सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

जलेस प्रलेस और जसम का संयुक्त वक्तव्य

बाबरी मस्जिद स्थल के बारे में लखनऊ बेन्च के फ़ैसले पर
जलेस, प्रलेस और जसम का साझा बयान



रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच का फ़ैसला इस देश के हर इंसाफ़पसंद नागरिक के लिए दुख और चिंता का सबब है। इस फ़ैसले में न सिर्फ तथ्यों, सबूतों और समुचित न्यायिक प्रक्रिया की उपेक्षा हुई है, बल्कि धार्मिक आस्था को अदालती मान्यता देते हुए एक ऐसी नज़ीर पेश की गयी है जो भविष्य के लिए भी बेहद ख़तरनाक है। इस बात का कोई साक्ष्य न होते हुए भी, कि विवादित स्थल को हिंदू आबादी बहुत पहले से भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मानती आयी है, फ़ैसले में हिंदुओं की आस्था को एक प्रमुख आधार बनाया गया है। अगर इस आस्था की प्राचीनता के बेबुनियाद दावों को हम स्वीकार कर भी लें, तो इस सवाल से तो नहीं बचा जा सकता कि क्या हमारी न्यायिक प्रक्रिया ऐसी आस्थाओं से संचालित होगी या संवैधानिक उसूलों से? तब फिर उस हिंदू आस्था के साथ क्या सलूक करेंगे जिसका आदिस्रोत ऋग्वेद का ‘पुरुषसूक्त’ है और जिसके अनुसार ऊंच-नीच के संबंध में बंधे अलग-अलग वर्ण ब्रह्मा के अलग-अलग अंगों से निकले हैं और इसीलिए उनकी पारम्परिक ग़ैरबराबरी जायज़ है? अदालत इस मामले में भारतीय संविधान से निर्देशित होगी या आस्थाओं से? तब स्त्री के अधिकारों-कर्तव्यों से संबंधित परम्परागत मान्यताओं के साथ न्यायपालिका क्या सलूक करेगी? हमारी अदालतें सती प्रथा को हिंदू आस्था के साथ जोड़ कर देखेंगी या संविधानप्रदत्त अधिकारों की रोशनी में उस पर फ़ैसला देंगी? कहने की ज़रूरत नहीं कि आस्था को विवादित स्थल संबंधी अपने फ़ैसले का निर्णायक आधार बना कर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने ‘मनुस्मृति’ और ‘पुरुषसूक्त’ समेत हिंदू आस्था के सभी स्रोतों को एक तरह की वैधता प्रदान की है, जिनके खि़लाफ़ संघर्ष आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना के निर्माण का एक अनिवार्य अंग रहा है और हमारे देश का संविधान उसी आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना की मूर्त अभिव्यक्ति है। इसलिए आस्था को ज़मीन की मिल्कियत तय करने का एक आधार बनाना संवैधानिक उसूलों के एकदम खि़लाफ़ है और इसमें आने वाले समय के लिए ख़तरनाक संदेश निहित हैं। ‘न्यायालय ने भी आस्था का अनुमोदन किया है’, ऐसा कहने वाले आर एस एस जैसे फासीवादी सांप्रदायिक संगठन की दूरदर्शी प्रसन्नता समझी जा सकती है!


यह भी दुखद और चिंताजनक है कि विशेष खंडपीठ ने ए।एस.आई. की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट के आधार पर मस्जिद से पहले हिंदू धर्मस्थल होने की बात को दो तिहाई बहुमत से मान्यता दी है। इस रिपोर्ट में बाबरी मस्जिद वाली जगह पर ‘स्तंभ आधारों’ के होने का दावा किया गया है, जिसे कई पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने सिरे से ख़ारिज किया है। यही नहीं, ए.एस.आई. की ही एक अन्य खुदाई रिपोर्ट में उस जगह पर सुर्खी और चूने के इस्तेमाल तथा जानवरों की हड्डियों जैसे पुरावशेषों के मिलने की बात कही गयी है, जो न सिर्फ दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का प्रमाण है, बल्कि इस बात का भी प्रमाण है कि वहां कभी किसी मंदिर का अस्तित्व नहीं था। निस्संदेह, ए.एस.आई. के ही प्रतिसाक्ष्यों की ओर से आंखें मूंद कर और एक ऐसी रिपोर्ट परं पूरा यकीन कर जिसे उस अनुशासन के चोटी के विद्वान झूठ का पुलिंदा बताते हैं, इस फ़ैसले में अपेक्षित पारदर्शिता एवं तटस्थता का परिचय नहीं दिया गया है।


हिंदू आस्था और विवादास्पद पुरातात्विक सर्वेक्षण के हवाले से यह फ़ैसला प्रकारांतर से उन दो कार्रवाइयों को वैधता भी प्रदान करता है जिनकी दो-टूक शब्दों में निंदा की जानी चाहिए थी। ये दो कार्रवाइयां हैं, 1949 में ताला तोड़ कर षड्यंत्रपूर्वक रामलला की मूर्ति का गुंबद के नीचे स्थापित किया जाना तथा 1992 में बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना। आश्चर्य नहीं कि 1992 में साम्प्रदायिक ताक़तों ने जिस तरह कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाईं और 500 साल पुरानी एक ऐतिहासिक इमारत को न सिर्फ धूल में मिला दिया, बल्कि इस देश के आम भोलेभाले नागरिकों को दंगे की आग में भी झोंक दिया, उसके ऊपर यह फ़ैसला मौन है। इस फ़ैसले का निहितार्थ यह है कि 1949 में जिस जगह पर जबरन रामलला की मूर्ति को प्रतिष्ठित किया गया, वह जायज़ तौर पर रामलला की ही ज़मीन थी और है, और 1992 में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों द्वारा संगठित एक उन्मादी भीड़ ने जिस मस्जिद को धूल में मिला दिया, उसका ढहाया जाना उस स्थल के न्यायसंगत बंटवारे के लिए ज़रूरी था! हमारे समाज के आधुनिक विकास के लिए अंधविश्वास और रूढि़वादिता बड़े रोड़े हैं जिनका उन्मूलन करने के बजाय हमारी न्यायपालिका उन्हीं अंधविश्वासों और रूढि़वादिता को बढ़ावा दे तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है!


लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक सोच में यक़ीन करने वाले हम लेखक-संस्कृतिकर्मी, विशेष खंडपीठ के इस फ़ैसले को भारत के संवैधानिक मूल्यों पर एक आघात मानते हैं। हम मानते हैं कि अल्पसंख्यकों के भीतर कमतरी और असुरक्षा की भावना को बढ़ाने वाले तथा साम्प्रदायिक ताक़तों का मनोबल ऊंचा करने वाले ऐसे फ़ैसले को, अदालत के सम्मान के नाम पर बहस के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता। इसे व्यापक एवं सार्वजनिक बहस का विषय बनाना आज जनवाद तथा धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए सबसे ज़रूरी क़दम है।


हस्ताक्षरकर्ता
मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
कमला प्रसाद, महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
मैनेजर पाण्डेय, अध्यक्ष, जन संस्कृति मंच
चंचल चौहान, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
आली जावेद, उप महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव 2010


गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित

सत्ता संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध के सिनेमा का अभियान

कौशल किशोर

आज जनजीवन और सामाजिक संघर्षों से जुड़ी ऐसी फीचर फिल्मों और वृतचित्रों का निर्माण हो रहा है जहाँ समाज की कठोर सच्चाइयाँ हैं, जनता का दुख-दर्द, हर्ष-विषाद और उसका संघर्ष व सपने हैं। ऐसी ही फिल्में प्रतिरोध के सिनेमा के सिलसिले को आगे बढ़ाती हैं और सिनेमा में प्रतिपक्ष का निर्माण करती हैं। जन संस्कृति मंच द्वारा ‘प्रतिरोध के सिनेमा’ की थीम पर 8 से 10 अक्तूबर 2010 को वाल्मीकि रंगशाला (उ0 प्र0 संगीत नाटक , गोमती नगर में आयोजित तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव इसी तरह की फिल्मों पर केन्द्रित था। सुपरिचित कलाकार और जनगायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित इस समारोह में एक दर्जन से अधिक हिन्दी और इससे इतर अन्य भाषाओं की फिल्मों के माध्यम से आम जन की पीड़ा व त्रासदी के साथ ही उनका संघर्ष और प्रतिरोध देखने को मिला। इस आयोजन की खासियत यह भी थी कि फिल्मों के प्रदर्शन के साथ ही चित्रकला, गायन और सिनेमा व संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर भी यहाँ चर्चा हुई।

समारोह का उदघाटन करते हुए हिन्दी के युवा आलोचक और जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ंने कहा कि जन संस्कृति मंच द्वारा लखनऊ, गोरखपुर, बरेली, पटना, नैनीताल सहित देश के विभिन्न स्थानों पर आयोजित किए जाने वाला फिल्म उत्सव एक तरह का घूमता आइना है जो देश, समाज और दुनिया के ऐसे लोगों और इलाकों की तस्वीर दिखाता है जिनको मास मीडिया जानबूझ कर नहीं दिखाता या अपने तरीके से दिखाता है। दरअसल देश उनका हो गया है जिनका संसाधानों व सम्पत्ति पर कब्जा है और जिन्होंने देश के बहुसंख्यक आबादी को हाशिए पर डाल दिया है। सम्पत्ति और सत्ता पर कब्जा करने वाले लोग कलाओं, अभिव्यक्तियों और रचनाशीलता को भी अपने तरह से प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। ये लोग गरीबों की चेतना के पिछड़ेपन को भी बनाए रखना चाहते हैं। इसके खिलाफ खड़ा होना सिर्फ राजनीति का ही नहीं संस्कृति का भी काम हैं। शिल्प, चित्रकला, सिनेमा सहित कला की सभी विधाओं के जरिए शोषण, दमन से पीड़ित लेकिन संघर्षशील जनता की अभिव्यक्ति करना ही आज की सबसे बड़ी जरूरत है।

उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता कर रहे जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अजय कुमार ने कहा कि कला का अर्थ है आदमी को बेहतर बनना है। इस काम में सिनेमा एक सशक्त माध्यम है। हमें फूहड़ सिनेमा के जरिए जनता के टेस्ट खराब करने तथा इसके द्वारा अपसंस्कृति व क्रूरताओं को फैलाने की जो कोशिश हो रही है, उसके खिलाफ मजबूती से खड़ा होना होगा। उद्घाटन सत्र में मशहूर चित्रकार एवं लेखक अशोक भौमिक ने फिल्म उत्सव की स्मारिका ‘प्रतिरोध का सिनेमा, सिनेमा का प्रतिपक्ष’ का लोकार्पण किया। उद्घाटन सत्र का संचालन जसम के संयोजक कौशल किशोर ने किया।

फिल्म उत्सव की शुरुआत प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक के ‘जीवन और कला: संदर्भ तेभागा आन्दोलन और सोमनाथ होड़’ पर विजुअल व्याख्यान से हुई। उन्होंने कहा कि सोमनाथ होड़ का कलाकर्म कलाकारों को जनआन्दोलनों से जोड़ने के लिए प्रेरित करता है। 1946 में भारत की अविभाजित कम्युनिष्ट पार्टी ने 23 वर्ष के युवा कला छात्र सोमनाथ होड़ को तेभागा आन्दोलन को दर्ज करने का काम साैंपा था। सोमनाथ ने किसानों के उस जबर्दस्त राजनीतिक उभार और उनकी राजनीतिक चेतना को अपने चित्रों और रेखांकनों में अभिव्यक्ति दी थी, साथ ही साथ अपने अनुभवों को भी डायरी में दर्ज किया। उनकी डायरी और रेखा चित्र एक जनपक्षधर कलाकार द्वारा दर्ज किया गया किसान आन्दोलन का अद्भुत दस्तावेज है। श्री भौमिक ने सोमनाथ होड़ के चित्रांे और रेखांकनों के पहले भारतीय चित्रकला की यात्रा का विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा कि इस दौर में आम आदमी और किसान चित्रकला से अनुपस्थित है। उसकी जगह नारी शरीर, देवी-देवता और राजा-महराजा हैं। उन्होंने अपने व्याख्यान का अंत यह कहते हुए किया कि जनपक्षधर होना ही आधुनिक होना है।


फिल्म समारोह में तुर्की व ईरान की फिल्मों से लेकर बिहार व नैनीताल के गांव पर बनी फिल्में दिखाई गई। गौतम घोष की ‘पार’, यिल्माज गुने की ‘सुरू’ ;तुर्कीद्ध, बेला नेगी की दाँये या बाँये’ तथा बेहमन गोबादी की ‘टर्टल्स कैन फलाई’ ;ईरानीद्ध दिखाई गई। करीब पचीस साल पहले बनी गौतम घोष की ‘पार’ काफी चर्चित फीचर फिल्म रही है। यह बिहार के दलितों के उत्पीड़न, शोषण व विस्थापन के साथ ही उनके संघर्ष और जिजीविषा को सामने लाती है। इस फिल्म का परिचय नाटककार राजेश कुमार ने दिया।

यिल्माज गुने की फिल्म सुरू दो कबीलों के बीच पिसती एक औरत की कहानी है। उसका पति अपने पिता से विद्रोह कर शहर में इलाज कराना चाहता है। एक संयोग के तहत उनका पूरा कुनबा अपनी भेड़ों को बेचने के लिए तुर्की की राजधानी अंकारा की या़त्रा करता है। इस यात्रा में वे बार-बार ठगे व लूटे जाते हैं। घर के विद्रोही बेटे केा अंकारा में अपनी बीवी के बेहतर इलाज की पूरी उम्मीद है। इस यात्रा में उनकी भेड़ें और पूरा परिवार ठगा जाता है और वे राजधानी की भीड़ में कहीं खो जाते हैं। यिल्माज गुने की फिल्मों पर बोलते हुए कवि और फिल्म समीक्षक अजय कुमार ने कहा कि बांग्ला कवि सुकान्त कहा करते थे कि मैं कवि से पहले कम्युनिस्ट हूँ, यह बात यिल्माज गुने पर लागू होती है। वे ऐसे फिल्मकार हैं जिन्हें सत्ता का दमन खूब झेलना पड़ा। जेल जाना पड़ा। देश से निर्वासित होना पड़ा। जेल में रहते हुए उन्होंने फिल्में बनाईं और उनका निर्देशन किया। उन्होंने मजदूर वर्ग की हिरावल भूमिका को पहचाना और अपनी जीवन दृष्टि को एक क्रंातिकारी जीवन दृष्टि में रूपान्तरित किया।

बेला नेगी की फिल्म ‘दांये या बांये’ एक ऐसे नौजवान दीपक की कहानी है जो पहाड़ के अपने छोटे से कस्बे से जाकर शहर में गुजारा करता है। शहर में अपनी प्रतिभा का कोई इस्तेमाल न पाकर गांव लौट आता है। शहर से आया होने के कारण सभी की नजरों में वह एक विशेष व्यक्ति बन जाता है लेकिन वह शहर वापस जाने के बजाय गांव में स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाने का निर्णय लेता है जिस पर गांव के लोग उसे आदर्शवादी कहकर हंसते हैं। यह फिल्म जीवन की गाढ़ी जटिलता और दुविधाओं को सामने लाती है। यह बाजारवाद की चमक से दूर जीवन के यथार्थ से रु ब रु कराती है। यह फिल्म अभी रिलिज नहीं हुई है। इस तरह लखनऊ फिल्म समारोह में इसका प्रदर्शन प्रिमियर शो की तरह था।

फिल्म समारोह में इरानी फिल्म ‘टर्टल्स कैन फलाई’ दिखाई गई। इस फिल्म पर बोलते हुए अजय कुमार ने कहा कि ईरान में दुनिया की सबसे अच्छी फिल्में बन रही हैं। इन्हे न सिर्फ विश्व स्तर पर सराहना मिल रही है बल्कि अन्य देश के फिल्मकार इससे प्रेरणा भी ले रहे हैं। वहाँ 40 के दशक में वैकल्पिक फिल्में बनने लगी थीं। इस दौरान करीब डेढ़ दर्जन से अधिक महिला फिल्मकारों ने भी फिल्में बनाईं और वे सराही गईं। अजय कुमार ने ‘टर्टल्स कैन फलाई’ के संदर्भ में कहा कि यह न केवल दिल को दहला देने वाली फिल्म है बल्कि यह अन्दर तक झकझोर देती है। युद्ध की विभीषिका पर यूँ तो कई फिल्में बनी हैं लेकिन इस फिल्म के द्वारा युद्ध विरोधी जो संदेश मिलता है, वह अनूठा है।

कबीर परियोजना के तहत फिल्मकार शबनम विरमानी ने अपने दल के साथ मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पाकिस्तान और अमेरिका की यात्रा की। इस अवधि में ऐसे कई लोक गायकों, सूफी परंपरा से जुड़े गायकों से मिलने और उनको सुनने, कबीर के अध्ययन से जुड़े देशी-विदेशी विद्वानों और विभिन्न कबीर पंथियों से मिलकर उनके विचारों को जानने-समझने का प्रयत्न किया। छह वर्ष लंबी अपनी इस यात्रा में शबनम विरमानी ने चार वृत्तचित्र बनाए जिसमें से ‘हद-अनहद’ इस श्रृंखला की पहली कड़ी है। लखनऊ फिल्म उत्सव में इसे दिखाया गया। इस फिल्म का परिचय देते हुए कवि भगवान स्वरूप कटयार ने कहा कि इसके माध्यम से कबीर के राम को खोजने का प्रयास किया गया है, जो अयोध्या के राजा राम से भिन्न है। कबीर का राम अब भी लोक चेतना में बसा हुआ है। वह केवल किताबों तक सीमित नहीं है।

डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों में बच्चों की दुनिया से लेकर ंकाश्मीर, उड़ीसा के जख्म दिखाती फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। राजेश एस जाला की ‘चिल्डेन आफ पायर’ बच्चों की उस दुनिया से रूबरू कराती है जिसे हम देखना नहीं चाहते लेकिन यह सच दुनिया के किसी न किसी हिस्से में घटित हो रहा है। संजय काक की डाक्यूमेंटरी फिल्म जश्न-ए-आजादी ने काश्मीर का सच प्रस्तुत किया, वहीं देबरंजन सारंगी की फिल्म फ्राम हिन्दू टू हिन्दुत्व उड़ीसा के कंधमाल में साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे मल्टीनेशनल और साम्प्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ को सामने लाने का काम किया। अतुल पेठे द्वारा बनाई फिल्म ‘कचरा व्यूह’ का भी प्रदर्शन हुआ जो सरकार और प्रशासन के सफाई कामगारों के प्रति दोरंगे व्यवहार का पर्दाफाश करती है।

फिल्मकार संजय जोशी ने पांच डाक्यूमेन्टरी फिल्मों के अंश दिखाते हुए ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’ पर एक प्रस्तुति दी। उन्होंने आनन्द पटवर्धन की फिल्म बम्बई हमारा शहर, अजय भारद्वाज की एक मिनट का मौन, बीजू टोप्पो व मेघनाथ की विकास बन्दूक की नाल से, हाउबम पबन कुमार की एएफएसपीए 1958 और संजय काक की बंत सिंह सिंग्स के अंश दिखाते हुए कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों के जरिए सही तौर पर प्रतिपक्ष की भूमिका निर्मित की है। उन्होंने कहा कि वर्ष 1975 के बाद आनन्द पटवर्धन की क्रांति की तरंगे से डाक्यूमेन्टरी फिल्मों में प्रतिपक्ष का एक नया अध्याय शुरू हुआ था जिसमें फिल्मस डिवीजन के एकरेखीय सरकारी सच के अलावा जमीनी सच सामने आते हैं। कई फिल्मकारों ने अपनी प्रतिबद्धता, विजन के साथ तकनीक का उपयोग करते हुए कैमरे को जन आन्दोलनों की तरफ घुमाया है और सच को सामने लाने का काम किया है।

फिल्म समारोह में संवाद सत्र के दौरान ‘वृतचित्र: प्रतिरोध के कई रंग’ विषय पर बोलते हुए लेखक व पत्रकार अजय सिंह ने कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्में राजनीतिक बयान होती हैं। यह राजनीति मुखर भी हो सकती है और छुपी हुई भी। जाहिर है कला के माध्यम से राजनीति फिल्म में प्रतिबिम्बित होती है। जब हम प्रतिरोध की सिनेमा की बात करते हैं तो उसका मतलब यह होता है कि हम मौजूदा ढंाचे के बरक्स कोई विकल्प भी पेश करना चाहते हैं। प्रतिरोध के पहले असहमति और विरोध का भी महत्व होता है और काफी पहले की बनी हुई डाक्यूमेंटरी फिल्में भी विरोध और असहमति के स्वर को आवाज देती रही हैं। उदाहरण के लिए 1970 के दशक में भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन के तहत बनी अशोक ललवानी की फिल्म ‘वे मुझे चमार कहते हैं’, एस सुखदेव की ‘पलामू के आदमखोर’, मीरा दीवान की ‘प्रेम का तोहफा’ जैसी फिल्मों को लिया जा सकता है। आज जरूरत इस बात की है कि रेडिकल दृष्टिकोण या वामपंथी नजरिए से डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाई जाए।

लखनऊ फिल्म समारोह में फिल्मों का एक सत्र बच्चो के लिए भी था। इसमें अल्बर्ट लेमूरिस्सी की फ्रेंच फिल्म ‘रेड बैलून’ तथा फीचर फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ दिखाई गई। बच्चो ने इन फिल्मों के माध्यम से खेल कूद से इतर दुनिया पर्दे पर देखी जहाँ इस दुनिया में संवेदना भी है और कई जटिल सवाल भी। उन्हें महाभारत में द्रोपदी का चीरहरण गलत लगता है वहीं युद्ध बड़े लोग लड़ते हैं और उसकी कीमत बच्चों को भुगतनी पड़ती है। आखिर क्यों ? इस सत्र का संचालन के के वत्स ने किया।

फिल्म उत्सव में फिल्मों के अलावा मालविका का गायन भी हुआ। पुस्तक व कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी, डाक्यूमेन्टरी फिल्मों का स्टाल, पोस्टर और इस्टालेशन दर्शकों के आकर्षण के केन्द्र रहे। गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के स्टाल पर दो दर्जन से अधिक डाक्यूमेंटरी फिल्मों के डीवीडी उपलब्ध थे। लेनिन पुस्तक केन्द्र और गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के पुस्तकों के स्टाल में भी लोगों ने रूचि दिखाई। कला संग्राम द्वारा हाल के बाहर ‘भेड़चाल’ के नाम से प्रस्तुत इस्टालेशन को लोगों ने खूब सराहा। बड़ी संख्या में छात्र, नौजवानों, महिलाओं व कर्मचारियों के साथ रवीन्द्र वर्मा, ‘उदभावना’ के सम्पादक अजेय कुमार, ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव, वीरेन्द्र यादव, शकील सिद्दीकी, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, धर्मेन्द्र, वीरेन्द्र सारंग, चन्द्रेश्वर, नसीम साकेती, रमेश दीक्षित, आतमजीत सिंह, प्रतुल जोशी, वन्दना मिश्र, सतीश चित्रवंशी, मनोज सिंह, अशोक चौघरी आदि लेखकों व कलाकारों की उपस्थिति और सिनेमा के साथ ही कला के विविध रूपों के प्रदर्शन ने जसम के इस फिल्म उत्सव को सांस्कृतिक मेले का रूप दिया।


एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ -226017
मो - 09807519227

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव 2010

गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को
लखनऊ फिल्म उत्सव
प्रतिरोध के सिनेमा और संवाद का तीन दिनों का आयोजन

लखनऊ, 11 अक्तूबर। जन संस्कृति मंच (जसम) ने तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव वाल्मीकि रंगशाला (उ0 प्र0 संगीत नाटक अकादमी), गोमती नगर में आयोजित किया। इस फिल्म उत्सव की मुख्य थीम थी ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ जो सुपरिचित कलाकार और जनगायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित था। तीन दिनो तक चलने वाले इस समारोह में लखनऊ के सिनेमा प्रेमी दर्शकों को करीब एक दर्जन से अधिक हिन्दी और इससे इतर अन्य भाषाओं की फिल्मों के माध्यम से आम जन की पीड़ा व त्रासदी के साथ ही उनका संघर्ष और प्रतिरोध देखने को मिला।

समारोह का उदघाटन हिन्दी के युवा आलोचक एवं जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने किया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि जन संस्कृति मंच द्वारा लखनऊ, गोरखपुर, बरेली, पटना, नैनीताल सहित देश के विभिन्न स्थानों पर आयोजित किए जाने वाला फिल्म उत्सव एक तरह का घूमता आइना है जो देश, समाज और दुनिया के ऐसे लोगों और इलाको की तस्वीर दिखाता है। दरअसल देश उनका हो गया है जिनका संसाधानों व सम्पत्ति पर कब्जा है और जिन्होंने देश के बहुसंख्यक आबादी को हाशिए पर डाल दिया है। सम्पत्ति और सत्ता पर कब्जा करने वाले लोग कलाओं, अभिव्यक्तियों और रचनाशीलता को भी अपने तरह से प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। ये लोग गरीबों की चेतना के पिछड़ेपन को भी बनाए रखना चाहते हैं। इसके खिलाफ खड़ा होना सिर्फ राजनीति का ही नहीं संस्कृति का भी काम हैं। शिल्प, चित्रकला, सिनेमा सहित कला की सभी विधाओं के जरिए शोषण, दमन से पीड़ित लेकिन संघर्षशील जनता की अभिव्यक्ति करना ही आज की सबसे बड़ी जरूरत है। उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता कर रहे जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अजय कुमार ने कहा कि कला का अर्थ है आदमी को बेहतर बनना। इस काम में सिनेमा एक सशक्त माध्यम है। हमें फूहड़ सिनेमा के जरिए जनता के टेस्ट खराब करने की साजिश के खिलाफ मजबूती से खड़ा होना होगा। उद्घाटन सत्र में मशहूर चित्रकार एवं लेखक अशोक भौमिक ने फिल्म उत्सव की स्मारिका प्रतिरोध का सिनेमा, सिनेमा का प्रतिपक्ष का लोकार्पण किया। उद्घाटन सत्र का संचालन जसम के संयोजक कौशल किशोर ने किया।

फिल्म समारोह में दर्शकों ने तुर्की व ईरान की फिल्मों से लेकर बिहार व नैनीताल के एक गांव पर बनी फिल्में देखी। गौतम घोष की ‘पार’, यिल्माज गुने की ‘सुरू’ ;तुर्कीद्ध, बेला नेगी की दाँये या बाँये’ तथा बेहमन गोबादी की ‘टर्टल्स कैन फलाई’ दिखाई गई। करीब पचीस साल पहले बनी गौतम घोष की ‘पार’ काफी चर्चित फीचर फिल्म रही है। यह बिहार के दलितों के उत्पीड़न, शोषण व विस्थापन के साथ ही उनके संघर्ष और जिजीविषा को सामने लाती है। यिल्माज गुने की फिल्म सुरू दो कबीलों के बीच पिसती एक औरत की कहानी है। उसका पति अपने पिता से विद्रोह कर शहर में इलाज कराना चाहता है। एक संयोग के तहत उनका पूरा कुनबा अपनी भेड़ों को बेचने के लिए तुर्की की राजधानी अंकारा की या़त्रा करता है। इस यात्रा में वे बार-बार ठगे जाते हैं। घर के विद्रोही बेटे केा अंकारा में अपनी बीबी के बेहतर इलाज की पूरी उम्मीद है। इस यात्रा में उनकी भेड़ें और पूरा परिवार ठगा जाता है और वे राजधानी की भीड़ में कहीं खो जाते हैं। यिल्माज गुने की फिल्मों पर बोलते हुए कवि और फिल्म समीक्षक अजय कुमार ने कहा कि इल्माज गुने ऐसे फिल्मकार हैं जिन्हें सत्ता का दमन खूब झेलना पड़ा। उन्होंने मजदूर वर्ग की हिरावल भूमिका को पहचाना और अपनी जीवन दृष्टि को एक क्रंातिकारी जीवन दृष्टि में रूपान्तरित किया।

बेला नेगी की फिल्म ‘दांये या बांये’ एक ऐसे नौजवान दीपक की कहानी है जो पहाड़ के अपने छोटे से कस्बे से जाकर शहर में गुजारा करता है। शहर में अपनी प्रतिभा का कोई इस्तेमाल न पाकर गांव लौट आता है। शहर से आया होने के कारण सभी के नजरों में वह एक विशेष व्यक्ति बन जाता है लेकिन वह शहर वापस जाने के बजाय गांव में स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाने का निर्णय लेता है जिस पर गांव के लोग उसे आदर्शवादी कहकर हंसते हैं। यह फिल्म जीवन की गाढ़ी जटिलता और दुविधाओं को सामने लाती है। यह फिल्म अथी तक रिलिज नहीं हुई है। इस तरह लखनऊ फिल्म समारोह में इसका प्रदर्शन इसका प्रिमियर शो था।

कबीर परियोजना के तहत फिल्मकार शबनम विरमानी ने अपने दल के साथ मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान,पाकिस्तान और अमेरिका की यात्रा की। इस अवधि में ऐसे कई लोक गायकों, सूफी परंपरा से जुड़े गायकों से मिलने और उनको सुनने, कबीर के अध्ययन से जुड़े देशी-विदेशी विद्वानों और विभिन्न कबीर पंथियों से मिलकर उनके विचारों को जानने-समझने का प्रयत्न किया। छह वर्ष लंबी अपनी इस यात्रा में शबनम विरमानी ने चार वृत्तचित्र बनाए जिसमें से हद-अनहद इस श्रृंखला की पहली कड़ी है। लखनऊ में इसे दिखया गया। इस फिल्म के माध्यम से कबीर के राम को खोजने का प्रयास किया गया है, जो अयोध्या के राजा राम से भिन्न है। डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों में बच्चों की दुनिया से लेकर ंकाश्मीर, उड़ीसा के जख्म दिखती फिल्मों का प्रदशन हुआ। राजेश एस जाला की चिल्डेन आफ पायर बच्चों की उस दुनिया से रूबरू कराती है जिसे हम देखना नहीं चाहते लेकिन यह सच दुनिया के किसी न किसी हिस्से में घटित हो रहा है। संजय काक की डाक्यूमेंटरी फिल्म जश्न-ए-आजादी ने काश्मीर का सच प्रस्तुत किया, वहीं देबरंजन सारंगी की फिल्म फ्राम हिन्दू टू हिन्दुत्व उड़ीसा के कंधमाल में साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे मल्टीनेशनल और साम्प्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ को सामने लाने का काम किया। अतुल पेठे द्वारा बनाई फिल्म ‘कचरा व्यूह’ का भी प्रदर्शन हुआ जो सरकार और प्रशासन के सफाई कामगारों के प्रति दोरंगे व्यवहार का भी पर्दाफाश करती है।

फिल्मकार संजय जोशी ने पांच डाक्यूमेन्टरी फिल्मों के अंश दिखाते हुए ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’ पर एक प्रस्तुति दी। उन्होंने आनन्द पटवर्धन की फिल्म बम्बई हमारा शहर, अजय भारद्वाज की एक मिनट का मौन, बीजू टोप्पो व मेघनाथ की विकास बन्दूक की नाल से, हाउबम पबन कुमार की एएफएसपीए 1958 और संजय काक की बंत सिंह सिंग्स के अंश दिखाते हुए कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों के जरिए सही तौर पर प्रतिपक्ष की भूमिका निर्मित की है। उन्होंने कहा कि वर्ष 1975 के बाद आनन्द पटवर्धन की क्रांति की तरंगे से डाक्यूमेन्टरी फिल्मों में प्रतिपक्ष का एक नया अध्याय शुरू हुआ था जिसमें फिल्मस डिवीजन के एकरेखीय सरकारी सच के अलावा जमीनी सच सामने आते हैं। कई फिल्मकारों ने अपनी प्रतिबद्धता, विजन के साथ तकनीक का उपयोग करते हुए कैमरे को जनआन्दोलनों की तरफ घुमाया है और सच को सामने लाने का काम किया है।

फिल्म समारोह में संवाद सत्र के दौरान वृतचित्र: प्रतिरोध के कई रंग विषय पर बोलते हुए लेखक व पत्रकार अजय सिंह ने कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्में राजनीतिक बयान होती हैं। यह राजनीति मुखर भी हो सकती है और छुपी हुई भी। जाहिर है कला के माध्यम से राजनीति फिल्म में प्रतिविम्बित होती है। जब हम प्रतिरोध की सिनेमा की बात करते हैं तो उसका मतलब यह होता है कि हम मौजूदा ढंाचे के बरक्स कोई विकल्प भी पेश करना चाहते हैं। प्रतिरोध के पहले असहमति और विरोध का भी महत्व होता है और काफी पहले की बनी हुई डाक्यूमेंटरी फिल्में भी विरोध और असहमति के स्वर को आवाज देती रही हैं। उदाहरण के लिए 1970 के दशक में भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन के तहत बनी अशोक ललवानी की फिल्म वे मुझे चमार कहते हैं, एस सुखदेव की पलामू के आदमखोर, मीरा दीवान की प्रेम का तोहफा जैसी फिल्मों को लिया जा सकता है। आज जरूरत इस बात की है कि रेडिकल दृष्टिकोण या वामपंथी नजरिए से डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाई जाए। संवाद सत्र में अपने विचार रखने वालों में अनिल सिन्हा, राजेश कुमार, भगवान स्वरूप कटियार, के के वत्स, मनोज सिंह आदि प्रमुख थे।

फिल्मों के साथ ही इस समारोह में प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने ‘जीवन और कला: संदर्भ तेभागा आन्दोलन और सोमनाथ होड़’ पर विजुअल व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि सोमनाथ होड़ का कलाकर्म कलाकारों को जनआन्दोलनों से जोड़ने के लिए प्रेरित करता है। 1946 में भारत के अविभाजित कम्युनिष्ट पार्टी ने 23 वर्ष के युवा कला छात्र सोमनाथ होड़ को तेभागा आन्दोलन को दर्ज करने का काम सौपा था। सोमनाथ ने किसानों के उस जबर्दस्त राजनीतिक उभार और उनकी राजनीतिक चेतना को अपने चित्रों और रेखांकनों में अभिव्यक्ति दी ही साथ ही साथ अपने अनुभवों को भी डायरी में दर्ज किया। उनकी डायरी और रेखा चित्र एक जनपक्षधर कलाकार द्वारा दर्ज किया गया किसान आन्दोलन का अद्भुत दस्तावेज है। श्री भौमिक ने सोमनाथ होड़ के चित्रांे और रेखांकनों के पहले भारतीय चित्रकला की यात्रा का विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा कि इस दौर में आम आदमी और किसान चित्रकला से अनुपस्थित है। उसकी जगह नारी शरीर, देवी-देवता और राजा-महराजा हैं। उन्होंने अपने व्याख्यान का अंत यह कहते हुए कहा कि जनपक्षधर होना ही आधुनिक होना है।

फिल्म उत्सव में फिल्मों की स्क्रीनिंग के अलावा मालविका का गायन भी हुआ। पुस्तक व कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी, डाक्यूमेन्टरी फिल्मों का स्टाल, पोस्टर और इस्टालेशन दर्शकों के आकर्षण का केन्द्र रहे। गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के स्टाल पर दो दर्जन से अधिक डाक्यूमेंटरी फिल्मों के डीवीडी उपलब्ध थे जिसके बारे में दर्शकों ने जानकारी ली और उसे खरीदा। लेनिन पुस्तक केन्द्र और गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के पुस्तकों के स्टाल में भी लोगों ने रूचि दिखाई। कला संग्राम द्वारा हाल के बाहर भेड़चाल के नाम से प्रस्तुत इस्टालेशन को लोगों ने खूब सराहा। बड़ी संख्या में दर्शको की भागीदारी और सिनेमा के साथ ही कला के विविध रूपों के प्रदर्शन ने जसम के इस फिल्म उत्सव को सांस्कृतिक मेले का रूप दिया।
कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच, लखनऊ