मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

निरंकुश राजसत्ताओं ने फिर दण्डित किया कलाकारों कों

शायर अकाल शातिर और इरानी फिल्मकार जाफर पनाही का साथ दें

निरंकुश राजसत्ताएं सदैव से ही विरोध के प्रति असहिष्णु रही हैं ।अगर ये सत्ताएँ धर्मं पर आधारित हों तो कहना ही क्या ? हाल की दो अत्यंत निंदनीय घटनाओं ने इस बात को ओर भी पुष्ट किया हे. एक का सम्बन्ध भारत के गुजरात राज्य से है , तो दूसरे का समबन्ध इरान के इस्लामिक राज से. गुजरात तो भारत के सेक्युलर राज्य के भीतर एक राज्य है, लेकिन नरेन्द्र मोदी उसे हिंदुत्व की विचारधारा के तहत संचालित करते हैं. हाल ही में शायर अकाल शातिर को इस निजाम का तब शिकार होना पडा जब उनकी शायरी की किताब 'अभी ज़िंदा हूँ मैं ' में प्रकाशित एक आलोचक की टिप्पणी से नाराज़ होकर गुजरात उर्दू साहित्य अकादमी ने किताब के प्रकाशन के लिए दी गयी १००००/- की सहायता राशि वापस करने के लिए शायर को नोटिस थमाई है . यह टिप्पणी रौनक अफरोज ने लिखी है जिसमें मोदी की भर्त्सना की गयी है. टिप्पणी के जिस अंश पर अकादमी ने एतराज़ जताते हुए अपनी पुस्तक प्रकाशन योजना के लिए सहायता देने के नियमों के खिलाफ बताया है, वह इस प्रकार हे-" नरेन्द्र मोदी के इक्तेदार में आते ही उसने इस रियासत से उर्दू का सफाया ही करा दिया. मोदी ने सिर्फ इतने पर ही इक्तेफा नहीं किया, बल्कि २००२ में एक सोचे समझे मंसूबे के तहत पूरे गुजरात में फिरकावारान फसादात और हैवानियत का वो नंगा खेल खेला कि पूरी इंसानियत ही शर्मसार हो कर रह गयी. हर तरफ लूट मार, क़त्ल-ओ-गारतगीरी , इस्मतदारी,आतिज़नी और अक़लियाती नस्लकुशी जैसी संगीन वारदात करवाकर उसने पूरे मुल्क में खौफ -ओ-हिरास पैदा कर दिया था." भिवंडी के नक्काद अफ़रोज़ की टिप्पणी इस किताब के पृष्ठ संख्या १४ पर छपी है. इस प्रकरण से यह भी साफ़ होता जा रहा है कि साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं की बहुप्रचारित स्वायत्तता ऐसे राज्यों में कितनी खोखाली है. अफारोज़ का वक्तव्य वैसा ही है जैसा मोदी के शासन में राज्य -प्रायोजित अल्पसंख्यकों के जनसंहार को लेकर किसी भी सोचने समझाने वाले इंसान का हो सकता है. इस तरह के वक्तव्य तमाम मानवाधिकार रिपोर्टों में मोदी के शासन को लेकर सहज ही देखे जा सकते हैं. बहरहाल शातिर ने अफारोज़ की टिप्पणी को शामिल कर हिम्मत का काम किया है . हमें उनकी हौसला अफजाई करने के साथ-साथ उनके संघर्ष में हर चंद मदद करनी चाहिए. गुजरात उर्दू साहित्य अकादमी को उन्हें दी गयी नोटिस को वापस लेना चाहिए . उसकी इस हरकत से अभिव्यक्ति की आज़ादी तो एक और धक्का लगा है जिसकी जितनी निंदा की जाए कम है

दूसरी घटना और भी ज्यादा भयानक है। मशहूर इरानी फिल्मकार जफर पनाही को इरान के निरंकुश इस्लामी शासन ने ६ साल की कैद और २० साल तक फिल्में बनाने या निर्देशित करने, स्क्रिप्ट लिखने, विदेशा यात्रा करने और मीडिया में इंटरव्यू देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। उनपर आरोप है कि वे शासन के खिलाफ प्रचार अभियान चला रहे थे। पनाही इससे पहले जुलाई २००९ में गिरफ्तार किए गए थे जब वे राष्ट्रपति पद के लिए हुए विवादास्पद चुनाव में मारे गए आन्दोलनकारियों के शोक में शामिल हुए थे। छूटने के बाद उनपर विदेश जाने पर प्रतिबन्ध तभी से लगा हुआ है। फरवरी २०१० में वे फिर अपने परिवार और सहकर्मियों के साथ गिरफ्तार किए गए। वे इरान में लगातार विपक्ष की आवाज़ बने हुए हैं. महान अब्बास किअरोस्तामी के साथ अपने फ़िल्मी सफर की शुरुआत करने वाले पनाही को अपनी पहली ही फीचर फिल्म 'वाईट बैलून ' के लिए १९९५ के कैन्स फिल्म समारोह में पुरस्कृत किया गया. उनके नाटक 'द सर्किल ' के लिए सन २००० में वेनिस का 'गोल्डन लिओन' पुरस्कार मिला. उनकी मशहूर फिल्मों में 'वाईट बैलून' के अलावा 'द मिरर', 'क्रिमसन गोल्ड' तथा 'ऑफ साइड' जैसी फिल्में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म दुनिया की अमूल्य निधियां हैं. जाफर पनाही जैसे महान फिल्मकार को इरान की निरंकुश धर्मसता द्वारा प्रताड़ित किए जाने की हम निंदा करते हैं और सभी कलाकारों , संस्कृतिकर्मियों से आग्रह करते हैं कि वे भारत में इरानी एम्बेसी की मार्फ़त इस तानाशाहीपूर्ण कदम का पुरजोर विरोध इरानी शासकों को अवश्य दर्ज कराएं .प्रणय क्रष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच

प्रणय कृष्ण
महासचिव
जन संस्कृति मंच

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