शुक्रवार, 25 मार्च 2011

प्रलेस के महासचिव प्रो. कमला प्रसाद को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि



आज सुबह ही हम सब प्रो. कमला प्रसाद के असामयिक निधन का समाचार सुन अवसन्न रह गए. रक्त कैंसर यों तो भयानक मर्ज़ है, लेकिन फिर भी आज की तारीख में वह लाइलाज नहीं रह गया है. ऐसे में यह उम्मीद तो बिलकुल ही नहीं थी कि कमला जी को इतनी जल्दी खो देंगे. उन्हें चाहने वाले, मित्र, परिजन और सबसे बढ़कर प्रगतिशील, जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन की यह भारी क्षति है. इतने लम्बे समय तक उस प्रगतिशील आंदोलन का बतौर महासचिव नेतृत्व करना जिसकी नींव सज्जाद ज़हीर, प्रेमचंद, मुल्कराज आनंद , फैज़ सरीखे अदीबों ने डाली थी, अपन आप में उनकी प्रतिबद्धता और संगठन क्षमता के बारे में बहुत कुछ बयान करता है.
१४ फरवरी,१९३८ को सतना में जन्में कमला प्रसाद ने ७० के दशक में ज्ञानरंजन के साथ मिलकर 'पहल' का सम्पादन किया, फिर ९० के दशक से वे 'प्रगतिशील वसुधा' के मृत्युपर्यंत सम्पादक रहे. दोनों ही पत्रिकाओं के कई अनमोल अंकों का श्रेय उन्हें जाता है. कमला प्रसाद जी ने पिछली सदी के उस अंतिम दशक में भी प्रलेस का सजग नेतृत्व किया जब सोवियत विघटन हो चुका था और समाजवाद को पूरी दुनिया में अप्रासंगिक करार देने की मुहिम चली हुई थी. उन दिनों दुनिया भर में कई तपे तपाए अदीब भी मार्क्सवाद का खेमा छोड़ अपनी राह ले रहे थे. ऐसे कठिन समय में प्रगतिशील आन्दोलन की मशाल थामें रहनेवाले कमला प्रसाद को आज अपने बीच न पाकर एक शून्य महसूस हो रहा है. कमला जी की अपनी मुख्य कार्यस्थली मध्य प्रदेश थी. मध्य प्रदेष कभी भी वाम आन्दोलन का मुख्य केंद्र नहीं रहा. ऐसी जगह नीचे से एक प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठन को खडा करना कोइ मामूली बात न थी. ये कमला जी की सलाहियत थी कि ये काम भी अंजाम पा सका. निस्संदेह हरिशंकर परसाई जैसे अग्रजों का प्रोत्साहन और मुक्तिबोध जैसों की विरासत ने उनका रास्ता प्रशस्त किया, लेकिन यह आसान फिर भी न रहा होगा.
कमला जी को सबसे काम लेना आता था, अनावश्यक आरोपों का जवाब देते उन्हें शायद ही कभी देखा गया हो. जन संस्कृति मंच के पिछले दो सम्मेलनों में उनके विस्तृत सन्देश पढ़े गए और दोनों बार प्रलेस के प्रतिनिधियों को हमारे आग्रह पर सम्मेलन संबोधित करने के लिए उन्होनें भेजा. वे प्रगतिशील लेखक संघ , जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के बीच साझा कार्रवाइयों की संभावना तलाशने के प्रति सदैव खुलापन प्रदर्शित करते रहे और अनेक बार इस सिलसिले में हमारी उनसे बातें हुईं. इस वर्ष कई कार्यक्रमों के बारे में मोटी रूपरेखा पर भी उनसे विचार विमर्ष हुआ था जो उनके अचानक बीमार पड़ने से बाधित हुआ. संगठनकर्ता के सम्मुख उन्होंने अपनी आलोचकीय और वैदुषिक क्षमता, अकादमिक प्रशासन में अपनी दक्षता को उतनी तरजीह नहीं दी. लेकिन इन रूपों में भी उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. मध्यप्रदेश कला परिषद् और केन्द्रीय हिंदी संस्थान जैसे शासकीय निकायों में काम करते हुए भी वे लगातार प्रलेस के अपने सांगठनिक दायित्व को ही प्राथमिकता में रखते रहे. उनका स्नेहिल स्वभाव, सहज व्यवहार सभी को आकर्षित करता था. उनका जाना सिर्फा प्रलेस , उनके परिजनों और मित्रों के लिए ही नहीं , बल्कि समूचे वाम- लोकतांत्रिक सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए भारी झटका है. जन संस्कृति मंच .प्रो. कमला प्रसाद को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है . हम चाहेंगे कि वाम आन्दोलन की सर्वोत्तम परम्पराओं को विकसित करनेवाले संस्कृतिकर्मी इस शोक को शक्ति में बदलेंगे और उन तमाम कामों को मंजिल तक पहुचाएँगे जिनके लिए कमला जी ने जीवन पर्यंत कर्मठतापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह किया.

- प्रणय कृष्ण , महासचिव , जन संस्कृति मंच


जाने मने आलोचक डॉ. कमला प्रसाद का जाना

जनवादी और प्रगतिशील आन्दोलन का नुकसान है

---- जन संस्कृति मंच

लखनऊ , २५ मार्च . जन संस्कृति मंच ने हिन्दी के जाने माने आलोचक , प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव और "वसुधा" के संपादक डा० कमला प्रसाद के निधन पर गहरा शोक प्रकट किया है. आज जारी बयान में जसम लखनऊ के संयोजक कौशल किशोर ने कहा कि कमला प्रसाद जी का जाना जनवादी और प्रगतिशील आन्दोलन का भारी नुकसान है. अपनी वैचारिक प्रतिबधता और साहित्य ओ समाज में अपने योगदान के लिए हमेशा याद किये जायेंगे . अयोध्या के सम्बन्ध में हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ साझा सांस्कृतिक पहल उन्होंने ली थी तथा संयुक्त सांस्कृतिक आंदोलनों में उनकी विशिष्ट भूमिका थी.

हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक कमला प्रसाद का आज शुक्रवार 25 मई की सुबह नई दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया । कैंसर से पीड़ित प्रसाद का लम्बे समय से इलाज चल रहा था. वह मध्यप्रदेश से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका वसुधा के सम्पादक और प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव थे । मध्य प्रदेश के सतना जिले के गांव धौरहरा में 1938 में जन्मे प्रसाद की प्रमुख कृतियां साहित्य शास्त्र, आधुनिक हिन्दी कविता और आलोचना की द्वन्द्वात्मकता, रचना की कर्मशाला, नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं । हिन्दी की महत्वपूर्ण पत्रिका "पहल" के संपादन में भी वे लम्बे समय तक ज्ञानरंजन के साथ रहे .

कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच लखनऊ


गुरुवार, 10 मार्च 2011

अनिल सिन्हा की याद ने सबको रूला दिया







शब्दों की दुनिया के लोग - लेखक, पत्रकार, संस्कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी ...... सब थे। ऐसा बहुत कम मौका आया होगा जब उन्हें शब्दों के संकट का सामना करना पड़ा हो। पर हालत ऐसी ही थी। किसी को भी अपने विचारों-भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे। एक-दो वाक्य तक बोल पाना मुश्किल हो रहा था। हिन्दी कवि वीरेन डंगवाल की हालत तो और भी बुरी थी। सब कुछ जैसे गले में ही अटक गया है। यह कौन सी कविता है ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पर वह कविता ही थी। उसके पास शब्द नहीं थे पर वह वेगवान नदीे की तरह बह रही थी। इतना आवेग, सीधे दिल में उतर रही थी। आँसूओं के रूप में बहती इस कविता को सब महसूस कर रहे थे। यह प्रकृति का कमाल ही है कि जहाँ शब्द साथ छोड़ देते हैं, शब्दों का जबान से तालमेल नहीं बैठ पाता, ऐसे में हमारी इन्द्रियाँ विचारों-भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम बन जाती हैं। 6 मार्च को अनिल सिन्हा की स्मृति सभा में ऐसा ही दृश्य था। बड़ी संख्या में साहित्यकार, पत्रकार, रंगकर्मी, कलाकार, बुद्धिजीवी, राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता, अनिल सिन्हा के परिजन, मोहल्ले के साथी, पास-पड़ोस के स्त्री-पुरुष सब इक्ट्ठा थे। अचानक अनिल सिन्हा के चले जाने का दुख तो था ही, पर सब उनके साथ की स्मृतियों का सझाा करना चाहते थे। किसी के साथ दस साल का, तो किसी से तीस व चालीस साल का और कुछ का तो जन्म से ही उनका साथ था और सभी उनके साथ बीताये क्षणों की स्मृतियों, अपने अनुभवों को आपस में बाँटना चाहते थे।

इस अवसर पर कवि भगवान स्वरूप कटियार और विमला किशोर ने अपनी भावनाओं को कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया। वे कविताएँ यहाँ दी जा रही हैं:

एक बेचैन आवाज


भगवान स्वरूप कटियार

जहां मेरा इंतजार हो रहा है
वहां मैं पहुंच नहीं पा रहा हूं
दोस्तों की फैली हुई बाहें
और बढे हुए हांथ मेरा इंतजार कर रहे हैं .

पर मेरी उम्र का पल पल
रेत की तरह गिर रहा है
रैहान मुझे बुला रहा है
ऋतु- अनुराग,निधि- अर‘ाद,
‘ाा‘वत- दिव्या और मेरी प्रिय आ‘ाा
और मेरे दोस्तों की इतनी बडी दुनिया
मैं किस किस के नाम लूं
सब मेरा इंतजार कर रहे हैं
पर मैं पहुंच नहीं पा रहा हू
मेरी सांसें जबाब दे रही हैं .

पर दोस्तो याद रखना
मौत ,वक़्त की अदालत का आखिरी फैसला नहीं है
जिन्दगी मौत से कभी नहीं हरती
मेरे दोस्त ही तो मेरी ताकत रहे हैं
इसलिए मैं हमे‘ाा कहता रहा हूं
कि दोस्त से बडा कोई रि‘ता नहीं होता
और ना ही दोस्ती से बडा कोई धर्म
मैं तो यहां तक् कहता हू
कि दोस्ती से बडी कोई विचारधारा भी नहीं होती
जैसे चूल्हे में जलती आग से बडी
कोई रो‘ानी नहीं होती .

इसलिए मेरी गुजारि‘ा है
कि उलझे हुए सवालों से टकराते हुए
एक बेहतर इंसानी दुनिया बनाने के लिए
मेरी यादों के साथ संघर्“ा का कारवां चलता रहे


मंजिल के आखिरी पडाव तक.

याद

विमला किशोर

एक पक्षी उड़ गया
मानो, हमारा प्यारा साथी छूट गया
वह पच्चीस तारीख थी
साल दो हजार ग्यारह का दूसरा महीना था
एक बिजली सी कौंध गई
आँखों में
चारो तरफ घिर आया अंधेरा
मन भी बहुत आहत हुआ
दूर, बहुत दूर चला गया वह बादलों के पार
झाँक रहा वह वहीं से
हम सबके दिलों मे
उजियारा फैलाता
आज भी खड़ा है
हम सबकी यादों में
जिन्दगी के मायने बताता
अटल
दैदिप्यमान
प्रकाश स्तम्भ की तरह
हम सबको राह दिखाता

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

स्मृति अनिल सिन्हा






















स्मृति गोष्ठी

स्मृति अनिल सिन्हा: बेहतर व मानवोचित दुनिया की उम्मीद का संस्कृतिकर्मी

कौशल किशोर

लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा के अचानक अपने बीच से चले जाने से हमने ऐसा मजबूत और ऊर्जावान साथी खोया है जिनसे जन सांस्कृतिक आंदोलन को अभी बहुत कुछ पाना था। उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से नई पीढ़ी को बहुत कुछ सीखना था। सŸार के दशक में और उसके बाद चले सांस्कृतिक आंदोलन के वे अगुआ थे। अनिल सिन्हा कलाओं के अर्न्तसम्बन्ध पर जनवादी, प्रगतिशील नजरिये से गहन विचार और समझ विकसित करने वाले विरले समीक्षक और मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के मानक थे। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से प्रगतिशील रचनाकर्म के बाहर के दायरे में भी उन्हें सम्मान प्राप्त था।

यह विचार कवि व जसम के संयोजक कौशल किशोर ने ‘स्मृति अनिल सिन्हा’ के अन्तर्गत आयोजित स्मृति सभा में शोक प्रस्ताव के माध्यम से व्यक्त किये। जाने.माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा का निधन 25 फरवरी को पटना में मस्तिष्क आघात से हुआ। उनकी स्मृति में जन संस्कृति मंच ने उŸार प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ के प्रेमचंद सभागार में 27 फरवरी को शोकसभा का आयोजन किया। कार्यक्रम का संचालन कवि.आलोचक चन्द्रेश्वर ने किया। चन्द्रेश्वर का कहना था कि इससे बढ़कर हमारे लिए दुख की बात क्या होगी कि आज इस सभागार में शमशेर, केदार व नार्गाजुन जन्मशती का आयोजन था। अनिल सिन्हा इस समारोह के मुख्य कर्ता.धर्ता थे। लेकिन अनिलजी हमारे बीच नहीं रहे और हमें इस सभागार में उनकी स्मृति में शोकसभा करनी पड़ रही है।

11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में जन्मे अनिल सिन्हा ने पटना विश्वविद्यालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्यालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कई तरह के काम किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यावर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से वे भी जुड़े रहे। 1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ, वे मंगलेश डबराल, अजय सिंह, मोहन थपलियाल आदि के साथ यहीं आ गये। तब से लखनऊ ही उनका स्थाई निवास था। अमृत प्रभात लखनऊ संस्करण के बन्द होने के बाद उन्होंने नवभारत टाइम्स में काम किया। दैनिक जागरण, रीवाँ के भी वे स्थानीय संपादक रहे। लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने वह अखबार छोड़ दिया। ‘राष्टीªय सहारा’ में साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ का भी उन्होंने सम्पादन किया था।

कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में उन्होंने काम किया। ‘मठ’ नम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। पिछले दिनों उनके द्वारा अनूदित पुस्तक ‘साम्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मूलन’ छपकर आया। अनिल सिन्हा जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। जन संस्कृति मंच उŸार प्रदेश के पहले सचिव के रूप में सांस्कृतिक आंदोलन का उन्होंने नेतृत्व किया था। इस समय वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी जनवादी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। भाकपा ;मालेद्ध से उनका जुड़ाव उस वक्त से था जब पार्टी भूमिगत थी।

अनिल सिन्हा को याद करते हुए उनके घनिष्ठ सहयोगी तथा कवि.पत्रकार अजय सिंह ने शोकसभा के मौके पर कहा कि अनिल सिन्हा से मेरा साथ सŸार के दशक के शुरू में ही हो गया था। हमने सांस्कृतिक.राजनीतिक आंदोलनों में मिलकर काम किया। लखनऊ से जब अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ, हम यहीं आ गये। हमारी घनिष्ठता और बढ़ी। हमने यहाँ नवचेतना सांस्कृतिक संगठन बनाया। जन संस्कृति मंच, इंडियन पीपुल्स फ्रंट तथा भकपा ;मालेद्ध में हमने साथ काम किया। इन आंदोलनों में तपकर ही अनिल सिन्हा के रचनात्मक व वैचारिक व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था। लेखन व पत्रकारिता के साथ ही अनिल की चित्रकला व संगीत में भी गहरी रूचि थी। पिछले दिनों दिल्ली में शमशेर जन्मशती आयोजन के अवसर पर अनिल ने शमशेर की कलाकृतियों पर व्याख्यान दिया था। इससे कला के बारे में उसकी गहरी समीक्षा दृष्टि का पता चलता है। अनिल के इस तरह असमय हमारे बीच से चले जाने से जो सूनापन पैदा हुआ है, उसे भर पाना आसान नहीं होगा।

अनिल सिन्हा को याद करते हुए वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि अनिल सिन्हा शान्त स्वभाव के बेहतर इन्सान थे। आत्मप्रचार से दूर उनका लेखन सादगी व संघर्ष का लेखन है। उनका व्यक्तित्व ऐसा रहा है जिस पर आप भरोसा कर सकते हैं। आज के समय में ऐसे इन्सान का मिलना कठिन होता जा रहा है। वे मानवीयता के ऐसे उदाहरण हैं जिनसे सीखा जा सकता है।

प्रगतिशील लेखक संघ की ओर अनिल सिन्हा को श्रद्धांजलि देते हुए आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि 1980 के बाद अमृत प्रभात में काम करते हुए राकेश के साथ अनिल सिन्हा से हर इतवार को हमारी मुलाकात हुआ करती थी। हमारे बीच कला, साहित्य तथा वामपंथी राजनीति को लेकर विचार.विमर्श होता था। विचारों की साफगोई उनके लेखन में हमें देखने को मिलती है। वे एक अच्छे समीक्षक थे। उन दिनों मैं ‘प्रयोजन’ साहित्यिक पत्रिका निकालता था। इस पत्रिका को उनका सहयोग व सुझाव मिला। उन्होंने अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ की समीक्षा की थी। अनिल सिन्हा का नजरिया मूलतः समाज को बदलने का रहा है। उनका लेखन व पत्रकारिता इसी के प्रति प्रतिबद्ध है।

जनवादी लेखक संघ की ओर से ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव ने श्रद्धासुमन अर्पित किये।। उनका कहना था कि अनिल सिन्हा अत्यन्त सक्रिय रचनाकार थे। इनके जीवन में कोई दोहरापन नहीं था। जो अन्दर था, वही बाहर। आज के दौर में ऐसे रचनाकार का मिलना कठिन है। आज तो हालात ऐसी है कि दो.चार रचनाएँ क्या छपी, लेखक महान बनने की महत्वाकांक्षा पालने लगते हैं। अनिल सिन्हा इस तरह की महत्वकांक्षाओं से दूर काम में विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे, साहित्य की राजनीति से दूर। इसीलिए उपेक्षित भी रहे।

हिन्दी.उर्दू लेखक शकील सिद्दीकी का कहना था कि लखनऊ के जिन दो रचनाकारों के व्यक्तित्व ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया, वे अनिल सिन्हा व मोहन थपलियाल थे। ये दोनों विश्वसनीय व्यक्ति थे। अनिल सिन्हा ने गलत को कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी खूबी यह भी थी कि अपने विरोध को भी बड़ी शालीनता से दर्ज कराते थे। कथाकार शिवमूर्ति ने अनिल सिन्हा को याद करते हुए कहा कि रेणुजी भी पटना में लम्बी मूर्छा में रहते हुए दिवंगत हुए। उनके निधन ने सबको मर्माहत किया तथा बड़ी भारी रिक्तता छोड़ी। अनिल सिन्हा ने फिर वही कथा दोहराई है। इनकी बातचीत तथा व्यवहार में जो शीतलता व शान्ति थी, वह सचमुच अदभुत थी। ये बातचीत में न सिर्फ अपनी बात कहते बल्कि दूसरों को सुनने का स्पेस भी प्रदान करते।

अनिल सिन्हा के पुत्र शाश्वत सिन्हा ने इस मौके पर कहा कि मेरे पापा बेटे.बेटियो के बीच कोई फर्क नहीं करते थे और हम सभी के साथ उनका रिश्ता दोस्तों जैसा था। सात साल से मैं अमरीका में हूँ। वे इतने संवेदनशील थे कि फोन पर ही वे बातचीत से ही मेरी समस्याओं को, यहाँ तक कि मेरी खामोशी को भी पढ़ लेते थे। पापा जिस पारिवारिक परिवेश से आये थे, वह सामंती व धार्मिक जकड़न भरा था। उन्होंने इस जकड़न के खिलाफ संघर्ष करके अपने को आधुनिक व प्रगतिशील बनाया था। उन्होने यही संस्कार हमें दिये। आज हमारे लिए बड़ी चुनौती है कि पापा ने सच्चाई, सहजता, आत्मीयता, मानवता व जनपक्षधरता के जो मूल्य सहेजे थे, उन्हें हम कैसे जियें, अपने जीवन में हम उन्हें कैसे सफलीभूत करें।

इस अवसर पर पी यू सी एल व राही मासूम रजा अकादमी की ओर से कवयित्री.पत्रकार वंदना मिश्र, एपवा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ताहिरा हसन, कथाकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा, लखनऊ विश्वविद्दालय के प्रो0 रमेश दीक्षित, जसम की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कवयित्री शोभा सिंह, जसम दिल्ली इकाई की सचिव पत्रकार भाषा सिंह, पत्रकार महेश पाण्डेय व अनुराग सिंह, कवि अशोक चन्द्र व भगवान स्वरूप कटियार आदि ने भी अनिल सिन्हा को अपनी शोक संवेदना प्रकट की तथा अपने विचार रखे।

वक्ताओं का कहना था कि अनिल सिन्हा बेहतर व मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार हैं। वे मानते रहे हैं कि एक रचनाकार का काम हमेशा बेहतर समाज का निर्माण करना है, उसके लिए संघर्ष करना है। उनका लेखन इसी लक्ष्य को समर्पित है। इसीलिए अनिल सिन्हा जैसे रचनाकार कभी नहीं मरते। अपने काम और विचारों के साथ हमेशा हमारे बीच जिन्दा रहते हैं। ये हमारे आंदोलन के ऐसे प्रकाश स्तम्भ हैं जो हमें आगे बढ़ने की रोशनी दिखाते हैं।


दोस्तों के दोस्त - अनिल सिन्हा

भगवान स्वरूप कटियार

हरदिल अजीज वरिश्ळ पत्रकार- लेखक साथी अनिल सिन्हा के आकस्मिक निधन से मीडिया जगत समेत साहित्य,कला तथा संस्कृतिकर्मियों की दुनिया को गहरा झटका लगा है.यह एक
अप्रत्याषित स्तब्ध करने वाला आघात है.उन्होंने गत ्25 फरवरी 2011 को दिन में 11.50 पर्
पटना के मगध अस्पताल में अन्तिम सांस ली और जिन्दगी की ही तरह ही मौत से भी लडते
हुए हम सबका साथ छोड दिया.चलते- फिरते किसी हरदिल अजीज इंसान का अनायास चले
जाना दुखद और स्तब्धकारी तो है ही अविष्वसनीय भी लगता है.

अनिलजी गत 21 फरवरी को अपनी पत्नी आषा जी के साथ अपनी छोटी बहिन और उसके परिवार से मिलने पटना जा रहे थे .पटना से उनका गहरा जुडाव और लगाव था.उनके अधिकांष परिजन पटना में ही रह्ते थे. उनकी षुरुआती जिन्दगी पटना से ही प्रारम्भ हुई थी.रास्ते में पटना जाते हुए मुगलसराय के आसपास सोते में उन्हें ब्रेनसट्रोक हुआ जिसका पता तब चला जब उनकी पत्नी आषाजी ने हांथ पकड कर उळाना चाहा पर उळने के बजाय उनका हांथ निर्जीव होकर गिर गया.आषाजी के दुख और मनास्थिति की हम कल्पना कर सकते हैं.उन्होंने तुरन्त पटना में अपने रिष्तेदारों को फोन करके कहाकि पटना स्टेषन पर डाक्टर और एम्बुलेंस लेकर आजांय .

पटना पहुंच कर मगध अस्पताल में अनिलजी का इलाज षुरू हुआ जहां चिकत्सकों ने बताया कि इनके ब्रेनस्टेम में क्लोटिंग हो गयी है जिसका इलाज क्लोटिंग होने के तीन घंटे की अन्दर ही संभव है ,यह इलाज भी सिर्फ दिल्ली ,बम्बई और कोलकता में ही संम्भव है.अनिलजी डीप कोमा में चले गये .खबर मिलते ही दोनो बेटियां ऋतु,निधि दोनों दामाद अनुराग और अरषद पटना पहुंच चुके थे.सपोर्टिव ट्रीट्मेन्ट चल रहा था.सभी लोग इस इंतजार में थे कि वे कोमा से बाहर आयें तो दिल्ली ले जायं .पर वेन्टीलेटर पर रह्ते हुए कोमा की स्थिति में मरीज को कहीं षिफ्ट करना संभव नहीं होता है.षाष्वत और दिव्या भी अमेरिका से पटना के लिए रवाना हो चुके थे.सबके चेहरंो़ पर् गहरी चिंता और उदासी के साथ दिलों में एक उम्मीद पल रही थी.जिस किसी को खबर मिलती चिन्ता और षोक में डूब जाता.यह सब कैसे हो गया अचानक अप्रत्याषित.लखनऊ में हम सब षमषेर,केदार नागार्जुन जन्मषती समारोह की तैयारी में जुटे थे.इस कायर््ाक्रम की सारी परिकल्पना एवं तैयारी अनिलजी की ही थी ,सारे वक्ताओं से उन्होंने व्यक्तिगत सम्पर्क कर कार्यक्रम में षिरकत के लिए आग्रह किया था. अनिल छोट-बडे सबके दिलों के बहुत करीब थे इसलिए इस आघात से सभी आहत थे.
हम और कौषल जी दोनों 24फरवरी को सुबह आळ बजे पटना के मगध अस्पताल पहुंच चुके थे.अस्पताल के तीसरे तल के आई.सी.यू. वार्ड के बैड नम्बर 9 पर अनिलजी अचेत
अवस्था में लेटे हुए थे.उनके षरीर के सारे अंग ळीक से काम कर रहे थे सिर्फ दिमाग के सिवा. दिमाग से काम भी तो बहुत लिया था उन्होने .लिखने-पढने के अलावा अपने दोस्तों और समाजिक सरोकारों की चिन्ताओं का बोझ उन्होने अपने नाजुक् से दिमाग पर ले रखा था. अनिलजी पूरी तरह अचेत थे और डीप कोमा थे. पर चेहरे पर वही सादगी का तेज,सौम्यता ,भोलापन और वेलौस दोस्ती का भाव रोषनी की चमक की तरह मौजूद था .हम सब की एक ही चिंता थी कि अनिलजी कोमा से बाहर आयें . पट्ना के सारे पत्रकार,चित्रकार.संस्कृतिकर्मी लेखक् तथा राजनैतिक मित्र जो भी सुनता पटना के मगध अस्पताल की ओर बदहवास सा भागता चला आता .कैसे हैं अनिलजी कब तक ळीक होंगे. उनकी हम सबको बेहद जरूरत है.पटना रेडियो उनकी बीमारी का बुलटिन लगातार प्रसारित कर रहा था.दिल्ली और लखनऊ के पत्रकार ,लेखक और संास्कृतिकर्मी कौषलजी से लगातार फोन पर हालचाल ले कर चिन्तित हो रहे थे. मंगलेष डबराल,वीरेन्द्र यादव, अमेरिका से इप्टा के राकेष सभी लोग लगातार अजय सिंह से फोन पर हालचाल ले रहे थे और चिंतित हो रहे थे.गंगाजी,गौड्जी, आर के सिन्हा आदि लगातार फोन पर हालचाल ले रहे थे और दुखी हो रहे थे. पटना में आलोक धन्वा का हाल तो बेहद बुरा था.आई़.सी.यू़. में वे अनिलजी को चिल्ला चिल्ला कर बुलाते हुए रो पडे. लगभग सभी का एक जैसा हाल था .जो नहीं रो रहे थे ,वे अन्दर से रो रहे थे.अनिलजी के दोस्तों की दुनियंा लुट रही थी.सब अपने को कंगाल महसूस कर रहे थे. दोस्तों के दोस्त ,हमारे सुख-दुख के सच्चे साथी ,हमारी हर लडाई के अग्रणी योध्दा अनिल सिन्हा का अचानक अप्रत्याषित ढंग हमारे बीच से चला जाना हम सब के लिए एक गहरा आघात है .उनके जैसा सादा - सच्चा इंसानी इंसान भला हमें कहां मिलेगा . संघर्श में तपा निर्मल व्यक्तित्व ,क्रान्तिकारी वाम राजनीत और संस्कृतिकर्म के अथक योध्दा अनिल सिन्हा अपने पीछे कितना सूनापन छोड गये हैं इसका अंदाजा लगाना बहुत मुष्किल है. बेषक हमने एक मजबूत ,प्रतिबध्द और ऊर्जावान् ऐसा साथी खोया है जिससे हमारे सांस्कृतिक आन्दोलनों अभी बहुत कुछ मिलना था और नई पीढी को बहुत कुछ सीखना था . वे सत्तर के दषक के बाद चले संास्कृतिक आन्दोलन के हर पडाव के साक्षी ही नहीं निर्माता भी थे . वे कलाओं के अन्तर्सम्बधों पर जनवादी प्रगतिषील नजरिये से गहन विचार और समझ विकसित करने वाले विरले समीक्षक थे . वे मूल्यनिश्ळ पत्रकारिता के मानक थे ण्

साथी अनिल सिन्हा का जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद ,गया, बिहार में हुआ था . उन्होंने पटना युनीवर्सिटी 1962 में हिन्दी में एम.ए. किया था . युनीवर्सिटी की चाटुकारिता पूर्ण घटिया राजनीत से क्षुब्ध होकर उन्होंने अपना पी एच डी कर्म अधूरा छोड दिया .उन्होने कई तरह के महत्वपूर्ण कार्य किये थे. प्रूफरीडिंग , प्राध्यापकी ,विभिन्न विशयों पर षोध जैसे कार्य उन्होंने किये थे . सत्तर के दषक में उन्होंने पटना से “विनिमय“ नाम की साहित्यिक पत्रिका का संपादन और प्रकाषन किया जो अपने समय की चर्चित पत्रिका रही है . वे आर्यावर्त, आज , ज्योत्सना, जन, दिनमान से बतौर लेखक एवं पत्रकार जुडे रहे . वर्श 1980 में जब लकनऊ से अमृत प्रभात निकलना षुरू हुआ ,उन्होंने इसमे काम करना षुरू किया.तब से लखनऊ उनका स्थायी निवास बन गया .वे लाखनऊ के महानगर , इन्दिरा नगर आदि मुहल्लों में अपने साथियों के साथ रहे . अन्त में 3/30 पत्रकारपुरम गोमती नगर में उनका स्थायी आषियाना बन गया .उनका घर भी उन्ही की तरह सादगी और नैसर्गिक सौन्दर्य से भरपूर सचमुच घर है महज मकान नहीं .

अमृत प्रभात बन्द होने के बाद उन्होंने लखनऊ में नव भारत टाइम्स ज्वाइन किया जिसमें वे बन्द होने तक काम करते रहे . नव भारत टाइम्स बन्द होने के बाद वे विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन करते रहे .हिन्दुस्तान की अधिकांष पत्र- पत्रिकाओं अनिलजी का लिखा प्रकाषित हुआ है. उनके लेखन में सादगी और धार दोनो थे .राश्ट्रीय सहारा में उन्होंने सृजन पृश्ळ का भी संपादन किया . कहानी ,समीक्षा, आलोचना, कला समीक्षा ,भेंटवार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में काम किया. उनका कहानी संग्रह “मळ“ 2005 में भावना प्रकाषन से प्रकाषित हुआ. उनकी ”हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप, एवं संभावनाएं“भी प्रकाषित हुई जो पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण पुस्तक है. उनका अनुवाद कार्य “साम्राज्यवाद का विरोध और जातियों का उन्मूलन“ अभी हाल ही में ग्रंथषिल्पी से प्रकाषित होकर आया है. अनिल सिन्हा एक बेह्तर इंसानी दुनिया बनाने के लिए निरन्तर संघर्श में विष्वास रखते थे .उनका मानना था कि रचनाकार का काम हमेषा एक बेहतर समाज की तामीर करना है,उसके लिए लडना और संघर्श करना है. उनका संपूर्ण रचनाकर्म इस ध्येय को समर्पित था. वे जनसंस्कृति मंच के संस्थापकों में थे. वे उत्तर प्रदेष जनसंस्कृति मंच के प्रथम सचिव रहे और उन्होंने संास्कृतिक आन्दोलनों का क्रान्तिकारी नेतृत्व किया. वे जनवादी आन्दोलनों के प्रकाषस्तम्भ थे . इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी संगळनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. भाकपा (माले) से उनका जुडाव उस समय से है जब वह भूमिगत संगळन था. उनका 3/30 पत्रकारपुरम गोमती नगर हम सब के लिए एक ऐसा छायादार दरख्त था जिसकी ळंडी छांव में हम सब साहित्य- संस्कृतिकर्मी आश्रय और दिषा पाते थे.

हमें उनकी विरासत पर गर्व है उसे जिन्दा रखने और आगे बढाने के लिए हम संकल्प बध्द हैं. अनिल सिन्हा जैसे साथी कभी नहीं मरते . अपने काम और विचारों के साथ वे सदैव हमारे बीच हमारे साथ रहें गे.उनका दोस्ताना लहजा और अपनापन सदैव हमारे साथ रहेगा जो हमें हर मोड पर ताकत, दिषा और प्रेरणा देता रहेगा.

बुधवार, 2 मार्च 2011

गोरखपुर में अनिल सिन्हा की स्मृति में शोक सभा

संस्कृति कर्मियों के लिए प्रकाश स्तम्भ थे



गोरखपुर। जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य, कला समीक्षक, पत्रकार एवं कथाकार अनिल सिन्हा के निधन पर शनिवार (26 feb ko )को प्रेमचन्द पार्क में हुई एक शोक सभा में शहर के साहित्यकारों, संस्कृति कर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उन्हें श्रद्धाजंलि दी।
वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन की अध्यक्षता में जनसंस्कृति मंच द्वारा आयोजित इस शोक सभा में वक्ताओं ने कहा कि जन संस्कृति मंच के कर्मठ और विचारवान साथी अनिल सिन्हा आजीवन प्रगतिशील मूल्यों के लिए संघर्ष करते रहे। वह अपनी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता और जन पक्षधरता से कभी डिगे नहीं। वह जसम के संस्थापक सदस्य, उत्तर प्रदेश इकाई के पहले सचिव और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे। उनका संगठन की गतिविधियों के प्रति उत्साह सबके लिए प्रेरणास्पद थां। उन्होंने एक प्रतिभाशाली और प्रखर पत्रकार के रूप में कई पत्र-पत्रिकाओं, अमृत प्रभात, नव भारत टाइम्स आदि में काम किया। राष्ट्रीय सहारा के स्थानीय संस्करण में सर्जना नामक स्तम्भ लिखा। उन्होंने 70 के दशक में पटना से विनिमय नाम की साहित्यिक पत्रिका निकाल लघुपत्रिका आन्दोलन में योग दिया। उनकी कहानियों का एक संग्रह मठ चर्चित रहा. उनकी सर्जानात्मक रुचियों की परिधि बहुत व्यापक थी जिसमें पत्रकारिता से लेकर चित्रकला, सिनेमा जैसे माध्यम भी शामिल थे। सीपीआई एमएल के साथ उनका गहरा और पुराना रिश्ता था।
शोक सभा में युवा आलोचक कपिलदेव ने कहा कि अनिल सिन्हा ने माक्र्सवादी विचारधारा को संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरूप में उतारने का जीवन भर प्रयास किया। उन्होंने अनिल सिन्हा की स्मृति में उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर आयोजन का सुझाव दिया। शोक सभा की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कथाकार मदनमोहन ने जनसंस्कृति मंच की स्थापना के दौरान अनिल सिन्हा की सक्रियता को याद करते हुए कहा कि विचारधारा और संस्कृति कंे अन्तर सम्बन्धों को लेकर उनकी उनसे काफी संवाद रहा; उनका सम्पूर्ण लेखन जनता की मुक्ति के लिए था; वह जितने सरल व सादे थे वैचारिक रूप यसे उतने ही दृढ थे। शोक सभा मे दो मिनट मौन रखकर अनिल सिन्हा को श्रद्धाजलि दी गई। शोक सभा का संचालन करते हुए जनसंस्कृति मंच के प्रदेश सचिव मनोज कुमार सिंह ने कहा कि अनिल सिन्हा उन जैसे युवा संस्कृति कर्मियों के लिए प्रकाश स्तम्भ थे। शोक सभा में पत्रकार अशोक चैधरी, वेद प्रकाश, रंग कर्मी आरिफ अजीज लेनिन, अशोक राव, बैजनाथ मिश्र, भाकपा माले के जिला सचिव राजेश साहनी, हरिद्वार प्रसाद, बैजनाथ मिश्र, गोपाल राय, पीयूएचआर के जिला सचिव श्याममिलन आदि उपस्थित थे।