सोमवार, 17 मई 2010

लोक रंग -- २०१०


फूहड़पन व भड़ैती के विरुद्ध सांस्कृतिक पहल

कौशल किशोर
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से लेकर इससे सटे बिहार तक फैली पूरब की इस पट्टी में इन दिनों एक नई सांस्कृतिक चेतना करवट लेती हुई देखी जा सकती है। यहाँ एक नया प्रयोग देखने को मिल रहा है, वह है लोककला को आधुनिक कला और बौद्धिक समुदाय को गंवई जनता के साथ जोड़ने का। कला और संस्कृति को जन से जोड़ने की बात बहुत की जाती है लेकिन इसका मूर्त रूप हमें ‘लोक रंग’ में देखने को मिलता है जो पिछले तीन सालों से गौतमबुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर से करीब बीस किलोमीटर दूर जोगिया जनूबी पट्टी में आयोजित हो रहा है।

जोगिया हिन्दी कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा का गाँव है। सुभाष और आशा कुशवाहा तथा इस गाँव के नौजवानों के संयोजन में लोक रंग सांस्कृतिक समिति ने 8 व 9 मई को ‘लोक रंग - 2010’ का आयोजन किया जिसे देखने-सुनने के लिए अगल-बगल के गाँवों से बड़ी संख्या में लोग आये। इस गाँव की गलियों, दीवारों, अनाज रखने वाले बखारों और पेड़-पौधों को विभिन्न कलाकृतियों तथा मुक्तिबोध, त्रिलोचन, नागार्जुन, शमशेर, धूमिल, गोरख पाण्डेय, वीरेन डंगवाल जैसे कवियों के कविता पोस्टर से सजाया गया था। अपना गाँव साफ-सुथरा व सुन्दर दिखे, इसके लिए समिति के नौजवानों के साथ स्त्री.पुरुष सभी जुटे थे। यह जोगिया में उभरती समरसता व साथीपन की नई संस्कृति है जिसकी गँूज दूर तक सुनी जायेगी और यहाँ पहुँचे कलाकार इसे लम्बे समय तक याद रखेंगे।

इस बार के दो दिवसीय कार्यक्रम की खासियत यह रही कि क्षेत्रीय लोक कलाकारों के साथ छतीसगढ़ व बुन्देलखण्ड के लोक कलाकार व मण्डलियाँ भी आईं। अच्छी-खासी संख्या में हिन्दी, उर्दू व भोजपुरी के लेखक व बुद्धिजीवी जुटे। दो दिनों तक चले इस कार्यक्रम में लोककलाओं, लोक नृत्य, लोकगीतों व नाटकों का प्रदर्शन हुआ तथा ‘लोकगीतों की प्रासंगिकता’ विषय पर विचार गोष्ठी भी हुई। इस आयोजन के द्वारा यह विचार मजबूती से उभरा कि लोक संस्कृति की जन पक्षधर धारा को आगे बढ़ाकर ही अपसंस्कृति का मुकाबला किया जा सकता है।

‘लोक रंग - 2010’ की मुख्य अतिथि थीं बांग्ला की मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी लेकिन अचानक स्वास्थ्य खराब हो जाने की वजह से वे नहीं पहुँच पाईं। उन्होंने फैक्स से अपना संदेश भेजा जिसे पढ़ा गया और इसी से समारोह की शुरुआत हुई। नाटककार हृषीकेश सुलभ और आलोचक वीरेन्द्र यादव ने शाल ओढ़ाकर और स्मृति चिन्ह देकर भोजपुरी कवि अंजन और रामपति रसिया का सम्मान किया।
इस मौके पर हिन्दी कथाकार शिवमूर्ति ने लोक संस्कृति की पुस्तक ‘लोकरंग-2’ (संपादन-सुभाष चन्द्र कुशवाहा ) का लोकार्पण करते हुए कहा कि हमारे यहाँ लोक संस्कृति की मजबूत परम्परा रही है। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक फैले इस क्षेत्र में जनता के दुख दर्द व संघर्ष यहाँ के लोक नाटकों व लोक गीतों में अभिव्यक्त होता रहा है लेकिन आज फूहड़पन और भड़ैती से भोजपुरी की पहचान बनाई जा रही है। अश्लील भोजपुरी फिल्मों व गीतों की तो बाढ़ आ गई है। बाजार की शक्तियों ने लोकगीतों को अपने मुनाफे का साधन बना दिया है और लोक संस्कृति को नष्ट कर इसे बाजार की वस्तु में तब्दील किया जा रहा है। ऐसे समय में ‘लोक रंग’ का आयोजन अपसंस्कृति के विरुद्ध वैकल्पिक संस्कृति का आन्दोलन है।

शिवमूर्ति ने लोक संस्कृति के संदर्भ में जिस खतरे और संकट की ओर संकेत किया, इसी विचार और भावना का विस्तार संगोष्ठी में था। भले ही विचार गोष्ठी का विषय ‘लोकगीतों की प्रसंगिकता’ रहा हो लेकिन ज्यादातर बहस इसके इर्द-गिर्द ही घूमती रही। लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा की अध्यक्षता में हुई इस विचार गोष्ठी का संचालन युवा आलोचक सुधीर सुमन ने किया। संगोष्ठी को संबोधित करने वालों में दिनेश कुशवाहा, तैयब हुसैन, शिवमूर्ति, राजेश कुमार, अरुणेश नीरन, हृषीकेश सुलभ, देवेन्द्र, वीरेन्द्र यादव आदि लेखक प्रमुख थे।

वक्ताओं का कहना था कि लोकगीत ऐसा लोक काव्य रूप है जिसके माध्यम से श्रमशील जनता अपना दुख-दर्द, हर्ष-विषाद, संघर्ष अभिव्यक्त करती रही है। महिलाओं के लिए तो लोकगीत उन्हें अपनी पीड़ा का बयान करने का माध्यम रहा है। आज की तरह का उसमें स्त्री विमर्श भले न हो लेकिन उसमें उनके जीवन का विमर्श जरूर मौजूद है जो काफी मर्मस्पर्शी है।

वक्ताओं की इस बात से असहमति थी कि लोक कलारूपों की एक निश्चित उम्र होती है और समय के साथ उनकी प्रसंगिकता समाप्त हो जाती है। इसके बरक्स वक्ताओं का कहना था कि लोकगीतों की धारा विकासमान है जो समय के साथ विकसित होती है। समाज की संस्कृति पर जिस तरह शासक संस्कृति का असर मौजूद रहता है, उसी तरह लोकगीतों पर भी उसका प्रभाव रहा है। लेकिन जनजीवन और संघर्ष से जुड़ना लोकगीतों की खासियत रही है। जन संस्कृति के मजबूत तत्व इसमें मौजूद हैं जिसका विकास गोरख पाण्डेय, रमताजी, विजेन्द्र अनिल, महेश्वर आदि के गीतों में देखने को मिलता है।

कवि दिनेश कुशवाहा के संचालन में दो दिनों तक चले लोक संस्कृति के इस समारोह में रानी शाह व साथियों के द्वारा छठ गीत, रमाशंकर विद्रोही द्वारा कविता पाठ, रामऔतार कुशवाहा व उनके साथियों के द्वारा अचरी गायन, गोपालगंज ;बिहारद्ध की टीम के द्वारा फरी नृत्य, गुड़ी संस्था द्वारा छŸाीसगढ़ी लोकगीत, सियाराम प्यारी व रामरती कुशवाहा आदि के द्वारा बृजवासी गायन व नृत्य, राम आसरे व साथियों के द्वारा ईसुरी फाग गायकी, राम प्यारे भारती, उपेन्द्र चतुर्वेदी, मंगल मास्टर, अंटू तिवारी आदि के द्वारा भोजपुरी गीतों का गायन, जितई प्रसाद व उनकी टीम द्वारा हुड़का नृत्य, चिखुरी व उनकी टीम द्वारा पखावज नृत्य, असगर अली व साथियों द्वारा कौव्वाली आदि प्रस्तुत किया गया।

इस मौके पर छŸाीसगढ़ की सांस्कृतिक संस्था ‘गुड़ी’, छत्तीसगढ़ लोक कला व लोक संस्कृति के संवर्द्धन में सक्रिय है, ने ‘बाबा पाखण्डी’ का मंचन किया। इस नाटक के लेखक व निर्देशक डॉ योगेन्द्र चौबे हैं। इप्टा, पटना ने भिखारी ठाकुर के चर्चित नाटक ‘गबरघिचोरन के माई’ का मंचन किया। ‘बाबा पाखण्डी’ सामाजिक विद्रूपता व पतन को छŸाीसगढ़ी लोक नाट्य शैली में प्रस्तुत करता है। छŸाीसगढ़ी में होने के बावजूद यहाँ नाटक की संप्रेषणीयता में कोई बाधा नहीं है। ‘गबरघिचोरन के माई’ नाटक बढ़ती हुई स्वार्थपरता व अमानवीयता को सामने लाता है।

‘लोक रंग’ ने कोई तीन साल पहले पूर्वांचल में मौजूद गायन, वादन, नृत्य, साहित्य आदि के कला रूपों को भड़ैती व फूहड़पन से बचाने और जन पक्षधर संस्कृति के संवर्द्धन के उद्देश्य से अपनी यात्रा शुरू की थी। आज वह छŸाीसगढ़ व बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतियों को अपने साथ जोडने में सफल हुआ है। इस तरह ‘लोक रंग’ विविध लोक संस्कृतियों के समागम का मंच बनकर उभर रहा है। इसका स्वागत होना चाहिए। फिर भी एक चीज जो बार बार ‘लोक रंग - 2010’ में खटकती रही, वह है लोकगीतों के नाम पर छठ गीत और धार्मिक प्रभाव वाले गीत। आज ये कहीं से भी प्रसंगिक नहीं हैं। इनसे हमें मुक्त होने की जरूरत है। जन पक्षधर संस्कृति के संवर्द्धन के लिए यह जरूरी भी है।