रविवार, 20 दिसंबर 2009

लोक रंग -- 2010


लोकरंग - 2010


हमेशा की तरह कार्यक्रम ग्राम-जोगिया जनूबी पट्टी ,फाजिलनगर,कुशीनगर में आयोजित होगा।
कार्यक्रम दो रात और एक दिन का होगा ।


इस बार हुड़का वादन,आल्हा,अचरी गायन, फाग गायन, कबीर गायन,पंवरिया नृत्य, सारंगी वादन,सोहर गायन, फरी नृत्य,झारी गायन एवं नाथ संप्रदाय के योगियों का गायन,जांघिया नृत्य, नौटंकी, और तमाम लोकगीतों का गायन होगा ।


संभावित तिथि मई २०१० के प्रथम सप्ताह में रखी जायेगी ।
यह एक नि:शुल्क आयोजन है । आप सादर आमंत्रित हैं ।


`लोकरंग 2010´ के आयोजन के लिए अपने सुझाव, अपने आसपास के महत्वपूर्ण लोक कलाकारों, लोक कलाकारों की टीमों और लोकसंस्कृतियों के बारे में जानकारी उपलब्ध करा कर आप हमारा सहयोग कर सकते हैं

संपर्क : सुभाष चन्द्र कुशवाहा , बी - 4/140, विशाल खंड गोमती नगर , लखनऊ

mobile : 09415582577

लोक रंग -- २००९ : एक रिपोर्ट

"सांस्कृतिक फूहड़पन और भड़ैती के विरूद्ध ''

कौशल किशोर

लोककला का उत्सव और उत्सव का गांव के रूप में चर्चित जोगिया जनूबी पट्टी,आजकल चर्चा में है । यह गांव गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर से लगभग 17 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित एक छोटा सा कस्बा, फाजिलनगर से तीन किलोमीटर दूर है । राष्ट्रीयकृत मार्ग से एक ऊबड़।खाबड़, पगडण्डीनुमा सड़क जोगिया जनूबा पट्टी को जाती है । जोगिया जनूबी पट्टी हिन्दी कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा का पैतृक गांव है। उनके संयोजन में `लोकरंग सांस्कृतिक समिति ने एक नई सांस्कृतिक पहल ली है ।

युवाओं को अपसंस्कृति और फूहड़नप से बचाने, खत्म हो रही समरसता,सामाजिकता और भाईचारा को नव जीवन प्रदान करने के लिए, लोक कलाओं को मंच प्रदान कर इस संस्था ने पूरे गांव को कला गांव के रूप में बदल डाला है । दीवारों व अनाज के बखारों पर बनी सुन्दर कलाकृतियां, जगह।जगह भोजपुरी व हिन्दी कविताओं, गीतों के पोस्टरों ने गांव को आर्ट गैलरी की शक्ल दे दी है । गांव और देश के तमाम साहित्यकार,कलाप्रेमी चकित मन से यहां खींचे चले आ रहे हैं । विगत वर्ष यह आयोजन 23 व 24 मई 2008 को संपन्न हुआ था और इस वर्ष 28 व 29 मई को `लोक रंग-2009´ के दो दिवसीय कार्यक्रम में सौ से अधिक क्षेत्रीय लोक कलाकारों के साथ बड़ी संख्या में हिन्दी के जाने-माने लेखक व बुद्धिजीवी आये। दो दिनों तक चले इस कार्यक्रम में विविध लोक कलाओं, जनगीतों व नाटकों का प्रदर्शन हुआ तथा `विकास की आन्हीं : उड़ गइल छान्हीं´ विषय पर संगोष्ठी हुई। इस आयोजन के द्वारा यह विचार मजबूती के साथ उभरा कि लोक संस्कृति की जन पक्षधर धारा को आगे बढ़ाकर ही अपसंस्कृति का मुकाबला किया जा सकता है।

`लोक-रंग´ के इस आयोजन को देखने-सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग आये। उन्होंने फूहड़ पुरबिया गानों की जगह अपनी मिट्टी, जीवन के गीत।संगीत तथा अपनी लोक कलाओं का भरपूर आनन्द उठाया। इस आयोजन की एक बड़ी खासियत थी कि यह बिना किसी सरकारी मदद के संपन्न हुआ और पूरी तरह जनता के सहयोग व भागीदारी पर निर्भर था। जन संस्कृति मंच, जनवादी लेखक संघ तथा प्रगतिशील लेखक संघ जैसे सांस्कृतिक संगठनों का इसे सहयोग मिला। हिरावल, पटना तथा इप्टा, आजमगढ़ तो अपने पूरे दल-बल के साथ यहां मौजूद रहे ही। इस तरह `लोक-रंग-2009´ लोक कलाकारों के मिलन का मंच भी बना।

वर्श 2009 का आयोजन भोजपुरी के लोकप्रिय कवि मोती बी0ए0 और लोक कलाकार मो0 रसूल को समर्पित था। इस मायने में `लोक-रंग´ की यह उपलब्धि कही जायेगी कि उसने गुमनाम लोक कलाकार रसूल की खोज की है जिनकी मृत्यु 1952 में हो चुकी है । बिहार के गोपालगंज के गांव जिगना के रहने वाले रसूल का नाम कभी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बंगाल तक मशहूर था। वे हिन्दू।मुस्लिम की साझी पुरबिया संस्कृति की अनूठी मिसाल थे। अपने लिखे भजनों, गीतों व नाटकों के द्वारा वे काफी लोकप्रिय रहे । उन्होंने आजादी की लड़ाई में योगदान दिया था और अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध आवज उठाई थी -

`छोड़ द गोरकी के अब तू खुशामी बालमाएकर कहिया ले करब,गुलामी बालमा ।´

रसूल की खोज करते हुए संस्था ने 350 पृष्ठों की लोक संस्कृति की अनूठी पुस्तक `लोकरंग-1´, प्रकाशित किया है जिसके संपादक, सुभाष चन्द्र कुशवाहा हैं ।

दो दिनों तक चले इस समारोह में श्रीमती शान्ती के नेतृत्व में गांव की महिलाओं के द्वारा कजरी गायन, रामजीत सिंह और उनके साथियों के द्वारा एकतारा वादन व निर्गुन गायकी, नागेश्वर यादव और उनके साथियों के द्वारा बिरहा गायकी व फरी नृत्य, मीर बिहार व कटहरी बाग की टीमों के द्वारा चइता गायन, देसही देवरिया की टीम के द्वारा खजड़ी, एकतारा वादन व निर्गुन गायकी, आदि विविध कार्यक्रमों के द्वारा लोक संस्कृति का प्रदर्शन हुआ। इप्टा, आजमगढ़ ने लोकगीतों के अलावा कहरवा , जांघिया नृत्य, धोबियाऊ नृत्य और जोगीरा प्रस्तुत किया।

हिरावल ने भारतेन्दु हरिश्चन्द के प्रसिद्ध नाटक `अंधेर नगरी चौपट राजा´ का मंचन किया। इसके मूल नाट्या लेख में परिवर्तन किए बिना देश के अन्दर बढ़ती साम्प्रदायिकता, बाजारवाद के विभिन्न दृश्यों के समायोजन के द्वारा हिरावल ने इस नाटक को सामयिक बनाने का प्रयास किया है। सूत्रधार, आजमगढ़ ने इस मौके पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के द्वारा लिखित नाटक `हवालात´ का मंचन किया। हिरावल के द्वारा वीरेन डंगवाल, महेश्वर, गोरख पाण्डेय, दिनेश कुमार शुक्ल, प्रकाश उदय आदि की कविताओं व गीतों की प्रस्तुति इस आयोजन का विशेष आकर्षण था।

पूर्वांचल में गायन, वादन, नृत्य आदि के जो कला रूप आम तौर पर प्रचलित व लोकप्रिय हैं, `लोक-रंग´ में उनकी एक बानगी देखने को मिलती है। वैसे ये विधाएं आज संकट में हैं और धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं। लेकिन इस समारोह से इन विधाओं को फिर से अपनी जमीन मिल रही है। कलाकारों में अच्छा-खासा उत्साह है। वे अपनी कला को मांजने तथा नयी विषय-वस्तु से उसे सजाने-संवारने की दिशा में सोचने लगे हैं।

`लोक-रंग´ की एक खासियत यह भी रही कि उसने अपनी बहसों में किसानों से लेकर बुद्धिजीवियों तक को हिस्सेदार बनाया। एक अनूठा प्रयोग भी यहां देखने को मिला, वह है लोक कलाओं को आधुनिक कला तथा बुद्धिजीवी समुदाय को गंवई जनता के साथ जोड़ने का। यह एक नई बात थी। इसीलिए लोग सोचने लगे हैं कि यदि `लोक-रंग´ अपनी निरन्तरता आगे कायम रख सका तो यह निसन्देह सांस्कृतिक आन्दोलन का रूप ले सकता है और पूरब की इस पट्टी में सांस्कृतिक चेतना की एक नयी बयार महसूस की जा सकती है।

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

रंगमंच पर "आंबेडकर और गाँधी"

राजेश कुमार का नाटक
निर्देशन : अरविन्द गौर
कौशल किशोर


रंगमंच पर इतिहास के दो बड़े नायकों को ज्वलंत सामाजिक सवालों पर संवाद करते, समस्याओं से भरे इतिहास के उस जटिल दौर में आगे की राह तलाशते तथा वैचारिक रूप से गुत्थम-गुत्था होते देखना एक नया अनुभव है। ऐसा ही अनुभव राजेश कुमार का नाटक 'अम्बेडकर और गाँधी ' देता है। अस्मिता थियेटर ग्रुप, नई दिल्ली ने 29 नवम्बर 2009 को इस नाटक का मंचन लखनऊ के संत गाडगे प्रेक्षागृह ( उत्तरप्रदेश प्रदेश संगीत नाटक हैं ) में किया जिसकी परिकल्पना व निर्देशन अरविन्द गौड़ का था।

अम्बेडकर और गाँधी भारतीय राजनीतिक इतिहास के दो बहुप्रतिष्ठित नायक रहे हैं। शूद्र जहाँ अम्बेडकर के लिए दलित हैं, वहीं गाँधी की नजर में हरिजन हैं। जाति, वर्ण, अस्पृश्यता, धर्म - जैसे मुद्दों पर गाँधी व अम्बेडकर के बीच बहसें होती हैं। हिन्दू सवर्णों के द्वारा शूद्र समाज को अपमानित व अवहेलित किये जाने वाली स्थितियों को दोनों समाप्त करना चाहते हैं तथा शूद्रों का उद्धार और सामाजिक प्रतिष्ठा चाहते हैं। लेकिन हिन्दू धर्म में व्याप्त वर्णाश्रम व्यवस्था तथा इस व्यवस्था के उन्मूलन के सवाल पर गाँधी और अम्बेडकर के बीच तीखा द्वन्द्व है। राजेश कुमार का नाटक इस द्वन्द्व को उभारता है।

रंगमंच पर आंबेडकर और गाँधी के बीच बहसें होती हैं। विभिन्न मुद्दों पर उनका अपना नजरिया सामने आता है। वे एक-दूसरे को अपने विचारों से प्रभावित करना चाहते हैं। गाँधी चाहते हैं कि अम्बेडकर उनके हरिजन प्रेम और हरिजन उद्धार के विचारों को समझें, उनका समर्थन करे। अम्बेडकर को दलितों के लिए गाँधीजी की ‘दया’ नहीं अधिकार चाहिए। दोनों के विचारों के तरकश में तर्कों के तीरों की कमी नहीं और वे एक-दूसरे पर विचारों के वाणों का भरपूर प्रहार करते हैं। उनके अपने-अपने तर्क हैं। कोई भी अपने विचारों से एक सूत तक पीछे हटने को तैयार नहीं। विभिन्न मुद्दों पर चलने वाली बहसें कई बार तीखी हो उठती हैं। कई बार बहस टकराहट और वैचारिक उŸोजना के चरम बिन्दु पर पहुँच जाती है। फिर भी व्यक्तिगत स्तर पर कटुता नहीं आती और संवाद जारी रहता है।

अम्डेकर दलितों के लिए अलग निर्वाचन की अपनी मांग पर डटे रहते हैं। अम्बेडकर के विचारों का जब कोई काट गाँधी के पास नहीं बचता, ऐसी स्थिति में वे अपने अनशन के हथियार का प्रयोग करते हैं। गाँधीजी की हालत खराब होने लगती है। उनके पुत्र देवदास गाँधी प्राण बचाने का अनुरोध लेकर अम्बेडकर के पास आते हैं। अम्बेडकर के लिए यह द्वन्द्व से भरे क्षण हैं। एक तरफ उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता है तो दूसरी तरफ गाँधीजी की प्राण रक्षा का सवाल है। नाटक में यह दृश्य अत्यन्त प्रभावशाली है जब अम्बेडकर की जीवन संगिनी रमा बाई उनसे कहती हैं कि लोग अपनी जान बचाने के लिए महात्मा के पास जाते हैं लेकिन आज आपको उनकी जान बचाने का मौका मिला है जिन्हें लोग महात्मा मानते हैं। अम्बेडकर राजनीति से दूर सीधी-सरल रमा बाई के विचारों की गहराई से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। उनका द्वन्द्व समाप्त हो जाता है और वे गाँधी से मिलने के लिए तैयार हो जाते हैं।

गाँधी की प्राण रक्षा और कांग्रेसियों के दबाव की वजह से अम्बेडकर और गाँधी के बीच ऐतिहासिक पूना समझौता होता है फिर भी वर्णाश्रम व्यवस्था और धर्म, जाति, अस्पृश्यता आदि के मुद्दे पर उनके वैचारिक मतभेद बने रहते हैं और ऐतिहासिक विकासक्रम में ये दोनों विपरीत दिशा ग्रहण करते हैं। नाटक ‘अम्बेडकर और गाँधी’ में इन दोनों पात्रों के विचारों का चरम मार्मिक रूप सामने आता है जहाँ अम्बेडकर यह कहते हुए सामने आते हैं कि मेरा जन्म हिन्दू के रूप में हुआ, इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं थे लेकिन वे एक हिन्दू के रूप में मरे, यह उन्हें स्वीकार नहीं और वर्णाश्रम व्यवस्था के विरोध में अन्ततः वे अपना धर्म परिवर्तन कर लेते हैं। वहीं गाँधी की अभिलाषा अगले जन्म में किसी भंगी महिला की कोख से पैदा होनेे के रूप में अभिव्यक्त होती है।

गाँधी की हत्या कर दी जाती है। यह अम्बेडकर को आहत करने वाली खबर थी। वे कहते हैं कि गाँधीजी के विचारों से उनकी कभी भी सहमति नहीं रही लेकिन बहस और संवाद चलता रहा। लेकिन जिस हिन्दू धर्म की एकता और वर्ण व्यवस्था की रक्षा के लिए गाँधीजी तर्क देते रहे, उसके पक्ष में सारी जिन्दगी काम करते रहे, उसी हिन्दू धर्म की संकीर्णता को उनका उदारवाद और धर्म निरपेक्षता बरदाश्त नहीं था और उन्हें हिन्दू धर्म की साम्प्रदायिकता और कट्टरता का शिकार होना पड़ा। नाटक हिन्दू साम्प्रदायिकता के असहिष्णु व फासीवादी रूप को भी सामने लाता है जहाँ विचार, विरोध, तर्क, संवाद जैसे शब्द बेमानी हो जाते हैं।

नाटक के दो मुख्य पात्र हैं - अम्बेडकर और गाँधी पूरा नाटक इनके इर्द-गिर्द चलता है। नाटक में ये दोनों पात्र आज के अम्बेडकर और गँाधी, जो प्रतिमाओं में कैद हैं, से अलग हैं . न महात्मा ये हैं और न मसीहा बल्कि मनुष्य हैं जिनमें खूबियां हैं तो मानवीय दुर्बलताएं भी हैं। लेकिन आज की पीढी इन्हे ' महात्मा ' और ' मसीहा ' के रूप में ही ज्यादा जानती है क्योंकि इनका परिचय बहुत-कुछ इसी रूप में कराया गया है। यहाँ पूजा भाव अधिक है। नाटक इस इमेज को तोड़ता है और नई पीढ़ी के अन्दर इतिहास को फिर से जानने-समझने की उत्सुकता पैदा करता है।

राजेश कुमार का यह नाटक विचार प्रधान है। इसका सारा ताना-बाना बहस और संवाद पर आधारित है। चूँकि यह बहस आज भी जारी है, इसलिए यह असमाप्त संवाद है। आमतौर पर हिन्दी में संवाद पर आधारित राजनीतिक नाटकों का अभाव रहा है। इस तरह के नाटकों के साथ सपाटता और ऊबाऊपन का खतरा बना रहता है। पिछले दिनों लखनऊ की एक गोष्ठी में इस नाटक के आलेख का राजेश कुमार के द्वारा पाठ किया गया था। उस गोष्ठी में कई रंग निर्देशकों व कलाकारों का कहना था कि नाटक पर विचार और संवाद का बोझ है। उनकी टिप्पणी थी कि नाटक मात्र संवाद नहीं होता है.

लेकिन ' आंबेडकर और गाँधी ' की प्रस्तुति इस टिप्पणी को खारिज करती है। अरविंद गौड़ के निर्देशन और परिकल्पना की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने नाटक की प्रमाणिकता की रक्षा करते हुए संवादों पर केन्द्रित इस नाटक में कथा तत्वों, गीत-संगीत व दृश्यों का बेहतर संयोजन प्रस्तुत किया जिसने नाटक को पूरा गतिमय बनाये रखा। इस नाटक में अवतार सिंह पाश की कविता ‘हम लड़ेंगे साथी’, ‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना’, शंकर शैलेन्द्र, भूपेन हजारिका व बाॅब दायलान के गीतों का बहुत सुन्दर इस्तेमाल हुआ है। दो दर्जन से अधिक कलाकार जब इन कविताओं और गीतों के साथ कोरस प्रस्तुत करते हैं तो इतिहास और अतीत का संघर्ष दर्शकों के सामने सजीव हो उठता है। गाँधी की भूमिका में वीरेन बसाया, अम्बेडकर के रूप में बजरंग बली सिंह, रमा बाई की भूमिका में शिल्पी मारवाह के साथ करीब तीस से अधिक कलाकारों से सजे इस नाटक की संगीत रचना डा0 संगीता गौर ने की।

बुधवार, 25 नवंबर 2009

भगवान स्वरुप कटियार की कविता

शहादत की प्रतिध्वनि
(शहीद छात्र नेता चन्द्रशेखर के प्रति)

चन्दू
तुम, प्रकृति की लय पर
रच रहे थे जिन्दगी के गीत
पसीने, खून, मिट्टी
और रोशनी की बाते कर रहे थे तुम।

तुम गुनगुना रहे थे
बगावत की धुनें
और इतिहास के रंगमंच पर
प्रचण्ड तूफान उठा देने वाले
नाटक की तैयारी कर रहे थे तुम।

तुम बता रहे थे कि
अज्ञानता और गुलामी के
बन्द दरवाजे कैसे तोड़े जाते हैं।

आजादी, न्याय, सच्चाई, स्वाभिमान
और सौन्दर्य भरी जिन्दगी के लिए
तुम रोप रहे थे, इन्कलाब की पौध।

मुर्दा शांति
और कायर निठल्ले विमर्शो कें विरुद्ध
तुम दे रहे थे युद्ध को आमंत्रण।

तुम पिता के सपने
और मां की प्रतीक्षा को
आंसू के कतरे की तरह
जज्ब किये थे अपने सीने में
जलते हुए समय की छाती पर
यात्रा करते हुए
तुम सदी के जालिमो से
लोहा ले रहे थे
और उनसे छीन लाना चाहते थे
मानवता का दीप्तमान वैभव।

सच के आदिम पंखों की उड़ान पर
तुम लिख रहे थे
न्याय की गरिमा और उम्मीद की कविता
तुम बीहड़, कठिन जोखिम भरी
सुदूर यात्रा पर थे
और पहुंचना चाहते थे
उन धु्रवान्तों तक
जहां प्रतीक्षा थी
तुम्हारे आतुर ह्नदय
और सक्रिय विचारो के ताप की।

विद्रोह से प्रज्जवलित
राहों को रोशन करता हुआ था
तुम्हारा संघर्षशील जीवन
जो आकाश के अंधेरे से बूंद-बूंद
उजाला बन टपक रहा था प्रतिपल।

विद्रोह के सारे खतरे उठाते हुए
तुम मशगूल थे अपने मकसद में
बिना रुके, बिना ठिठके
तुम पहुंचना चाहते थे
अपने फैसले तक ।

तुम्हें विश्वास था
कि तुम्हारे सधे कदमो की धमक से
सहम कर खत्म हो जायेंगे
जालिमों के रचे अंधेरे ।

तुम कहते थे
देर से फैसले पर पहुंचना
आदमी को बूढ़ा कर देता है
इसलिए जीवन के प्याले को
छक कर पियो
और लगाओ चुनौतियों के ठहाके
पर कभी मत भूलो उन्हें
जिनके प्याले खाली हैं।

तुम अक्सर कहा करते थे
हमारी योजनाएं आश्चर्यजनक हों
पर व्यवहारिक भी
और सपने देखने की आदत
हमें सदैव बनाये रखनी होगी
ताकि अंधेरों में ढकेल दी गयीं
अच्छी चीजों को
हम फिर से ला सकें उजाले में।

कामरेड
आज हमें तुम्हारी
कल से ज्यादा जरूरत है
इसलिए तुम्हें अवतरित करना है
विचार की ताकत के रूप में
और ले जाना है जड़ों तक
और वहां से ऊपर उठाना है
फैली हुई टहनियों के पत्तों पर
आकाश की ओर।

तुम्हारी शहादत की ताकत से
हमें फिर बुलन्द करनी है आवाज
‘मुक्ति’ शब्द की
तुम्हारी शहादत की ताकत से ही
हमें प्राप्त करना है
आकाश से उसका नीलापन
वृक्षों से उनका हरापन
सूर्याेदय से उसकी लाली।

और दिनदहाड़े सीवान की सड़क पर
बहे हुए तुम्हारे खून से
युवा होने का जज्बा
पैदा करना चाहता हूँ
ताकि हथियारबन्द हत्यारों के गिरोहों
भुखमरी और युद्धों के बीच
हम रच सकें
उम्मीद और सर्जना के गीत
और जीवन का नया सौन्दर्य शास्त्र।
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भगवान स्वरूप कटियार: परिवर्तन की आकांक्षा के कवि
कौशल किशोर

भगवान स्वरूप कटियार (जन्म: 1 फरवरी १९५०) ऐसे कवि हैं जो बिना शोर किए काम में यकीन करते हैं। इनका व्यक्तित्व जितना सरल - सहज है , जितनी सादगी है इनमे , इनकी कविता की दुनिया भी ऐसी ही है , बिल्कुल आत्मीय। इनकी कविताओं को पढते-सुनते हुए बार-बार लगता है जैसे हमारी ही दुनिया व्यक्त हो रही है। वे घटनायें जो हमें लहूलुहान कर देती हैं , हमारे जीवन व विचार पर गहरा असर डालती हैं , इन कविताओं में उन्हीं की अभिव्यक्ति है। इसीलिए ये कविताएँ हमें प्रभावित करती हैं और हमारे विचार, समझ व संवेदना को सघन करते हुए हमारा यथार्थ बोध बढाती हैं।
भगवान स्वरूप कटियार की कविताओं में जन पीडा है तो मुक्ति की छटपटाहट भी है। इनकी कविताओं में ' मैं ' है ' माँ ' है , ' प्रेम ' है , ‘दुख’ है , ‘ख्वाब’ है , ' दलदल ' है, ' घर ' है और वह धरती है जो आज निशाने पर हैं। परिवार, समाज, देश और दुनिया से ये कविताएँ गुजरती हैं। इनकी विसंगतियों से जूझती हैं और अपनी राह तलाशती हैं। इसी से भगवान स्वरूप कटियार के काव्य व्यक्तित्व का निर्माण होता है। यहाँ भाषा की बाजीगरी नहीं हैं। अपनी बात को कहने के लिए किसी अस्वाभाविक प्रतीक , बिम्ब या मुहावरे की तलाश भी नहीं हैं। यहाँं बोधगम्यता व पठनीयता है। समय व समाज को समझने-समझाने की चेष्टा है। वास्तव में ये जटिल यथार्थ की सहज सरल कविताएँ हैं और यही भगवान स्वरूप कटियार की काव्य-कला है या इनकी खासियत है।

कवि भगवान स्वरूप कटियार दुनिया को प्रेम करने वाले और उसे सुन्दर बनाने के लिए अपनी सारी जिन्दगी लगा देने वाले उन साथियों से प्रेरित हुए बिना नहीं रह पाते जो इस जंग के योद्धा रहें हैं। जो शहीद हो गये या बिछड गये। ‘शहादत की प्रतिघ्वनि’ ऐसी ही कविता है जो उन्होंने शहीद छात्र नेता चन्द्रशेखर की याद में लिखी है। यहाँ शोक को शक्ति में बदल देने का संकल्प है, ‘तुम्हारे खून से युवा होने का जज्बा पैदा’ करने की चाहत है। शहीद भगत सिंह , बेंजामन मोलायास , जापानी कवि तोगे संकिची , अवतार सिंह पाश , कामरेड विनोद मिश्र , कथाकर मोहन थपलियाल , स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी पिता आदि सभी भगवान स्वरूप कटियार की कविताओं के माध्यम से हमारे बीच जीवित हो उठते है।

भागवान स्वरूप कटियार के दूसरे कविता संग्रह ' हवा का रूख टेढा है ' की भूमिका में वरिष्ठ कवि त्रिलोचन ने लिखा है ' नयी कविता पुरानी कविता से कई बातों में भिन्न हैं। नयी कविता में संवेदना के साथ-साथ मौजूदा हालातों से जूझने की कुव्वत भी है। अब ऐसी कविताएँ लिखी जा रही हंै कि मुट्ठियाँ तन जायें और आसमान में बदलाव के स्वर गूँज उठे। कटियार ऐसी ही कविताओं के प्रतिनिधि कवि हैं। इनकी कविताओं में नया तेवर है। ये संघर्ष और परिवर्तन की आंकाक्षा के कवि है ' , मैं समझता हूँ भगवान स्वरूप कटियार पर त्रिलोचन की यह टिप्पणी सर्वथा सटीक है, न सिर्फ कटियार की कविताओं के संबंध में बल्कि आज की कविताओं के संबंध में भी क्योंकि कला, साहित्य, कविता या कोई भी सृजनात्मक-रचनात्मक कर्म एक गहन मानवीय चेष्टा है। वह कभी भी अपने समाज व समय से असंपृक्त रह ही नहीं सकता। यही कविता की सामाजिकता है। भगवान स्वरूप कटियार का कवि-कर्म अपनी सामाजिक भूमिका के प्रति सजग-सचेत हैं, यहीं उन्हें महत्वपूर्ण कवि बनाता है तथा उनकी कविता को हमारे लिए जरूरी।

बुधवार, 18 नवंबर 2009

मुक्तिबोध स्मृति समारोह


जनसंस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'( १३-१५, नवम्बर, २००९):


एक संक्षिप्त रिपोर्ट


अर्जुन



मुक्तिबोध के जन्मदिवस पर शुरु हुआ भिलाई में जन संस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'( १३-१५, नवम्बर, २००९). प्रथम मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यानमाला की शुरुआत की जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय ने. उन्होंने मुक्तिबोध की प्रतिबंधित पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति' को ही अपने व्याख्यान का विषय बनाते हुए उसकी मार्फ़त अपने समय को जानने समझने की प्रक्रिया को रेखांकित किया. उन्होंने मांग की कि १९६२ में मुक्तिबोध की पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति " पर लगाया गया प्रतिबंध मध्य प्रदेश सरकार वापस ले. ऎसा करते ही अदालत द्वारा प्रतिबंध की अनुशंसा खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी. बाद में इसे प्रस्ताव के रूप में सदन ने भी पारित किया. इस व्याख्यान से पहले मुक्तिबोध के बड़े बेटे रमेश मुक्तिबोध ने अपने पिता की कुछ यादों को श्रोताओं के सामने रखा जिसे सुनकर कईयों की आंखें छलछला आईं. उन्होंनें खासकर उन दिनों को याद किया जब १९६२ में यह प्रतिबंध लगा था, जब मुक्तिबोध का पक्ष सुनने को कोई तैय्यार न था, जब उनपर हमले हो रहे थे और कांग्रेसी सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की जनसंघ (आर.एस.एस.)की मांग को पूरा किया. इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे 'समकालीन जनमत' के प्रधान संपादक रामजी राय ने मुक्तिबोध की कविताओं से उद्धरण देते हुए यह स्थापित किया कि मुक्तिबोध आज़ादी के बाद की सत्ता-संरचना के सामंती और साम्राज्यवादी चरित्र को पहचानने वाले और उसकी फ़ासिस्ट परिणतियों को रेखांकित करने वाले हिंदुस्तान के पहले और सबसे ओजस्वी कवि-बुद्धिजीवी थे. रामजी राय ने स्पष्ट कहा कि मुक्तिबोध की ग्यानात्मक-संवेदना उनकी पार्टी की कार्यनीति के ठीक खिलाफ़ यह दिखला रही थी कि नेहरू-युग की चांदनी छलावा थी, कि देश का पूंजीपति वर्ग विदेशी पूंजी पर निर्भर था, कि पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता साम्प्रदायिक ताकतों के आगे सदैव घुटने टेकने को शुरू से ही मजबूर थी, जैसा कि मुक्तिबोध की पुस्तक पर प्रतिबंध के संदर्भ में उद्घाटित हुआ और उसके पहले और बाद में भी जिसके असंख्य उदाहरण हमारे सामने हैं. इस सत्र में कवि कमलेश्वर साहू की पुस्तक 'पानी का पता पूछ रही थी मछली' का विमोचन प्रों पांडेय ने किया. सत्र में श्रीमती शांता मुक्तिबोध (ग.मा. मुक्तिबोध की जीवन-संगिनी)व श्री रमेश मुक्तिबोध के लिए सम्मान-स्वरूप स्मृति-चिन्ह श्री रमेश मुक्तिबोध को जन संस्कृति मंच की ओर से प्रो. मैनेजर पांडेय ने प्रदान किया. ग्यातव्य है कि श्रीमती शांता मुक्तिबोध अस्वस्थता के कारण स्मृति समारोह में नहीं आ सकीं. इसके ठीक बाद कवि गोष्ठी मे सर्वश्री मंगलेश डबराल. वीरेन डंगवाल और विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी कविताओं का पाठ किया. हमारे समय के तीन शीर्ष कवियों का मुक्तिबोध की स्मृति में यह काव्यपाठ छत्तीसगढ़ के श्रोताओं के लिए यादगार हो गया. इस काव्य-गोष्ठी के ठीक बाद मंच से गुरु घासीदास विश्विद्यालय में पिछले ५ सालों से मुक्तिबोध की कविताओं को दुर्बोध बताते हुए पाठ्यक्रम से हटाए रखने की निंदा की गई और उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम में वापस लिए जाने की मांग की गई.
भिलाई -दुर्ग स्थित कला-मंदिर में इस समारोह में भाग लेने वाले तमाम कलाकारों के चित्रों के साथ महान प्रगतिशील चित्रकार चित्तो-प्रसाद के चित्रों की प्रदर्शिनी लगाई गई. सर्वश्री हरिसेन, सुनीता वर्मा, तुषार वाघेला, गिलबर्ट जोज़फ़, एफ़.आर.सिन्हा, डी.एस.विद्यार्थी, रश्मि भल्ला, ब्रजेश तिवारी. अंजलि, पवन देवांगन, रंधावा प्रसाद ,उत्तम सोनी आदि चित्रकारों के चित्र प्रदर्शित किए गए. सर्वश्री धनंजय पाल , कुलेश्वर चक्रधारी, ईशान, विक्रमजीत देव तथा खैरागढ़ से आए विद्यार्थियों की बनाई मूर्तियां भी प्रदर्शित की गईं. सर्वश्री अर्जुन और महेश वर्मा के बनाए खूबसूरत कविता-पोस्टर भी प्रांगण में सजाए गए थे. १३ नवम्बर के दिन की अंतिम प्रस्तुति थी सुश्री साधना रहटगांवकर का सूफ़ी गायन. गायन का यह सत्र प्रख्यात गायिका गंगूबाई हंगल तथा इकबाल बानो की स्मृति को समर्पित था.
१४ ववम्बर के दिन 'मांग के सिंदूर ' नाम के छत्तीसगढ़ी नाट्य-गीत संगठन के खुमान सिंह यादव और साथियों ने नाचा शैली के गीत और नाट्य पेश किए. उसके बाद बच्चों ने जनगीत प्रस्तुत किए.यह सत्र महान रंगकर्मी श्री हबीब तनवीर व नाट्य लेखक श्री प्रेम साइमन की याद को समर्पित था. दोपहर ३ बजे फ़िल्मोत्सव का उदघाटन विख्यात फ़िल्म-निर्देशक एम.एस. सथ्यू के हाथों हुआ. उदघाटन- सत्र की अध्यक्षता श्री राजकुमार नरूला ने की जबकि जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण और फ़िल्मोत्सव के संयोजक संजय जोशी ने विशेष अतिथियों के बतौर समारोह को संबोधित किया. श्री प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिस तरह तेल के लिए अमरीका ने ईराक को तबाह किया, उसी तरह अल्यूमिनियम , बाक्साइट आदि खनिजों के लिए हमारे देश की सरकार छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पूरे मध्य भारत के जंगलों, पहाड़ों और मैदानों में रहने वाले अपने ही नागरिकों के खिलाफ़ बड़े पूंजीपति घरानों के लाभ के लिए युद्ध छेड़ चुकी है. देश की सभी शासक पार्टियां भूमंडलीकरण पर एकमत हैं , लेकिन हर कहीं बगैर किसी संगठन, पार्टी और विचारधारा के भी गरीब जनता इस कार्पोरेट लूट के खिलाफ़ उठ खड़ी हो रही है, वह कलिंगनगर हो या सिंगूर, नंदीग्राम या लालगढ़. अपनी आजीविका और ज़िंदा रहने के अधिकार से वंचित, विस्थापित लोग अपनी ज़मीनों, जंगलों और पर्यावरण की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. चंद लोगों के विकास की कीमत बहुसंख्यक आबादी और पर्यावरण का विनाश है. मुक्तिबोध और उनकी कविता इस संघर्षरत आम जन की हमसफ़र है. श्री एम.एस. सथ्यू ने औद्योगिक विकास की रणनीति और माडल पर अपनी दुविधाओं को व्यक्त किया. श्री संजय जोशी ने फ़िल्म समारोहों की जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित श्रृंखलाओं को कारपोरेट, सरकारी और स्वयंसेवी समूहों पर आर्थिक निर्भरता से मुक्त जन-निर्भर संस्कृति- कर्म का उदाहरण बताया. १४ नवंबर के दिन चार्ली चैपलिन की 'माडर्न टाइम्स', गीतांजलि राय की एनिमेशन फ़िल्म 'प्रिंटेड रेनबो', विनोद राजा की डाक्यूमेंटरी 'महुआ मेमोयर्स' तथा डि सिका की क्लासिक 'बायसिकिल थीफ़' को सैकड़ों दर्शकों ने न केवल देखा, बल्कि उन पर चर्चा भी की. १५ नवम्बर के दिन पहला सत्र बच्चों की फ़िल्मों का था. पूरा कला-मंदिर बच्चों से भर उठा. यह सत्र रिषिकेश मुकर्जी और नीलू फुले की स्मृति को समर्पित था. इसमें राजेश चक्रवर्ती की 'हिप हिप हुर्रे', रैंडोल की बाल-फ़िल्म श्रंखला 'ओपन द डोर' और माजिद मजीदी की ईरानी फ़िल्म 'कलर आफ़ पैराडाइज़' दिखाई गईं.
इस दिन फ़िल्मों का दूसरा सत्र छत्तीसगढ़ी नाचा के अप्रतिम कलाकार मदन निषाद और फ़िदाबाई की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मिशेल डी क्लेरे की 'ब्लड ऐंड आयल', सूर्यशंकर दास की 'नियामराजा का विलाप', अमुधन आ.पी. की 'पी (शिट)', बीजू टोप्पो और मेघनाथ की 'लोहा गरम है', तुषार वाघेला की 'फ़ैंटम आफ़ ए फ़र्टाइल लैंड ' जैसी जन-प्रतिरोध की डाक्य़ूमेंटरी फ़िल्मों का प्रदर्शन किया गया. अंतिम सत्र चित्रकार मंजीत बावा, तैय्यब मेहता एवं आसिफ़ की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मंजिरा दता की "बाबूलाल भुइयन की कुर्बानी' और एम.एस. सथ्यू की 'गर्म हवा' प्रदर्शित की गईं. चर्चा सत्र में सैकड़ों दर्शकों के साथ फ़िल्म के बारे में एम.एस. सत्थ्यू ने देर रात तक चर्चा की. इसके बाद तीन द्विवसीय 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव' का समापन -सत्र सम्पन्न हुआ. ---
अर्जुन

सोमवार, 16 नवंबर 2009

जनसंघर्ष और विप्लव के कवि मुक्तिबोध

जनसंघर्ष और विप्लव के कवि मुक्तिबोध
रामायन राम


आज जब हिंदी के प्रगतिशील-जनवादी सोच के लेखकों को हम किसी भी सरकारी-गैर सरकारी पद-पुरस्कारों के लिए लपलपाते जीभ, तिकड़म करते और अपने इस कृत्य को जायज ठहराते हुए देखते हैं तो मुक्तिबोध का महत्व समझ में आता है। उनके लेखकीय व वैचारिक संघर्ष को नमन करने का मन होता है। आज साहित्य का जो परिदृश्य है, उसमें लेखकीय प्रतिबद्धता, सत्ता विरोध, जन पक्षधरता का लेखक के लिए जैसे कोई मूल्य नहीं है। यदि है भी तो आचरण में नहीं, मात्र लेखन तक। लेखक के लिए स्वयं अपने रचनात्मक मूल्यों को जीवन में उतारने की कोई बाध्यता या नैतिक जि मेदारी नहीं है। यह एक ऐसा चरम अवसरवादी समय है कि आप अपनी रचनाओं में जन पक्षधर हो सकते हैं, साथ ही अपने जीवन में मनुष्य विरोधी खेमे में आराम से खड़े रह सकते हैं। समाज में घृणा व विद्वेष पैदा करने वाले लोगों के आगे नतमस्तक होकर पुरस्कार तक ग्रहण कर सकते हैं।

मुक्तिबोध ने अपनी कविता अंधेरे मेंं में रात के अंधेरे में चलने वाले जुलूस की फैंटेसी के माध्यम से इन्हीं स्थितियों की ओर इशारा किया था। एक ऐसा फासिस्ट जुलूस जिसमें रात के अंधेरे में शहर के सफेदपोश कवि, साहित्यकार, डॉक्टर, वकील, पत्रकार, शहर के कु यात डोमाजी उस्ताद के साथ रहस्यमय अंदाज में चल रहे हैं। अंधेरे मेंं कविता में मुक्तिबोध की जो आशंकाएं (मुक्तिबोध ने कविता का शीर्षक पहले आशंका के द्वीप ज् अंधेरे में रखा था) थीं, वे आज विड बनाओं के रूप में हमारे सामने घटित हो रही हैं और हम उन्हें घटित होते देख रहे हैं।

मुक्तिबोध अपने समय में खड़े होकर भारत के अतीत, वर्तमान व भविष्य की समीक्षा करते नजर आते हैं। उनके सारे चिंतन व लेखन के मूल में है- कि सारे प्रश्न छलमय/और उत्तर भी छलमय/समस्या एक /अपने स य ग्रामों और नगरों में /सभी मानव सुखी, सुंदर व शोषण मुक्त कब होंगे। मुक्तिबोध ने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में निहित समझौता परस्ती को बहुत ही सफाई से पकड़ा था और आजादी के बाद के भारत में नवसाम्राज्यवादी खतरे को वे तेजी से राष्ट्रीय जीवन की ओर आता हुआ देख रहे थे। यह मुक्तिबोध की कविता और उनकी रचनात्मक दृष्टि की महानता ही है कि लगभग आधी सदी पहले लिखी गई पंçक्तयां आज भारत के राष्ट्रीय जीवन पर कुछ इस प्रकार सही सिद्ध हो रही हैं, मानो वे कविता नहीं सटीक भविष्यवाणियां हों- साम्राज्यवादियों के बदशक्ल चेहरे /एटमिक धुएं के बादलों से गहरे/क्षितिज पर छाए हैं /साम्राज्यवादियों के पैसे की संस्कृति /भारतीय आकृति में बंधकर /दिल्ली को वाशिंगटन व लंदन का उपनगर बनाने पर तुली है/ भारतीय धनतंत्री /जनतंत्री-बुद्धिजीवी /स्वेच्छा से उसी का कुली है।ं निश्चय ही यह कालदर्शी दृष्टि मुक्तिबोध ने वादमुक्तता और अराजनीतिकरण के लिजलिजे आग्रह के चलते नहीं पाई थी। अपने लेखकीय और वैचारिक संघर्ष में मुक्तिबोध ने जनसंघर्षों से प्रेरणा ग्रहण की। माक्र्सवाद और क्रांति में उनकी गहरी आस्था थी। देश में चल रहे तमाम विप्लवकारी संघर्षों से उन्होंने वैचारिक ऊर्जा ग्रहण की थी।

मुçक्तबोध समग्रता में वर्ग संघर्ष के कवि हैं। यह वर्ग संघर्ष जितना बाह्य जगत में घटित होता है, उससे कहीं ज्यादा कवि के आ यंतर में घटित होता है। उल्लेखनीय है कि मुçक्तबोध की कविताओं में मध्यवर्ग की मौकापरस्ती और वैचारिक ढुलमुलपन की मुçक्तबोध ने अपनी कविताओं में खूब आलोचना की है। लेकिन इन सभी आलोचनाओं का प्रस्थान बिंदु खुद मुक्तिबोध रहे हैं- जितना ही तीव्र है द्वंद्व क्रियाओं-घटनाओं का /बाहरी दुनिया में /उतनी ही तेजी से /भीतरी दुनिया में चलता है द्वंद्व कि /फिक्र से फिक्र लगी हुई है।ं और, इसी फिक्र ने मुक्तिबोध को क्वकहीं का नहीं छोड़ां। इस फिक्र को लिए हुए मुक्तिबोध अपने जीवन काल में रचनात्मक संघर्ष व जीवन संघर्ष में बेहद अकेले पड़े रहे। मुक्तिबोध अपने भीतर संघर्ष में लगातार अपने अवसरवादी, सुविधाभोगी, यशस्वी प्रतिपक्ष को पटखनी देते रहे और विप्लव के एक वंचित, स्वाभिमानी और गरवीले गरीबं कवि के रूप में अपना जीवन जीते रहे।

मुक्तिबोध के रचनात्मक लेखन की राह सीधी सपाट नहीं है। उनकी राह दुर्गम पहाड़ों से होकर गुजरने वाली ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों से बनती है। यही कारण है कि मुक्तिबोध का काव्य शिल्प आज बहुत लोगों को खटकता है और बहुत लोगों को आतंकित भी करता है। अपने विचारों व मानस को अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने फैंटेसी को कैनवस की तरह प्रयोग किया है। फैंटेसी के माध्यम से मुक्तिबोध हजारों सालों के भारतीय इतिहास व स यता की समीक्षा करते हैं- "हमारे भारत देश में /पुरानी हाय में से किस तरह से आग भभकेगी /उड़ेगी किस तरह भक से /हमारे वक्ष पर लेटी हुई विकराल चट्टानें /व उस पूरी क्रिया में से /उभरकर भव्य होंगे कौन मानव गुण।" बेशक मुक्तिबोध आधुनिक काल के सबसे बड़े हिंदी कवि और साहिçत्यक व्यçक्तत्व हैं।

(लेखक इलाहाबाद विवि के शोध छात्र और छात्र संगठन आइसा से जुडे़ हैं)

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

हरिजन बस्ती में गांधी बाबा


हरिजन बस्ती में गाँधीबाबा

- कौशल किशोर

बड़ी पुरानी कहावत है
घूरे के दिन भी फिरते हैं
ऐसे ही फिरे हैं हरिजन बस्ती के दिन
इस साल दो अक्तूबर के दिन

गाँव के चप्पे चप्पे की सफाई हो चुकी है
सड़क जो जगह जगह से टूटी
जिस पर पड़ी थी निराशा की कई कई परतें
पेवन लग गया है उन पर
बस्ती को घेर रखा था झाड़ झंखाड़ ने
सब काट दिये गये हैं
हर गली हर मोड़दिख रही है साफ सुथरी

झण्डे लहरा रहे हैं चारो तरफ
तिरंगों वाली साड़ियाँ बांट दी गई हैं
सलवार समीज फ्राक में बच्चियां
छिप गई है गरीबी
बच्चों का नंगापन
बूढे बुजुर्गों के सिर पर गाँधी टोपी
तिरंगा गमछा लहरा रहा है
हर नौजवान के गले में

सज धज कर तैयार है बस्ती
बदली बदली सी
क्यों न बदले आज के दिन
शहर से नेताजी आये हैं
नहीं........नहीं.....
बस्ती में अपने साथ वे पूरा शहर लाये हैं
मंत्री आये हैं
संतरी आये हैं
अफसर कमाण्डों
चमचा दलाल सब साथ लाये हैं

ट्रकों में भर भर कर आया है सारा सामान
टेंट कनात पंखा जेनरेटर मोटे मोटे गद्दे
सुविधा का यहाँ सारा इन्तजाम
और तो और लुका छिपा कर लाई गई है अंगरेजी
कुछ भी छूट न जाये रखा गया है ख्याल
कोई इधर दौड़ रहा कोई उधर भागा
जैसे सबको मिल गया काम

जेनरेटर की आवाज धक्...धक्...धक्
उछल कूद रहे हैं बच्चे
उनके लिए तो मेला है
टेंट कनात लग गया है
गद्दे बिछ गये हैं
झर... झर... हवा फेकता पंखा चल रहा है
जगमग चारो तरफ
किसी अल्हड़ बाला की तरह छिटक रही है रोशनी
गांधी स्नान ऐसा
कि रात में हो गया दिन
कि लोग कहते रोज होता गांधी बाबा का जन्म दिन

बड़ा सुदर्शन सा दृश्य है
जो बदल रहा परिदृश्य है
हलवाइयों ने संभाल लिया है मोर्चा
मुर्गा हलाल हो रहा
पूड़ियाँ तली जा रही
विविध व्यंजनों की सुगन्ध ऐसी
कि चाम की यह जीभ लपलपा उठे
मछली का झोल तैयार है
बस चैपाल के खत्म होने का इन्तजार है

वाह... वाह रे चैपाल
लगता जैसे किसी सितारा होटल का हाॅल
बड़ा सा पण्डाल
आम और खास
सब बैठे हैं साथ साथ
नरेगा में मिलता काम अभी सौ दिन
यह मिलेगा पूरे साल
सड़क पक्की होगी
इनार पोखर सबका होगा
छुआछूत मिटेगा

पास पूरी गठरी है
नाम है बापू का
पर माल वादे और वफादारी का
भर भर अँजुरी बांट रहे
सुखिया को लगता
मिट जायेंगे उसके दुख के दिन
दुखिया खुश है
आयेंगे उसके सुख के दिन

यह सब देख देख
मेरा मनवा भी कुछ कुछ कहता
गर जिन्दा होते गांधी बाबा
चेलों के इस नेह सनेह में
पूरा तर जाते गाँधी बाबा।
(लखनऊ, 03 अक्तूबर 2009) ______________________________

कौशल किशोर : एक परिचय

जन्म: सुरेमनपुर (बलिया), उत्तर प्रदेश, 01 जनवरी १९५४

जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में एक तथा जसम के प्रथम राष्ट्रीय संगठन सचिव।‘युवालेखन’ (1972 से 74) ‘परिपत्र’ (1975 से 78) तथा ‘जन संस्कृति’ (1983 से 90) का संपादन।पहल, युग परिबोध, उतरगाथा, जनमत, वर्तमान साहित्य, पुरुष, इसलिए, आइना, रविवार, प्रारुप, युवा, शरर, जनसत्ता, अमृत प्रभात, अमर उजाला, आज, अन्ततः आदि दर्जनों पत्र-पत्रिकाओ में रचनाएं प्रकाशित।कुछ कविताओं का बांग्ला, असमिया, पंजाबी व तेलुगु में अनुवाद।संप्रति: जन संस्कृति मंच, लखनऊ के संयोजक।संपर्क: एफ।3144, राजाजीपुरम, लखनऊ।226017फोन : 0522 2417726, 09335226034
ई मेल: kaushalsil.2008@rediffmail.comkaushalsil.2008@gmail.com



मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

समकालीन जनमत


‘समकालीन जनमत’ : अब नये तेवर और कलेवर के साथ

‘समकालीन जनमत’ हिन्दी की ऐसी पत्रिका है जो तीन दशक की अपनी यात्रा के दौरान न सिर्फ पटना से लेकर दिल्ली तक का सफर तय किया है बल्कि समय की मांग और जरूरत के अनुसार अपना स्वरूप बदलती रही है। जन आकांक्षा के अनुरूप इसके तेवर और कलेवर में भी बदलाव आता रहा है। कभी यह मासिक हुई तो कभी त्रैमासिक और कभी तो पाक्षिक। इसी तरह इसके आकार और स्वरूप में भी बदलाव आता रहा है। लेकिन जिस साहस, संकल्प और निर्भीकता के साथ अपनी यात्रा शुरू की थी, वह समय के साथ और भी मुखर हुई है। जनविरोधी शक्तियों और विचारों के प्रति आलोचनात्मक रुख तथा जनता के सच, संघर्ष और उसकी आकांक्षा को हर कीमत पर अभिव्यक्त करना, यह इसकी पहचान रही है।

‘जनमत’ 1980 के बिहार के किसान आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुई। इसने भोजपुर, आरा, जहानाबाद के किसान आन्दोलन को स्वर देते हुए देश के बौद्धिक व सांस्कृतिक विमर्श में हस्तक्षेप किया। लेखन से लेकर संसाधन तक के लिए जन सहयोग की बुनियाद पर खड़े होकर ‘जनमत’ ने मजबूती से समाज के उन तबकों की आवाज को बुलन्द किया जिनकी आवाज को मुख्यधारा की मीडिया में दरकिनार कर दिया जाता है। इस पत्रिका को जिलाए रखने के लिए किसानों ने धन जुटाया और अनाज तक का सहयोग दिया। ‘जनमत’ की शुरुआत पटना से हुई थी। अग्निपुष्प, नवेन्दु और श्रीकान्त - जैसे युवा लेखक व पत्रकार इसके शुरुआती संपादक थे। यह क्रान्तिकारी वामपंथी लेखक महेश्वर की प्रतिभा, परिश्रम और साथ था जिससे ‘जनमत’ में न सिर्फ राजनीतिक-वैचारिक गहराई आयी बल्कि इसके पाठकों का दायरा भी बढा। ‘आदमी को निर्णायक होना चाहिए’ इस वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ ताजिन्दगी संघर्ष करने वाले महेश्वर के लिए ‘जनमत’ उनका वैचारिक व सांस्कृतिक मंच था। ‘जनमत’ इसी प्रक्रिया में ‘समकालीन जनमत’ हुई। रामजी राय, बृजबिहारी पाण्डेय, सुधीर सुमन, प्रणय कृष्ण, के के पाण्डेय जैसे लेखक-संस्कृतिकर्मी पत्रिका के संपादन से जुड़े।

पिछले दिनों जब दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद के द्वारा साझी संस्कृति और प्रगतिशील मूल्यों को नष्ट कर देने की कोशिश हुई, सांप्रदायिक फासीवाद के द्वारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का हमला किया गया, इस चुनौती का मुकाबला करने के ‘समकालीन जनमत’ के स्वरूप में बदलाव आया और एक सांस्कृतिक पत्रिका के बतौर इस चुनौती का उसने यथासंभव मुकाबला किया।आज जिस तेजी से घटनाएं घटित हो रही हैं, लोग सिर्फ खबरे ही नहीं चाहते, उसका विश्लेषण भी चाहते हैं। हालत यह कि चाहे इलेक्ट्रानिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, इस पूरे मीडिया जगत पर देशी-विदेशी पूँजी और बाजार का भारी दबाव है जिसका नतीजा है कि मीडिया और पाठक/दर्शक के बीच माल और ग्राहक का रिश्ता बनता जा रहा है। सूचना साम्राज्य के इजारेदारों ने आम आदमी और गरीब मेहनतकशों के हितों और उनके पक्षधर विचारों को मीडिया से लगभग बेदखल कर दिया है। ऐसे हलचल भरे दौर में ‘समकालीन जनमत’ ने अपना स्वरूप फिर बदला है और मेहनतकश वर्ग और उनके संघर्ष के पक्ष में खबरें और विचार लेके हर महीने उनके बीच आना तय किया है। अब यह समाचार-विचार-राजनीति की मासिक पत्रिका के रूप में सामने आयी है जिसका नया अंक - अक्तूबर 2009 अंक - इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है। सुनील यादव इसके नए सम्पादक हैं।

‘समकालीन जनमत’ का नया अंक 1940-50 के दौरान बंगाल में चले किसान आन्दोलन के प्रसिद्ध चित्रकार चिŸाप्रसाद के चित्रों से सजा है। आवरण कथा के अन्तर्गत सुधीर सुमन का लेख ‘भगत सिंह का पंजाब आज’ है जो बताता है कि हरित क्रान्ति ने प्रदूषण का जो जहर पैदा किया है उसका दुष्प्रभाव ग्रामीण गरीबों को ही झेलना पड़ता है। अरिन्दम सेन का विशेष लेख है ‘वामपंथ: नई गतिशीलता की तलाश’। ‘पड़ोस’ स्तम्भ के अन्तर्ग पत्रकार और नेपाल मामलों के विशेषज्ञ आनन्द स्वरूप वर्मा बता रहे हैं ‘नेपाल: आसान नहीं है आगे की डगर’। जापान में हुए चुनाव में बदलाव के लिए जनादेश पर जहां सुन्दरम की टिप्पणी है वहीं भाषा सिंह ने बदनाम मोदी सरकार की पुलिस के द्वारा फर्जी मुठभेड़ के नाम पर ठण्डे दिमाग से की गई ‘इशरत जहां’ की हत्या के मुद्दे को उठाया है। ‘समय संवाद’ में अनिल सदगोपाल का लेख है ‘सिब्बल की शिक्षा का सच’।नये अंक में आनन्द प्रधान का लेख है ‘दोहा वार्ता: दिल्ली की बेताबी क्यों ?’ वहीं ‘अर्थजगत’ में तापस रंजन साह का विश्लेषणात्मक लेख है ‘बेलगाम क्यों है मँहगाई ?’ सुप्रसिद्ध मानवाधिकारवादी व बालरोग चिकित्सक डाॅ विनायक सेन का इंटरव्यू है जिसमें उनका कहना है कि शान्ति और निःसैन्यीकरण के लिए बड़े जन आंदोलन की जरूरत है। ओडीशा के नियमागिरी पर्वतमाला में ब्रिटेन की कंपनी वेदान्त एल्यूमीनियम को दिये खनन अधिकार ने किस तरह पर्यावरण, वहां के आदिवासियों तथ जीव.जन्तुओं के लिए संकट खड़ा किया है, इसकी पूरी कहानी बता रहे हैं मनोज सिंह। ‘समकालीन जनमत’ के इस अंक में बांग्ला के कवि नवारुण भट्टाचार्य तथा हिन्दी कवि दिनेश कुमार शुक्ल की कविताएँ हैं, वहीं चर्चित कवि वीरेन डंगवाल के नए कविता संग्रह ‘स्याही ताल’ की समीक्षा है। नये रूप में प्रकाशित ‘समकालीन जनमत’ का यह शुरुआती अंक होने के बावजूद प्रभावित करता है, आगे और बेहतर व विविधतापूर्ण पत्रिका की उम्मीद जगाता है।

‘समकालीन जनमत’ के इस नये अंक का लोकार्पण डाॅ भीमराव अम्बेडकर महासभा सभागार, लखनऊ में 8 अक्तूबर को हुआ। कार्यक्रम का आयोजन जन संस्कृति मंच और लेनिन पुस्तक केन्द्र ने संयुक्त रूप से किया जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि व कथाकार भगवान स्वरूप कटियार ने की। कार्यक्रम का संचालन कवि और जसम, लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने किया। पत्रिका का लोकार्पण करते हुए जाने-माने लेखक और पत्रकार अनिल सिन्हा ने कहा कि हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन से पत्रकारिता के क्षेत्र में जो सामाजिक व राष्ट्रीय चेतना आयी थी उसे पूँजी तथा बाजार के दबाव ने खत्म कर दिया है। आहत व व्यथित कर देने वाली खबरें और घटनाएं भी इस तरह से परोसी जा रही हैं जो हमें संवेदित नहीं करती। इस चिन्ताजनक स्थिति ने ही वैकल्पिक या जनपक्षधर मीडिया की जरूरत को सामने ला दिया है। ‘समकालीन जनमत’ का मासिक के बतौर प्रकाशन इस दिशा में एक कारगर व जरूरी कदम कहा जायेगा।इस मौके पर बोलते हुए ‘समकालीन जनमत’ के सम्पादक सुनील यादव ने कहा कि जब खूबसूरती से ‘आम आदमी’ के नारे की आड़ लेकर आम आदमी के सवालों को दरकिनार किया जा रहा है, हमारे पत्थर दिल नेता आत्ममुग्धता के शिकार होकर अपनी मूर्तियां गढवाने तथा हरिजन बस्ती में गांधी जयन्ती मनाने का नाटक करने में मशगूल हैं, ऐसे में इन ताकतों का पर्दाफाश करते हुए जनता के सच और संघर्ष को मीडिया के माध्यम से बुलन्द करना ही सच्ची पत्रकारिता है। इसी मकसद से ‘समकालीन जनमत’ को हम अपने पाठकों के हाथ सौंप रहे हैं। समाज की बेहतरी के लिए सक्रिय लोगों का सहयोग ही इसकी ताकत है ।

कार्यक्रम को अजय सिंह, डाॅ गिरीश चन्द श्रीवास्तव, सुभाषचन्द्र कुशवाहा, ताहिरा हसन, अनिल यादव, शोभा सिंह, वीरेन्द्र सारंग, श्याम अंकुरम, राजेश कुमार, के के वत्स, शालिनी बाजपेई, महेश पाण्डेय, आलोक पराड़कर, विमल किशोर, मंजु प्रसाद, बी एन गौड़, गंगा प्रसाद, दीपक श्रीवास्तव आदि लेखकों.पत्रकारों.संस्कृतिकर्मियों ने भी संबोधित किया तथा ‘समकालीन जनमत’ को अपनी शुभकामनाएं दीं। वक्ताओं का कहना था कि जहां उन्नत तकनीक की वजह से दृश्य व प्रिन्ट की गुणवŸाा बढी है वहीं मुख्यधारा की पत्रकारिता की विश्वसनीयता में गिरावटी दर्ज की जा रही है। बाजार और पूंजी के दबाव की वजह से जनसरोकारों के लिए मुख्यधारा की पत्रकारिता में जगह कम होती जा रही है। पत्रकारिता कारपोरेट पूंजी की गिरत में है। आज सम्पादकों, पत्रकारों, मीडिया से जुड़े कर्मचारियों के ऊपर छंटनी, रोजगार.असुरक्षा का शिकंजा कसता जा रहा है। पत्रकारों की स्वतन्त्रता और उनकी सृजनात्मकता खतरे में है। ये ही स्थितियां ‘समकालीन जनमत’ जैसी वैकल्पिक मीडिया की जरूरत को सामने लाती हैं। समकालीन जनमत: प्रधान संपादक-रामजी राय, संपादक-सुनील यादव, कीमत-15 रुपये, वार्षिक-150 रुपये, कार्यालय-171, कर्नलगंज (स्वराज भवन के सामने) , इलाहाबाद-211002, मो.09451845553़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़