शुक्रवार, 3 जून 2011

शमशेर, केदार व नागार्जुन जन्मशती समारोह "काल से होड़ लेती कविता "



कौशल किशोर

शमशेर, केदार और नागार्जुन न सिर्फ प्रगतिशील आंदोलन की उपज हैं बल्कि ये हिन्दी की प्रगतिशील काव्यधारा के निर्माता भी हैं। इनका एक ही साथ जन्मशताब्दी का होना महज संयोग हो सकता है लेकिन अपने समय व समाज में काल से होड़ लेने की इनकी प्रवृति कोई संयोग नहीं है। शमशेर तो ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ जैसी कविता तक रच डालते हैं: ‘काल तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू - तुझमें अपराजित मैं वास करूँ‘‘। अपराजित का यह भाव काल से गुत्थम गुत्था होने या एक कठिन संघर्ष में शामिल होने से ही पैदा होता है
और यह भाव इन तीनों कवियों में समान रूप से मौजूद है। यही बात है जो अपनी काव्यगत विशिष्टता के बावजूद ये प्रगतिशील कविता की त्रयी निर्मित करते हैं। इसीलिए इनके जन्मशताब्दी वर्ष पर इन्हें याद करना मात्र स्मरण करने की औपचारिकता का निर्वाह नहीं हो सकता बल्कि इसके द्वारा प्रगतिशील और संघर्षशील कविता की जड़ों को समझना है।

इसी समझ के साथ लखनऊ में 29 मई 2011 को जन संस्कृति मंच की ओर से ‘काल से होड़ लेती कविता’ शीर्षक से शमशेर, केदार व नागार्जुन जन्मशती समारोह का आयोजन स्थानीय जयशंकर प्रसाद सभागार में किया गया जिसके मुख्य वक्ता थे प्रसिद्ध आलोचक व जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष डॉ मैनेजर पाण्डेय तथा आयोजन की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने की। कार्यक्रम तीन हिस्सों में बँटा था जिसका पहला हिस्सा इन कवियों के कविता पाठ, चन्द्रेश्वर के कविता संग्रह ‘अब भी’ के लोकार्पण तथा उनके कविता पाठ का था। कार्यक्रम के दूसरे भाग में ‘हमारे वक्त में शमशेर, केदार व नागार्जुन का महत्व व प्रासंगिकता’ पर व्याख्यान था तथा अन्तिम भाग में ‘हमारे सम्मुख शमशेर’ से शमशेर के कविता पाठ की वीडियो फिल्म का प्रदर्शन था।

कविता पाठ व ‘अब भी’ का लोकार्पण

कार्यक्रम का आरम्भ भगवान स्वरूप कटियार द्वारा शमशेर की कविता ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ के पाठ से हुआ। उन्होंने शमशेर की कविता ‘बात बोलेगी’ तथा ‘ निराला के प्रति’ का भी पाठ किया। ‘जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है/तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है/जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है/जो रवि के रथ का घोड़ा है/वह जन मारे नहीं मरेगा/नहीं मरेगा’ केदार की इस प्रसिद्ध कविता का पाठ किया ब्रहमनारायण गौड़ ने। उन्होंने केदार की कविता ‘मजदूर का जन्म’ व ‘वीरांगना’ भी सुनाईं। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने नागार्जुन की दो कविताओं ‘अकाल और उसके बाद’ तथा ‘लजवन्ती’ का पाठ किया।

जन्मशती समारोह में मैनेजर पाण्डेय ने चन्द्रेश्वर के कविता संग्रह ‘अब भी’’ का लोकार्पण किया तथा चन्द्रेश्वर ने अपने इस संग्रह से ‘यकीन के साथ’, ‘उस औरत की फाइल में’, ‘हाफ स्वेटर’, ‘उनकी कविताएँ’, ‘कितना यकीन’ और ‘यह कैसा समय’ शीर्षक से कई कविताएँ सुनाईं और अपनी कविता के विविध रंगों से उपस्थित लोगों का परिचय कराया। उनकी कविता की ये पंक्तियाँ बहुत अन्दर तक संवेदित करती रहीं: ‘क्या आप यकीन के साथ कह सकते हैं/कि यह आप की ही कलम है/कि यह आपका चश्मा/आप का ही है/कि आपके ही हैं/ये जू
ते..... कितना अजीब है/ यह समय/कितना घालमेल/चीजों का/आप यह भी नहीं कह सकते/कि यही है... हाँ/यही है मेरा देश’।

‘अब भी’ का लोकार्पण करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि चन्द्रेश्वर की कविताएँ उस पेड़ की डाली हैं जिसकी जड़ें हैं नागार्जुन, केदार, शमशेर, त्रिलोचन और मुक्तिबोध। ये कविताएँ आज के समय के सवालों से टकराती हैं। यह ऐसा समय है जब सामाजिक संवेदनशीलता धीरे.धीरे नष्ट हो रही है। किसी को दूसरे के सुख.दुख से मतलब नहीं है। मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है। चन्द्रेश्वर की कविताएँ इस क्षरण को दर्ज करने वाली कविताएँ हैं। ये व्यवस्था विरोध की कविताएँ हैं और चन्द्रभूषण तिवारी जैसे इंकलाब चाहने वाले वामपंथी बुद्धिजीवी से प्रेरणा लेती है। चन्द्रेश्वर अपनी कविताओं से शमशेर, केदार व नागार्जुन की प्रगतिशील काव्यधारा की परम्परा
को आज के समय में आगे बढ़ाते हैं।

हमारे वक्त शमशेर, केदार व नागार्जुन

जन्मशती आयोजन में चर्चा का मुख्य विषय ‘शमशेर, केदार व नागार्जुन का महत्व व प्रासंगिकता’ था जिसके मुख्य वक्ता मैनेजर पाण्डेय थे। उन्होंने अपने व्याख्यान को मुख्यतौर से नागार्जुन व शमशेर की कविताओं पर केन्द्रित किया। उन्होंने चर्चा की शुरुआत आज के दौर से की और कहा कि यह स्मृतिहीनता का समय है। आज का सच यह है कि राजनीतिक दल अपने ही निर्माताओं को भूलने में लगे हैं। राजनीतिक नेता स्वाधीनता आन्दोलन के मूल्यों को भूला चुके हैं। उन्हें याद करें तो अपने अन्दर अपराध बोध होगा। मनमोहन सिंह यदि नेहरू को याद करें तो उन्हें नींद नहीं आयेगी। इन्दिरा गाँधी ने संविधान में संशोधन कर ‘समाजवाद’ शब्द शामिल किया था लेकिन यह सरकार जिस पूँजीवाद पर अमल कर रही है, वह लूट और झूठ की व्यवस्था है जहाँ ‘सत्यम’ सबसे बड़ा ‘झूठम’ साबित हुआ। संविधान का शपथ लेकर सरकार बनती है लेकिन आज वह अपने ही संविधान के विरुद्ध काम करती है। आज लोकतंत्र के ‘लोक’ का सरकारीकरण हो चुका है और वह ‘लोक सेवा आयोग’ और ‘लोक निर्माण विभाग’ में सिमट कर रह गया है। ऐसे में हमारे लिएं लोक और लोकतंत्र की जगह जन और जनतंत्र का इस्तेमाल करना ज्यादा बेहतर है।

नागार्जुन की कविताओं पर चर्चा करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि कविता वही जनतांत्रिक होती है जो जनता के लिए, जनता के बारे में, जनता की भाषा में लिखी जाय। इस अर्थ में नागार्जुन जनतंत्र के सबसे बड़े कवि हैं, संरचना, कथ्य और भाषा तीनों स्तरों पर। जब नागार्जुन कहते हैं कि ‘जन कवि हूँ/ साफ कहूँगा/ क्यों हकलाऊँ’’, तो उनके सामने उनकी दिशा स्पष्ट है। कवि जिसके लिए लिखता है, कथ्य व भाषा का चुनाव वह उसी के अनुरूप करता है। यह खासियत नागार्जुन की कविताओं में है। पर आज कुछ कवियों की कविताओं में हकलाहट है। आखिर यह हकलाहट कब आती है ? जब कविता से सुविधा पाने की चाह होती है तो मन में दुविधा आती है और जब मन में दुविधा होती है तो कंठ में हकलाहट का पैदा होना स्वाभाविक है।

नागार्जुन के काव्यलोक पर बोलते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि भारत जितना व्यापक और विविधताओं से भरा है, नागार्जुन का काव्यलोक भी उतना ही व्यापक और विविधतापूर्ण है। उन्होंने कश्मीर, केरल, मिजोरम और गुजरात पर कविताएँ लिखीं। उŸार से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम तक सारे भारत का भूगोल नागार्जुन की कविताओं में समाहित हैं। भाषा के स्तर पर भी नागार्जुन कई भाषाओं के कवि हैं। मूल रूप से मैथिली के कवि और हिन्दी के महाकवि नागार्जुन ने संस्कृत और बांग्ला में भी कविताएँ लिखी हैं।

मैनेजर पाण्डेय का कहना था कि आमतौर पर नागार्जुन को राजनीतिक कविताओं का कवि माना जाता है। इसकी वजह यह है कि उन्होंने नेहरू, इन्दिरा, मोरारजी, चरण सिंह से लेकर राजीव गाँधी तक अपने समय के दर्जनों राजनेताओं पर कविताएँ लिखीं और उन्हें अपनी कविता का निशाना बनाया। उन्होंने नागभूषण पटनायक जैसे क्रान्तिकारियों पर भी कविताएँ लिखीं। पर राजनीति ही उनकी कविता का विषय नहीं रहा है। बाबा नागार्जुन ने भारतीय सामाजिक जीवन पर भी ढ़ेर सारी कविताएँ लिखी हैं। यहाँ मनुष्य का दुख ही नहीं है बल्कि उसका सम्पूर्ण परिवेश है जहाँ कानी कुतिया, छिपकली, कौआ आदि सब मौजूद हैं जिनसे मनुष्य का रिश्ता है। कोई पूँजीवाद धरती का विस्तार नहीं कर सकता लेकिन वह जीवन, प्रकृति और संस्कृति का दोहन व लूटने तथा नष्ट करने में लगा है। बाबा की कविताएँ पूँजीवाद के प्रतिरोध की कविताएँ हैं। उनके हर संग्रह में प्रकृति सम्बन्धी कविताएँ मिल जायेंगी।

नागार्जुन की काव्यभाषा की चर्चा करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि आमतौर पर तीन तरह के कवि होते हैं। पहली श्रेणी में ऐसे कवि हैं जिनकी कविता की उठान तो बड़ी अच्छी होती है पर तीन कदम चलने के बाद ही भाषा लड़खड़ाने लगती है। दूसरी श्रेणी में हिन्दी के अधिकांश कवि हैं जिनकी कविता की भाषा शुरू से अन्त तक साफ, सुथरी व संतुलित है। पर बड़े कवि वे हैं जहाँ काव्य भाषा के जितने स्तर व रूप हैं, वे वहाँ है, सरलतम से लेकर सघनतम तक। तुलसीदास में जहाँ सरल चौपाइयाँ हैं, वहीं कवितावली व विनय पत्रिका की भाषा अलग है। निराला में ‘भिक्षुक’ कविता है तो ‘राम की शक्तिपूजा’ में काव्यभाषा का स्तर व रूप बिल्कुल भिन्न है। यही विशेषता नागार्जुन में मिलती है जो उन्हें महाकवि बनाती है।

शमशेर बहादुर सिंह की कविता के सम्बन्ध में मैनेजर पाण्डेय ने अपने वक्तव्य की शुरुआत इस प्रश्न से की कि शमशेर की कविता को कैसे न पढ़े और कैसे पढ़ें ? उनका कहना था कि आलोचकों ने शमशेर को मौन का कवि कहा है। दरअसल मौन वहाँ होता है जहाँ एक साधक अपने इष्ट से या एक भक्त अपने ईश्वर से साक्षात्कार करता है या फिर दुख में व्यक्ति मौन की स्थिति में होता है। यह विचार शमशेर जैसे कवि के बारे में कही जा रही है जिसके शब्द खुद बोलते हैं ‘बात बोलेगी/भेद खोलेगी/बात ही’ और कवि स्वयं काल से होड़ लेता है। यह रहस्यवादी आलोचना है जिसका काम सारी प्रगतिशील कविता को इसके जरिये ठिकाने लगाने की कोशिश है। इसके बरक्स भैतिकवादी आलोचना है जो मानती है कि भाषा मनुष्य को जीवन.जगत और एक.दूसरे से जोड़ती है। इसीलिए शमशेर की कविता को समझने के लिए जिन्दगी को समझना जरूरी है, हिन्दी.उर्दू की परम्परा को भी समझना जरूरी है।

शमशेर के काव्य के सम्बन्ध में मैनेजर पाण्डेय का कहना था कि बड़ी कविता वह है जो संकट के समय व्यक्ति के काम आये। शमशेर प्रकृति, संस्कृति और जिन्दगी के कवि हैं। गोस्वामी तुलसीदास की एक चौपाई है ‘पीपल पात सरिस मन डोला....’ । इन पंक्तियों का अर्थ वही समझ सकता है जिसने पीपल के पŸो का स्वभाव देखा है। शमशेर के काव्य को समझने के लिए उस अनुभव से गुजरना जरूरी है जिस अनुभव से ये कविताएँ सृजित हुई हैं। जिसने माउंट आबू की झील में डूबते सूर्य को नहीं देखा, वह उनकी इस प्राकृतिक क्रिया पर लिखी कविता के भाव को कैसे समझ सकता है।

मैनेजर पाण्डेय का कहना था कि यह रहस्यवादी आलोचना या आलोचना की खण्डित व एकांगी दृष्टि है जिसकी वजह से शमशेर कभी मौन के कवि नजर आते हैं तो कभी प्रेम व सौंदर्य के और कभी ऐन्द्रिकता के। शमशेर तो ‘सत्य का क्या रंग, पूछो एक संग’ के कवि हैं। उनकी नजर में तो सारी कलाएँ एक.दूसरे से जुड़ी हैं। शमशेर के यहाँ हिन्दी.उर्दू की एकता है और वे अपनी रचनाओं में काल से होड़ लेते हुए अपने समय के साथ उपस्थित होते हैं। वे ‘धर्मों के जो अखाड़े हैं, उन्हें लड़वा दिया जाय/क्या जरूरत हिन्दोस्ताँ पर हमला किया जाय।’ जैसा व्यंग्य करते हैं। अपने निहित स्वार्थ के लिए धर्म के इस्तेमाल पर चोट करते हैं, तो ‘अमन का राग’ के द्वारा शान्ति का राग छेड़ते हैं। शमशेर जटिल भी है और सरल भी। इसीलिए शमशेर पोपुलर नहीं, एक जरूरी कवि हैं।

केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं पर युवा आलोचक सुधीर सुमन ने अपना वक्तव्य रखा। उनका कहना था कि केदार देशज आधुनिकता के कवि हैं जिनकी कविताएँ अपनी परम्परा और इतिहास से गहरे तौर पर जुड़ी हुई है। उनके जीवन और कविता में जनता के स्वाभिमान, संघर्ष चेतना और जिन्दगी के प्रति एक गहरी आस्था मौजूद है। पूँजीवाद जिन मानवीय मूल्यों और सौंदर्य को नष्ट कर रहा है, उस पूँजीवादी संस्कृति और राजनीति के प्रतिवाद में केदार ने अपनी कविताएँ रचीं। उनकी कविताओं में जो गहरी उम्मीद है, किसान मेहनतकश जनता की जीत के प्रति , वह आज भी हमें ऊर्जावान बनाने में सक्षम है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि आजकल कविता के प्रति अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ है। यह सुखद है कि आज इस कार्यक्रम में कविता पर बात.विचार के लिए अच्छी तादाद में लोग यहाँ एकत्र हुए हैं। उन्होंने शंकर शैलेन्द्र का उदाहरण देते हुए बताया कि उनका लिखा गीत ‘हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ लाखों संघर्षशील जनता की जबान पर है। मानस की चौपाइयाँ लोगों को याद है। पर आज कवि को अपनी ही कविता याद नहीं रहती। उन्हें कविता पढ़ने के लिए अपनी डायरी का सहारा लेना पड़ता है। इस स्मृतिहीनता के कारण क्या कहीं कविता के भीतर तो मौजूद नही है ?

नरेश सक्सेना का कहना था कि शमशेर की कविताएँ खास तरह की हैं। शब्द सरल हैं, पर व्यंजना कठिन है। शमशेर व नागार्जुन ने अपनी कविता में सभी कलाओं का इस्तेमाल किया है। ‘बहुत दिना चूल्हा रोया, चक्की रही उदास’ कहरवा में है तो ‘प्रात नम था.......’ धमाल है। हम कविता के पास उसमें छिपे सौंदर्य व आनन्द की प्राप्ति के लिए जाते हैं। कविता यह काम करती है तभी वह मौन और सन्नाटे को तोड़ती सकती है।

हमारे सम्मुख शमशेर

कार्यक्रम के अन्तिम सत्र में शमशेर के कविता पाठ की वीडियो फिल्म दिखाई गई। इस फिल्म के माध्यम से शमशेर सामने थे। लोगों ने उन्हें अपनी कविता पढ़ते हुए देखा। इस फिल्म में उनके सभी संग्रहों - ‘कुछ कविताएँ’, ‘कुछ और कविताएँ’, ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ और ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ से कविताएँ थी। कविता प्रेमियों के लिए यह नया अनुभव था। शमशेर के मुख से लोगों ने उनकी गजलें भी सुनीं।

इस जन्मशती आयोजन में लखनऊ और अन्य जिलों से आये लेखकों, साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों की अच्छी.खासी उपस्थिति थी जिनमें रमेश दीक्षित, शोभा सिंह, शकील सिद्दीकी, वीरेन्द्र यादव, सुभाष राय, वंदना मिश्र, दयाशंकर राय, प्रभा दीक्षित व कमल किशोर श्रमिक ;कानपुरद्ध, राजेश कुमार, ताहिरा हसन, दिनेश प्रियमन ;उन्नावद्ध, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, शैलेन्द्र सागर, राकेश, अशोक चौधरी व मनोज सिंह ;गोरखपुरद्ध, चितरंजन सिंह ;इलाहाबादद्ध, सुशीला पुरी, अनीता श्रीवास्तव, विमला किशोर, मंजु प्रसाद, श्याम अंकुरम आदि प्रमुख थे। कार्यक्रम के अन्त ंमें मार्क्सवादी आलोचक चन्द्रबली सिंह के निधन पर दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई।

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