मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

लखनऊ में विरोध सभा २ जन. कों

कारपोरेट जगत का देखो खेल
विनायक सेन को भेजे जेल

पी0 यू0 सी0 एल0 के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ विनायक सेन की उम्रकैद की सजा
के खिलाफ

विरोध सभा
तारीख व समय: 02 जनवरी 2011, दिन के 1.00 बजे
स्थान: शहीद स्थल, लखनऊ
शहर के बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों, नागरिक व लोकतांत्रिक अधिकार संगठनों, जन आंदोलन के कार्यकर्ताओं से अपील है कि इस विरोध सभा में शामिल हों।
निवेदक
कौशल किशोर
संयोजक, जन संस्कृति मंच, लखनऊ
मो - 09807519227, 08400208031

लखनऊ के लेखकांे व संस्कृतिकर्मियों का कहना है:

डॉ विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा जनप्रतिरोध की आवाज को कुचलना है

लखनऊ, 28 दिसम्बर। जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित सभा में लखनऊ के लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक व राजनीतिक कार्यकताओं ने पी यू सी एल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ विनायक सेन पर देशद्रोह का आरोप लगाते हुए उन्हें दी गई उम्रकैद की सजा पर अपना पुरजोर विरोध प्रकट किया है। यह सभा अमीनाबाद इण्टर कॉलेज में हुई जिसमें इससे सम्बन्धित प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें कहा गया कि लोकतंत्र के सभी स्तम्भ आज पूँजी के मठ व गढ़ में बदल गये हैं जहाँ से जनता, उसके अधिकारों व लोकतंात्रिक मूल्यों पर गोलाबारी की जा रही है। इसने न्ययापालिका के चरित्र का पर्दाफाश कर दिया है। डॉ विनायक सेन पर देशद्रोह का आरोप लगाने व उन्हें उम्रकैद की सजा देने का एक मात्र उद्देश्य जनता के प्रतिरोध की आवाज को कुचल देना है तथा सरकार का विरोध करने वालों को यह संदेश देना है कि वे सावधान हो जायें और सŸाा के लिए कोई संकट पैदा न करें।

इस घटना पर विरोध प्रकट करने वालों में लेखक अनिल सिन्हा, शकील सिद्दीकी, डॉ गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, कवि भगवान स्वरूप कटियार, कौशल किशोर, ब्रह्मनारायण गौड, श्याम अंकुरम़ व वीरेन्द्र सारंग, कवयित्री व पत्रकार प्रतिभा कटियार, कथाकार सुरेश पंजम व सुभाष चन्द्र कुशवाहा, नाटककार राजेश कुमार, ‘अलग दुनिया’ के के0 के0 वत्स, ‘कर्मश्री’ की सम्पादिका पूनम सिंह, एपवा की विमला किशोर, कलाकार मंजु प्रसाद, लेनिन पुस्तक केन्द्र के प्रबन्धक गंगा प्रसाद, सामाजिक कार्यकर्ता अरुण खोटे, इंकलाबी नौजवान सभा के प्रादेशिक महामंत्री बालमुकुन्द धूरिया, भाकपा ;मालेद्ध के शिवकुमार, लक्षमी नारायण एडवोकेट, ट्रेड यूनियन नेता के0 के0 शुक्ला, डॉ मलखान सिंह, जानकी प्रसाद गौड़ प्रमुख थे।

प्रस्ताव में माँग की गई है कि डॉ सेन को आरोप मुक्त कर उन्हें रिहा किया जाय। प्रस्ताव में आगे कहा गया है कि जिस छतीसगढ़ विशेष लोक सुरक्षा कानून 2005 और गैरकानूनी गतिविधि ;निरोधकद्ध कानून 1967 के अन्तर्गत डॉ विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा दी गई है, ये कानून अपने चरित्र में दमनकारी हैं और ऐसे जनविरोधी कानून का इस्तेमाल यही दिखाता है कि देश में अघोषित इमरजेन्सी जैसी स्थिति है। जब भ्रष्टाचारी, अपराधी, माफिया व धनपशु सŸाा को सुशोभित कर रहे हों, सम्मान पा रहे हों, वहाँ आदिवासियों, जनजातियों को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराना, जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना तथा सलवा जुडुम से लेकर सरकार के जनविरोधी कार्यों का विरोध करने वाले डॉ सेन पर दमनकारी कानून का सहारा लेकर आजीवन कारावास की सजा देने से यही बात सिद्ध होती है।

प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि सŸाा द्वारा देशभक्ति का नया मानक गढ़ा जा रहा है जिसके द्वारा सच्चाई और तथ्यों का गला घोंटा जा रहा है। इस मानक में यदि आप फिट नहीं हैं तो आपको देशद्रोही घोषित किया जा सकता है और आपके विरूद्ध कार्रवाई की जा सकती है, आप गिरफ्तार किये जा सकते हैं आपको सजा दी जा सकती है और आप देश छोड़ने तक के लिए बाध्य किये जा सकते हैं। यही अरुंधती राय के साथ किया गया। उनके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया गया है और डॉ विनायक सेन को देशद्रोही करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। इन घटनाओं ने हमारे इर्द।गिर्द फैले अंधेरे को गहरा किया है और समय की माँग है कि इनके विरूद्ध हम लाम बन्द हों बकौल मुक्तिबोध ‘अब अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे/तोड़ने होंगे गढ़ और मठ सभी "

कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच, लखनऊ

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निरंकुश राजसत्ताओं ने फिर दण्डित किया कलाकारों कों

शायर अकाल शातिर और इरानी फिल्मकार जाफर पनाही का साथ दें

निरंकुश राजसत्ताएं सदैव से ही विरोध के प्रति असहिष्णु रही हैं ।अगर ये सत्ताएँ धर्मं पर आधारित हों तो कहना ही क्या ? हाल की दो अत्यंत निंदनीय घटनाओं ने इस बात को ओर भी पुष्ट किया हे. एक का सम्बन्ध भारत के गुजरात राज्य से है , तो दूसरे का समबन्ध इरान के इस्लामिक राज से. गुजरात तो भारत के सेक्युलर राज्य के भीतर एक राज्य है, लेकिन नरेन्द्र मोदी उसे हिंदुत्व की विचारधारा के तहत संचालित करते हैं. हाल ही में शायर अकाल शातिर को इस निजाम का तब शिकार होना पडा जब उनकी शायरी की किताब 'अभी ज़िंदा हूँ मैं ' में प्रकाशित एक आलोचक की टिप्पणी से नाराज़ होकर गुजरात उर्दू साहित्य अकादमी ने किताब के प्रकाशन के लिए दी गयी १००००/- की सहायता राशि वापस करने के लिए शायर को नोटिस थमाई है . यह टिप्पणी रौनक अफरोज ने लिखी है जिसमें मोदी की भर्त्सना की गयी है. टिप्पणी के जिस अंश पर अकादमी ने एतराज़ जताते हुए अपनी पुस्तक प्रकाशन योजना के लिए सहायता देने के नियमों के खिलाफ बताया है, वह इस प्रकार हे-" नरेन्द्र मोदी के इक्तेदार में आते ही उसने इस रियासत से उर्दू का सफाया ही करा दिया. मोदी ने सिर्फ इतने पर ही इक्तेफा नहीं किया, बल्कि २००२ में एक सोचे समझे मंसूबे के तहत पूरे गुजरात में फिरकावारान फसादात और हैवानियत का वो नंगा खेल खेला कि पूरी इंसानियत ही शर्मसार हो कर रह गयी. हर तरफ लूट मार, क़त्ल-ओ-गारतगीरी , इस्मतदारी,आतिज़नी और अक़लियाती नस्लकुशी जैसी संगीन वारदात करवाकर उसने पूरे मुल्क में खौफ -ओ-हिरास पैदा कर दिया था." भिवंडी के नक्काद अफ़रोज़ की टिप्पणी इस किताब के पृष्ठ संख्या १४ पर छपी है. इस प्रकरण से यह भी साफ़ होता जा रहा है कि साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं की बहुप्रचारित स्वायत्तता ऐसे राज्यों में कितनी खोखाली है. अफारोज़ का वक्तव्य वैसा ही है जैसा मोदी के शासन में राज्य -प्रायोजित अल्पसंख्यकों के जनसंहार को लेकर किसी भी सोचने समझाने वाले इंसान का हो सकता है. इस तरह के वक्तव्य तमाम मानवाधिकार रिपोर्टों में मोदी के शासन को लेकर सहज ही देखे जा सकते हैं. बहरहाल शातिर ने अफारोज़ की टिप्पणी को शामिल कर हिम्मत का काम किया है . हमें उनकी हौसला अफजाई करने के साथ-साथ उनके संघर्ष में हर चंद मदद करनी चाहिए. गुजरात उर्दू साहित्य अकादमी को उन्हें दी गयी नोटिस को वापस लेना चाहिए . उसकी इस हरकत से अभिव्यक्ति की आज़ादी तो एक और धक्का लगा है जिसकी जितनी निंदा की जाए कम है

दूसरी घटना और भी ज्यादा भयानक है। मशहूर इरानी फिल्मकार जफर पनाही को इरान के निरंकुश इस्लामी शासन ने ६ साल की कैद और २० साल तक फिल्में बनाने या निर्देशित करने, स्क्रिप्ट लिखने, विदेशा यात्रा करने और मीडिया में इंटरव्यू देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। उनपर आरोप है कि वे शासन के खिलाफ प्रचार अभियान चला रहे थे। पनाही इससे पहले जुलाई २००९ में गिरफ्तार किए गए थे जब वे राष्ट्रपति पद के लिए हुए विवादास्पद चुनाव में मारे गए आन्दोलनकारियों के शोक में शामिल हुए थे। छूटने के बाद उनपर विदेश जाने पर प्रतिबन्ध तभी से लगा हुआ है। फरवरी २०१० में वे फिर अपने परिवार और सहकर्मियों के साथ गिरफ्तार किए गए। वे इरान में लगातार विपक्ष की आवाज़ बने हुए हैं. महान अब्बास किअरोस्तामी के साथ अपने फ़िल्मी सफर की शुरुआत करने वाले पनाही को अपनी पहली ही फीचर फिल्म 'वाईट बैलून ' के लिए १९९५ के कैन्स फिल्म समारोह में पुरस्कृत किया गया. उनके नाटक 'द सर्किल ' के लिए सन २००० में वेनिस का 'गोल्डन लिओन' पुरस्कार मिला. उनकी मशहूर फिल्मों में 'वाईट बैलून' के अलावा 'द मिरर', 'क्रिमसन गोल्ड' तथा 'ऑफ साइड' जैसी फिल्में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म दुनिया की अमूल्य निधियां हैं. जाफर पनाही जैसे महान फिल्मकार को इरान की निरंकुश धर्मसता द्वारा प्रताड़ित किए जाने की हम निंदा करते हैं और सभी कलाकारों , संस्कृतिकर्मियों से आग्रह करते हैं कि वे भारत में इरानी एम्बेसी की मार्फ़त इस तानाशाहीपूर्ण कदम का पुरजोर विरोध इरानी शासकों को अवश्य दर्ज कराएं .प्रणय क्रष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच

प्रणय कृष्ण
महासचिव
जन संस्कृति मंच

लोकतंत्र को उम्रकैद

25 दिसम्बर, 2010
ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी. मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई - न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है. छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा. बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी. यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए. डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से , जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर , न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़ सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़ , मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-

“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”

इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द वाइटहाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.( आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को .क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश , बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?

याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है 1870 में लाई गई जिसके तहत सरकार के खिलाफ ”घृणा फैलाना”, ” अवमानना करना” और ” असंतोष पैदा”करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बर्खा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं ? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ ”सलवा जुडूम” चलाती हैं, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाशा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों . याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.

डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है?. एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे?

इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा.सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि ”कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है ”. तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों ( हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसिदिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?

अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था,

“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !

यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--
बंब संब की छोड़ो, भाशण दिया कि पकड़े जाओगे !
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,
कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “

ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.
आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है.

- मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो , जितनी दूर तक हो हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन.

प्रणय कृष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

संगोष्ठी रपट : एस0 के0 पंजम की कृतियाँ:

अतीत व वर्तमान के संघर्ष का दस्तावेज

कौशल किशोर

जाने-माने युवा लेखक एस0 के0 पंजम के उपन्यास ‘गदर जारी रहेगा’ तथा इतिहास की पुस्तक ‘शूद्रों का प्राचीनतम इतिहास’ का विमोचन 26 दिसम्बर 2010 (रविवार) को लखनऊ में अमीनाबाद इण्टर कॉलेज, अमीनाबाद के सभागार में हुआ। कार्यक्रम का आयोजन जन संस्कृति मंच (जसम) ने किया था जिसकी अध्यक्षता करते हुए हिन्दी के वरिष्ठ कवि ब्रहमनारायण गौड़ ने कहा कि पंजम की ये दोनों पुस्तकें अतीत व वर्तमान के संघर्ष का दस्तावेज हैं। ‘गदर जारी रहेगा’ के माध्यम से सरकार की जन विरोधी नीतियों को चुनौती देने का जो साहस किया गया है, वह प्रशंसनीय है। अपनी पुस्तक ‘शूद्रों का प्रचीनतम इतिहास’ के द्वारा पंजम ने अतीत के छुपाये गये तथ्यों पर से घूल झाड़ कर सच्चाई को सामने लाने का काम किया है। कार्यक्रम का संचालन जसम के संयोजक व कवि कौशल किशोर ने किया ।

गौरतलब है कि एस0 के0 पंजम की दोनों पुस्तकें दिव्यांश प्रकाशन (एम0आई0जी0 222, टिकैतराय कॉलोनी, लखनऊ) से अभी हाल में प्रकाशित हुई हैं। ‘शूद्रों का प्राचीनतम इतिहास’ (मूल्य- सजिल्दः 495.00, पेपर बैकः 250.00) इतिहास की पुस्तक है जिसमें वैज्ञानिक व तर्कसंगत तरीके से इस सवाल का जवाब खोजा गया है कि शूद्र वर्ग कौन है, इसकी उत्पति कैसे हुई ? इसी क्रम में सृष्टि, पृथ्वी व जीव की उत्पति से होते हुए भारत में नस्लों की उत्पति तथा शूद्र वर्ण एवं जाति नहीं, बल्कि नस्ल हैं, इसका विशद अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। वैदिक काल में शिक्षा, सभ्यता और संस्कृति की क्या स्थिति रही है, बौद्ध काल में शिक्षा, आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था कैसी रही है, भारतीय समाज में दास प्रथा और वर्ण व्यवस्था व उसकी संस्कृति व संस्कार किस रूप में रहे हैं आदि का वृहत वर्णन है। ‘शूद्रस्तान’ की चर्चा करते हुए पुस्तक में फुले, साहूजी, पेरियार, अम्बेडकर, जगजीवन राम के विचारों को सामने लाया गया है।

वहीं ‘गदर जारी रहेगा’ (मूल्य- सजिल्दः 250.00, पेपर बैकः 150.00) उपन्यास है। सŸाा का दमन, उसके द्वारा जनता का शोषण, जल, जंगल, जमीन से गरीब जनता का विस्थापन व बेदखली और जन प्रतिरोध, इस विषय पर यह उपन्यास केन्द्रित है। आज भी भारत में अंग्रेज सरकार द्वारा बनाये गये नब्बे प्रतिशत काले कानून लागू हैं। उन्हीं में एक है भूमि अधिग्रहण कानून 1894 । विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) का जन्म इसी से होता है। देश में इस समय 512 सेज हैं। यह सेज क्या है ? किसके हितों के लिए है ? आज के नये सामंत कौन हैं ? इनसे उपन्यास परिचित कराता है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों के पक्ष में खड़ी सŸाा की एक तरफ बन्दूकें हैं तो दूसरी तरफ अपनी सम्पदा और अधिकारों के लिए संघर्ष करती, अपना रक्त बहाती जनता है। इसी संघर्ष की उपज नन्दीग्राम, सिंगूर व कलिंग नगर आदि हैं। ‘गदर जारी रहेगा’ सेज के नाम पर उजाड़ी गई जनता के प्रतिरोध संघर्ष की कहानी है।

हिन्दी-उर्दू के जाने-माने लेखक शकील सिद्दीकी और सामाजिक कार्यकर्ता अरुण खोटे ने पुस्तकों का विमोचन किया। इस अवसर पर बोलते हुए शकील सिद्दीकी ंने कहा कि एस0 के0 पंजम की इतिहास की पुस्तक हमें अतीत को समझने में मदद करती है। हमारा अतीत उथल-पुथल से भरा है और उसके अवशेष आज भी मौजूद हैं। ब्राहमणवाद, पुरातनपंथ से संघर्ष के बिना हम अपने समाज को प्रगतिशील व आधुनिक नहीं बना सकते हैं। हालत यह है कि अम्बेडकर को मानने वाले भी कर्मकांड का अनुसरण कर रहे हैं। जरूरत उनके रेडिकल विचारों को सामने लाने की है। आज समाज में मानव विरोधी शक्तियाँ ज्यादा आक्रामक हुई हैं। इस हालत में साहित्य मात्र समाज का दर्पण बनकर नहीं रह सकता है। उसे समाज परिवर्तन का हथियार बनना पड़ेगा। यह अच्छी बात है कि पंजम इसी प्रतिबद्धता के साथ साहित्य में सक्रिय हैं।

अपने संयोजकीय वक्तव्य में कौशल किशोर ने दोनों पुस्तकों का परिचय देते हुए कहा कि एस0 के0 पंजम का उपन्यास ‘गदर जारी रहेगा’ विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के यथार्थ को सामने लाता है। वहीं ‘शूद्रों का प्राचीनतम इतिहास’ प्राचीन भारतीय समाज के सामाजिक द्वन्द्व को समग्रता में देखने व समझने का प्रयास है। ये दोनों पुस्तकें एस0 के0 पंजम की लेखन-यात्रा में मील का पत्थर हैं।

‘गदर जारी रहेगा’ पर अपना आधार वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कवि व लेखक श्याम अंकुरम ने कहा कि पंजम का लेखन बेतरतीब आक्रोश, चिढ़ भरे गुस्से का विवरण होता रहा है जो ‘गदर जारी रहेगा’ में विस्तार पाकर संगठित संघर्ष के रूप में नियोजित विद्रोह बन जाता है। बेतरतीब आक्रोश से संगठित विद्रोह तक की इनकी यह यात्रा अपने स्वअर्जित अनुभव व विवेक द्वारा तय की गई है, ‘भूख व्यक्ति को श्रम सिखाती है, भूख व्यक्ति को हिंसा सिखाती है, भूख व्यक्ति को संघर्ष में झोकती है और संघर्ष से शहादत मिलती है’। शहादत की यह अनिवार्यता इनके उपन्यास में जगह-जगह है जो खेतिहर मजदूर, दलित, आदिवासियों के वर्ग संश्रय निर्माण के जरिये इस नजरिये को उदघाटित करती है, ‘आज लड़ाई धर्म व जाति की नहीं है और है भी तो यह बहुत छोटी-संकुचित है। असल लड़ाई तो समाजवाद की है।’

लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा ने कहा कि यह आज के राजनीतिक संघर्ष का उपन्यास है। ंिसंगूर, नन्दीग्राम, कलिंगनगर में जो दमन-उत्पीड़न हुआ, यही इसकी विषय वस्तु है। यहाँ एक तरफ देशी-विदेशी पूँजीपतियों के पक्ष में खड़ी सŸाा की बन्दूकें हैं तो दूसरी तरफ अपनी सम्पदा और अधिकारों के लिए संघर्ष करती जनता है। इस अवसर पर ‘निष्कर्ष’ के संपादक डॉ0 गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि पंजम का उपन्यास आज के समय से मुठभेड़ करता है और जरूरी विषय उठाता है लेकिन उपन्यास का कलापक्ष कमजोर है जिस पर पंजम को ध्यान देने की जरूरत है। उपन्यास पर पत्रकारिता हावी है। साहित्य विचार व राजनीति विहिन नहीं हो सकता लेकिन यह जितना ही छिपे रूप में आये, उसका असर ज्यादा गहरा होता है।

‘घी के लड्डू टेढ़ो भले’ कहावत का उद्धरण देते हुए कवि व आलोचक चन्द्रेश्वर ने कहा कि इस भयानक दौर में कला और शिल्प से ज्यादा जरूरी है कि आपका लेखन लूट और दमन के विरूद्ध है या नहीं। वैसे ‘गदर’ शब्द हिन्दी में 1857 के संदर्भ में आया जिसका प्रयोग नकारात्क अर्थों में किया गया लेकिन पंजम के उपन्यास में इसका अर्थ संघर्ष व प्रतिरोध है। इस दौर में जब कथा व उपन्यास लेखन बहुत मनोगत हुआ है, ऐसे में उपन्यास के माध्यम से ‘सेज’ के यथार्थ और जन प्रतिरोध की अभिव्यक्ति इस उपन्यास को प्रासंगिक बनाता है।

इस अवसर पर ‘अलग दुनिया’ के के0 के0 वत्स, अनन्त लाल, अंग्रेजी के प्रवक्ता राम सिंह प्रेमी, डॉ मलखन सिंह आदि ने भी अपने विचार प्रकट किये। कार्यक्रम में लेखकों, बुद्धिजीवियों और राजनीतिक व समाजिक कार्यकर्ताओं की अच्छी-खासी उपस्थिति थी जिनमें नाटककार राजेश कुमार कवि भगवान स्वरूप कटियार व वीरेन्द्र सारंग, ‘कर्म श्री’ की सम्पादिका पूनम सिंह, कथाकार नसीम साकेती, कलाकार मंजु प्रसाद, लेनिन पुस्तक केन्द्र के गंगा प्रसाद, लक्षमीनारायण एडवोकेट, एपवा की विमला किशोर, इंकलाबी नौजवान सभा के प्रादेशिक महामंत्री बालमुकुन्द धूरिया, भाकपा (माले) के शिवकुमार आदि प्रमुख थे।

एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ -226017
मो - 09807519227, 08400208031

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

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प्रतिरोध का सिनेमा का दूसरा पटना फ़िल्म उत्सव

जीवन में जो सुंदर है उसके चुनाव का विवेक है सिनेमा
शाजी एन. करुन
दूसरे पटना फ़िल्म उत्सव में उदघाटन वक्तव्य देते हुए शाजी एन करून


‘सिनेमा मनुष्य के कला के साथ अंतर्संबंध का दृश्य रूप है। मनुष्य के जीवन में जो सुंदर है उसके चुनाव के विवेक का नाम सिनेमा है। चीजों, घटनाओं या परिस्थितियों और सही-गलत मूल्यों की गहरी समझदारी, बोध और ज्ञान से ही यह विवेक निर्मित होता है। हम जिस यथार्थ को देख सकते हैं या देखना चाहते हैं, कला उसे ही सामने रखती है।’ प्रसिद्ध फ़िल्मकार शाजी एन करुन ने जसम-हिरावल द्वारा कालिदास रंगालय में आयोजित त्रिदिवसीय पटना फ़िल्मोत्सव - प्रतिरोध का सिनेमा का उद्घाटन करते हुए कला और यथार्थ के रिश्ते पर एक महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया।

उद्घाटन से पूर्व मीडियाकर्मियों से एक मुलाकात में फ़िल्मोत्सव के मुख्य अतिथि शाजी एन. करुन ने कहा कि सिनेमा हमारी स्मृतियों को उसके सामाजिक आशय के साथ दर्ज करता है। सिनेमा अपने आप में एक बड़ा दर्शन है। लेकिन हमारे यहां इसका सार्थक इस्तेमाल कम हो हो रहा है। हमारे देश में करीब 1000 फिल्में बनती हैं लेकिन दुनिया के फ़िल्म समारोहों में चीन, वियतनाम, कोरिया, मलेशिया और कई छोटे-छोटे देशों की फ़िल्में हमसे ज्यादा दिखाई पड़ती हैं, इसलिए कि वे उन देशों के जीवन यथार्थ को अभिव्यक्त करती हैं और उन्हें सिर्फ मुनाफे के लिए नहीं बनाया जाता।

शाजी एन करून
अपनी फ़िल्म कुट्टी स्रांक के लिए श्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय सम्मान पाने वाले शाजी एन. करुन ने कहा कि आस्कर
अवार्ड वाली फ़िल्में पूरी दुनिया में दिखाई जाती हैं, जबकि नेशनल अवार्ड पाने वाली फ़िल्में इस देश में ही दिखाई नहीं जातीं। अब तक वे छह बड़ी फ़िल्में बना चुके हैं और उनके लिए यह पहला मौका है कि बिहार में जनता के प्रयासों से हो रहे फ़िल्मोत्सव में उनकी एक फ़िल्म दिखाई जा रही है। इस तरह के प्रयास राख में दबी हुई चिंगारी को सुलगाने की तरह हैं। शाजी ने कहा कि आर्थिक समृद्धि से भी कई गुना ज्यादा जरूरी सांस्कृतिक समृद्धि है। आज किसी भी आदमी को अपनी दस यादें बताने को कहा जाए तो वह कम से कम एक अच्छी फ़िल्म का नाम लेगा। लेकिन बालीवुड की मुनाफा वाली फ़िल्मों और टेलीविजन में जिस तरह के कार्यक्रमों की भीड़ है, उसके जरिए कोई सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं हो सकता। आज जरूरत है कि सिनेमा को सामाजिक बदलाव के माध्यम के बतौर इस्तेमाल किया जाए।

इस दौरान प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने बताया कि यह आयोजन देश में इस तरह का 16वां आयोजन है, जो बगैर किसी बडे़ पूंजीपति, सरकार या कारपोरेट सेक्टर की मदद के हो रहा है। फ़िल्मोत्सव स्वागत समिति की अध्यक्ष ‘सबलोग’ की संपादक मीरा मिश्रा ने कहा कि आज समाज के हर क्षेत्र में अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध की जरूरत है। प्रतिरोध का सिनेमा इसी लक्ष्य से प्रेरित है।

उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष सुप्रसिद्ध कवि आलोकधन्वा ने
कहा कि बहुमत हमेशा लोकतंत्र का सूचक नहीं होता, कई बार वह लोकतंत्र का अपहरण करके भी आता है।कला की दुनिया जिन बारीक लोकतांत्रिक संवेदनाओं के पक्ष में खड़ी होती है,कई बार वह बड़ी उम्मीद को जन्म देती है। हमारे भीतर लोकतांत्रिकमूल्यों को पैदा करने में विश्व और देश की क्लासिकफ़िल्मों ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। इस वक्त अंधेरा बहुत घना है। इस अंधेरे वक्त में जनभागीदारी वाले ऐसे आयोजन उजाले की तरह हैं।
वास्तविक लोकतंत्र के लिए वामपंथ का जो संघर्ष है,
उससे अलग करके इस आयोजन को नहीं देखा जा सकता।


इस मौके पर इतिहास की प्रोफेसर डा. भारती एस कुमार ने शाजी एन. करुन को गुलदस्ता भेंट किया। डा. सत्यजीत ने फ़िल्मोत्सव की स्मारिका का लोकार्पण किया। उद्घाटन सत्र के आखिर में कवि गोरख पांडेय की स्मृति में लिखे गए दिनेश कुमार शुक्ल के गीत ‘जाग मेरे मन मछंदर’ को हिरावल के कलाकारों ने गाया। मंच पर अर्थशास्त्री प्रो. नवल किशोर चैधरी, अरुण कुमार सिंह, पत्रकार अग्निपुष्प और कथाकार अशोक भी मौजूद थे।

हिरावल द्वारा ‘जाग मेरे मन मछंदर’ की प्रस्तुति

दूसरे सत्र में शाजी एन. करुन की फिल्म कुट्टी स्रांक दिखाई गई। यह एक केरल के एक ऐसे नाविक की कहानी है जिसके जीवन का एकमात्र शौक चिविट्टु नाटकम (म्यूजिकल ड्रामा) है। उसका काम और उसका गुस्सैल स्वभाव उसे एक जगह टिकने नहीं देता। मनुष्य के सच्चे व्यवहार और सच्चे प्रेम के लिए उसकी अंतहीन प्रवृत्ति का प्रतिनिधि है वह। उसकी मृत्यु के बाद उसकी प्रेमिकाओं के जरिए उसका व्यक्तित्व खुलता है। फ़िल्म प्रदर्शन के बाद शाजी एन. करुन के साथ दर्शकों का विचारोत्तेजक संवाद हुआ।

दूसरे दिन फ़िल्म प्रदर्शन की शुरुआत अपनी मौलिक कथा के लिए आस्कर अवार्ड से नवाजी गई फ्रांसीसी फ़िल्म ‘दी रेड बलून’ से हुई। लेखक और निर्देशक अल्बर्ट लामोरेस्सी की इस फ़िल्म में बेहद कम संवाद थे। इसमें पास्कल नाम के बच्चे और उसके लाल गुब्बारे की कहानी है। गुब्बारा पास्कल के स्व से जुड़ा हुआ है। उस गुब्बारे को पाने और नष्ट कर देने के लिए दूसरे बच्चे लगातार कोशिश करते हैं। इस फ़िल्म को देखना अपने आप में बच्चों की फैंटेसी की दुनिया में दाखिल होने की तरह था। दूसरी फ़िल्म संकल्प मेश्राम निर्देशित ‘छुटकन की महाभारत’ थी। इस फिल्म में जब गांव में नौटंकी आती है तो उससे प्रभावित छुटकन सपना देखता है कि शकुनी मामा और दुर्योधन का हृदय परिवर्तन हो गया है और वे राज्य पर अपना दावा छोड़ देते हैं।
फ़िल्मोत्सव के दूसरे दिन दिखाई गई दो फ़िल्में अलग-अलग संदर्भों में धर्म और मनुष्य के रिश्ते की पड़ताल करती प्रतीत हुईं। राजनीति धर्म को किस तरह बर्बर और हिंसक बनाती है यह नजर आया उड़ीसा के कंधमाल के आदिवासी ईसाईयों पर हिंदुत्ववादियों के बर्बर हमलों पर बनाई गई फ़िल्म ‘फ्राम हिंदू टू हिंदुत्व’ में। उड़ीसा सरकार के अनुसार इन हमलों में 38 लोगों की जान गई थी, 3 लापता हुए थे, 3226 घर तहस-नहस कर दिए गए थे और 195 चर्च और पूजा घरों को नष्ट कर दिया गया था। 25,122 लोगों को राहत कैंपों में शरण लेना पड़ा और हजारों लोग जो उड़ीसा और भारत के अन्य इलाकों में पलायन कर गए, उनकी संख्या का कोई हिसाब नहीं है। बाबरी मस्जिद ध्वंस की पूर्व संध्या पर दिखाई गई इस फ़िल्म से न केवल कंधमाल के ईसाईयों की व्यथा का इजहार हुआ, बल्कि भाजपा-आरएसएस की सांप्रदायिक घृणा और हिंसा पर आधरित राजनीति का प्रतिवाद भी हुआ।

सहिष्णु कहलाने वाले हिंदू धर्म के स्वघोषित ठेकेदारों के हिंसक कुकृत्य के बिल्कुल ही विपरीत पश्चिम बंगाल के मुस्लिम फकीरों पर केंद्रित अमिताभ चक्रवर्ती निर्देशित फ़िल्म ‘बिशार ब्लूज’ में धर्म का एक लोकतांत्रिक और मानवीय चेहरा नजर आया। ये मुस्लिम फकीर- अल्लाह, मोहम्मद, कुरान, पैगंबर- सबको मानते हैं। लेकिन इनके बीच के रिश्ते को लेकर उनकी स्वतंत्र व्याख्या है। इन फकीरों के मुताबिक खुद को जानना ही खुदा को जानना है।

पहाड़ को काटकर राह बना देने वाले धुन के पक्के दशरथ मांझी पर बनाई गई फ़िल्म ‘दी मैन हू मूव्ड दी मांउटेन’ इस फ़िल्मोत्सव का आकर्षण थी। युवा निर्देशक कुमुद रंजन ने एक तरह से उस आस्था को अपने समय के एक जीवित संदर्भ के साथ दस्तावेजीकृत किया है कि मनुष्य अगर ठान ले तो वह कुछ भी कर सकता है। जिस ताकत की पूंजी और सुविधाओं पर काबिज वर्ग हमेशा अपनी प्रभुता के मद में उपेक्षा करता है या उपहास उड़ाता है, गरीब और पिछड़े हुए समाज और बिहार राज्य में अंतर्निहित उस ताकत के प्रतीक थे बाबा दशरथ मांझी। अकारण नहीं है कि इस फ़िल्म के निर्देशक को बाबा दशरथ मांझी से मिलकर कबीर से मिलने का अहसास हुआ।

सुमित पुरोहित निर्देशित फिल्म ‘आई वोक अप वन मार्निंग एंड फाउंड माईसेल्फ फेमस’ पूंजी की संस्कृति द्वारा मनुष्य को बर्बर और आदमखोर बनाए जाने की नृशंस प्रक्रिया को न केवल दर्ज करने, बल्कि उसका प्रतिरोध का भी एक प्रयास लगी। सुमित पुरोहित ने कालेज में अपने जूनियर दीपंकर की आत्महत्या और उस आत्महत्या को हैंडी-कैमरे में शूट करने वाले उसके बैचमेट अमिताभ पांडेय और उस दृश्य को बेचने वाली मीडिया के प्रसंग को अपनी फ़िल्म का विषय बनाया है। अमिताभ चूंकि शक्तिशाली घराने से ताल्लुक रखता था, जिसके कारण इस मामले को दबाने की कोशिश की गई, लेकिन चार वर्ष बाद सुमित और अन्य छात्रों ने उन तथ्यों को सामने लाने का फैसला किया, जिसकी प्रक्रिया में यह फ़िल्म भी बनी। इस फ़िल्म के सन्दर्भ में सबसे चौंकाने वाला तथ्य फ़िल्म के आख्रिर में स्क्रीन पर लिखे वक्तव्यों से पता चलता है. डाक्यूमेंटरी जैसे सरंचना वाली यह फ़िल्म वास्तव में एक कपोल कल्पना थी जिसका मकसद टी वी के सबकुछ देख लेने और कैद कर लेने पर अपनी टिप्पणी करना था.

अपने अस्तित्व की रक्षा के नाम पर सुविधाओं के भीषण होड़ में लगा
पूरा समाज, खासकर मध्यवर्ग क्यों अपने अस्तित्व की रक्षा के नाम
पर सुविधाओं के भीषण होड़ में लगा पूरा समाज, खासकर मध्यवर्ग
क्यों संवेदनहीन होता जा रहा है, क्यों वह मूल्यहीन और अमानवीय
हो रहा है, युवा रंग निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन निर्देशित नाटक
‘समझौता’ ने इसका जवाब तलाशने को प्रेरित किया। आहुती नाट्य एकाडमी, बेगूसराय की इस नाट्य प्रस्तुति में मानवेंद्रत्रिपाठी ने अविस्मरणीय एकल अभिनय किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुक्तिबोध की कहानी पर आधारित इस नाटक में मूल कहानी के भीतर एक रूपक चलता है सर्कस का, जहांमनुष्य ही शेर और रीछ बने हुए हैं। पशु की भूमिका में रूपांतरण की प्रक्रिया बहुत ही यातनापूर्ण और अपमानजनक है, जिसके खिलाफ एक आत्मसंघर्ष नायक के भीतर चलता है। नायक को लगता है कि उसकी सर्विस और सर्कस में कोई फर्क नहीं है। नाट्य रूपांतरण सुमन कुमार ने किया था। संगीत परिकल्पना संजय उपाध्याय की थी। संगीत संयोजन अवधेश पासवान का था और गायन में भैरव, चंदन वत्स, आशुतोष कुमार, मोहित मोहन, पंकज गौतम थे। मुक्तिबोध की इस कहानी के बारे में परिचय सुधीर सुमन ने दिया।संवेदनहीन होता जा रहा है, क्यों वह मूल्यहीन और अमानवीय हो रहा है, युवा रंग निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन निर्देशित नाटक ‘समझौता’ ने इसका जवाब तलाशने को प्रेरित किया। आहुति नाट्य एकाडमी, बेगूसराय की इस नाट्य प्रस्तुति में मानवेंद्र त्रिपाठी ने अविस्मरणीय एकल अभिनय किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुक्तिबोध की कहानी पर आधारित इस नाटक में मूल कहानी के भीतर एक रूपक चलता है सर्कस का, जहां मनुष्य ही शेर और रीछ बने हुए हैं। पशु की भूमिका में रूपांतरण की प्रक्रिया बहुत ही यातनापूर्ण और अपमानजनक है, जिसके खिलाफ एक आत्मसंघर्ष नायक के भीतर चलता है। नायक को लगता है कि उसकी सर्विस और सर्कस में कोई फर्क नहीं है। नाट्य रूपांतरण सुमन कुमार ने किया था। संगीत परिकल्पना संजय उपाध्याय की थी। संगीत संयोजन अवधेश पासवान का था और गायन में भैरव, चंदन वत्स, आशुतोष कुमार, मोहित मोहन, पंकज गौतम थे। मुक्तिबोध की इस कहानी के बारे में परिचय सुधीर सुमन ने दिया।
फ़िल्मोत्सव के समापन के रोज दर्शकों ने चार महिला फ़िल्मकारों की फ़िल्मों का अवलोकन किया। महिला दिवस के शताब्दी वर्ष के अवसर पर प्रदर्शित ये फ़िल्में समाज की सचेतन महिला दृष्टि के गहरे सरोकारों की बानगी थीं।

इन फ़िल्मों के कथ्य और उसकी प्रस्तुति से दर्शक गहरे प्रभावित नजर आए। अनुपमा श्रीनिवासन निर्देशित
फ़िल्म ‘आई वंडर’ राजस्थान, सिक्किम और तमिलनाडु के ग्रामीण बच्चों के स्कूल, घर और उनकी जिंदगी को केंद्र में रखकर बनाई गई है। फ़िल्म ने कई गंभीर सवाल खड़े किए, जैसे कि इन बच्चों के लिए स्कूल का मतलब क्या है? बच्चे स्कूल में और उसके बाहर आखिर सीख क्या रहे हैं? इन बच्चों के रोजमर्रा के अनुभवों के जरिए इस फ़िल्म ने दर्शकों को यह सोचने के लिए बाध्य किया कि शिक्षा है क्या और उसे कैसी होनी चाहिए। अनुपमा इस मौके पर फेस्टिवल में मौजूद थीं, उनसे दर्शकों ने शिक्षा पद्धति को लेकर कई सवाल किए
दीपा भाटिया निर्देशित फ़िल्म ‘नीरो’ज गेस्ट’ किसानों की आत्महत्याओं पर केंद्रित थी। दीपा ने सुदूर गांव के गरीब-मेहनतकश किसानों से लेकर बड़े-बड़े सेमिनारों में बोलते देश के मशहूर पत्रकार पी. साईनाथ को अपने कैमरे में उतारा है। पिछले 10 सालों में लगभग 2 लाख किसानों की आत्महत्या के वजहों की शिनाख्त करती यह फिल्म एक जरूरी राजनैतिक हस्तक्षेप की तरह लगी।

पूना फिल्म इंस्टिट्यूट से फ़िल्म संपादन में प्रशिक्षित बेला नेगी की पहली फ़िल्म ‘दाएं या बाएं’ में ग्रामीण संस्कृति पर पड़ते बाजारवाद के प्रभावों को चित्रित किया गया था। पूंजीवादी-बाजारवादी संस्कृति ने जिन प्रलोभनों और जरूरतों को पैदा किया है, उनको बड़े ही मनोरंजक अंदाज में इस फ़िल्म ने निरर्थक साबित किया।

‘दी अदर सांग’ भारतीय शास्त्रीय संगीत और गायिकी की उस परंपरा को बड़ी खूबसूरती से दस्तावेजीकृत करने वाली फ़िल्म थी, जिसको उन ठुमरी गायिकाओं ने समृद्ध बनाया था, जो पेशे से तवायफ थीं। फ़िल्म निर्देशिका सबा दीवान ने तीन साल तक तवायफों की जीवन शैली और उनकी कला पर गहन शोध करके यह फ़िल्म बनाई है। इस फ़िल्म ने दर्शकों को रसूलनबाई समेत कई मशहूर ठुमरी गायिकाओं के जीवन और गायिकी से तो रूबरू करवाया ही, लागत करेजवा में चोट गीत के मूल वर्जन ‘लागत जोबनवा में चोट’ के जरिए शास्त्रीय गायिकी में अभिजात्य और सामान्य के बीच के सौंदर्यबोध और मूल्य संबधी द्वंद्व को भी चिह्नित किया। अभिजात्य हिंदू शास्त्रीय संगीत परंपरा के बरअक्स इन गायिकाओं की परंपरा को जनगायिकी की परंपरा के बतौर देखने के अतिरिक्त इस फिल्म में व्यक्त महिलावादी नजरिया भी इसकी खासियत थी। लोगों ने बेहद मंत्रमुग्ध होकर इस फ़िल्म को देखा।

म्यूजिक वीडियो जिन सामाजिक प्रवृत्तियों और वैचारिक या व्यावसायिक आग्रहों से बनते रहे हैं, तरुण भारतीय और के. मार्क स्वेर द्वारा तैयार किये गए म्यूजिक वीडियो के संकलन ‘हम देखेंगे’ उसको समझने की एक कोशिश थी।

इस मौके पर जसम, बिहार के राज्य सचिव संतोष झा ने कलाकारों और दर्शकों से अपील की, कि वे जनता से जुड़े बुनियादी मुद्दों, उसकी लोकतांत्रिक आकांक्षा और उसके बेहद जरूरी प्रतिरोधों को दर्ज करें और 10-15 मिनट के लघु फ़िल्म के रूप में निर्मित करके अगस्त, 20111 तक फेस्टिवल के संयोजक के पास भेज दें, जो फ़िल्में चुनी जाएंगी, उनका प्रदर्शन अगले फ़िल्म फेस्टिवल में किया जाएगा। समापन वक्तव्य कवि आलोकधन्वा ने दिया।

फ़िल्म फेस्टिवल में गोरखपुर फ़िल्म सोसाइटी और समकालीन जनमत की ओर से किताबों, कविता पोस्टरों औरफ़िल्मों की डीवीडी का स्टाल भी लगाया गया था। प्रेक्षागृह के बाहर राधिका-अर्जुन द्वारा बनाए गए कविता पोस्टर लगाए गए थे, जो फ़िल्मोत्सव का आकर्षण बने हुए थे। इस अवसर पर शताब्दी वर्ष वाले कवियों की कविताओं पर आधारित सारे छोटे पोस्टर पटना के साहित्य-संस्कृतिप्रेमियों ने खरीद लिए। किताबों और फ़िल्मों की डीवीडी की भी अच्छी मांग देखी गई। पूरे आयोजन का संचालन संतोष झा और संजय जोशी ने किया। उनके साथ विभिन्न फ़िल्मों और निर्देशकों का परिचय डा. भारती एस. कुमार, के.के. पांडेय और सुमन कुमार ने दिया।

-सुधीर सुमन