वह औरत नहीं महानद थी
कौशल किशोर
वह जुलूस के पीछे थी
उछलती फुदकती
दूर से बिलकुल
मेढ़क सी नजर आ रही थी
पर वह मेढ़क नहीं स्त्री थी
जूलूस में चलती हुई
नारे लगाती हुई
उसके कंधे से लटक रहा था झोला
जिसमें थीं कुछ मुड़ी तुड़ी रोटियाँ
एक ग्लास, कंघा
और पानी की बोतल
पोलियोग्रस्त उसके पैर धड़ से चिपके थे
दो सियामी जुड़वाँ बहनों की तरह
वे धड़ के साथ उठते
उसी के संग बैठते
दोनों हाथ उसके पैर भी थे
इन्हीं पर अपने पूरे शरीर को उठाती
और आगे हवा में झटक देती
इसी तरह वह आगे बढ़ रही थी जुलूस में
इसी तरह उसने रेलवे स्टेशन के पुल को पार किया था
इसी तरह वह शहीद स्मारक की सीढ़ियाँ चढ़ी थी
इसी तरह वह आई थी गोंडा से
इसी तरह वह कहीं भी आ और जा सकती थी
कठिन जिन्दगी को
इसी तरह उसने बना दिया था आसान
प्रदेश की राजधानी में वह आई थी
समानता और सम्मान के अपने संघर्ष के
सौ साल को सलाम करने
वह आई थी
यह इतिहास चक्रव्यूह ही तो रहा है
इसे तोड़ बाहर निकलने की छटपटाहट के साथ
वह आई थी
वह जुलूस में चल रही थी पीछे पीछे
नारे जब हवा में गँूजते
जुलूस के उठते थे हाथ
और उसके उठते थे सिर उर्ध्वाधर दिशा में
तने हुए
लहरा उठते बाल
मचलती आवारा लटें
हवा में तरंगित स्वर लहरी
वह बिखेर रही थी सौन्दर्य
खुशबू ऐसी
जिसमें रोमांचित हो रहा था उसका प्रतिरोध
भाप इंजन का फायरमैन बनी
अपना सारा कोयला वह झोके दे रही थी
सड़क की दोनों पटरी पर खड़े लोगों के लिए
वह लग रही थी अलग सी
कुछ अजूबा भी
उनके मन में थोड़ी दया
थोड़ा तरस भी था
और हर भाव से संवाद करती
वह बढ़ रही थी आगे आगे.... और आगे
यह जुलूस रोज रोज की रैली
राजनीतिक खेल और तमाशा
शहरियो के मन में खीझ नफरत
हिकारत भरे भाव
कि जुटाई गई भीड़
पैसे के लालच में आई है यह
अपने पांवो पर चल नहीं सकती
हूँ.......खाक लड़ेगी सरकार से !
इस शहरी अभिजात्य व्यंग्य पर
वह हँस रही थी
क्या जाने लड़ाइयाँ
कहाँ कहाँ और कैसे कैसे लड़ी गई हैं
कितनी गहरी हैं जडं़े
और कितना विशाल है इतिहास
क्या मालूम कि पैरों से पहले
वह दिल दिमाग से लड़ी जाती हैं
और वह सही सलामत है उसके पास
पूरा साबूत
वह जनसभा में सबसे आगे थी
कृष्णा, ताहिरा, विद्या, शोभा, शारदा, विमल, रेणु.......
अपनी असंख्य साथियों में वह थी
और सब थीं उसमें समाई हुई
पहाड़ी नदियाँ उतर रही थीं चट्टानों से टकराती
उछाल लेती
लहराती मचलती बलखाती
बढ़ती उसी की ओर
अब वह औरत नहीं महानद थी।
( रचना तिथि: 8 मार्च 2010, अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर लखनऊ में हुई महिलाओं की रैली के बीच इस कविता ने जन्म लिया )
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
गुरुवार, 1 जुलाई 2010
मदन कश्यप का कविता पाठ
‘जहाँ जहाँ लोग हैं बेहाल/जहाँ जहाँ है भोपाल/वहाँ वहाँ है अमेरिका’
कौशल किशोर
आज का माहौल कविता विरोधी है। ऐसे में कविता सामाजिक बदलाव का हथियार बने, यह मुमकिन नहीं। लेकिन वह मनुष्य को संवेदनशील तो बना ही सकती है। मनुष्य विरोधी आज के दौर में कविता इतना भी काम कर सके तो बड़ी बात है। जंगल-जमीन-पहाड़ से लोगों को उजाड़ा जा रहा है और यह सब विकास के नाम पर हो रहा है। वह अपने पक्ष में माहौल बना रही है। तरह-तरह के तर्क पेश हो रहे हैं। भाषा को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। कविता इसके विरुद्ध खड़ी हो और वह हमारी संवेदना के विस्तार का औजार बने, यह जरूरी है।
यह विचार हिन्दी कवि मदन कश्यप ने व्यक्त किये। जन संस्कृति मंच ने राज्य सूचना केन्द्र, हजरतगंज, लखनऊ में 21 जून को मदन कश्यप के कविता पाठ और उनसे संवाद का कार्यक्रम आयोजित किया था। इसी अवसर पर वे बोल रहे थे। मदन कश्यप हिन्दी के उन महत्वपूर्ण कवियों में हैं जो जनजीवन की जड़ों तक जाते हैं और जीवन के द्वन्द्व की पड़ताल करते हैं। मदन कश्यप के अब तक तीन कविता संग्रह - ‘लेकिन उदास है पृथ्वी’, ‘नीम रोशनी में’ व ‘कुरूज’ और ‘कवि ने कहा’ (चयनित प्रतिनिधि कविताएँ) तथा दो निबन्ध संग्रह ‘मतभेद’ व ‘लहूलुहान लोकतंत्र’ प्रकाशित हो चुके हैं। अभी हाल में मदन कश्यप को कविता के लिए शमशेर सम्मान भी प्रदान किया गया।
इस मौके पर मदन कश्यप ने अपनी करीब एक दर्जन कविताएँ सुनाईं। शुरुआत उन्होंने ‘चाहतें’ से की - ‘वे पेड़ों को काटना नहीं चाहते/उनका हरापन चूस लेना चाहते हैं/वे पहाड़ों को रौंदना नहीं चाहते/उनकी दृढ़ता निचोड़ लेना चाहते हैं/वे नदियों को पाटना नहीं चाहते/उनके प्रवाह रोक देना चाहते हैं/अगर पूरी हो गई उनकी चाहतें/तो जाने कैसी लगेगी यह दुनिया !’ उन्होंने ‘गनीमत है’, ‘अमेरिका’, ‘डालर’, ‘हवा में पुल’, ‘चूल्हे के पास’, ‘स्त्रियों का रोना’, ‘आंझुलिया’, ‘रफ़ूगरी’, ‘सलवा जुडुम’, ‘बिजुका’, ‘बहुरुपिया’ सहित आदिवासियों के जीवन और संघर्ष पर हाल में लिखी कविताओं का पाठ किया।
मदन कश्यप की कविता ‘अमेरिका’ का रचना काल 1985 का है। कविता में अमेरिका का जो नक्शा खींचा गया है, वह सच्चाई आज और मुखर होकर दुनिया के सामने आई है - ‘ नक्शे में आँखें मत धँसाओ/सिर ऊपर उठाकर दुनिया को देखो/जहाँ।जहाँ गूँजती है उत्पीड़ितों की चीख/जहाँ.जहाँ हँसता है तानाशाह/ जहाँ-जहाँ लोग हैं बेहाल/जहाँ-जहाँ है भोपाल/वहाँ-वहाँ है अमेरिका !’ साम्राज्यवादी अमेरिका के जहरीले दाँत जो भोपाल में गड़े, उसका दंश आज छब्बीस साल बाद भी देश झेल रहा है। आज दुनिया में अमेरिका ने न जाने कितने भोपाल रच डाले हैं। इस तरह कविता ढ़ाई दशक पहले ही भविष्य का संकेत देती है।
स्त्रियों पर लिखी मदन कश्यप की कविताएँ काफी अन्दर तक उतरती हैं और उस यंत्रणा का बयान करती हैं जो स्त्री जीवन की व्यथा है लेकिन यहीं कहीं गहरा आशावाद भी है - ‘सुनती हैं किसी एक का रोना/और रोने लगती हैं स्त्रियाँ/वह जो पास आ पाती हैं/और वह भी जो दूर ही से सुन रही होती हैं रोना’ और ‘जब पहली बार जली थी आग घरती पर/तभी से राख की परतों में दबाकर/आग जिन्दा रखे हुई हैं औरत !’ इस तरह मदन कश्यप ने अपनी कविता के खास रंग से लखनऊ के श्रोताओं का परिचय कराया।
मदन कश्यप की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि ये बाजारवाद का विरोध करने वाली कविताएँ हैं। ये मध्यवर्ग के उस ढ़ुलमुलपन पर भी चोट करती हैं जो बजारवाद को टिकाये व बनाये रखने का माध्यम बन रहा है। आज की राजनीति का जो छल, छद्म और बहुरुपियापन है ,उसे उजागर करने वाली कविताएँ हैं।
कार्यक्रम का संचालन जसम के संयोजक व कवि कौशल किशोर ने किया। उनका कहना था कि मदन कश्यप की कविताओं में सामाजिक।राजनीतिक आन्दोलनों से गहरा सरोकार है। यहाँ समाज और राजनीति की उत्पीड़नकारी स्थितियाँ हैं, वहीं जन प्रतिरोध का स्वर भी काफी मुखर है। इन कविताओं में दो-तिहाई दुनिया को अपना चारागाह बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और आदिवासियों में फूट और जुल्म ढ़ाने के लिए ‘सलवा जुडुम’ है तो दूसरी तरफ सीना तानकर खड़ा होता निकारागुआ और तनी हुई मुट्ठियाँ हैं। यही मदन कश्यप की काव्य विशेषता है जो उन्हें नागार्जुन और गोरख पाण्डेय की कविता धारा से जोड़ती है।
कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा का कहना था कि आज जब कविता अपठनीय सी होती जा रही है ऐसे में मदन कश्यप की कविता अपने को संप्रेषित ही नहीं करती बल्कि अपने साथ हमें जोडकर ले चलती है। रवीन्द्र कुमार सिन्हा का कहना था कि इस जटिल दौर में कवि सिर्फ अपने को संवेदना के विस्तार तक सीमित नहीं रख सकता। उसे विचार का वाहक भी बनना होगा। उसके लिए विचार की समझ भी जरूरी है। विचार से ही वह अपने समय और समाज की गहराई में जा सकता है। इसी से कविता का संसार बड़ा हो सकता है।
मदन कश्यप की कविताओं पर सुशीला पुरी, कल्पना पाण्डेय, राजेश कुमार, के के वत्स, श्याम अंकुरम, मनोज पाण्डेय, नसीम साकेती, विमल किशोर, बी एन गौड़, हरिओम आदि रचनाकारों ने भी अपने विचार रखे।
कौशल किशोर
आज का माहौल कविता विरोधी है। ऐसे में कविता सामाजिक बदलाव का हथियार बने, यह मुमकिन नहीं। लेकिन वह मनुष्य को संवेदनशील तो बना ही सकती है। मनुष्य विरोधी आज के दौर में कविता इतना भी काम कर सके तो बड़ी बात है। जंगल-जमीन-पहाड़ से लोगों को उजाड़ा जा रहा है और यह सब विकास के नाम पर हो रहा है। वह अपने पक्ष में माहौल बना रही है। तरह-तरह के तर्क पेश हो रहे हैं। भाषा को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। कविता इसके विरुद्ध खड़ी हो और वह हमारी संवेदना के विस्तार का औजार बने, यह जरूरी है।
यह विचार हिन्दी कवि मदन कश्यप ने व्यक्त किये। जन संस्कृति मंच ने राज्य सूचना केन्द्र, हजरतगंज, लखनऊ में 21 जून को मदन कश्यप के कविता पाठ और उनसे संवाद का कार्यक्रम आयोजित किया था। इसी अवसर पर वे बोल रहे थे। मदन कश्यप हिन्दी के उन महत्वपूर्ण कवियों में हैं जो जनजीवन की जड़ों तक जाते हैं और जीवन के द्वन्द्व की पड़ताल करते हैं। मदन कश्यप के अब तक तीन कविता संग्रह - ‘लेकिन उदास है पृथ्वी’, ‘नीम रोशनी में’ व ‘कुरूज’ और ‘कवि ने कहा’ (चयनित प्रतिनिधि कविताएँ) तथा दो निबन्ध संग्रह ‘मतभेद’ व ‘लहूलुहान लोकतंत्र’ प्रकाशित हो चुके हैं। अभी हाल में मदन कश्यप को कविता के लिए शमशेर सम्मान भी प्रदान किया गया।
इस मौके पर मदन कश्यप ने अपनी करीब एक दर्जन कविताएँ सुनाईं। शुरुआत उन्होंने ‘चाहतें’ से की - ‘वे पेड़ों को काटना नहीं चाहते/उनका हरापन चूस लेना चाहते हैं/वे पहाड़ों को रौंदना नहीं चाहते/उनकी दृढ़ता निचोड़ लेना चाहते हैं/वे नदियों को पाटना नहीं चाहते/उनके प्रवाह रोक देना चाहते हैं/अगर पूरी हो गई उनकी चाहतें/तो जाने कैसी लगेगी यह दुनिया !’ उन्होंने ‘गनीमत है’, ‘अमेरिका’, ‘डालर’, ‘हवा में पुल’, ‘चूल्हे के पास’, ‘स्त्रियों का रोना’, ‘आंझुलिया’, ‘रफ़ूगरी’, ‘सलवा जुडुम’, ‘बिजुका’, ‘बहुरुपिया’ सहित आदिवासियों के जीवन और संघर्ष पर हाल में लिखी कविताओं का पाठ किया।
मदन कश्यप की कविता ‘अमेरिका’ का रचना काल 1985 का है। कविता में अमेरिका का जो नक्शा खींचा गया है, वह सच्चाई आज और मुखर होकर दुनिया के सामने आई है - ‘ नक्शे में आँखें मत धँसाओ/सिर ऊपर उठाकर दुनिया को देखो/जहाँ।जहाँ गूँजती है उत्पीड़ितों की चीख/जहाँ.जहाँ हँसता है तानाशाह/ जहाँ-जहाँ लोग हैं बेहाल/जहाँ-जहाँ है भोपाल/वहाँ-वहाँ है अमेरिका !’ साम्राज्यवादी अमेरिका के जहरीले दाँत जो भोपाल में गड़े, उसका दंश आज छब्बीस साल बाद भी देश झेल रहा है। आज दुनिया में अमेरिका ने न जाने कितने भोपाल रच डाले हैं। इस तरह कविता ढ़ाई दशक पहले ही भविष्य का संकेत देती है।
स्त्रियों पर लिखी मदन कश्यप की कविताएँ काफी अन्दर तक उतरती हैं और उस यंत्रणा का बयान करती हैं जो स्त्री जीवन की व्यथा है लेकिन यहीं कहीं गहरा आशावाद भी है - ‘सुनती हैं किसी एक का रोना/और रोने लगती हैं स्त्रियाँ/वह जो पास आ पाती हैं/और वह भी जो दूर ही से सुन रही होती हैं रोना’ और ‘जब पहली बार जली थी आग घरती पर/तभी से राख की परतों में दबाकर/आग जिन्दा रखे हुई हैं औरत !’ इस तरह मदन कश्यप ने अपनी कविता के खास रंग से लखनऊ के श्रोताओं का परिचय कराया।
मदन कश्यप की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि ये बाजारवाद का विरोध करने वाली कविताएँ हैं। ये मध्यवर्ग के उस ढ़ुलमुलपन पर भी चोट करती हैं जो बजारवाद को टिकाये व बनाये रखने का माध्यम बन रहा है। आज की राजनीति का जो छल, छद्म और बहुरुपियापन है ,उसे उजागर करने वाली कविताएँ हैं।
कार्यक्रम का संचालन जसम के संयोजक व कवि कौशल किशोर ने किया। उनका कहना था कि मदन कश्यप की कविताओं में सामाजिक।राजनीतिक आन्दोलनों से गहरा सरोकार है। यहाँ समाज और राजनीति की उत्पीड़नकारी स्थितियाँ हैं, वहीं जन प्रतिरोध का स्वर भी काफी मुखर है। इन कविताओं में दो-तिहाई दुनिया को अपना चारागाह बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और आदिवासियों में फूट और जुल्म ढ़ाने के लिए ‘सलवा जुडुम’ है तो दूसरी तरफ सीना तानकर खड़ा होता निकारागुआ और तनी हुई मुट्ठियाँ हैं। यही मदन कश्यप की काव्य विशेषता है जो उन्हें नागार्जुन और गोरख पाण्डेय की कविता धारा से जोड़ती है।
कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा का कहना था कि आज जब कविता अपठनीय सी होती जा रही है ऐसे में मदन कश्यप की कविता अपने को संप्रेषित ही नहीं करती बल्कि अपने साथ हमें जोडकर ले चलती है। रवीन्द्र कुमार सिन्हा का कहना था कि इस जटिल दौर में कवि सिर्फ अपने को संवेदना के विस्तार तक सीमित नहीं रख सकता। उसे विचार का वाहक भी बनना होगा। उसके लिए विचार की समझ भी जरूरी है। विचार से ही वह अपने समय और समाज की गहराई में जा सकता है। इसी से कविता का संसार बड़ा हो सकता है।
मदन कश्यप की कविताओं पर सुशीला पुरी, कल्पना पाण्डेय, राजेश कुमार, के के वत्स, श्याम अंकुरम, मनोज पाण्डेय, नसीम साकेती, विमल किशोर, बी एन गौड़, हरिओम आदि रचनाकारों ने भी अपने विचार रखे।
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