बुधवार, 25 नवंबर 2009

भगवान स्वरुप कटियार की कविता

शहादत की प्रतिध्वनि
(शहीद छात्र नेता चन्द्रशेखर के प्रति)

चन्दू
तुम, प्रकृति की लय पर
रच रहे थे जिन्दगी के गीत
पसीने, खून, मिट्टी
और रोशनी की बाते कर रहे थे तुम।

तुम गुनगुना रहे थे
बगावत की धुनें
और इतिहास के रंगमंच पर
प्रचण्ड तूफान उठा देने वाले
नाटक की तैयारी कर रहे थे तुम।

तुम बता रहे थे कि
अज्ञानता और गुलामी के
बन्द दरवाजे कैसे तोड़े जाते हैं।

आजादी, न्याय, सच्चाई, स्वाभिमान
और सौन्दर्य भरी जिन्दगी के लिए
तुम रोप रहे थे, इन्कलाब की पौध।

मुर्दा शांति
और कायर निठल्ले विमर्शो कें विरुद्ध
तुम दे रहे थे युद्ध को आमंत्रण।

तुम पिता के सपने
और मां की प्रतीक्षा को
आंसू के कतरे की तरह
जज्ब किये थे अपने सीने में
जलते हुए समय की छाती पर
यात्रा करते हुए
तुम सदी के जालिमो से
लोहा ले रहे थे
और उनसे छीन लाना चाहते थे
मानवता का दीप्तमान वैभव।

सच के आदिम पंखों की उड़ान पर
तुम लिख रहे थे
न्याय की गरिमा और उम्मीद की कविता
तुम बीहड़, कठिन जोखिम भरी
सुदूर यात्रा पर थे
और पहुंचना चाहते थे
उन धु्रवान्तों तक
जहां प्रतीक्षा थी
तुम्हारे आतुर ह्नदय
और सक्रिय विचारो के ताप की।

विद्रोह से प्रज्जवलित
राहों को रोशन करता हुआ था
तुम्हारा संघर्षशील जीवन
जो आकाश के अंधेरे से बूंद-बूंद
उजाला बन टपक रहा था प्रतिपल।

विद्रोह के सारे खतरे उठाते हुए
तुम मशगूल थे अपने मकसद में
बिना रुके, बिना ठिठके
तुम पहुंचना चाहते थे
अपने फैसले तक ।

तुम्हें विश्वास था
कि तुम्हारे सधे कदमो की धमक से
सहम कर खत्म हो जायेंगे
जालिमों के रचे अंधेरे ।

तुम कहते थे
देर से फैसले पर पहुंचना
आदमी को बूढ़ा कर देता है
इसलिए जीवन के प्याले को
छक कर पियो
और लगाओ चुनौतियों के ठहाके
पर कभी मत भूलो उन्हें
जिनके प्याले खाली हैं।

तुम अक्सर कहा करते थे
हमारी योजनाएं आश्चर्यजनक हों
पर व्यवहारिक भी
और सपने देखने की आदत
हमें सदैव बनाये रखनी होगी
ताकि अंधेरों में ढकेल दी गयीं
अच्छी चीजों को
हम फिर से ला सकें उजाले में।

कामरेड
आज हमें तुम्हारी
कल से ज्यादा जरूरत है
इसलिए तुम्हें अवतरित करना है
विचार की ताकत के रूप में
और ले जाना है जड़ों तक
और वहां से ऊपर उठाना है
फैली हुई टहनियों के पत्तों पर
आकाश की ओर।

तुम्हारी शहादत की ताकत से
हमें फिर बुलन्द करनी है आवाज
‘मुक्ति’ शब्द की
तुम्हारी शहादत की ताकत से ही
हमें प्राप्त करना है
आकाश से उसका नीलापन
वृक्षों से उनका हरापन
सूर्याेदय से उसकी लाली।

और दिनदहाड़े सीवान की सड़क पर
बहे हुए तुम्हारे खून से
युवा होने का जज्बा
पैदा करना चाहता हूँ
ताकि हथियारबन्द हत्यारों के गिरोहों
भुखमरी और युद्धों के बीच
हम रच सकें
उम्मीद और सर्जना के गीत
और जीवन का नया सौन्दर्य शास्त्र।
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भगवान स्वरूप कटियार: परिवर्तन की आकांक्षा के कवि
कौशल किशोर

भगवान स्वरूप कटियार (जन्म: 1 फरवरी १९५०) ऐसे कवि हैं जो बिना शोर किए काम में यकीन करते हैं। इनका व्यक्तित्व जितना सरल - सहज है , जितनी सादगी है इनमे , इनकी कविता की दुनिया भी ऐसी ही है , बिल्कुल आत्मीय। इनकी कविताओं को पढते-सुनते हुए बार-बार लगता है जैसे हमारी ही दुनिया व्यक्त हो रही है। वे घटनायें जो हमें लहूलुहान कर देती हैं , हमारे जीवन व विचार पर गहरा असर डालती हैं , इन कविताओं में उन्हीं की अभिव्यक्ति है। इसीलिए ये कविताएँ हमें प्रभावित करती हैं और हमारे विचार, समझ व संवेदना को सघन करते हुए हमारा यथार्थ बोध बढाती हैं।
भगवान स्वरूप कटियार की कविताओं में जन पीडा है तो मुक्ति की छटपटाहट भी है। इनकी कविताओं में ' मैं ' है ' माँ ' है , ' प्रेम ' है , ‘दुख’ है , ‘ख्वाब’ है , ' दलदल ' है, ' घर ' है और वह धरती है जो आज निशाने पर हैं। परिवार, समाज, देश और दुनिया से ये कविताएँ गुजरती हैं। इनकी विसंगतियों से जूझती हैं और अपनी राह तलाशती हैं। इसी से भगवान स्वरूप कटियार के काव्य व्यक्तित्व का निर्माण होता है। यहाँ भाषा की बाजीगरी नहीं हैं। अपनी बात को कहने के लिए किसी अस्वाभाविक प्रतीक , बिम्ब या मुहावरे की तलाश भी नहीं हैं। यहाँं बोधगम्यता व पठनीयता है। समय व समाज को समझने-समझाने की चेष्टा है। वास्तव में ये जटिल यथार्थ की सहज सरल कविताएँ हैं और यही भगवान स्वरूप कटियार की काव्य-कला है या इनकी खासियत है।

कवि भगवान स्वरूप कटियार दुनिया को प्रेम करने वाले और उसे सुन्दर बनाने के लिए अपनी सारी जिन्दगी लगा देने वाले उन साथियों से प्रेरित हुए बिना नहीं रह पाते जो इस जंग के योद्धा रहें हैं। जो शहीद हो गये या बिछड गये। ‘शहादत की प्रतिघ्वनि’ ऐसी ही कविता है जो उन्होंने शहीद छात्र नेता चन्द्रशेखर की याद में लिखी है। यहाँ शोक को शक्ति में बदल देने का संकल्प है, ‘तुम्हारे खून से युवा होने का जज्बा पैदा’ करने की चाहत है। शहीद भगत सिंह , बेंजामन मोलायास , जापानी कवि तोगे संकिची , अवतार सिंह पाश , कामरेड विनोद मिश्र , कथाकर मोहन थपलियाल , स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी पिता आदि सभी भगवान स्वरूप कटियार की कविताओं के माध्यम से हमारे बीच जीवित हो उठते है।

भागवान स्वरूप कटियार के दूसरे कविता संग्रह ' हवा का रूख टेढा है ' की भूमिका में वरिष्ठ कवि त्रिलोचन ने लिखा है ' नयी कविता पुरानी कविता से कई बातों में भिन्न हैं। नयी कविता में संवेदना के साथ-साथ मौजूदा हालातों से जूझने की कुव्वत भी है। अब ऐसी कविताएँ लिखी जा रही हंै कि मुट्ठियाँ तन जायें और आसमान में बदलाव के स्वर गूँज उठे। कटियार ऐसी ही कविताओं के प्रतिनिधि कवि हैं। इनकी कविताओं में नया तेवर है। ये संघर्ष और परिवर्तन की आंकाक्षा के कवि है ' , मैं समझता हूँ भगवान स्वरूप कटियार पर त्रिलोचन की यह टिप्पणी सर्वथा सटीक है, न सिर्फ कटियार की कविताओं के संबंध में बल्कि आज की कविताओं के संबंध में भी क्योंकि कला, साहित्य, कविता या कोई भी सृजनात्मक-रचनात्मक कर्म एक गहन मानवीय चेष्टा है। वह कभी भी अपने समाज व समय से असंपृक्त रह ही नहीं सकता। यही कविता की सामाजिकता है। भगवान स्वरूप कटियार का कवि-कर्म अपनी सामाजिक भूमिका के प्रति सजग-सचेत हैं, यहीं उन्हें महत्वपूर्ण कवि बनाता है तथा उनकी कविता को हमारे लिए जरूरी।

बुधवार, 18 नवंबर 2009

मुक्तिबोध स्मृति समारोह


जनसंस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'( १३-१५, नवम्बर, २००९):


एक संक्षिप्त रिपोर्ट


अर्जुन



मुक्तिबोध के जन्मदिवस पर शुरु हुआ भिलाई में जन संस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'( १३-१५, नवम्बर, २००९). प्रथम मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यानमाला की शुरुआत की जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय ने. उन्होंने मुक्तिबोध की प्रतिबंधित पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति' को ही अपने व्याख्यान का विषय बनाते हुए उसकी मार्फ़त अपने समय को जानने समझने की प्रक्रिया को रेखांकित किया. उन्होंने मांग की कि १९६२ में मुक्तिबोध की पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति " पर लगाया गया प्रतिबंध मध्य प्रदेश सरकार वापस ले. ऎसा करते ही अदालत द्वारा प्रतिबंध की अनुशंसा खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी. बाद में इसे प्रस्ताव के रूप में सदन ने भी पारित किया. इस व्याख्यान से पहले मुक्तिबोध के बड़े बेटे रमेश मुक्तिबोध ने अपने पिता की कुछ यादों को श्रोताओं के सामने रखा जिसे सुनकर कईयों की आंखें छलछला आईं. उन्होंनें खासकर उन दिनों को याद किया जब १९६२ में यह प्रतिबंध लगा था, जब मुक्तिबोध का पक्ष सुनने को कोई तैय्यार न था, जब उनपर हमले हो रहे थे और कांग्रेसी सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की जनसंघ (आर.एस.एस.)की मांग को पूरा किया. इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे 'समकालीन जनमत' के प्रधान संपादक रामजी राय ने मुक्तिबोध की कविताओं से उद्धरण देते हुए यह स्थापित किया कि मुक्तिबोध आज़ादी के बाद की सत्ता-संरचना के सामंती और साम्राज्यवादी चरित्र को पहचानने वाले और उसकी फ़ासिस्ट परिणतियों को रेखांकित करने वाले हिंदुस्तान के पहले और सबसे ओजस्वी कवि-बुद्धिजीवी थे. रामजी राय ने स्पष्ट कहा कि मुक्तिबोध की ग्यानात्मक-संवेदना उनकी पार्टी की कार्यनीति के ठीक खिलाफ़ यह दिखला रही थी कि नेहरू-युग की चांदनी छलावा थी, कि देश का पूंजीपति वर्ग विदेशी पूंजी पर निर्भर था, कि पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता साम्प्रदायिक ताकतों के आगे सदैव घुटने टेकने को शुरू से ही मजबूर थी, जैसा कि मुक्तिबोध की पुस्तक पर प्रतिबंध के संदर्भ में उद्घाटित हुआ और उसके पहले और बाद में भी जिसके असंख्य उदाहरण हमारे सामने हैं. इस सत्र में कवि कमलेश्वर साहू की पुस्तक 'पानी का पता पूछ रही थी मछली' का विमोचन प्रों पांडेय ने किया. सत्र में श्रीमती शांता मुक्तिबोध (ग.मा. मुक्तिबोध की जीवन-संगिनी)व श्री रमेश मुक्तिबोध के लिए सम्मान-स्वरूप स्मृति-चिन्ह श्री रमेश मुक्तिबोध को जन संस्कृति मंच की ओर से प्रो. मैनेजर पांडेय ने प्रदान किया. ग्यातव्य है कि श्रीमती शांता मुक्तिबोध अस्वस्थता के कारण स्मृति समारोह में नहीं आ सकीं. इसके ठीक बाद कवि गोष्ठी मे सर्वश्री मंगलेश डबराल. वीरेन डंगवाल और विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी कविताओं का पाठ किया. हमारे समय के तीन शीर्ष कवियों का मुक्तिबोध की स्मृति में यह काव्यपाठ छत्तीसगढ़ के श्रोताओं के लिए यादगार हो गया. इस काव्य-गोष्ठी के ठीक बाद मंच से गुरु घासीदास विश्विद्यालय में पिछले ५ सालों से मुक्तिबोध की कविताओं को दुर्बोध बताते हुए पाठ्यक्रम से हटाए रखने की निंदा की गई और उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम में वापस लिए जाने की मांग की गई.
भिलाई -दुर्ग स्थित कला-मंदिर में इस समारोह में भाग लेने वाले तमाम कलाकारों के चित्रों के साथ महान प्रगतिशील चित्रकार चित्तो-प्रसाद के चित्रों की प्रदर्शिनी लगाई गई. सर्वश्री हरिसेन, सुनीता वर्मा, तुषार वाघेला, गिलबर्ट जोज़फ़, एफ़.आर.सिन्हा, डी.एस.विद्यार्थी, रश्मि भल्ला, ब्रजेश तिवारी. अंजलि, पवन देवांगन, रंधावा प्रसाद ,उत्तम सोनी आदि चित्रकारों के चित्र प्रदर्शित किए गए. सर्वश्री धनंजय पाल , कुलेश्वर चक्रधारी, ईशान, विक्रमजीत देव तथा खैरागढ़ से आए विद्यार्थियों की बनाई मूर्तियां भी प्रदर्शित की गईं. सर्वश्री अर्जुन और महेश वर्मा के बनाए खूबसूरत कविता-पोस्टर भी प्रांगण में सजाए गए थे. १३ नवम्बर के दिन की अंतिम प्रस्तुति थी सुश्री साधना रहटगांवकर का सूफ़ी गायन. गायन का यह सत्र प्रख्यात गायिका गंगूबाई हंगल तथा इकबाल बानो की स्मृति को समर्पित था.
१४ ववम्बर के दिन 'मांग के सिंदूर ' नाम के छत्तीसगढ़ी नाट्य-गीत संगठन के खुमान सिंह यादव और साथियों ने नाचा शैली के गीत और नाट्य पेश किए. उसके बाद बच्चों ने जनगीत प्रस्तुत किए.यह सत्र महान रंगकर्मी श्री हबीब तनवीर व नाट्य लेखक श्री प्रेम साइमन की याद को समर्पित था. दोपहर ३ बजे फ़िल्मोत्सव का उदघाटन विख्यात फ़िल्म-निर्देशक एम.एस. सथ्यू के हाथों हुआ. उदघाटन- सत्र की अध्यक्षता श्री राजकुमार नरूला ने की जबकि जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण और फ़िल्मोत्सव के संयोजक संजय जोशी ने विशेष अतिथियों के बतौर समारोह को संबोधित किया. श्री प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिस तरह तेल के लिए अमरीका ने ईराक को तबाह किया, उसी तरह अल्यूमिनियम , बाक्साइट आदि खनिजों के लिए हमारे देश की सरकार छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पूरे मध्य भारत के जंगलों, पहाड़ों और मैदानों में रहने वाले अपने ही नागरिकों के खिलाफ़ बड़े पूंजीपति घरानों के लाभ के लिए युद्ध छेड़ चुकी है. देश की सभी शासक पार्टियां भूमंडलीकरण पर एकमत हैं , लेकिन हर कहीं बगैर किसी संगठन, पार्टी और विचारधारा के भी गरीब जनता इस कार्पोरेट लूट के खिलाफ़ उठ खड़ी हो रही है, वह कलिंगनगर हो या सिंगूर, नंदीग्राम या लालगढ़. अपनी आजीविका और ज़िंदा रहने के अधिकार से वंचित, विस्थापित लोग अपनी ज़मीनों, जंगलों और पर्यावरण की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. चंद लोगों के विकास की कीमत बहुसंख्यक आबादी और पर्यावरण का विनाश है. मुक्तिबोध और उनकी कविता इस संघर्षरत आम जन की हमसफ़र है. श्री एम.एस. सथ्यू ने औद्योगिक विकास की रणनीति और माडल पर अपनी दुविधाओं को व्यक्त किया. श्री संजय जोशी ने फ़िल्म समारोहों की जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित श्रृंखलाओं को कारपोरेट, सरकारी और स्वयंसेवी समूहों पर आर्थिक निर्भरता से मुक्त जन-निर्भर संस्कृति- कर्म का उदाहरण बताया. १४ नवंबर के दिन चार्ली चैपलिन की 'माडर्न टाइम्स', गीतांजलि राय की एनिमेशन फ़िल्म 'प्रिंटेड रेनबो', विनोद राजा की डाक्यूमेंटरी 'महुआ मेमोयर्स' तथा डि सिका की क्लासिक 'बायसिकिल थीफ़' को सैकड़ों दर्शकों ने न केवल देखा, बल्कि उन पर चर्चा भी की. १५ नवम्बर के दिन पहला सत्र बच्चों की फ़िल्मों का था. पूरा कला-मंदिर बच्चों से भर उठा. यह सत्र रिषिकेश मुकर्जी और नीलू फुले की स्मृति को समर्पित था. इसमें राजेश चक्रवर्ती की 'हिप हिप हुर्रे', रैंडोल की बाल-फ़िल्म श्रंखला 'ओपन द डोर' और माजिद मजीदी की ईरानी फ़िल्म 'कलर आफ़ पैराडाइज़' दिखाई गईं.
इस दिन फ़िल्मों का दूसरा सत्र छत्तीसगढ़ी नाचा के अप्रतिम कलाकार मदन निषाद और फ़िदाबाई की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मिशेल डी क्लेरे की 'ब्लड ऐंड आयल', सूर्यशंकर दास की 'नियामराजा का विलाप', अमुधन आ.पी. की 'पी (शिट)', बीजू टोप्पो और मेघनाथ की 'लोहा गरम है', तुषार वाघेला की 'फ़ैंटम आफ़ ए फ़र्टाइल लैंड ' जैसी जन-प्रतिरोध की डाक्य़ूमेंटरी फ़िल्मों का प्रदर्शन किया गया. अंतिम सत्र चित्रकार मंजीत बावा, तैय्यब मेहता एवं आसिफ़ की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मंजिरा दता की "बाबूलाल भुइयन की कुर्बानी' और एम.एस. सथ्यू की 'गर्म हवा' प्रदर्शित की गईं. चर्चा सत्र में सैकड़ों दर्शकों के साथ फ़िल्म के बारे में एम.एस. सत्थ्यू ने देर रात तक चर्चा की. इसके बाद तीन द्विवसीय 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव' का समापन -सत्र सम्पन्न हुआ. ---
अर्जुन

सोमवार, 16 नवंबर 2009

जनसंघर्ष और विप्लव के कवि मुक्तिबोध

जनसंघर्ष और विप्लव के कवि मुक्तिबोध
रामायन राम


आज जब हिंदी के प्रगतिशील-जनवादी सोच के लेखकों को हम किसी भी सरकारी-गैर सरकारी पद-पुरस्कारों के लिए लपलपाते जीभ, तिकड़म करते और अपने इस कृत्य को जायज ठहराते हुए देखते हैं तो मुक्तिबोध का महत्व समझ में आता है। उनके लेखकीय व वैचारिक संघर्ष को नमन करने का मन होता है। आज साहित्य का जो परिदृश्य है, उसमें लेखकीय प्रतिबद्धता, सत्ता विरोध, जन पक्षधरता का लेखक के लिए जैसे कोई मूल्य नहीं है। यदि है भी तो आचरण में नहीं, मात्र लेखन तक। लेखक के लिए स्वयं अपने रचनात्मक मूल्यों को जीवन में उतारने की कोई बाध्यता या नैतिक जि मेदारी नहीं है। यह एक ऐसा चरम अवसरवादी समय है कि आप अपनी रचनाओं में जन पक्षधर हो सकते हैं, साथ ही अपने जीवन में मनुष्य विरोधी खेमे में आराम से खड़े रह सकते हैं। समाज में घृणा व विद्वेष पैदा करने वाले लोगों के आगे नतमस्तक होकर पुरस्कार तक ग्रहण कर सकते हैं।

मुक्तिबोध ने अपनी कविता अंधेरे मेंं में रात के अंधेरे में चलने वाले जुलूस की फैंटेसी के माध्यम से इन्हीं स्थितियों की ओर इशारा किया था। एक ऐसा फासिस्ट जुलूस जिसमें रात के अंधेरे में शहर के सफेदपोश कवि, साहित्यकार, डॉक्टर, वकील, पत्रकार, शहर के कु यात डोमाजी उस्ताद के साथ रहस्यमय अंदाज में चल रहे हैं। अंधेरे मेंं कविता में मुक्तिबोध की जो आशंकाएं (मुक्तिबोध ने कविता का शीर्षक पहले आशंका के द्वीप ज् अंधेरे में रखा था) थीं, वे आज विड बनाओं के रूप में हमारे सामने घटित हो रही हैं और हम उन्हें घटित होते देख रहे हैं।

मुक्तिबोध अपने समय में खड़े होकर भारत के अतीत, वर्तमान व भविष्य की समीक्षा करते नजर आते हैं। उनके सारे चिंतन व लेखन के मूल में है- कि सारे प्रश्न छलमय/और उत्तर भी छलमय/समस्या एक /अपने स य ग्रामों और नगरों में /सभी मानव सुखी, सुंदर व शोषण मुक्त कब होंगे। मुक्तिबोध ने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में निहित समझौता परस्ती को बहुत ही सफाई से पकड़ा था और आजादी के बाद के भारत में नवसाम्राज्यवादी खतरे को वे तेजी से राष्ट्रीय जीवन की ओर आता हुआ देख रहे थे। यह मुक्तिबोध की कविता और उनकी रचनात्मक दृष्टि की महानता ही है कि लगभग आधी सदी पहले लिखी गई पंçक्तयां आज भारत के राष्ट्रीय जीवन पर कुछ इस प्रकार सही सिद्ध हो रही हैं, मानो वे कविता नहीं सटीक भविष्यवाणियां हों- साम्राज्यवादियों के बदशक्ल चेहरे /एटमिक धुएं के बादलों से गहरे/क्षितिज पर छाए हैं /साम्राज्यवादियों के पैसे की संस्कृति /भारतीय आकृति में बंधकर /दिल्ली को वाशिंगटन व लंदन का उपनगर बनाने पर तुली है/ भारतीय धनतंत्री /जनतंत्री-बुद्धिजीवी /स्वेच्छा से उसी का कुली है।ं निश्चय ही यह कालदर्शी दृष्टि मुक्तिबोध ने वादमुक्तता और अराजनीतिकरण के लिजलिजे आग्रह के चलते नहीं पाई थी। अपने लेखकीय और वैचारिक संघर्ष में मुक्तिबोध ने जनसंघर्षों से प्रेरणा ग्रहण की। माक्र्सवाद और क्रांति में उनकी गहरी आस्था थी। देश में चल रहे तमाम विप्लवकारी संघर्षों से उन्होंने वैचारिक ऊर्जा ग्रहण की थी।

मुçक्तबोध समग्रता में वर्ग संघर्ष के कवि हैं। यह वर्ग संघर्ष जितना बाह्य जगत में घटित होता है, उससे कहीं ज्यादा कवि के आ यंतर में घटित होता है। उल्लेखनीय है कि मुçक्तबोध की कविताओं में मध्यवर्ग की मौकापरस्ती और वैचारिक ढुलमुलपन की मुçक्तबोध ने अपनी कविताओं में खूब आलोचना की है। लेकिन इन सभी आलोचनाओं का प्रस्थान बिंदु खुद मुक्तिबोध रहे हैं- जितना ही तीव्र है द्वंद्व क्रियाओं-घटनाओं का /बाहरी दुनिया में /उतनी ही तेजी से /भीतरी दुनिया में चलता है द्वंद्व कि /फिक्र से फिक्र लगी हुई है।ं और, इसी फिक्र ने मुक्तिबोध को क्वकहीं का नहीं छोड़ां। इस फिक्र को लिए हुए मुक्तिबोध अपने जीवन काल में रचनात्मक संघर्ष व जीवन संघर्ष में बेहद अकेले पड़े रहे। मुक्तिबोध अपने भीतर संघर्ष में लगातार अपने अवसरवादी, सुविधाभोगी, यशस्वी प्रतिपक्ष को पटखनी देते रहे और विप्लव के एक वंचित, स्वाभिमानी और गरवीले गरीबं कवि के रूप में अपना जीवन जीते रहे।

मुक्तिबोध के रचनात्मक लेखन की राह सीधी सपाट नहीं है। उनकी राह दुर्गम पहाड़ों से होकर गुजरने वाली ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों से बनती है। यही कारण है कि मुक्तिबोध का काव्य शिल्प आज बहुत लोगों को खटकता है और बहुत लोगों को आतंकित भी करता है। अपने विचारों व मानस को अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने फैंटेसी को कैनवस की तरह प्रयोग किया है। फैंटेसी के माध्यम से मुक्तिबोध हजारों सालों के भारतीय इतिहास व स यता की समीक्षा करते हैं- "हमारे भारत देश में /पुरानी हाय में से किस तरह से आग भभकेगी /उड़ेगी किस तरह भक से /हमारे वक्ष पर लेटी हुई विकराल चट्टानें /व उस पूरी क्रिया में से /उभरकर भव्य होंगे कौन मानव गुण।" बेशक मुक्तिबोध आधुनिक काल के सबसे बड़े हिंदी कवि और साहिçत्यक व्यçक्तत्व हैं।

(लेखक इलाहाबाद विवि के शोध छात्र और छात्र संगठन आइसा से जुडे़ हैं)