकता हो। इनके निधन से लेखन और विचार की दुनिया ने एक अपना सच्चा व ईमानदार साथी खो दिया है।

कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच, लखनऊ



जन संस्कृति मंच के कर्मठ और विचारवान साथी अनिल सिन्हा का आज 25 फरवरी को पूर्वान्ह 11 बजे निधन हो गया. 11 जनवरी, 42 को पैदा हुए अनिल जी ने पटना विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी की और तभी प्रगतिशील मूल्यों के लिए संघर्ष करने वाली सामाजिक शक्तियों के साथ सहयोग करने का संकल्प लिया. वे आजीवन इस संकल्प को निभाते रहे. वे कभी अपनी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता और जन पक्षधरता से कभी डिगे नहीं. वे ज स म के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. ज स म की उत्तर प्रदेश इकाई के पहले सचिव के रूप में उन्होंने ज स म को सक्रिय करने में जो भूमिका निभाई, वह अविस्मरणीय है. ज स म की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के महत्वपूर्ण अंग के रूप में वे अभी भी अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे. लगभग एक वर्ष पहले उन्हें पक्षाघात हुआ था लेकिन उसके बाद भी संगठन की गतिविधियों के प्रति उनका उत्साह हम सब के लिए बेहद प्रेरणापद था. यह उनके मनोबल और अदम्य जिजीविषा का परिणाम था कि उनका स्वास्थ्य सुधर रहा
था. ज स म की गतिविधियों में पूर्ववत
उत्साह के साथ उनकी भागीदारी देखकर हमलोग उनसे बराबर आशान्वित रहते थे. आज उनके आकस्मिक निधन के समाचार ने हम सब को हतसंज्ञ कर दिया. वे स्थाई तौर पर लखनऊ में रह रहे थे और पिछले दिनों एक विवाह में सम्मिलित होने पटना गए थे. वहीं से लौटने को थे कि एकाएक गंभीर रूप से पुनः अस्वस्थ हुए और वहीं पटना के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया.
अनिल जी ने एक प्रतिभाशाली और प्रखर पत्रकार के रूप में भी कई पत्र-पत्रिकाओं, अमृत प्रभात, न भा टा आदि
में काम किया. राष्ट्रीय सहारा के स्थानीय संस्करण में सर्ज़ना नामक एक स्तम्भ लिखते रहे. उन्होंने 70 के दशक में पटना से विनिमय नाम की साहित्यिक पत्रिका निकाल लघुपत्रिका आन्दोलन में योग दिया. उनकी कहानियों का एक संग्रह मठ चर्चित रहा. उनकी सर्ज़ानात्मक रुचियों की परिधि बहुत व्यापक थी जिसमें पत्रकारिता से लेकर चित्रकला, सिनेमा जैसे माध्यम भी शामिल थे. सी पी आई एम एल के साथ उनका गहरा और पुराना रिश्ता था. कठिन दिनों में भी वे संगठन के साथी रहे. ऐसे प्रतिबद्ध और अविचलित रहने वाले अपने प्रखर साथी के न रहने पर जो क्षति हमें हुई है, वह अपूरणीय है. हम अनिल जी के शोकाकुल परिवार के लिए कामना करते हैं कि उन्हें यह दुःख
सहने की शक्ति मिले.

प्रो. राजेन्द्र कुमार
(अध्यक्ष)
ज स म उत्तर प्रदेश

यूं ले गये भाई अनिल सिन्हा? 23 जनवरी के ई-मेल में आप ने वादा किया था कि 25 फरवरी को लखनऊ आ जाऊंगा । आना तो दूर, दा-सदा के लिए शरीरिक दूरी बना ली । आप थे तो पत्रकारपुरम की ओर अनायास मुड़ जाता था । जाता तो भाभी जी बहुत कुछ जबरदस्ती खिलाती और आप बहुत प्यार से घर-परिवार, देश-समाज, साहित्य-संस्कृति पर बोलते-बतियाते । क्या बताऊं, लखनऊ बसने के बाद, आप का होना, अभिभावक का होना था । इतनी जल्दी टुअर कर चल दिए । जाइए, मैं नहीं बोलता आप से ? यह भी कोई बात हुई । जब मैं बीमार था पिछले दिनों, कितनी बार देखने आये थे आप ? साथ में भाभी जी भी थीं । अब ? कौन देखेगा मुझे । अब तो मुझे पक्का विश्वास है कि आप लोकरंग में भी नहीं आयेंगे । अब तक तो आप आते ही रहे, बेहतर करने के बारे में सिखाते रहे । अब ? क्या करूं फोल्डर से नाम निकाल दूं ? लेकिन दिल में जो कसक है उसका क्या ? दिल के फोल्डर जो आप की स्मृति है उसका क्या ? पटना आपकी कर्मभूमि थी, वहां जाकर आपने चीरनिद्रा ग्रहण कर ली । अब आप के चाहने वाले, आपके संगी-साथियों पर जो बीत रही है उसके बारे कुछ तो विचार किये होते । विगत तीन दिनों से मन खटक रहा था पर एक विश्वास भी कि आप आयेंगे जरूर । कुछ दिन पूर्व ही आप ने 27 फरवरी के कार्यक्रम के लिए मुझसे मैंनेजर पाण्डेय का रेलवे आरक्षण कराने को कहा था जिसे मैंने तत्काल करा कर भेज दिया था । अब आप के कारण वह सब खत्म । संचालक तो आप ही थे ? ऐसा धोखा ? मुझे तो अब भी विश्वास नहीं होता कि आप ऐसा करेंगे ? जाइये मैं आप से नहीं बोलता ... । ----मेरे भा...ई

सुभाष चन्द्र कुशवाहा



सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

गोरख पांडेय स्मृति संकल्प


जसम, उ.प्र. का पांचवा राज्य सम्मेलन

गोरख स्मृति संकल्प और जसम, उत्तर प्रदेश का पांचवा राज्य सम्मेलन 29-30 जनवरी 2011 को कवि गोरख पांडेय के गांव में संपन्न हुआ। गोरख के गुजरने के 21 साल बाद जब पिछले बरस लोग देवरिया जनपद के इस
‘पंडित का मुंडेरा’ गांव में जुटे थे, तब करीब 65 लोगों ने गोरख से जुड़ी अपनी यादों को साझा किया था। इस बार भी वे उत्प्रेरक यादें थीं। उनके सहपाठी अमरनाथ द्विवेदी ने संस्कृत विश्वविद्यालय में छात्रसंघ के अध्यक्ष और बीचयू में एक आंदोलनकारी छात्र के बतौर उनकी भूमिका को याद किया। उन्होंने बताया कि गोरख अंग्रेजी के वर्चस्व के विरोधी थे, लेकिन हिंदी के कट्टरतावाद और शुद्धतावाद के पक्षधर नहीं थे। बीचयू में संघी कुलपति के खिलाफ उन्होंने छात्रों के आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसके कारण उन्हें विश्वविद्यालय प्रशासन की यातना भी झेलनी पड़ी। साम्राज्यवादी-सामंती शोषण के खिलाफ संघर्ष के लिए उन्होंने नक्सलवादी आंदोलन का रास्ता चुना और उसके पक्ष में लिखा। जहां भी जिस परिवार के संपर्क में वे रहे उसे उस आंदोलन से जोड़ने की कोशिश की। भर्राई हुई आवाज में राजेेंद्र मिश्र ने उनकी अंतिम यात्रा में उमड़े छात्र-नौजवानों, रचनाकारों और बुद्धिजीवियों के जनसैलाब को फख्र से याद करते हुए कहा कि मजदूरों और गरीबों की तकलीफ से वे बहुत दुखी रहते थे। फसल कटाई के समय वे हमेशा उनसे कहते कि पहले वे अपनी जरूरत भर हिस्सा घर ले जाएं, उसके बाद ही खेत के मालिक को दें। पारसनाथ जी के अनुसार वे कहते थे कि अन्याय और शोषण के राज का तख्ता बदल देना है और सचमुच उनमें तख्ता बदल देने की ताकत थी। गोरख की बहन बादामी देवी ने बड़े प्यार से उन्हें याद किया। उन्हें सुनते हुए ऐसा लगा जैसे गोरख की बुआ भी वैसी ही रही होंगी, जिन पर उन्होंने अपनी एक मशहूर कविता लिखीथी।

जसम महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिस संगठन को गोरख ने बनाया था उसकी तरफ से उनकी कविता और विचार की दुनिया को याद करते हुए खुद को नई उर्जा से लैस करने हमलोग उनके गांव आए हैं। गोरख ने मेहनतकश जनता के संघर्ष और उनकी संस्कृति को उन्हीं की बोली और धुनों में पिरोकर वापस उन तक पहुंचाया था। उन्होंने सत्ता की संस्कृति के प्रतिपक्ष में जनसंस्कृति को खड़ा किया था, आज उसे ताकतवर बनाना ही सांस्कृतिक आंदोलन का प्रमुख कार्यभार है। इसके बाद ‘जनभाषा और जनसंस्कृति की चुनौतियां’ विषय पर जो संगोष्ठी हुई वह भी इसी फिक्र से बावस्ता थी।

आलोचक गोपाल प्रधान दो टूक तरीके से कहा कि हर चीज की तरह संस्कृति का निर्माण भी मेहनतकश जनता करती है, लेकिन बाद में सत्ता उस पर कब्जा करने की कोशिश करती है। भोजपुरी और अन्य जनभाषाओं का बाजारू इस्तेमाल इसलिए संभव हुआ है कि किसान आंदोलन कमजोर हुआ है। समकालीन भोजपुरी साहित्य के संपादक अरुणेश नीरन ने कहा कि जन और अभिजन के बीच हमेशा संघर्ष होता है, जन के पास एक भाषा होती है जिसकी शक्ति को अभिजन कभी स्वीकार नहीं करता, क्योंकि उसे स्वीकार करने का मतलब है उस जन की शक्ति को भी स्वीकार करना।

कवि प्रकाश उदय का मानना था कि सत्ता की संस्कृति के विपरीत जनता की संस्कृति हमेशा जनभाषा में ही अभिव्यक्त होगी। कवि बलभद्र की मुख्य चिंता भोजपुरी की रचनाशीलता को रेखांकित किए जाने और भोजपुरी पर पड़ते बाजारवादी प्रभाव को लेकर थी। प्रो. राजेंद्र कुमार ने कहा कि जीवित संस्कृतियां सिर्फ यह सवाल नहीं करतीं कि हम कहां थे, बल्कि वे सवाल उठाती हैं कि हम कहां हैं। आज अर्जन की होड़ है, सर्जन के लिए स्पेस कम होता जा रहा है। सत्ता की संस्कृति हर चीज की अपनी जरूरत और हितों के अनुसार अनुकूलित करती है, जबकि संस्कृति की सत्ता जनता को मुक्त करना चाहती है। प्रेमशीला शुक्ल ने जनभाषा के जन से कटने पर फिक्र जाहिर की। विद्रोही जी ने कहा कि हिंदी और उससे जुड़ी जनभाषाओं के बीच कोई टकराव नहीं है, बल्कि दोनों का विकास हो रहा है। हमें गौर इस बात पर करना चाहिए कि उनमें कहा क्या जा रहा है।

संगोष्ठी के अध्यक्ष और सांस्कृतिक-राजनैतिक आंदोलन में गोरख के अभिन्न साथी रामजी राय ने कहा कि गोरख उन्हें हमेशा जीवित लगते हैं, वे स्मृति नहीं हैं उनके लिए। जनभाषा में लिखना एक सचेतन चुनाव था। उन्होंने न केवल जनता की भाषा और धुनों को क्रांतिकारी राजनीति की उर्जा से लैस कर उन तक पहुंचाया, बल्कि खड़ी बोली की कविताओं को भी लोकप्रचलित धुनों में ढाला, ‘पैसे का गीत’ इसका उदाहरण है। अपने पूर्ववर्ती कवियों और शायरों की पंक्तियों को भी गोरख ने बदले हुए समकालीन वैचारिक अर्थसंदर्भों के साथ पेश किया। रामजी राय ने कहा कि जनभाषाएं हिंदी की ताकत हैं और बकौल त्रिलोचन हिंदी की कविता उनकी कविता है जिनकी सांसों को आराम न था। सत्ता के पाखंड और झूठ का निर्भीकता के साथ पर्दाफाश करने के कारण ही गोरख की कविता जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हुई। ‘समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई’ संविधान में समाजवाद का शब्द जोड़कर जनता को भ्रमित करने की शासकवर्गीय चालाकी का ही तो पर्दाफाश करती है जिसकी लोकप्रियता ने भाषाओं की सीमाओं को भी तोड़ दिया था, कई भाषाओं में इस गीत का अनुवाद हुआ। रामजी राय ने गोरख की कविता ‘बुआ के नाम’ का जिक्र करते हुए कहा कि मां पर तो हिंदी में बहुत-सी कविताएं लिखी गई हैं, पर यह कविता इस मायने में उनसे भिन्न है कि इसमें बुआ को मां से भी बड़ी कहा गया है। संगोष्ठी का संचालन आलोचक आशुतोष कुमार ने किया।

सांस्कृतिक सत्र में हिरावल (बिहार) के संतोष झा, समता राय, डी.पी. सोनी, राजन और रूनझुन तथा स्थानीय गायन टीम के जितेंद्र प्रजापति और उनके साथियों ने गोरख के गीतों का गायन किया। संकल्प (बलिया) के आशीष त्रिवेदी, समीर खान, शैलेंद्र मिश्र, कृष्ण कुमार मिट्ठू, ओमप्रकाश और अतुल कुमार
राय ने गोरख पांडेय, अदम गोंडवी, उदय प्रकाश, विमल कुमार और धर्मवीर भारती की कविताओं पर आधारित एक प्रभावशाली नाट्य प्रस्तुति की। आशीष मिश्र ने भिखारी ठाकुर के मशहूर नाटक विदेशिया के गीत भी सुनाए, इस दौरान लोकधुनों का जादुई असर से लोग मंत्रमुग्ध हो गए। इस अवसर पर एक काव्यगोष्ठी भी हुई, जिसमें अष्टभुजा शुक्ल, कमल किशोर श्रमिक, रमाशंकर यादव विद्रोही, राजेंद्र कुमार, कौशल किशोर, रामजी राय, प्रभा दीक्षित, चंद्रेश्वर, भगवान स्वरूप कटियार, डॉ. चतुरानन ओझा, सच्चिदानंद, मन्नू राय, सरोज कुमार पांडेय ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। संचालन सुधीर सुमन ने किया।

सम्मेलन में प्रतिनिधियों ने मनोज सिंह को जसम, उ.प्र. के राज्य सचिव और प्रो. राजेद्र कुमार को अध्यक्ष के रूप में चुनाव किया। इस अवसर पर एक स्मारिका भी प्रकाशित की गई है, जिसमें गोरख की डायरी से प्राप्त कुछ अप्रकाशित कविताएं, जनसंस्कृति की अवधारणा पर उनका लेख और उनके जीवन और रचनाकर्म से संबंधित शमशेर बहादुर सिंह, महेश्वर और आशुतोष के लेख और साक्षात्कार हैं।

इस बीच 29 जनवरी को बिहार के आरा और समस्तीपुर में भी गोरख की स्मृति में आयोजन हुए। आरा में काव्यगोष्ठी की अध्यक्षता कथाकार नीरज सिंह, आलोचक रवींद्रनाथ राय और जसम के राज्य अध्यक्ष रामनिहाल गंुजन ने की तथा संचालन राकेश दिवाकर ने किया। इनके अतिरिक्त सुमन कुमार सिंह, ओमप्रकाश मिश्र, सुनील श्रीवास्तव, के.डी. सिंह, कृष्ण कुमार निर्मोही, भोला जी, अरुण शीतांश, संतोष श्रेयांस, जगतनंदन सहाय, अविनाश आदि ने अपनी कविताओं का पाठ किया तथा युवानीति के कलाकारों ने गोरख के गीत सुनाए। समस्तीपुर में डॉ. सुरेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में गोरख की याद में आयोजित संकल्प संगोष्ठी में रामचंद्र राय ‘आरसी’, डॉ. खुर्शीद खैर, डॉ. मोईनुद्दीन अंसारी, डॉ. एहतेशामुद्दीन, डा. सीताराम यादव और डॉ. सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने अपने विचार रखे।

सुधीर सुमन