मंगलवार, 1 जून 2010

वीरेन्द्र सारंग का कविता पाठ


‘‘मोती अब मिलता नहीं/मोती अब लिखता नहीं’’

कौशल किशोर

‘ये कैसा रिश्ता/कैसा मन/उनके जैसा मेरा तन/उनकी अम्मा गाँव की अम्मा/मेरी माँ धोबन’ ये पंक्तियाँ हैं हिन्दी के जाने माने कवि वीरेन्द्र सारंग की कविता ‘कैसा रिश्ता कैसा मन‘ की जिसका पाठ उन्होंने लखनऊ के श्रोताओं के बीच किया। जन संस्कृति मंच ने वीरेन्द्र सारंग के एकल कविता पाठ और उस पर बातचीत का कार्यक्रम महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय के महानगर स्थित लखनऊ केन्द्र के सभागार में 23 मई को आयोजित किया था।

इस मौके पर वीरेन्द्र सारंग ने ‘गाती हुई चिड़िया’, ‘छन्ना’, ‘ले लो आम और भी सामान !’, ‘मोती लाल लिखता रहा’, ’अलगनी का कपड़ा’, ‘मतदान के पहले और बाद में’ सहित करीब अपनी एक दर्जन कविताएँ सुनाईं और अपनी कविता के विविध रंगों से श्रोताओं का परिचय कराया जो कस्बाई और हमारे लोक जीवन के रस।रंग, मुहावरे, लोक संस्कृति के तत्व अपने में लिए हुए हैं। परम्परा के प्रति मोह है लेकिन ये परम्परावादी नहीं हैं। यहां रिश्ते हैं, लेकिन ये निरपेक्ष नहीं हैं। शोषण व गैरबराबरी पर टिके इस समाज में ये निरपेक्ष हो भी नहीं सकते हैं। ‘मैं बनूँ पुष्कल’ की उन्मुक्त चाह घुटती रहती है। इसीलिए सारंग स्वतंत्रता के गीत गाते हैं। ‘झट बक दूँगी/मैं तो चिड़िया हूँ/मैंने जो देखी कथा, जैसी की वैसी !’ इसीलिए वीरेन्द्र सारंग के बारे में यह कहना ज्यादा सही लगता है कि ये स्वतंत्रता के गायक हैं। लोक संस्कृति इनकी कविता की ताकत है।

वीरेन्द्र सारंग की कविताओं में आम आदमी की पीड़ा और त्रासदी का बयान भी हैं और ‘मोती लाल....’ की पक्तियाँ तो हमारे दिल में उतर जाती हैं - ‘मोती लाल को ह्नेल ने निगल लिया/अमरनाथ की यात्रा में गल गया/दुर्घटनाग्रस्त रेल डिब्बे में उलझ गया/साबरमती में ठगा गया/संसद की दर्शकदीर्घा में छला गया.......मोती अब मिलता नहीं/मोती अब लिखता नहीं’।

कविता पाठ के बाद इन पर बातचीत भी हुई। आलोचक चन्द्रेश्वर ने कहा कि ये सामाजिक चिन्ताओं की कविताएँ हैं जिनमें से ज्यादातर ग्रामीण लोक से लेकर शहरी लोक के बीच फैली हैं। ये ऐसे दौर की कविताएँ हैं जब इन्सानी भूख विकराल होती जा रही है। कहीं ‘मोती लाल के पत्र’ के जरिये तो कहीं ‘बीजन लाल...’ के बहाने ये कविताएँ समय की सचाइयों से रु ब रु कराती हैं। ये संवादधर्मी हैं। इनकी कविताओं में भले ही निराशा दिख जाय लेकिन ये अन्ततः साथ मिलकर कुछ नया गढ़ने की भी बात करती हैं।

कार्यक्रम का संचालन जसम के संयोजक व कवि कौशल किशोर ने किया। उनका कहना था कि वीरेन्द्र सारंग की कविताओं में उनके अनुभव की दुनिया है। हमारा जीवन छोटी।छोटी चीजों के बीच पलता है, बढ़ता है। सारंग इन्हें अपनी कविता का विषय बनाते हैं, इन छोटी.छोटी चीजों के महत्व को उदघाटित करते चलते हैं। ‘छन्ना’ ऐसी ही कविता है। इसकी यात्रा पेट से शुरू होती है, दिमाग से गुजरती है और आगे बढ़ती है।

इस मौके पर लेखक व समीक्षक अनिल सिन्हा ने कहा कि हिन्दी कविता की सुपरिचित तस्वीर से अलग वीरेन्द्र सारंग एक ऐसी तस्वीर बनाते हैं जिसमें शहर और गाँव गड्ड मड्ड से हो गये हैं। भरतीय लोकतंत्र की तस्वीर जैसा धूमिल ने पेश किया, सारंग उसकी ओर जाते हैं लेकिन इनकी कविताओं को पढ़ते।सुनते समय धूमिल तो याद आते हैं पर गोरख पाण्डेय नहीं।

वीरेन्द्र सारंग की कविताओ पर ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि बाजार और पूँजी ने जिस अमानवीयता को फैलाया है, सारंग की कविताएँ उनसे मुठभेड़ करती हैं। इनकी कविताओं के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि कविता कोई रसायनिक दवा नहीं जो तुरन्त परिवर्तन ला दे, यह तो आँवले के उस फल की तरह है जिसका असर धीमा होता है पर यह ज्यादा स्थाई होता है।

कवि भगवान स्वरूप कटियार, लेखक रवीन्द्र कुमार सिन्हा, कवयित्री व कथाकार रंजना जयसवाल, कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा आदि ने भी अपने विचार रखे। इस कार्यक्रम में वन्दना मिश्र, पूनम सिंह, शकील सिद्दीकी, राजेश कुमार, मृदुला भारद्वाज, नसीम साकेती, सुरेश पंजम, श्याम अंकुरम, विमल किशोर, राघवेन्द्र, बी एम प्रसाद, राजेन्द्र वर्मा, धर्मेन्द्र, गंगा प्रसाद आदि सहित बड़ी संख्या में लेखकों व संस्कृतिकर्मियों ने शिरकत की।